धर्म और अध्यात्म का उद्देश्य

आज का एक मुख्य प्रश्न जो मेरे पास आया है वो ये है कि आखिर भारत मेँ जो ऋषि प्रदत्त जो ये परंपरा है, कौलान्तक पीठ है या अन्य आध्यात्मिक परंपराएँ है, योग है, तंत्र है, भक्ति है अनेकोँ इसके छोटे-छोटे प्रकल्प है । तो ये धर्म या अध्यात्म आखिर हमेँ सीखाना क्या चाहता है ? अखिर हमेँ देना क्या चाहता है ? इससे आखिर हो क्या जाएगा ? क्या केवल ईश्वर की प्राप्ति के लिए ही अध्यात्म और धर्म होता है ? तो चलिए आपके इसी प्रश्न का उत्तर छोटे-छोटे टूकडोँ के रुप मेँ हम देना शुरु करते है । सर्वप्रथम आपको अपने मन से ये बात निकालनी होगी कि ये जो पूरा धर्म है, ये जो पूरा अध्यात्म है इसका लेना-देना केवल ईश्वर से है । याद रखिए जब भी हम किसी गुरु के पास जाते है या जब भी हम किसी गुरुकुल मेँ जाते है तो वहाँ हमारा प्रमुख उद्देश केवल ज्ञान ग्रहण करना होता है और ज्ञान ग्रहण हम क्योँ करना चाहते है ? और ज्ञान ग्रहण करने से क्या होगा ? तो उसका सीधा सा तर्क है कि हम ज्ञान अपने विकास के लिए ग्रहण करते है । ज्ञान क्या है ? Knowledge. Knowledge से क्या होगा ? हम मजबूत होते है और हम आगे बढ पाते है इसलिए चाहे आप किसी भी गुरु के पास जाएँ जो सनातन धर्म से जुडा है, हिन्दु धर्म से जुडा है उसकी प्राथमिकता भगवान, ब्रह्म, ईश्वर या ये चमत्कार ये सब तो बहुत बाद की बातेँ है लेकिन सबसे पहेली उसकी जो प्रमुख विषय सामग्री रहती है वो केवल ज्ञान रहता है । तो जितना भी धर्म है या अध्यात्म है उसकी पहली तलाश केवल आत्मविकास और केवल अपना विकास करना है, अवचेतना का विकास करना है । याद रखिए. चाहे आप योगमार्गी होँ या भक्तिमार्गी या फिर किसी भी परंपरा मेँ रहनेवाले या तंत्रमार्गी ही क्योँ न होँ सबसे पहले आपको अपना विकास करना होता है । उदाहरण देता हुँ ताकि आपको समझने मेँ जरा आसानी हो जाए...योग के माध्यम से आपको समझाते है । देखिए कैसे एक योगी मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा और फिर सहस्त्रार कमलदल तक जाता है । आखिर वो अपने सहस्त्रार कमलदल यानि मस्तिष्क के साथ क्या करना चाहता है ? तंत्र भी इसी प्रणालि मेँ जुटा रहता है । एक बन्द कमल के पुष्प के तरह उसे बताया जाता है जिसमेँ हजार कमल के पत्ते है, तो उन बन्द पत्तोँ को खोलना है ताकि ये पुष्प खिल जाए, सहस्त्रार कमलदल को चैतन्य करना है ताकि आपका संपूर्ण मस्तिष्क क्रियान्वित हो जाएँ । तो जब भी आप योग करते है तो उसमेँ कहीँ भी भगवान या परमात्मा या ईश्वर इन सब का कोई नामोनिशान आता नहीँ है तो क्या उसका प्रमुख तत्त्व है ? वो है अपना विकास करना । तो योगी अपने मस्तिष्क के नाडीतन्त्र को खोलना चाहता है ताकि वो ज्ञान प्राप्त कर सके । तो अध्यात्म की आप किसी भी विधा मेँ जाएँ सबसे पहले आपको छोटी-छोटी चीजेँ ही सीखाई जाती है जिसका सीधा संबंध आपके ज्ञान से है और आपको ये जानकर हैरानी होगी कि सारी पृथ्वी पर भ्रमण करने को कहा जाता है, देशाटन