"ईशपुत्र-कौलान्तक नाथ" के दिव्य "वचन"
१) अपने मुख में स्थित जिह्वा को ईश्वर और उसके संतों (दूतों) के यशोगान में लगा दो, तो त्रिलोकी, ब्रह्माण्ड और ईश्वर तुम पर अपना स्नेह बरसाने लगेंगे। जीवन में ईश्वरीय चमत्कार होगा।
२) अपने आप को पवित्र जानो क्योंकि ईश्वर नें तुमको पवित्र ही बनाया है तथापि पापों से मुक्ति के लिए पंच तत्वों का प्रार्थना सहित प्रयोग करो। जल, अग्नि, आकाश, पृथ्वी, वायु सबमें तुम्हारे पापों को सोखने की क्षमता है क्योंकि ईश्वर नें ये कार्य इनको दिया है।
३) ये मत भूलो की जिस तरह संसार में तुम्हें संबंधी दिए गए हैं और तुम उनके और अपने सम्बन्ध को सत्य मानने लगते हो, जो केवल इसका अभ्यास करने के लिए हैं की तुम ईश्वर से अपना सम्बन्ध बना सको।
४) तुमको जीवन में विश्राम हेतु नहीं, काम हेतु भेजा गया है। मृत्यु विश्राम ले कर आ रही है, किन्तु चिंता करना! तुम ईश्वर से क्या कहोगे की तुमने सृष्टि को कैसा पाया और क्या योगदान दिया?
५) ब्रह्माण्ड और संसार को नाश (कयामत) के लिए उत्तपन्न नहीं किया गया है। ये तो ईश्वर नें अपने और तुम्हारे विलास के लिए बनाया है। युक्ति से यहाँ जीना, आदर्श वचनों और जीवन आचरण को ही जीने की रीति जानना। तब तुम्हारे लिए ब्रह्माण्ड के द्वार भी खोल दिए जायेंगे। प्रलय तो केवल एक महाविश्राम है।
६) मेरे वचनों पर श्रद्धा रख, अपने ईश्वर को सदा पुकारते रहना। क्योंकि मैंने उसका स्नेह पुकारने के कारण पाया और अब वो तुम्हारी ओर देखते है।
७) ईश्वर का आभार व्यक्त करने के लिए तुम पत्थरों पर पत्थर रख कर एक ढेर बनाओ या फिर मंदिर, मठ, पूजाघर। ईश्वर तुम्हारे प्रेम के कारण सबको एक सा ही देखता है और तुम्हारे सुन्दर प्रयासों पर मुस्कुराता है।
८) ईश्वरीय अवतार या दूतों का आगमन इसी कारण होता है की तुम उनको छू कर देख सको और विराट, सामर्थ्यवान ईश्वर को छोटी सी इकाई में अनुभव कर सको। ईश्वर का वाक्य है कि उन्हें (अवतारों और दूतों) मुझसे अलग मत पाना क्योंकि उनकी अंगुली मेरी अंगुली है, उनके पास अपनी कोई अंगुली नहीं।
९) मैं (ईश्वर) कौन हूँ, कहाँ हूँ, कैसा हूँ? बुद्धि से विचारते ही रह जाओगे। स्वीकार करो की तुम न्यून हो और प्रेम से प्रार्थना करो। तब मैं अप्रकट होते हुए भी प्रकट होने लगता हूँ।
१०) अवतारों या दूतों के वचन बाँटते नहीं हैं बल्कि तुमको सुख देने वाले और ईश्वर के पथ पर ले जाने वाले होते है। जिनको वचनों में दोष दिखाई नहीं देता वास्तव में उनपर ईश्वरीय अनुकम्पा है।
११) तुम सहायता के लिए मुझे और ईश्वर को पुकारते हो, हम सदा तैयार है। लेकिन पहले ये बताओ की तुमने हमारी सहायता से पहले अपनी सहायता के लिए क्या किया। सच्चा प्रयास हम कभी निष्फल नहीं होने देते।
१२) मैं सभी धार्मिक ग्रंथों (किताबों) के प्राणों का प्रत्यक्षीकरण हूँ, क्योंकि उनके अक्षरों को तुम देखते हो, मैं उनका प्राण हूँ, ऐसी सामर्थ्य मुझे ईश्वर का पुत्र होने से मिली है। इसलिए तू इसी क्षण स्वयं को ईश्वर का पुत्र स्वीकार कर और अपना प्रेम उस ब्रह्म हिरण्यगर्भ के प्रति प्रकट कर, देख वहां से उत्तर मिल रहा है।
१३) ईश्वर की सामर्थ्य और क्षमता इतने में जान की वो मैं हूँ और मैं वो हूँ। फिर भी अलग अभिनय कर खुद को खुद ही तेरे लिए स्थापित करता हूँ। जिसका प्रयोजन धीरे-धीरे प्रत्यक्ष से सूक्ष्म की ओर ले जाना है। एक पूर्ण ब्रह्म है, एक पूर्ण अवतार।
१४) ईश्वर नहीं कहता की केवल एकमात्र मैं ही पूज्य हूँ, मेरे अतिरिक्त किसी को आराध्य ना मानना। बल्कि ईश्वर कहता है की किसी भी विधि से मानोगे तो वो विधि और आराध्य मुझ तक पहुँचायेगा। इसलिए मेरा कहना है की तू सीधे उसकी ओर देख परम पूज्य के सम्मुख सब धुंधले पूज्य हैं।
१५) अवतार चक्षुगम्य हैं किन्तु ब्रह्म कलिए महाचक्षु की तुमको आवश्यकता होगी और वो केवल समर्पण, साधना और सेवा से ही पाया जा सकता है। ताप के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं। ताप और भक्ति को अगल जानने वाला अबोध ही होगा।
