गुरुवार, 24 मई 2018

कुण्डलिनी महाचन्द्रायणम्

मानव शरीर के भीतर एक विलक्षण चमत्कारी शक्ति छिपी है जैसे मानो हमारे भीतर एक विराट संसार एक विराट उर्जा का पिंड या एक लघु ब्रह्माण्ड छिपा हो । साधक साधनाकाल मेँ जबतक इन प्रत्येक विषयोँ को न जान लेँ तो साधना का सार ही न समझ पाए । ये जो भीतर की शक्ति है इसे कुल कुण्डलिनी शक्ति कहा गया है । कुल कुण्डलिनी का तात्पर्य है एक पूरा समूह । "कुल" कहते है एक लम्बी परंपरा को, तो कुल कुण्डलिनी का तात्पर्य है कि जो भीतर अदृश्य शक्ति विद्यमान है जो भीतर एक अलौकिक सत्ता है उसके सारे प्रारुपोँ को जान लेना कुल कुण्डलिनी को जानना हुआ । कुण्डलिनी का यदि शाब्दिक अर्थ देखा जाए तो इसका अर्थ है कुण्डल के समान विद्यमान कोई शक्ति । कुण्डल मेँ जो "इ" की मात्रा लगी है "ल" के बाद वो इकार शक्ति का प्रतीक है और हमेशा इकार ही अर्थात् "इ" शब्द, "इ" की मात्रा शक्ति का बीज कहलाता है, शक्ति का बोध कराता है । जैसे "शिव" है । "शिव" मेँ से यदि ये छोटी "इ" की मात्रा निकाल दी जाये तो शिव "शव" हो जायेगा । शव का अर्थ है मृतक, मरा हुआ । तो हम शक्ति को समझेँ, हम इकार को समझेँ लेकिन याद रहे ये इकार भी जब तक शव ना हो तब तक निरर्थक है अर्थात् शिव और शक्ति जब तक एकदुसरे से जुडे हुए ना हो तब तक कुछ भी पूर्ण नहीँ । इसीलिए शास्त्रोँ मेँ एक सुंदर शब्द आया है "आत्मरति"...अर्थात् अपने आप मेँ आनंद लेना...और ये आत्मरति जो शब्द है इसका चित्रण अर्धनारीश्वर के रुप मेँ हुआ...कि हम स्वयं ही अपने आप मेँ नर भी है, हम स्वयं ही अपने आप मेँ नारी भी है । हमारे भीतर दोनोँ ही तरह की संभावनाएँ छिपी पडी है लेकिन जब हम इस कुल कुण्डलिनी की बात करते है तो कुल कुण्डलिनी एक ऐसी विशिष्ट उर्जा है जिसे हम चेतना का महाविकास कह सकते है । हमारे भीतर असीम संभावनाएँ विद्यमान है जो कुण्डलिनी के रुप मेँ है । कुण्डलिनी एक विकास की प्रणालि है, एक चेतना का तरीका है, एक उपाय अपने आप को विकसित करने का । लेकिन हम कुण्डलिनी शक्ति के बारे मेँ अधिक नहीँ जानते इसीलिए कुण्डलिनी शक्ति के जागरण के लिए हमने शीर्षक दिया "महाचन्द्रायणम्" । सर्वप्रथम तो ये समझ लेते है कि "चन्द्रायण क्या है ?" यदि हम धर्मग्रंथोँ को टटोले, शास्त्रोँ को टटोले तो उसमेँ एक शब्द आता है "चन्द्रायण व्रत" आखिर क्या है ये चन्द्रायण व्रत ? शास्त्र नेँ कहा कि जहाँ किसी भी मनुष्य से कोई बहुत बडा पातक हो जाए...