करने को कहा जाता है; आप मुझे देखिये आज भी मैँ भ्रमण पर रहता हुँ, आज भी मैँ एकांत सेवन करने के लिए निकल जाता हुँ, आज भी मैँ ऐसे-ऐसे स्थानोँ पर जाता हुँ जहाँ लोग मुझे ना पहचानेँ, ना जानेँ । क्योँ ? ताकि मैँ प्रकृतिविहार का आनंद ले सकुँ, देश-काल-परिस्थिति का आनंद ले सकुँ और वहाँ से ज्ञान प्राप्त होता रहता है । प्रकृति भी हमारी गुरु है, शास्त्र भी हमारे गुरु है । तो सभी तत्त्वोँ से हम मिलझुलकर के ज्ञान प्राप्त करते रहते है, जबकि आम तौर पर इस संसार के सभी लोगोँ को ये लगता है कि यदि हम धर्म मेँ जा रहे है तो उसका केवल एक अर्थ है कि हम सब कुछ छोड-छाड कर बाबा बन जायेंगे या फिर ये लगता है कि शायद हम ईश्वर की प्राप्ति के लिए आत्मिक शान्ति के लिए ये सब कर रहे है । आत्मिक शान्ति भी बहुत बाद की दुसरी स्थिति है, प्रथम तो केवल ज्ञानप्राप्ति ही मार्ग रहता है इसलिए अध्यात्म आपको एक अलग तरीके से ज्ञान देता है । देखिये ज्ञान तो आपको स्कूलोँ मेँ भी दिया जा रहा है, Colleges मेँ भी दिया जा रहा है, अलग-अलग स्थानोँ पर भी दिया जा रहा है लेकिन उस ज्ञान और आध्यात्मिक ज्ञान मेँ बहुत गहरा अंतर होता है । अध्यात्म आपको एक नयी दृष्टि देता है जिससे आप एक अलग दृष्टिकोण से संपूर्ण सृष्टि को संपूर्ण चराचर को देख सकते है, सारी चीजेँ आपके लिए बदलने लग जाएगी; अगर मैँ इसे आपको विस्तार से समझाना चाहुँ तो मैँ ऐसे समझा सकता हुँ कि अगर हमारे पास सात रंग है और हम सात रंगो के चश्मेँ बना लेँ और हम एक-एक महिना एक-एक रंग का चश्मा पहने तो हमेँ वही जगह...मान लीजिए आप इसी झील के किनारे एक महिने तक हरे रंग का चश्मा पहनकर घुमिए, तो क्या होगा ? एक महिने बाद यहाँ की सारी चीजेँ वैसी ही दिखने लगेंगी, फिर आप अपने साथ प्रयोग कीजिए फिर चश्मे का रंग लाल कर दीजिए फिर एक महिने तक उसे ही पहने रखिए तो देखिये यहाँ की वही प्रकृति, यहाँ का वही सारा विषय फिर बदल जाएगा ।
तो अलग-अलग तरह के चश्मे पहनने से आपकी नजर, आपकी सोच, आपकी अनुभूति बदल जाती है, ठीक वैसे ही क्योँकि दुनियादारी की अनुभूति और चश्मा तो हमारे पास है ही, उस दृष्टिकोण से तो हम इस दुनिया को देख रहे है, जान रहे है, पहचान रहे है लेकिन उससे अलग अध्यात्म की अपनी एक नजर है; हम उस नजर को धारण करके उसके माध्यम से इस संसार को देखेँ तो ज्ञान का वही तरीका बदल जाता है; जैसे कि हम अगर यहाँ से इस जल को ले लेँ और उसको एक छोटी सी स्लाईड के नीचे रखकर माईक्रोस्कोप से देखेँ तो यही पानी हमेँ कुछ ओर नजर आ सकता है । तो अध्यात्म वही सूक्ष्म बुद्धि होती है । अध्यात्म और धर्म आपको इस संसार को समझने का एक अलग तरीका देता है । हाँ ये सच है कि उसमेँ कुछ बहुत सारी बातेँ Philosophical भी है और बहुत सारी बातेँ ऐसी है जिनको आपको अपने साथ as an experiment एक प्रयोगकर्ता की तरह अपने उपर प्रयोग की भाँति उनको स्वीकार करना पडता है । बहुत सारी चीजोँ मेँ आपको कहा जाता है अध्यात्म मेँ, "कुतर्क