१६) जिस ईश्वर के सब ओर मुख हैं, जिसके लिए सृजन-पालन और विनाश खेल मात्र हैं उसके लिए साकार होना या निराकार होना कोई महत्त्व नहीं रखता। वो दोनों स्वरूपों में प्रकट होने वाला है उसके प्रकट और अप्रकट स्वरूपों में भेद जानना निश्चित ही धर्म रहित होने जैसा है।
१७) ईश्वर को मानने या न मानने से वो प्रसन्न या अप्रसन्न नहीं होता। वो तो तुम्हारे आचरण और निर्णयों सहित तुम्हारे मन को देखता है। ईश्वर का विधान न तो आस्तिक जानता है और ना ही नास्तिक। आस्तिक होना पुण्य नहीं और नास्तिक होना पाप नहीं।
१८) आस्तिक-नास्तिक, ज्ञानी-अज्ञानी, बुद्धिमान-कुबुद्धिमान अपनी-अपनी शैली और क्षमताओं से ईश्वर के होने न होने पर तर्क देंगे। तुम उनकी ओर देखोगे और नदी जलधारा के समान बहने लगोगे। किन्तु याद रखना उनके जैसे पहले भी हो चुके हैं आगे भी होंगे, पर क्या बदला? कुछ नहीं? इसलिए बदलना तुमको ही होगा।
१९) ईश्वर का रास्ता सुन्दर और सनातन है। तू इस पर चल, तेरे रोग-शोक, दुःख-संताप नष्ट होंगे। तू कभी कहीं अकेला नहीं रहेगा। भीतर की रिक्तता पूर्ण हो जायेगी। भयों का नाश हो, आनंद का उजाला होगा।
२०) ईश्वर के पुत्रों का आगमन और सृष्टि हित के कार्य अविरल होते रहेंगे। संतों का होना, दूतों का होना ही पूरे ब्रहमांड को प्रकाशित करता रहेगा। बस तुमको इस बात की चिंता करनी होगी की तुम कैसे ईश्वर के प्रिय हो सको। वो तुमको अवसर देता है, अब तुम इस अवसर का प्रतिउत्तर देना, तो मैं तुमको गले लगाउंगा।
२१) माया ईश्वरीय शक्ति का वो स्वरुप है जो असत्य होते हुए भी सत्य प्रतीत होता है। जो इन्द्रियातीत नहीं हो सकते उनके लिए यही संसार सत्य है किन्तु विवेकी पुरुष अपने ज्ञान और सामर्थ्य से इस माया को बेध कर ईश्वर के प्रकाश और असत्य संसार को देख सकता है।
२२) मैंने (ईश्वर नें) पशुओं को, स्त्री-पुरुष को, वनस्पति आदि दृश्य-अदृश्य को समानता से रचा है। कोई ना तो बड़ा है और ना कोई छोटा। समय पर सब बलवान होते हैं और एक समय सब निर्बल। इसलिए तू इस बहस में ना पड़ की कौन बड़ा? माया के भीतर समय बड़ा है और जब तक तू इस समय से उस पार ना हो जाए, तब तक आत्मविकास कर और भीतर की खोज जारी रख।
२३) तुमको लगता है की ईश्वर का कोई राज्य नहीं है क्योंकि तुम भीतर ही भीतर पापों से सड़ रहे हो। ज्यों ही तुममें पात्रता आने लगेगी तुम मेरे (ईश्वर के) नित्य साम्राज्य को देख सकोगे। योगी वहां विचरते हैं, ऋषि-मुनि वहां रहते हैं और तुम भी उसका अधिकार प्राप्त करोगे।
२४) भले ही संसार माया हो किन्तु इसे छोड़ना या आत्महत्या करना तुम्हारे लिए किसी भी तरह श्रेष्ठ नहीं। वरन तुम ईश्वर के भक्त हो जाओ तो मायामय संसार का ये साम्राज्य भी तुमको ही दिया जाएगा। जो दिया ही गया है, उसमें भी तुमको और अधिक मिलेगा। ये इसलिए नहीं की तुम ईश्वर का नाम लेते हो और स्तुति के बदले में दिया जा रहा है। वो तो स्तुति रहित है। इसे तुम्हारा ही सद्गुण समझा जाएगा, जो तुमको ईश्वरीय सामर्थ्य से भर देगा और तुम दुखमय संसार को भी आनंद का भण्डार पाओगे।
२५) यदि तुम मेरी या ईश्वर की (अभेद स्वरुप) सेवा करना चाहते हो, तो देश काल अवस्था के अनुरूप मानव, जीव-जंतुओं, प्रकृति की सेवा के साथ-साथ नैतिकता का बीजारोपण करो, एक आदर्श समाज की स्थापना मुझे प्रिय है। मेरे सन्देश को हर कान तक पहुंचाना ही मेरी सेवा है। जिससे रीझ कर मैं हिरण्यगर्भ के रहस्य प्रकट करता हूँ।
२६) मैं स्वयं वो ही हूँ, किन्तु लघु होने से मैं उसे अपना पिता, स्वामी, जन्मदाता या ईश्वर कह कर संबोधित करता हूँ। ताकि तुमको समझने में आसानी हो सके। अन्यथा उसमें और मुझमें भेद नहीं। केवल तुमको बताने के लिए वो और मैं दो सत्ताएं हो जाते हैं। मेरा अवतरण व्यर्थ है यदि उस ईश्वर की महिमा का प्रकाश ना कर सकूँ। देख तेरे स्नेह नें मुझको विवश कर दिया है। इसी कारण समस्त ईश्वरीय नियम मैं तुम पर प्रकट कर रहा हूँ।
