"हिमालय" के एक अत्यंत रहस्यमय देवता हैं "वनशीरा" जिनको "परम योद्धा" कहा गया है। इनकी साधना के इतने अधिक लाभ कहे गए हैं की साधक गिनते-गिनते थक जाए। वनों में और हिमालयों में इनका जन्म हुआ और विश्व भर को अपनी शक्तियों से इन्होंने समृद्ध किया। ये "वीर" यानि की "यक्ष श्रेणी" के देवता है। "परम क्षेत्रपालों" में से एक हैं। हिमाचल प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में इनको "रातोपहरी" अथवा "रात्रिप्रहरी" भी कहा जाता है। जिसका अर्थ है "रात को रक्षा करने वाला। ये दिन हो या रात, देश हो या विदेश, आकाश हो या जल, रेगिस्तान हो या जमीन हर ओर भक्त की रक्षा करते हैं। जबकि "कौलान्तक सम्प्रदाय" ये मानता है की तंत्रक्रम की सभी साधनाओं को संपन्न करने के लिए एक ऐसे रक्षक देवता की आवश्यकता होती है जो अभेद्य कवच प्रदान करे। जो "वंशीरा" देते है। भारत की प्राचीनतम युद्ध विद्या के जनक है वंशीरा। जिन्होंने स्वयम "देवाधिदेव भगवन शिव" से "युद्ध विद्या" सहित कुछ "गोपनीय तंत्रों" को प्राप्त किया है। इनकी साधना बेहद अचूक मानी गई है। "वनशिरा देवता" को कलियुग में "लोहे" के भीतर स्थान दिया गया है। "भगवान् शिव" नें इनके "शौर्य और अपरिमित बल" के कारण इनको लोहे के बने मजबूत "अस्त्र-शस्त्र"दिए। "बनशीरा देवता" सदा "कुल्हाड़े और तलवारों" सहित अन्य "आयुधों" से सुसज्जित रहते हैं। इनकी साधना करने वाले भक्त को भी नियम पूर्वक शस्त्र धारण करने पड़ते हैं। "तलवार कुल्हाड़ा, अंकुश, गज, शंगल" आदि इनके आयुध है। इनका महत्त्व इतना अधिक है की "भगवान् शिव" से अस्त्र पाने के बाद भी अस्त्रों में "पुन: प्राणप्रतिष्ठा"के लिए स्वयं "भगवान् परशुराम जी" नें भी इनकी स्तुति कर। इनको अपने अस्त्र में स्थापित किया था। कहा जाता है की इनके नेत्रों में रक्त रहता है। केवल शत्रु मर्दन ही "वंशीरा" का लक्ष्य रहा है। लेकिन भक्तों के लिए इनका स्वरुप "परम कल्याणकारी" है। जो लोग अकेले, विदेश में या अपराधिक पृष्ठभूमि के शहरों आदि स्थानों पर रह रहे हैं। उनके लिए "देव वनशीरा" परम अभय हैं। वनशीरा देवता हिमालयाई क्षेत्रों में बेहद पूजे गए। क्योंकि वहां पग-पग पर ख़तरा था। कभी जानवरों का, कभी इंसानों का, कभी प्रकृति का, कभी रोगों का, तो कभी शत्रुओं और आक्रमणकारियों का, ऐसे में वंशीरा ही उनके रक्षक बने। "भगवान परशुराम" शब्द ही अपने आप में "उच्चतम और श्रेष्ठ" है। ये वो नाम है जिसका स्मरण ही "योग की पराकाष्ठा" के लिए पर्याप्त है। "वीरता और पौरुष" का अद्भुत मेल है "महाअवतारी भगवान् परशुराम". "कौलान्तक संप्रदाय" इनको अभी भी अपना नित्य वर्तमान गुरु मानता है। ये मान्यता है की वे अभी भी "महाचिरंजीवी" हैं और भक्तों को बल देते हैं। एक कथा के अनुसार शिव से प्राप्त अपने अस्त्रों की पुन: प्राणप्रतिष्ठा के लिए भगवान् परशुराम जी नें एक वीर देवता का मंत्र से आवाहन किया और उनको अस्त्रों में स्थापित