मत करो, जैसा गुरु कह रहे है वैसा ही करो ।" अखिर क्योँ ? क्योँकि अगर आप इस बात को सही प्रकार से मानते है कि गुरु आपके साथ कोई प्रयोग करना चाहते है और आप अपने गुरु को ये प्रयोग करने का अवसर देते है तो आपको जानकर हैरानी होगी कि वो प्रयोग एक विशेष तरह का प्रभाव उत्पन्न करते है जिससे आपकी understanding, आपकी समझ, आपके विवेक, आपके ज्ञान मेँ एक अलग तरह का परिवर्तन आता है और जब ये परिवर्तन धीरे-धीरे आपके पास अनुभव के धरातल पर एकत्रित होते चले जाते है तब आप एक नये ही पुरुष के रुप मेँ उत्पन्न होते है । याद रखिये, यदि आप पूरे धर्म को गौर से देखेंगे...उसमेँ मन्त्र है; जोर-जोर से मन्त्र पढे जाते है, गाये भी जाते है, नृत्य भी किया जाता है, चिल्लाया भी जाता है, तरह-तरह के वाद्ययंत्रोँ को बजाया भी जाता है; यंत्र, यंत्रावलियोँ का, चित्रावलियोँ का निर्माण किया जाता है ये सब चीजेँ कहीँ न कहीँ आपके ज्ञान का अभिवर्धन करती है, वृद्धि करती है, आपका विकास करती है, आपको चेतना की ओर आगे बढा कर लेकर जाती है; इन सब चीजोँ के मध्य मेँ छोटे-छोटे वो ट्रिगर्स छिपे हुए है जो आ के डेवलपमेन्ट के लिए, आपके विकास के लिए बेहद जरुरी है इसलिए केवल ये न समझिए कि गंगाजल का सेवन कर लेना या केवल आरती उतार लेना या केवल दिया जला लेना ही धर्म होता है । आप और हम धर्म को ऐसा समझते है कि कुछ पुष्प ले लिए, नदी के पानी मेँ प्रवाहित कर लिए, नदी के पानी मेँ उन्हेँ बहा लिया तो धर्म हो गया जबकि ऐसा बिलकुल भी नहीँ है । तो पूरे का पूरा अध्यात्म अपने आप मेँ एक अद्भुत प्रयोगशाला है जहाँ आपके साथ हर कोने मेँ, हर तल पर आपके साथ प्रयोग होगा और आपको उस प्रयोग मेँ अपने आपको उतारना ही होगा । आपने बहुत सारे ऐसे लोग देखे होंगे जो धर्म-अध्यात्म की निन्दा करते रहते है; कहते है हमने इतने सालोँ से किसी गुरु के पीछे है; धर्म, कर्म, अध्यात्म को मानते है लेकिन फिर भी हम कुछ विशेष प्राप्त नहीँ कर पा रहे...आखिर ऐसा क्योँ होता है ? कभी आपने सोचा ? उसका कारण ये है कि अगर कोई मुझे प्रयोग करने को कहे और मैँ अपने आप को पूर्ण समर्पित होकर प्रयोग मेँ ना उतारुँ तो मुझे कुछ हाँसिल नहीँ होगा; जैसे मान लीजिए ये देखिये ये नदी की धारा नीचे को बह रही है अब यदि मुझे तैरना सीखना है और मेरे गुरु मुझे कहते है कि, "तुम इस नौका से नीचे उतरकर इस धारा मेँ विपरित उपर की ओर तैरने की कोशिश करो ।" मैँ काफी जोर लगाकर तैरने की कोशिस करुँगा लेकिन मैँ उपर की ओर नहीँ जा पाउँगा । क्योँ ? क्योँकि धारा विपरित है लेकिन जब मैँ निरंतर-निरंतर कोशिश करता रहुंगा तो मुझे पीडा भी होगी, कष्ट भी होगा और तब जाकर मैँ कहीँ उपर की ओर शायद जा पाऊँ । तो आपने समझा ? इसीलिए बहुत सारे लोग जो धर्म-अध्यात्म मेँ रहते है, समझने की कोशिश करते है लेकिन जरा सी पीडा हुई नहीँ, जरा सा दु:ख आया नहीँ, जरा सी कोई बात समझ मेँ आई नहीँ वो तुरंत धर्म-अध्यात्म की आलोचना शुरु देते है, यही कारण