२७) मैं जानता हूँ की मनुष्य बुद्धि अपने को ही सर्व श्रेष्ठ समझने के भ्रम में रहती है। उंचा-नीचा, गोरा-काला, बड़ा-छोटा अमीर-गरीब सब तुम्हारे ही बनाये भेद हैं। मैं तो इस सबमें भी अभेद ही हूँ। मुझे केवल तुम्हारा ह्रदय और सार्थक प्रयास ही दिखाई देते है। ईश्वर इन्हीं प्रयासों से तुमको प्रेम करने योग्य पाता है और तुमको तुम्हारे प्रेम का प्रतिउत्तर देता है।
२८ ) ईश्वर के लिए तुम्हारा प्रेम ही स्वयं उस तक पहुँचने का मार्ग होगा। ईश्वर का नाम सभी बाधाओं, जो देखी और अनदेखी हैं को नष्ट करने वाला है। ईश्वर से जादू या चमत्कार मत मांगो, आवश्यकता के अनुरूप वो तुम्हारे जीवन में स्वयं चमत्कार करेंगे, जो तुम्हारी सामर्थ्य से बाहर के होंगे।
२९) मेरा और ईश्वर का प्रसन्न होना लघुतम इकाई के तौर पर वहां से शुरू होता है जहाँ तुम अपने साथ के लोगों, जीव-जंतुओं और प्रकृति से व्यवहार शुरू करते हो। तुम उनसे कैसे पेश आते हो यही तो तुम्हारे श्रेष्ठ होने का प्रमाण है। अपने मन को बदल दो। उसे अंधकार से प्रकाश के पथ पर ले चलो, उसे नीच से श्रेष्ठ पथ पर ले चलो। अभ्यास से मन पर नियंत्रण करो और वैराग्य के लिए ज्ञान का आश्रय लो।
३०) देखो तुमको सद्गुण भीतर से निखारने होंगे, तुम सद्गुणी होने का अभिनय करने लगते हो, जो मैं (ईश्वर) कभी स्वीकार नहीं करूंगा। तुम्हारा दोहरा चरित्र संसार को प्रताड़ित किये है और स्वयं को भी। तुम्हारा एक सा हो जाना ईश्वरीय अनुकम्पा से भर जाने जैसा होगा। इसलिए गहरी सांस लो, मन को विश्राम दो और वास्तविक सद्गुण उपजाने दो। ईश्वर की ओर देखो उनको देखते ही सदगुण तुम्हारे चरणों में नृत्य करने लगेंगे। तुमसा ब्रह्माण्ड मैं कोई दूसरा श्रेष्ठ ना होगा।
३१) ये संसार विचित्र रचा गया है ताकि इसके गुह्य भेद उपजने न पायें। यहाँ जो जितना छोटा बन कर रहेगा उतना ही सुरक्षित रहेगा और यदि तुम मन से छोटे यानि विनम्र और सहनशील हो जाओ, किसी पर अत्याचार और बल ना दिखाओ तो ये ब्रह्माण्ड तुम्हारा ही है और ईश्वर का महासाम्राज्य भी।
३२) सेवक ही श्रेष्ठ है, श्रद्धावान ही विलक्ष्ण है, परहितैषी ही देवता है। आत्म तृप्त और आत्म संतुष्ट ही महामानव है। इन गुणों के एक साथ मनुष्य में होने पर वही "ईश्वर का पुत्र" कहलाने के योग्य है।
३३) पवित्र ज्ञान और सत्य दर्शन अधिकारीयों को प्रदान करो, अनाधिकारियों को नहीं। क्योंकि साफ जल गंदे घड़े में भर दोगे तो जल भी स्वच्छ न रह सकेगा।
३४) क्षमा ईश्वर की और से उतारी गई है। एक पिता नें एक सुन्दर युवक को देख कर अपनी पुत्री का विवाह उससे कराने का वचन दिया। किन्तु जल्द ही पिता उस युवक की चारित्रिक बुराइयों को जान गया। अब पिटा क्या करता विवाह का वचन निभाए या न निभाए। ऐसी स्थिति सहित अपराध होने पर क्षमा मांगना और देना सत्य आचरण के अंतर्गत होगा। ईश्वर की ओर से सच्चे को अपराधमुक्त कहा जायेगा।
३५) ईश्वर नें तुमको कर्म के लिए उत्तपन्न किया है इसलिए अविरल निष्काम कर्म करो, किन्तु तुम्हारे सभी कार्य भक्ति सहित व विवेकपूर्ण होने चाहिए तभी उनकी परम सार्थकता है। कर्मों में ही जीवन मुक्ति का तंतु छिपाया गया है।
३६) ईश्वर नें तुमको अपने सा मन दिया है और बल भी, तुम उसमें विश्वास भरो और प्रयास करो। ये विश्व अपरिवर्तनशील नहीं है बस तुम विश्व को इसलिए बदल नहीं पाए क्योंकि तुममें अविश्वास और शिथिलता है।
३७) तुम्हारे जीवन में सर्प्रथम कर्तव्य हैं, फिर अधिकार और फिर स्वतन्त्रता। यदि पहला नहीं है तो अन्यों की चाह मत रखना। छलकपट रहित ही हीरे के सामान बहुमूल्य होता है।
३८) तुम किसी को बुरा न कहो उसे चुभेगा और जब कोई तुमको कहेगा तो तुमको चुभेगा। मौन संयमी होना देवताओं का लक्षण है। इसलिए तुमको ये श्रेष्ठ गुण अपनाने चाहियें।