गौहत्या, ब्राह्मणहत्या, गुरुनिन्दा, परस्त्रीगमन इत्यादि इत्यादि ये सभी महापाप-महापातक कहलाए जिनका कोई प्रायश्चित नहीँ है । यदि इस प्रकार के दोष मानव को लग जाएँ तो इसका एक मात्र निदान है "चन्द्रायण व्रत" । अब ये चन्द्रायण व्रत तीन-चार प्रकार के होते है । एक चन्द्रायण नव दिवस का होता है, एक चन्द्रायण अठ्ठाईस दिन या उनत्तीस दिन अर्थात् चन्द्रमा की दो कलाओँ के बराबर का होता है, एक चन्द्रायण दो अयनोँ का होता है अर्थात् उत्तरायण और दक्षिणायन अर्थात् एक वर्ष का एक चन्द्रायण ! तो जो "महाचन्द्रायण" हम शीर्षक दे रहे है तो इसका तात्पर्य है कि हमेँ न जानेँ कितने पापोँ का प्रायश्चित करना है क्योँकि जब हमेँ ये मालूम हो की एक गौहत्या, ब्राह्मण की निन्दा अथवा गुरुनिन्दा करने से ही हमेँ भयानक पाप लग गया है तो उससे यथाशीघ्र मुक्ति हेतु हमेँ चन्द्रायण करना होगा लेकिन हम स्वयं मेँ ये नहीँ जानते कि हमने जन्मोँ जन्मोँ से कितने पाप किये है ! हमनेँ क्या क्या कलुष भीतर भर रखे है ! हम पूर्णतः आप्लावित है जन्मोँ जन्मोँ के दूषित संस्कारोँ से ! हम ऐसे घडे है ऐसे कलश है जो हलाहल विष से, कालकूट विष से भरे हुए है ! लेकिन तथापि ये ज्ञान होने के पश्चात भी हम अपने आप को बहुत उज्जवल मानते है, बहुत निखरा हुआ मानते है...इसका कारण है वो कुण्डलिनी शक्ति, वो अन्तश्चेतना, वो महाविराट शक्ति ! क्योँकि वो स्वभाव से पवित्र है, स्वभाव से दिव्य है, स्वभाव से चैतन्य है ! लेकिन जन्मोँ जन्मोँ के पापोँ से दबी हुई होने के कारण अपने आप को नहीँ जानती ! इसलिए हमेँ जन्म जन्म के पापोँ को जिस प्रणाली से नष्ट करना है अथवा जिस माध्यम से जन्म जन्मोँ की सोई इस कुण्डलिनी को जगाना है उसके लिए जो प्रायश्चित करना होगा या उसके लिए जो विधि अपनानी होगी वो है महाचन्द्रायणम् ।
यदि एक वर्ष सिर्फ एक पाप को नष्ट करने के लिए लग जाते है तो न जानेँ इस कुल कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करने के लिए हमेँ कितना समय लग जाये ! लेकिन ये तो एक गौरव का विषय है, ये तो एक आनंद का विषय है कि बहुत कम साधक इस क्षेत्र की ओर मुड पाते है...और जो मुडा उसने निश्चित ही बहुत कुछ प्राप्त किया है, वो निश्चित ही गौरवान्वित हुआ है उसने अवश्य ही अपने वास्तविक मार्ग को खोज लिया । अत्यंत उर्जामय, अत्यंत विराट, अत्यंत सूक्ष्म ये शक्ति है कुण्डलिनी शक्ति ! योग कहता है, तंत्र कहता है कि हमारे भीतर बहुत गहरे मेँ, बहुत सूक्ष्म मेँ ये शक्ति छीपी है लेकिन हम मेँ से बहुत लोग ये कल्पना करते है कि ये कुण्डलिनी शक्ति हमारे शरीर मेँ विद्यमान है ! जब कि ऐसा नहीँ है...कुण्डलिनी शक्ति हमारे इस शरीर मेँ नहीँ...वो तो सूक्ष्म शरीर मेँ है । यदि आप इस शरीर का विच्छेदन करते है, इसे चीरते-फाडते है और कुण्डलिनी चक्रोँ को देखना चाहेँ तो वे नहीँ मिलेँगे ! हाँ, उनके स्थान इस देह मेँ अवश्य है.. जैसे आज्ञा चक्र, सहस्त्रहार कमलदल, विशुद्ध चक्र, मणिपुर, मूलाधार इत्यादि ! लेकिन वास्तव मेँ इनकी क्रियान्वित होनेवाली शक्ति सूक्ष्म शरीर मेँ विद्यमान है !