है कि आज भी हिन्दू धर्म मेँ, सनातन धर्म या इतना उत्कृष्टतम सबसे विश्व का व्यापक धर्म इसमेँ भी बहुत सारे लोग आपको इसी धर्म के ही इसके आलोचक मिल जायेंगे; ये वो कायर लोग है, वो डरपोक लोग है, वो छछुंदर किस्म की वृत्ति के लोग है जिनके मन मेँ भय है, जो कायर है, जो प्रयोगोँ से घबराते है, जिनसे प्रयोग हो नहीँ पाते, जो निरंतर कोई न कोई बहाना ढुंढते रहते है । क्योँ ? क्योँकि जो कर्मठ होगा वो तो तैरेगा, जो कर्मठ नहीँ होगा वो कहेगा, "मेरे बाजु मेँ दर्द हो रही है, मैँ थक गया हुँ, मुझे विश्राम करने दो ।" समझ मेँ आया ? तो यही पद्धति है इसलिए आप धर्म-अध्यात्म को यदि समझना चाहते है तो आप सबसे पहली बात, ये मेरा पहला सूत्र मस्तिष्क मेँ बिठा लीजिए कि धर्म या अध्यात्म वो केवल विकास के लिए ही शुरु होता है । अभी यदि आप कोई भी गुरु चुनेँ जो वास्तव मेँ उस परंपरा से जुडा है तो आप ये देखेंगे कि वो गुरु कभी भी आपको वर्षोँ तक शायद किसी कर्मकाण्ड, पूजा-पाठ, मन्त्र-तन्त्र या किसी साधना मेँ उलझाएगा नहीँ; पहले कहेगा आओ सेवा करते है और जो बारीक गुरु होते है वो तो आपको ऐसे कामोँ मेँ पहले लगाते है कि आपको हैरानी होगी कि 'झाडू लगाइए', 'खाना बनाकर दिखाइए', 'सेवा कीजिए', "सेवा" एक बडा विचित्र शब्द है भारत मेँ जिसका प्रयोग गुरुलोग एक हथियार की तरह करते है; कभी कहेंगे, "चलो मेरे पाँव मेँ की मालिश करके दिखाओ !" कभी कहेंगे, "मेरे सर पे तेल लगाओ !" कभी कहेंगे, "मुझे नहलवा दो !" ऐसा नहीँ है कि उस गुरु को बहुत शौक है कि वो आप से पाँव मेँ तेल मालिश करवा लेँ या अपने सिर पे तेल लगवाले; आजकल जगह-जगह ये फेसिलिटिझ कुछ पैसोँ मेँ मिल जाती है तो शिष्योँ से करवाने का सवाल पैदा होता नहीँ लेकिन फिर भी करवाते है । क्योँ ? क्योँकि उसके पीछे उस व्यक्ति के हुनर को तराशना है, देखना है कि इसकी understanding का लेवल इसकी सोच या समझ वो कितनी गहरी है...यही कारण है कि वो आपको बडे-बडे यन्त्र और मण्डल बनाने मेँ लगाए रखते है...घण्टोँ, 'इस यन्त्र को बनाइए, इस मण्डल को बना दीजिए ।' आप थक जाओगे इतने विशालकाय यन्त्र बनाते-बनाते, वहाँ पर आप सीधी रेखाएँ खीँच पाते है या नहीँ; ऐसी छोटी-छोटी बातेँ !....पूजा-पाठ मेँ हम फल क्योँ चढाते है ? धूप-दीप क्योँ जलाते है ? पूजा-पाठ मेँ हम यज्ञ-हवन-तर्पण-मार्जन क्योँ करते है ? ये वो छोटी-छोटी बातेँ है जिनसे मिलकर के धर्म-अध्यात्म बनता है लेकिन ये सारी चीजेँ (मैने आपको पहले भी बताया है) छोटे-छोटे ट्रिगर्स है आपके मस्तिष्क के लिए । गुरु वो व्यक्ति है जो इन सभी ट्रिगर्स का सही समय पर सही इस्तेमाल करना जानता है, इस से आपके भीतर ज्ञान का एक ऐसा लेवल बन जायेगा कि उस लेवल पर आने के बाद...