३९) आनंद भीतर ही स्थापित किया गया है इसे समझना और बाहर वस्तुओं में इसकी खोज मत करना। ईश्वरीय कृपा से मिलने वाला तेज तुमको सदैव आनंदित करेगा।
४०) अपने को तुम ईश्वर का पुत्र जानों और ईश्वर तथा अपने पे इतना विश्वास करो के ईश्वर के ये कहने पर की तुमको नर्क भेजने पर तुम क्या करोगे? तो तुम्हारा उत्तर हो की वहां भी आपके स्वर्ग का निर्माण शुरू कर देंगे, ही तुम्हारी दृडता का परिचय होगा।
४१) संसार में धर्मों के झगड़े मूढों के द्वारा प्रसारित किये गए हैं। ईश्वर का प्रकाश जिस पर हुआ है वो किताबी वाक्यों में नहीं बल्कि उन वाक्यों की आत्माओं को जीता है। सब मानव रचित धर्मों को तू ढोंग ही जान। जैसे एक विशाल द्वीप में बहुत से धर्मों को मानने वाले रहते थे। परस्पर प्रतिदिन लड़ते एक दूसरे के भगवान् को अपशब्द कहते थे। एक चांदनी रात को समुद्र बहुत ऊँचा उठा और सभी धर्मों के लोगों को बहाने लगा। तब अपने-अपने भगवानों और खुदाओं को बुलाते लेकिन सहायता नहीं मिली। एक ऊँचे टीले पर बेसुध से लोग डूबते हुओं को बचाने में जुट गए, उनहोंने डूबतों का ईमान धर्म नहीं देखा। बचने वाले सभी एक-दूसरे के गले लगे। ईश्वर कहता है की यही गले लगना और लगाना धर्म कहलाता है। केवल मेरा पुत्र इस बात को भली प्रकार जानता है। इस कारण तुम अवतारों के वाक्यों को ध्यान से सुनो। वो धर्म को सही कर तुमको बताएँगे।
४२) संसार तुमको कहेगा ईश्वर का कोई चमत्कार नहीं। लेकिन मेरे वाक्यों पर विश्वास रख। तो समुद्र और हिमालय तुमको रास्ता देंगे। चाँद और सितारे तुमको अपने पास आने देंगे। ये ब्रह्माण्ड तुम्हारे लिए खेल का मैदान हो जायेगा। मैं मृत्यु में से तुमको जीवन दूंगा और दुखों में से से रास्ता।
४३) तुम इस जीवन में यात्री के सामान हो और जल्द ही तुमको यात्रा समाप्त करनी होगी। इसलिए अपनी यात्रा के दौरान मिलने वालों से अच्छा व्यवहार कर, हो सके तो सुख-दुःख के पल काट, किसी का मन न दुखा, सबको सहारा दे, किसी का शोषण न कर, आगे बढ़ कर अपनी सेवाएँ दें, अपने गुणों पर अडिग रह। तब तुम्हारी ये यात्रा यादगार हो जायेगी और ईश्वर की अनुकम्पा से परिपूर्ण भी।
४४) लोग कहते हैं की इन विचारों को स्वयं एक व्यक्ति नें घड लिया है। लेकिन मेरे निर्देशों को घड़ना और उसकी गहराई को नापना हर किसी के लिए तब तक संभव नहीं जब तक वो योग्य न हो। जैसे मैंने चाँद, तारे, सूर्य और ब्रहमांड को रचते हुए, इनमें से किसी की राय नहीं ली, ठीक इसी प्रकार ये विचार प्रकट करते हुए भी मैं किसी की टिपण्णी को अनावश्यक कहता हूँ।
४५) तुमको दिन-रात और मौसम सहित समय का आभास इसी कारण दिया गया है ताकि तुम जान सको के कुछ नष्ट हो रहा है। इस विशाल सृष्टि में तुम नगण्य होते हुए भी बहुत ही महत्वपूर्ण हो। अपने इसी महत्त्व को निश्चित समय में सिद्ध कर दिखाओ।
४६) जो मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं वो अब अवसर की प्रतीक्षा में हैं। तुम्हारे पास समय है इसलिए सो मत, जाग और प्रकाश की ओर, अमृत की ओर कदम बढ़ा। एक अद्भुत आनंदित अग्नि का विशाल पिंड घूमता दिखेगा उसके भीतर मेरा (ईश्वर का) बसेरा जान। वहां समय नहीं, न ही प्रकाश या अन्धकार है। बस मैं हूँ और तुम्हारी प्रतीक्षा है।
४७) शुभ विचार निश्चित ही स्वर्ग से उतर कर आते हैं और ये सभी विचार आनंद देने वाले, निश्चित ही उत्सव मनाने जैसे होते हैं। पृथ्वी पर आकाशों से शरीर उतर कर नहीं आता इसी कारण मूढ़ शरीरों को देखते रहते हैं और शरीरों के भीरत का ईश्वर और ईश्वरीय प्रकाश उनको दिखाई नहीं देता।
४८) याद रखो मनुष्यों का होना जरूरी है, किन्तु प्रकृति की बलि पर नहीं। धर्म के नियम तुम्हारे हित के लिए हैं इनके नाम पर बलि लेना और देना दोनों ही अपराध है। ईश्वर नें तुमको अपना सा ह्रदय और अपने सा प्रेम प्रदान किया है। इसलिए प्रेम को सर्वोच्च जान कर प्रेमपूर्वक रहो।