योग कहता है कि हम पञ्चकोशयुक्त जीवन जीते है ! पाँच कोशोँ के परिणाम स्वरुप ये मानवजीवन हमेँ प्राप्त हुआ है : अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश, अनंदमय कोश । जो ये हमारा शरीर हमेँ नजर आ रहा है ये अन्नमय कोश है क्योँकि इसका भरण अन्न के द्वारा होता है, भोजन के द्वारा होता है अतः ये अन्नमय कोश हुआ । तदन्तर प्राणमय कोश...जिसके माध्यम से ये देह जीवित है, इस देह के पीछे जो पर्दा है उस पर्दे के पीछे जो वास्तविक स्थिति है वो प्राण है ! उन प्राणोँ का प्राणवायु के साथ भी संबंध है । वास्तव मेँ इस प्राण को खिँचनेवाला और इसे छोडनेवाला जो कारण शरीर भीतर विद्यमान है वो प्राणमय कोश हुआ । मनोमय कोश अन्नमय शरीर को भी और प्राणमय शरीर को भी सर्वदा सर्वदा गतिशील रखनेवाला एक "तत्त्व" है ! जो मस्तिष्क नहीँ, जो विचार नहीँ...एक स्वतंत्र शक्तिरुपी सत्ता है ! ये देह रहे अथवा न रहे तो भी मन विद्यमान रहता ही है ! और उसी मन मेँ...हमारी सारी याददास्त जैसे मस्तिष्क मेँ भण्डारित रहती है वैसे ही उस देह मेँ भी विद्यमान रहती है ! इसीलिए जो भी व्यक्ति पुनर्जन्म लेता है, उसका मस्तिष्क तो नष्ट हो गया ! तो उसे पूर्व जन्म की स्मृति कैसे रहेगी ! उसका आधार है मनोमय शरीर ! चौथा शरीर है विज्ञानमय शरीर...इसी शरीर के भीतर एक अलौकिक शरीर विद्यमान है जिसका कोई आकार नहीँ, जिसका कोई प्रकार नहीँ ! वो शरीर किसी भी रुप मेँ ढल सकता है, किसी भी पदार्थ मेँ परिवर्तित हो सकता है, किसी भी सत्ता को अपने भीतर अनुभव कर सकता है ! तो वो जो अलौकिक शरीर है उसे "विज्ञानमय" इसीलिए कहा गया, क्योँकि उस शरीर मेँ जब योगीपुरुष अथवा साधक की गति होती है तो वो विज्ञान का अतिक्रमण कर जाता है ! इस सृष्टि का प्रत्येक विज्ञान उसके लिए सुलभ हो जाता है ! वो जगत को जान जाता है ! वो सब कुछ जान जाता है ! कि ये प्रपञ्च आखिर चल क्युँ रहा है ! आखिर मेँ जी क्युँ रहा हुँ ! आखिर मेँ भोजन क्युँ कर रहा हुँ ! मैँ नृत्य क्युँ करता हुँ ! मैँ संगीत मेँ क्युँ बन्धा हुआ हुँ !...और यही असलियत है ! यही हकिकत है ! यही सत्यता है !...तो विज्ञनमय शरीर चौथा शरीर है ! और इस शरीर के बाद पञ्चम शरीर आनंदमय शरीर है ! जो कि वास्तविक स्थिति है हमारे शरीर की ! तो ये पंचकोश एकसाथ हमारे भीतर है लेकिन हम इनसे अपरिचित है ! ठीक इसी प्रकार सातोँ लोक हमारे ही भीतर है : भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, सत्यम् ! हमारे शरीर के भीतर, हमारे देह के भीतर अलौकिकता ही अलौकिकता है !