किया। तो उपस्थित ऋषि मुनि व ब्राह्मण विद्वानों नें "भगवान् परशुराम जी" से निवेदन किया की प्रभु "ये किस शक्ति का आवाहन आपने किया और इसका प्रयोजन क्या है?" तब स्वयं "भगवान् परशुराम" जी नें उनको बताया की मैंने "महादेव शिव जी" के अस्त्रों में उनके ही एक गण का आवाहन किया है, जिनको "वनशिरा" कहा गया है। जो की शिव के "शस्त्रागार के प्रहरी" हैं। इनको "महादेव" का वरदान प्राप्त है की ये जब युद्ध करेंगे तो शत्रु पक्ष के अंतिम व्यक्ति के अंत से पहले नहीं थमेंगे। इसी कारण इनका अस्त्र में स्थापन और आवाहन किया जाता है। "भगवान् परशुराम जी" के कारण ही हिमालय और उसकी प्रमुख पीठ "कौलान्तक पीठ" आज भी इस मान्यता पर अडिग है। इस कथा से स्वयं भगवान परशुराम जी नें एक शिव गण "वंशीरा" को महिमा मंडित कर दिया। ऐसा परशुराम जी का बड़प्पन है। हिमालय पर एक बार साधना क्षेत्र को ले कर "देवता वणशिरा और देवता नारसिंह" जो की एक राजसी यक्ष हैं, के मध्य विवाद हो गया। नदी के पार "कौलान्तक पीठ" के एक क्षेत्र में दोनों साधना करना चाहते थे। किन्तु निजता के कारण दोनों चाहते थे की कोई एक ही उस स्थल पर साधना करे। अब वो कौन होगा? इस पर दोनों का परस्पर विवाद गहरा गया। तो अंतत: जब वाद-विवाद से कोई हल ना निकला तो, बल प्रयोग पर बात आई। किन्तु दोनों एक दूसरे पर बल प्रयोग नहीं करना चाहते थे। इसलिए ये निर्णय हुआ की दोनों एक दूसरे के राज्य में जाएँ और वहां कपटियों, व्यभिचारियों, नास्तिकों, दुर्मुखों, अत्याचारियों को ढूंढे और मार कर ले आये। तब नारसिंह से तीन गुना से भी अधिक दुष्टों का बध कर वनशीरा नें ये सिद्ध कर दिखाया की वही सच्चे वीर, न्यायकरता है। हालांकि इस कहानी के सभी पहलू हम यहाँ नहीं बता रहे। किन्तु इस से वंशीरा की क्षमताओं का पता चलता है।
प्राचीन समय में विदेशों से व देश के भीतर से भी हिमालय और पर्वत के क्षेत्रों को लूटने के लिए कई बार युद्ध हुए। सैनिक महिलाओं की इज्जत पर हाथ डालते, माताओं और बुजुर्गों पर अत्याचार करते, पुस्तकों ग्रंथों व मंदिरों को नष्ट करते, सब कुछ लूट कर ले जाते। छोटे बच्चों को मार डालते। युवाओं को ज़िंदा जलाते और हँसते थे। तब ऐसे समय में "हिमालय और कौलान्तक पीठ" क्षेत्र के निवासियों नें सभी "देवी-देवताओं" से गुहार लगाई। लेकिन कोई तुरंत उत्तर ना मिला। तब एक बार एक पर्वतीय गाँव पर कुछ मुग़ल सैनिकों नें धावा बोला और सभी पुरुषों और माताओं को बंदी बना लिया। उन्हें कतार में खडा कर उनको डराने के लिए बीस चुनिन्दा युवकों के पेट में तलवार घुसा दी जिस कारण घायल हो कर युवा जमीन पर तड़पने लगे। तब मुगलों नें गाँव की सुन्दर युवतियों को खीच कर निर्वस्त्र करने का प्रयास किया। उस समय एक युवती जो वंशीरा को और कौल मत के तत्कालीन प्रमुख को बहुत मानती थी रोते हुए पुकारने लगी। उसने "कौल पंथ की अवतार परम्परा" को ताना मारते हुए कहा की यदि आज मेरी और बहनों की इज्जत