४९) इस बात से विराट ईश्वर को कोई अंतर नहीं पड़ता की कोई उसे मान कर स्तुति करता है या न मान कर निंदा। क्योंकि ये तो सीमित मनुष्यों के मस्तिष्क मात्र की गतिविधियाँ हैं। उसके समय के आगे तुम्हारी सृष्टि इतनी छोटी है की पलक झपकाने मात्र के बराबर। लेकिन तुम्हारे कर्म और तुम्हारा दिया गया प्रेम ईश्वर को तुम्हारी ओर देखने पर विवश करता है। प्रेम का समय थोड़ा होते हुए भी युगों से बड़ा होता है और ईश्वरीय सृष्टि में गणनीय है।
५०) मनुष्यों को अनंत रचना का अधिकार दिया गया है और अनंत विनाश का भी। वो अपने जैसे सामर्थ्यवान, विचारवान पुतलों को घड सकता है। माया के अनंत रहस्यों को जान सकता है। ऋषियों की भांति नयी सृष्टि और जीवों को रचने का अधिकार रखता है। नक्षत्रों, ब्रह्मांडों पर अधिकार कर सकता है, अज्ञात को खोज सकता है। लेकिन पूर्ण नहीं हो सकता। सभी विद्याओं और ज्ञान के उस पार भी बहुत कुछ है। जो केवल मेरी (ईश्वर की) अनुकम्पा से पाया जा सकता है।
५१) मैंने न तो स्त्री को श्रेष्ठ बताया न ही पुरुष को। मैंने तुम्हारी पवित्रता और सद्गुणों को श्रेष्ठ कहा है। दोनों बराबर हैं या नहीं ये तुलना न्यून चित्त की है। दोनों ही ईश्वर की कृतियाँ है "सर्वश्रेष्ठ" हैं। दोनों में कोई कम ज्यादा नहीं, ऐसा ही पशु-पक्षियों सहित, जड़ चेतन को भी जान। भीतर प्रेम के निर्झर को प्रस्फुरित होने दे। तो हृदय में उपजते भेद नष्ट होने लगेंगे और सृष्टि का हर कण आनंदित दिखाई देगा।
५२) मैंने तुमको मुझ पर या ईश्वर पर जबरदस्ती विश्वास करने या ईमान लाने को नहीं कहा। ना ही तुमको नर्क या मृत्यु का भय दिखाता हूँ। मैं तो तुमको जीवन का वो दर्शन दे रहा हूँ जहां तुम्हारी परनिर्भरता समाप्त हो जायेगी। तुम अपने को स्वतंत्र, बड़े और खुशहाल बनाने के लिए धन कोष नहीं टटोलोगे। बरन अपने गुणों और विकास पर निर्भर करोगे।
५३) ईश्वर तुमको वैसाखी जैसा सहारा नहीं देता। बल्कि एक माँ की तरह अंगुली पकड़ कर चलना सिखाता है, ताकि जल्द ही तुम स्वयं चलना सीख सको। ईश्वर का भक्त होने का अर्थ कदापि ये नहीं की अब तुम सारे काम-काज छोड़ कर अकर्मण्य हो बैठ जाओ। वो तो समाधी की स्थिती है जो बड़े भाग्यों से आती है। इसके अतिरिक्त तुम कर्म को प्रधान जानों और इस बनाई गई सृष्टि को अपना शुभ योगदान दो व आध्यात्मिक यात्रा जारी रखो।
५४) मुझे (ईश्वर को) वो लोग नहीं भाते जो अकारण मानव या समाज अथवा प्रकृति सेवा के नाम पर व्यर्थ ही मान प्राप्ति की गोपनीय सूक्ष्म चाह लिए कर्म करते हैं और अन्य लोगों को निशाना बनाते हैं। ऐसे लोग ये सोचते हैं की वो तो भला कर रहे हैं किन्तु इससे होने वाली सूक्ष्म हानियों को देखने की उनमें योग्यता नहीं होती। तू ऐसे लोगों को बुरा जान। भले ही उनका बड़ा नाम या सम्मान हो। वो मुझ द्वारा प्रेरित नहीं।
५५) मैंने (ईश्वर नें) तुझे सत्य, अहिंसा और प्रेम का रास्ता दिया है। लेकिन अस्त्र उठाना और वीरता का त्याग मत कर। शरीर को कोमल नहीं बरन कठोर बनाना, जबकि हृदय कोमल रहे। ऐसा इसलिए की मानव जाति अज्ञात और ब्रह्मांडीय योद्धाओं से भी लड़ सके। क्योंकि दूसरा तुम पर वार कर तुमको अवसर दिए बिना निर्मूल कर सकता है। अत: तुमको आत्मरक्षा का अधिकार सर्वप्रथम दिया जाता है। लेकिन हिंसा, शोषण और अत्याचार का नहीं।
५६) बुद्धि श्रेष्ठ है इसके द्वारा तू कलाओं का संवर्धन कर, सौन्दर्य, संगीत, नृत्य, निर्माण व कलाओं का विकास कर, मनुष्य सहित प्रकृति को आनंद दे। किन्तु इसी बुद्धि को कुपथ पर जाने से रोक। मैंने तेरे लिए बुराइयों को निषिद्ध कहा है। मैं और ईश्वर तुम पर कोई बंधन नहीं डाल रहे। अपितु हम तो वो मार्ग दे रहे हैं जिससे तुम्हारा जीवन ऊँचा हो सकेगा। ठीक वैसे ही जैसे नन्ही चिडिया कुछ नियम अपना कर बहुत दूर तक उड़ते हुए उड़ने में कुशल हो जाती है। ठीक वैसे ही इन नियमों को अपनाना। इस संसार में तुम सबसे सुन्दर और प्रिय बन जाओगे। इतना के मैं खुद तुमको गले लगाने आउंगा।