तब जाकर आप इस दुनिया के उन गूढ प्रश्नोँ के बारे मेँ सोच सकते हो कि, मैँ कौन हुँ ? आत्मा क्या है ? परमात्मा क्या है ? जीवन क्या है ? मृत्यु क्या है ? ये सारी चीजेँ लेकिन सोचिए जो आदमी भूख से तडप रहा हो उसको दो महिने से रोटी ही नहीँ मिली हो, बिलकुल मरने के कगार पे हो उसके लिए भगवान आवश्यक है या दो वक्त की रोटी ? एक व्यक्ति के लिए मन्दिर आवश्यक है या वो अस्पताल जिस समय वो बीमार है । सोचिए एक व्यक्ति के लिए मेरे जैसा कोई धर्मगुरु ज्यादा महत्त्वपूर्ण है या एक डॉक्टर अगर वो बीमार है । हरेक चीज की अपने-अपने स्थान पर उपयोगिता और महत्त्व है । याद रखिये ये अध्यात्म, ये धर्म आपने और हमने अपनाया जरुर है लेकिन हमने उसे समझा नहीँ इसलिए मैँ बडे विस्तार से आपको इस प्रश्न का उत्तर देना नहीँ चाहता क्योँकि यहाँ मैँ नौकाविहार का आनंद लेने आया हुँ और यहाँ अपनी साधना और तपस्या के लिए आया हुँ तो जो समय मेरे पास है उसमेँ मैँ केवल आपको इतना सूक्ष्म तौर से बताना चाहता हुँ कि धर्म या अध्यात्म उसका लेनादेना परमात्मा से बहुत बाद मेँ है; पहला उसका लेनादेना सिर्फ मेरे साथ...इसलिए योग है...पहले शरीर को स्वस्थ करेगा...बाहर से, फिर अंदर से भी नेति-धौति-वमन-बस्ति जैसी क्रियाओँ से, फिर तन्त्र है...संगीत से, तरह-तरह के मन्त्रोँ से, ध्वनियोँ से, तरह-तरह की क्रियाओँ से अपने आपको शुद्ध करने की हम कोशिश करते है, झाडफुँक भी उसी का एक हिस्सा है, ये आचमन-तर्पण ये भी उसी का एक जरिया है, याद रखिये हम त्राटक करते है, हम ध्यान करते है । क्योँ ? सब अपने आप को तराशने की प्रणालियाँ है । तो आपको संक्षेप मेँ मैने उत्तर दिया है कि धर्म और अध्यात्म का केवल एक ही अर्थ है वो है : आत्मविकास करना । आशा है कि इतने छोटे से उदाहरणोँ और तर्कोँ से आपको ये सब समझ मेँ आ गया होगा । कभी भविष्य मेँ मैँ विस्तार से आपके प्रश्नोँ का उत्तर दुँगा लेकिन आज मैँ इस क्षेत्र से केवल इतना ही आपको कह पाउँगा । याद रखिये कि आपका प्रयास रहना चाहिए ज्ञान प्राप्त करने का । अब मैँ नौकाविहार का आनंद लेता हुँ । आपके प्रश्न का दोबारा उत्तर दुँगा । आप अपना ख्याल रखिये । मेरा प्रेम स्वीकार कीजिए और मेरे पीछे देखिये ये मेघालय का क्षेत्र और ये मेरे उपर एक सुंदर सा पुल भी जा रहा है एक सडक का, यहाँ से जुडते हुए आप उसे देख सकते है और फिर मेरे पीछे साथ मेँ पहाड, सुंदर पर्वत मेरे पीछे है और आकाश मेँ बादल है मेरे पीछे । बहुत सुंदर वातावरण है और मुझे तो मैने आपको बताया कि मेघालय बहुत पसंद है क्योँकि साधना करने के लिए, तपस्या करने के लिए बहुत सुंदर जगह है लेकिन फिर वही दु:ख रहता है कि यहाँ मन्दिरोँ की संख्या ना के बराबर है ।
यहाँ केवल पिछले 100-200 सालोँ से क्रिश्च्यनोँ नेँ पूरी तरह से यहाँ के स्थानीय लोगोँ को भी परिवर्तित कर रखा है इस कारण यहाँ का जो मुख्य धर्म है वो अब क्रिश्च्यनिटी हो गया है लेकिन फिर भी प्राचीन धर्म और प्राचीन अध्यात्म मुझे आशा है जो यहाँ की पूर्व मेँ प्रचलित परंपराएँ थी लोग उनको खोज पायेंगे, उनको ढुंढ पायेंगे । मैँ फिर लौटुँगा । मेरा प्यार स्वीकार कीजिए ! अपना ध्यान रखिये । लौटकर जल्द आउँगा । ॐ नमः शिवाय ! प्रणाम ! - #ईशपुत्र