की रक्षा ना हुई, तो वो वंशीरा के नाम पर अपने केश मुडवा लेगी (कौलान्तक पीठ में महिलाओं का केश मुंडवाना अशुभ माना जाता है) और ततकालीन कौलान्तक नाथ के समक्ष आत्मदाह कर लेगी। ऐसा विलाप सुन कर मुगलों नें कहा की वंशीरा तो शैतान है वो तुम्हारी क्या खाक मदद करेगा? और उसे जमीन पर पटक दिया। उसी क्षण एक बूढी महिला चिल्लाती हुई बोली "मैं वनशिरा हूँ मुझे युद्ध के लिए शरीर चाहिए।" तो वो युवती बोली "घायल युवा तुमको दिए।" इतना कहते ही अपने-अपने पेट में घुसी तलवारें युवाओं नें खींच ली और खड़े हो कर उनहोंने ऐसा प्रलयंकारी युद्ध किया की इतनी बड़ी सेना के सैनिको के शवों के बहुत से टुकडे करने के बाद भी उनको काटते ही रहे, काटते ही रहे, महिलाएं, बूढ़े उनको रोकते रहे, लेकिन जब तक सभी हड्डियों से मांस निकल नहीं गया वो उनको काटते रहे। कुछ कायर मुग़ल इस दृश्य को देख कर भाग खड़े हुए और कुछ भय के कारण ही मल-मूत्र का त्याग कर प्राण गवा बैठे। किन्तु इसके बाद वो बीस युवा भी मर गए। तब वन्शिरा नें कहा की जब भी तुम पर मुसीबत हो मुझे प्रयोग के लिए अपना शरीर दे दो। मैं धरा में पापियों की लाशें बिछा दुगा। तभी से सभी गांवों नें वन्शिरा को प्रमुख देवता की तरह स्थान देना शुरू किया। वनशिरा देवता की सबसे बड़ी खूबी ये थी। की वो किसी भी दूसरे देवता के विरोधी नहीं हैं। इस कारण उनको किसी भी देवी-देवता के साथ रख दो वो स्थापित हो जाते हैं। ना ही इनकी पूजा पाठ का कोई लंबा चौड़ा विधान है। (नोट-यहाँ कौलान्तक पीठ का उद्देश्य किसी दूसरे धर्म को या वर्ग को नीचा दिखाना नहीं है। ये एक बुजुर्गों द्वारा बताई गयी पुरानी कथा पर आधारित है। कृपया इसे किसी दूसरे अर्थों में ना देखें। "ईशपुत्र-कौलान्तक नाथ" का कहना है की प्राचीन ज्ञान को इस शैली से दो की वो द्वेष का कारण ना हो जाए। क्योंकि कभी-कभी शैली गलत अर्थ दिखा देती है हम कोई विवाद नहीं चाहते इस कारण स्थान का नाम नहीं दिया जा रहा) "देवता वनशीरा" की हस्तमुद्रा में गहरा अर्थ छिपा है। एक हाथ संहार का प्रतीक है और दूसरा कल्याण का। यानि की "वंशीरा नीति" कहती है की कभी-कभी "कल्याण" के लिए "संहार" की आवश्यकता पड़ती है। उस अति दुखदाई स्थिति में "युद्ध या वीरगति" ही श्रेष्ठ होती है। किन्तु याद रहे "वंशीरा" अकारण शस्त्र उठाने वाले को कायर व पापी कहता है। मूलत: "देव वन्शिरा" भी शांति, साधना और अहिंसा की प्रेरणा देते है। किन्तु कहते हैं की कभी-कभी इतिहास इतने बुरे दिन दिखाता है की न्याय व्यवस्था, धर्म व्यवस्था, राज व्यवस्था आपको और आपके पंथ, वंश को मिटा डालने का षडयंत्र करता है। तब शांत प्रेमी पुरुषों को और सज्जनों को, माताओं की रक्षा, वंश व देश की रक्षा सहित धर्म की रक्षा के लिए युद्ध करना चाहिए। युद्ध के खुदे हुए मैदान से ही लम्बी शांति और प्रेम उपजता है
- कौलान्तक पीठ टीम-हिमालय।
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