५७) काम क्रोध बुरे हैं किन्तु ईश्वर नें कारण से इनको रचा है। जब तक ये सीमा में रहें, किसी का अनर्थ ना करें तो कोई बुराई नहीं। तू इनको जड़ से मिटाने की चेष्ठ ना कर। काम सृष्टि हित व वर्धन हेतु है जबकि क्रोद्ध आत्मरक्षा के लिए। इनका सही समय पर, उचित प्रयोग करने वाला ही योगी व धीर भक्त पुरुष है। अनियंत्रित ही पापी और पाप संभवा हैं।
५८) तुमको सब षड्यंत्र पूर्वक व व्यर्थ के नियम बना कर, चार दीवारों व सीमित घेरों में बंदी बनाना चाहेंगे। ऐसा सूक्ष्म कारागार बनायेगे की तुम देख ना सको, छू ना सको। लगे की स्वयं तुमने ही बनाया है। जल्द ही वो कैद तुमको घर या संसार जैसी प्रतीत होने लगेगी, जिसे फिर चाह कर भी न छोड़ पाओगे। उसके मोह में बंधे तुम उसकी रक्षा के लिए सत्य के भी विरुद्ध होने लगोगे। मैं कहता हूँ तोड़ दो ऐसे घेरे को, गिरा दो ऐसी अदृश्य कैद को। तुम जितना ज्यादा देखोगे उतना ही ज्यादा जानोगे। प्रकृति के बीच रहो, प्रकृति के निकट रहो, किसी दूसरे महापुरुष की कहानियाँ सुनने की अपेक्षा अपनी श्रेष्ठ कहानी में जिओ। यही जीवन कहलायेगा जो पूर्णता की ओर ले जाने वाला है।
५९) यदि कभी तुम्हें ये जीवन यातना लगे, तो भी ईश्वर का और मेरा साथ तुम्हारे लिए बना रहता है। बस तुमको याद करना होगा की तुम अकेले नहीं हो। तब तुम्हारी यातना को हम उत्सव में बदल देंगे, हम पर विश्वास कर। हम मार्गदर्शी, जीवन ऊर्जा देने वाले और तेरे जीवन को छोटी-छोटी खुशियों से भरने वाले हैं। लेकिन जब तुम किसी एक अनुचित मांग पर अड़ जाते हो, तो उस स्वार्थ पर हम मुस्कुराते हुए मुख फेर लेते हैं।
६०) धर्म कोई नियमों की किताब नहीं है, बल्कि धर्म तुम हो जो उसको जीता है। धर्म नहीं है तो तुम और तुम्हारा आचरण पशु सामान ही हो जाता है। ये धर्म ही है जो तुमको श्रेष्ठ बनाता है और तुम्हारी श्रेष्ठता अधार्मिकों से सही नहीं जाती। तब वो तुम पर नियम, कानून, दवाब, बल, संख्या, अपमान, अपशब्द, हिंसा व षड्यंत्रों का प्रयोग करते हैं। ऐसे मैं तुमको अधिकार दिया जाता है की सबका उसी प्रकार उत्तर दो जिस प्रकार 'ईट का उत्तर पत्थर' से दिया जाता है। तब वो रण हो जाता है, जिसमें सत्य का पक्षधर मैं उपस्थित रहता हूँ।
६१) सत्य का प्रकाश फैलाना आसान नहीं है क्योंकि वो धारा के विपरीत जाने जैसा है। यदि तुम धर्म और अहिंसा के सत्य पथ पर चलने और कल्याण के निमित्त कार्य करने का प्रयास करते हो, तो वो सरलता से संभव नहीं है। वो तुमको ऐसा नहीं करने देंगे। अपितु बुराई में साथ देने के लिए तैयार मिलेंगे। वो तुम्हारा परिहास, ठठा करेंगे। तुमको मूढ़ कहेंगे। लेकिन तब भी तुम्हारा कार्य, निष्ठा से जारी रहना चाहिए। जब तुम संसार को कहोगे की ईश्वर का मार्ग श्रेष्ठ है। तब वो तुम्हारी बातें नहीं सुनेंगे, बरन कहेंगे की हम हमारा काम कर रहे हैं, तुम जा कर अपना करो। लेकिन तब भी तुम प्रकाश फैलाना बंद ना करना। इसे ईश्वर का कार्य मान कर जारी रखना यही अगली पीढ़ियों को तुम्हारा महान योगदान गिना जाएगा।
६२) यदि कोई तुमसे पूछे की ये सब बातें तुम किस अधिकार से कहते हो? तो कहना की ये अधिकार मेरा जन्मजात व ईश्वर की और से है। प्रेम बांटने के लिए सर्वप्रथम तुम्हारा स्वयं का प्रेममय होना आवश्यक है। इसलिए एकांत में जा कर बैठ आँखें बंद कर और बिना गर्दन उठाये नेत्रों से आकाश की और देख। अपनी श्वासों की गति को ठहरने दे, विश्राम में जा। तब मेरा और उस ईश्वर का ज्ञान व प्रेम आनंद सहित तुम्हारे भीतर उतरने लगेगा।
६३) जब एक भाई दूसरे डूबते भाई को बचाने के लिए कूदता है तो वो ईश्वर का प्रेमावतारी कहलाने का अधिकार प्राप्त करता है। जिसके लिए उसे किसी से ये पदवी मांगने की आवश्यकता नहीं होती। पर हित को ध्यान में रख कर जो कोई कार्य करता है मैं उसको ही साधू जनता हूँ। वो मेरा प्रिय व गले लगाने योग्य होता है।