हमारे ही इस शरीर के भीतर कुल कुण्डलिनी है जिसे तन्त्रशास्त्र नेँ कमलदल के रुप मेँ चित्रित किया है और एक एक चक्र हमारे ही शरीर मेँ क्रमशः है । मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपुर चक्र, अनाहत चक्र, विशुद्ध चक्र, आज्ञा चक्र और सहस्त्रहार कमलदल अथवा सहस्त्रहार चक्र ये सातोँ के सातोँ चक्र हमारे ही शरीर के भीतर विद्यमान है । इसी प्रकार शरीर मेँ ये जो चक्र हमेँ नजर आ रहे है ये कमल के रुप मेँ नहीँ है, ये तो प्रतीकात्मक स्वरुप है इनका ! और साधक को इस संपूर्ण कुल कुण्डलिनी को भली प्रकार समझना होता है । यही कुल कुण्डलिनी योग का मूल है और जब तक हमेँ इस कुण्डलिनी शक्ति का ज्ञान न हो तब तक हमारे समस्त योगासन, प्राणायाम, मंत्र, ध्यान इत्यादि की क्रियाएँ व्यर्थ है । इसी कुल कुण्डलिनी शक्ति को मूलाधार से जागृत किया जाता है । हमारे इस मूलाधार मेँ एक दिव्य, अदृश्य सुप्त पडी शक्ति विद्यमान है । योग, साधना, तप के माध्यम से इस शक्ति को जागृत किया जाता है और धीरे धीरे मूलाधार चक्र से ये शक्ति उपर की ओर बढती चली जाती है, मूलाधार-स्वाधिष्ठान-मणिपुर-अनाहत-विशुद्ध-आज्ञा-सहस्त्रार कमलदल तक । और ज्युँ ही ये दिव्य शक्ति सहस्त्रहार कमलदल तक पहुँचती है वैसे ही योगी को महासमाधि का ज्ञान प्राप्त होता है । वो दिव्य होकर उस परम परमात्मा से साक्षात्कार कर लेता है । तब वह जीवन और मृत्यु के चक्र से मुक्त होकर परम शाश्वत सत्य की प्राप्ति करता है । वो दिव्य हो उठता है, वो चैतन्य हो उठता है, वो अलौकिक हो जाता है । यही कुण्डलिनी शक्ति हमारे जीवन का मूल है । कुण्डलिनी शक्ति ही हमेँ उर्जा देती है । कुण्डलिनी शक्ति ही हमेँ निरंतर जीवन जीने के लिए प्रेरित करती है और यही कुण्डलिनी शक्ति कोई अलग सत्ता नहीँ, हमारा ही स्वरुप, हमारी ही शक्ति है । हम अपनी ही शक्तियोँ से अनभिज्ञ है । हम अपने आप को ही नहीँ जानते, अतः योग नेँ कहा कि तुम मार्ग की खोज करना, तुम शोध करना, तभी तुम इस दिव्य शक्ति के विषय मेँ कुछ जान सकोगे और जब तक हम महाचन्द्रायण जैसे व्रत न करेँ, (व्रत का अर्थ है : दृढ संकल्प) जब तक हम इस कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करने का महाचन्द्रायण न कर ले तब तक ये शक्ति जागृत न हो सकेगी इसलिए दृढ विश्वास के साथ, योग्य गुरु के सानिध्य मेँ इस महाचन्द्रायण को करना चाहिए । अपनी सुषुप्त पडी इस महाउर्जा को जागृत करना होगा और इसके लिए हमेँ निरंतर प्रयास करने होँगे । धीरे धीरे जब हम इसके एक एक चरण को समजते है तो हम इस कुण्डलिनी शक्ति को जानना शुरु करते है ।
जिस प्रकार एक अणु के भीतर एक विराट शक्ति विद्यमान है ठीक उसी प्रकार हमारे भीतर भी एक दिव्य शक्ति विद्यमान है और इसी दिव्य शक्ति नेँ पञ्च तत्त्वोँ को समेटकर इस देह का संबंध बनाया है, इस देह को पूर्णतया निर्मित किया है ।
पृथ्वी, जल, वायु, गगन, समीर, महातत्व न जानेँ कितनी वस्तुओँ से, कितनी दिव्य शक्तिओँ से ये देह बनी हुई है और ये सारे के सारे तत्व हमारे ही भीतर विद्यमान है । सातोँ के सातोँ लोक हमारे ही भीतर विद्यमान है । हमारे भीतर अपार संभावनाएँ है । मनुष्य-मानव ही वो है, ऐसा जीव है जो अनंत विकसित हो सकता है, जो अनंत गुणित हो सकता है, जो पारब्रह्म को प्राप्त कर सकता है, जो अपने आप को अतीन्द्रिय कर सकता है क्योँकि उसके भीतर ये महाशक्ति विद्यमान है...तो साधक इसकी खोज करे, साधक इसे जानेँ और इसको जागृत करनेँ का प्रयास करे...हालाँकि जागृत बहुत कम लोगोँ की होती है, बहुत कम साधक ही इसे जागृत कर पाते है, लेकिन हमेँ हिम्मत नहीँ हारनी है, हमेँ तो प्रारम्भ करना है, हमेँ तो बस मार्ग पर चलना है, जो भी मार्ग पर चलेगा वो अवश्य ही कुछ न कुछ पायेगा जरुर ! - ईशपुत्र