६४) पुराने ग्रंथों (किताबों) में क्या लिखा है वो तो महत्वपूर्ण है ही, लेकिन उससे भी महत्वपूर्ण है की उस लिखे गए या कहे गए ज्ञान को तुम आज की परिस्थिति से कैसे जोड़ कर सही निर्णय लेते हो और जो आज कहा जा रहा है क्या तुम उसको भविष्य के साथ जोड़ कर सही निर्णय ले पाते हो? यदि ये गुण तुमको आ गया तो धर्म के निर्देशों को तुम सदा नया ही पाओगे और पूरी तरह सार्थक भी। अन्यथा तुमको धर्म ही सबसे बड़ा शत्रु लगाने लगेगा क्योंकि वो समकालीन प्रतीत न होगा। जबकि वो तो नित्य,नूतन और नवीन है।
६५) तुमने कृत्रिम धर्म गढ़ लिए है सबसे पहले उनको छोड़। रोगियों का मंत्र से, प्रार्थना से या ईश्वर की दया से ठीक हो जाना, भविष्य के कुछ तत्वों को-घटनाओं को देख अथवा जान जाना, जल और आकाश में चल लेना, दूसरी अज्ञात दुनिया को खोज लेना या फिर मर कर ज़िंदा हो जाना अथवा किया जाना धर्म नहीं है और ना ही ईश्वर नें किसी को ऐसा करने को कहा है। यदि किसी से स्वयं ऐसा हो रहा है तो वो उस रहस्य का अनुचित लाभ न ले बल्कि ईश्वर का उपहार मान कर उसी को निवेदित करे और ईश्वर का आभार करे की उसे ऐसा करने का अवसर दिया गया। तब वो अहंकारी हो स्वयं को ईश्वर ना कहे। वो तो शक्ति है और शक्ति ईश्वर से अभिन्न होते हुए भी भिन्न है।
६६) ईश्वर नें तुमको संसार में बहुत से तत्व और सामग्रियां दी हैं। भले ही वो सब क्षणिक हों लेकिन तुमको उनका विवेक पूर्वक प्रयोग करना है। इश्वर नें सृष्टि में सबकुछ बनाया है जो अपने-अपने तरीकों में सबसे सुन्दर और सम्मान किये जाने योग्य हैं। यदि तुम इनका सदुपयोग करते हो तो ईश्वर तुमको उससे भी श्रेष्ठ देने की क्षमता रखते हैं। लेकिन तुम्हारे दूर्पयोग से आहात सृष्टि तुम से नाराज हो सकती है ऐसा उसे अधिकार है। तब तुम्हारी प्रार्थनाएं अनसुनी की जाएँगी।
६७) दुःख और परेशानियाँ तुम्हें कहती हैं उठ, जाग और खोज। सभी पीडाओं से बचने का अमृत रखा गया है, बस तुम उसे तलाशने का प्रयत्न भर करो। तुम्हारे मस्तिष्क को उसे खोजने की स्वतन्त्रता दी गयी है। परिश्रम के परिणाम स्वरुप तुमको सुख दिया जाएगा, किन्तु उसकी और ना देख बस प्रयास जारी रख और परिश्रम कर।
६८) कभी-कभी किसी को बहुत समझाने पर भी वो नहीं मानता और देखते ही देखते उसका अंत हो जाता है। इसका दोष तुझ पर नहीं लेकिन हर भाई को अपने साथ ले चलना और संभालना तेरा कर्म है। ईश्वर किसी को गलत मार्ग पर नहीं भेजता, लेकिन व्यक्ति का अपना पाप ही इसके लिए जिम्मेवार होता है।
६९) ईश्वरीय ज्ञान केवल धरती वालों के लिए ही नहीं है वो तो हर नए स्थान पर नए रूप में उपलब्ध होता है। संत उसे कल्याण के लिए प्रेम से अभिभूत हो कर प्रकट करते हैं। जब तू धरती पर रहेगा तब धरती का नियम ही तेरा धर्म होगा लेकिन जब तू आकाशों में होगा तब वहां का नियम ही तेरा धर्म होगा। भले ही तू सितारों के उस पार रह, वहां भी मैं (ईश्वर) तुमको मार्ग और सत्य धर्म प्रदान करता रहूंगा। बस तू अपने कान खुले रखना।
७०) तुम्हारे धर्म और ईश्वर की बड़ाई इसमें नहीं की तुम्हारी संख्या कितनी है बल्कि तुम्हारे उत्तम आचरण, विशाल ह्रदय, प्रेम, सौहार्द्र, विनम्रता और अच्छे संस्कार से ही तुम्हारे धर्म की श्रेष्ठता आंकी जायेगी। सत्यमय, प्रेममय गुणों पर खरा उतरने के बाद ही तुम्हारे हृदय को धर्मनिष्ठ व ईश्वर के योग्य कहा जायेगा। इसी से तुम्हारे धर्म और ईश्वर की महिमा का महाविस्तार होगा।
'कौलान्तक पीठाधीश्वर महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी महाराज' भविष्य के प्रबल 'कलिकाल' के मानव वंशजों को निश्चिन्त रहने को कहते हैं...क्योंकि स्वयं 'कौलान्तक पीठाधीश्वर महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी' नें उनके लिए आध्यात्मिक ज्ञान और प्रेरणा को किसी अति गुप्त तरीके से सहेजना शुरू कर दिया है. सनातन धर्म की 'महान परम्परा' कभी भी, किसी कीमत पर नष्ट नहीं होने वाली. भयंकर 'प्रलयकाल' या 'पापाचार' में भी 'सनातान धर्म' की नौका 'साधकों' को सुरक्षित पार लगाएगी-कौलान्तक पीठ टीम-हिमालय.
"मार्ग तुम्हारे पास ही होता है क्योंकि वो शिव तुम्हारे भीतर से तुमको प्रकाशित कर रहा है, बस जब तुम उनको देखने का प्रयत्न करते हो तो वो हर स्थान में प्रतिबिंबित होता है।"
"मार्ग तुम्हारे पास ही होता है क्योंकि वो शिव तुम्हारे भीतर से तुमको प्रकाशित कर रहा है, बस जब तुम उनको देखने का प्रयत्न करते हो तो वो हर स्थान में प्रतिबिंबित होता है।"
नित्य शिव भाव रहना ही महायोग है। मुख से शिव कहना, मन में शिव रखना,स्वयं के अस्तित्व को शिव से और शिव का समझना ही शिव भाव है। शिव पाप-पूण्य, उच्चता-नीचता, प्रशंसा-निंदा से पार हैं। तुम भी उनके स्वरूप को आत्मसात कर लो। फिर शिव के अतिरिक्त यहाँ कोई और कहाँ?
"कौलाचार" कोई भद्दा कामुक परिहास नहीं है। "कौलाचार" है श्रेष्ठता। जो कुल शिव का हो, जो शक्ति का हो वही कुल "कौलों" का कुल है। जो कुल रहस्यों के आवरण को निर्मित करता हो, जो कुल रहस्यों की आवरण पूजा करता हो, वही "कौल" है। "कौल धर्म है" "कौल शिव हैं" और हम उन्हीं को अपना मानते हैं जो शिव के हैं। संसार में बहुत से हैं जो "शिव द्रोही" है। तब भी हम मौन है, क्योंकि उनकी गति भी प्रलय काल में शिव ही है। "कौल" होने के लिए "घंटाकर्ण वीर" होना जरूरी है। "कौल" होने के लिए शिव का गण "महाकाल" और "वीरभद्र" होना जरूरी है। शिव का होने के लिए बस उनका हो जाना जरूरी है। लोग पूछते हैं की देश के लिए वर्तमान परिस्थितियों के लिए, हम क्या कर रहे हैं? हमारा उत्तर है की सदियों से तुम्हारे संसार और इस देश के लिए, इसकी संस्कृति के लिए, कौन कार्य कर रहा है? देश की राजनीति हो या धर्म, नई पीढ़ी की दिशा हो या परिवर्तन का अभियान। हम सर्वत्र उपलब्ध हैं। अभी बताने का समय नहीं आया। लेकिन तुम्हारे साथ झंडे थामने वाला एक हाथ "महाहिन्दू" का है, शिव के "कौल गण" का है। जब तुम पिटते हो, तुम्हारे साथ हम भी पिट रहे हैं। जब तुम भूखे सोते हो, हम भी भूखे सो रहे हैं। देश के लिए, संसार को बदलने के लिए, तुम भी सामने हो और हम भी सामने हैं। बस अंतर ये है की तुम संसार के कार्य दिखा-दिखा कर, बता-बता कर करते हो और धर्म को अध्यात्म को अपने ह्रदय में रखते हो, हम उलट हैं, धर्म को अध्यात्म को बता-बता कर करते हैं, दिखा-दिखा कर करते हैं। लेकिन देश हित और विश्व कल्याण के कार्य गुप्त रीति से करते हैं। हमने तुमसे नहीं पूछा की क्या तुम शिव की पूजा करते हो? तो तुम मत पूछो की हम क्या करते हैं। "महाहिन्दू" को कभी भी मूक बैठा हुआ नहीं मानना चाहिए, वो तो मृत्यु आने के बाद भी बोलता है। क्योंकि वो शिव पर विश्वास रखता है और शत्रुओं से अनुरोद्ध करता है की शांति में सहयोग दें। अन्यथा आखिर में सिंह गरज उठाता है। धर्म सत्संग का विषय नहीं है, कथाओं का विषय नहीं है। वो तो निरंतर जीवन है, योग क्षेम है। एक ऐसी उच्चता है जो विनम्रता देती है। कडवे वचनके साथ ही मीठा ह्रदय देती हैं। लेकिन इन सबके बाबजूद "कौलान्तक संप्रदाय" का गोपनीय ज्ञान एक रहस्य था और रहेगा। बस उजागर होगी तो "महाहिन्दुओं" की सनातन गौरव दास्तान।
"विरह सौभाग्य है, श्रेष्ठता है, पवित्रता है....विरह तो साक्षात् वरदान ही है...........होठों को थरथराहट आँखों को सजलता देता है.........सिसकारियों के बीच कविता उठने लगती हैं......विछोह के बीच मिलन के गीत उठने लगते हैं.....आंसुओं की झिलमिलाहट प्रिय दर्शन में सहयोगी हैं....ये एक ऐसा सौभाग्य है कि तुम्हें........मीरा.......सूर.......कबीर.......की श्रेणी में खड़ा कर पूर्णता प्रदान करेगा, विरह दुःख नहीं है....विरह शत्रु भी नहीं..."-'कौलान्तक पीठाधीश्वर महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी महाराज"-कौलान्तक पीठ टीम-हिमालय.