
ज्योतीष भविष्य को जानने का प्रयास है । व्यक्ति के भीतर अज्ञात मेँ एक चाह छीपी रहती है कि इस जगत मेँ जो भी कर रहा हुँ इसका भविष्य मेँ क्या होगा ? और यही जिज्ञासा व्यक्ति को भविष्यदर्शन की ओर आकृष्ट करती है । वेदोँ और शास्त्रोँ मेँ ज्योतीष का विवरण है । जो जीवन को ज्योति दिखाए वही ज्योतीष है । जो तुम्हारे भविष्य को परिवर्तित करवाने मेँ सक्षम हो वही ज्योतीष है । माना कि किसी व्यक्ति की मृत्यु होनेवाली है तो उसके विशिष्ट प्रकार के विधान होते है जिनके माध्यम से मृत्यु को टाला जा सकता है ! अकाल मृत्यु को रोका जा सकता है ! सिर्फ अकाल मृत्यु ही नहीँ जो वास्तविक मृत्यु है उसकी अवधि को भी टाला जा सकता है, ऊपर या नीचे किया जा सकता है ! भविष्य एक रहस्य है एक अंधकार है लेकिन भविष्य मेँ भी हम कुछ आगे झाँक सकते है वो हमारे अतीत पर, आज के वर्तमान पर निर्भर करता है कि हमारा भविष्य कैसा होगा या जो हम होनेवाले है उसकी यात्रा मेँ हम अभी कौन से चरण मेँ पहुँचे है यह जानने का तरीका भी ज्योतीष है । हम लगातार भविष्य की ओर गतिशील है या भविष्य हमेँ लगातार अपनी ओर आकृष्ट कर रहा है; दोनोँ ही परिस्थितियाँ है लेकिन ज्योतीष का तात्पर्य है जो तुम्हेँ ऐसी ज्योति दिखाए जिसके माध्यम से तुम अपनी चेतना के विकास को रुकने न दो उसके मार्ग मेँ आनेवाले संकटोँ को टाल सको, तुम अपनी समस्याओँ का पूर्वनिदान खोज सको, तुम कोई ऐसा कार्य न करो जिस से तुम्हारा भविष्य पतन की ओर तुम्हेँ ले जाए । ज्योतीष का प्रभाव बहुत गहरा है और बहुत शोध इसके सम्बन्ध मेँ आदिकाल से हुए है और आज तो ये बहुत सुंदर बात हो चुकी है कि भारत मेँ बहुत सी विश्व विद्यालयोँ मेँ ज्योतीष को स्थान मिला है और अब हमारे विद्यार्थी वहाँ ज्योतीष विद्या का अध्ययन करेंगे । ज्योतीष विद्या मूलतः भारत मेँ उपजी और ज्योतीष विद्या को समझने से पहले तन्त्र ने दस महाविद्याओँ का विवरण दिया । संपूर्ण ब्रह्माण्ड को दस महाविद्याओँ के रुप मेँ बाँट दिया गया और एक-एक महाविद्या के लिए एक-एक अंक निर्धारित किए गये । वास्तव मेँ अंक बनाने की जो आवश्यकता पडी वो महाविद्याओँ का विवरण देने हेतु पडी । हम आज 1, 2, 3, 4 जैसी गिनतियोँ का सहज प्रयोग करते है लेकिन ये नहीँ जानते कि इसकी उत्पत्ति कितनी गूढ रही है ! भारत मेँ सबसे पहले अंकविज्ञान की खोज की गई । तन्त्र के चरमोत्कर्ष मेँ पहुँचे हुए वैज्ञानिकोँ, ऋषि-मनीषियोँ, योगियों ने अंकोँ की खोज की; जैसे एक शक्ति या महाविद्या को नाम "कालिका" दे दिया गया, दुसरी को तारा, छिन्नमस्ता, भुवनेश्वरी, मातंगी इत्यादि-इत्यादि; आज भी तन्त्रशास्त्रोँ मेँ इनकी पुजन विधियोँ के अन्दर बहुत से रहस्य और इनके वास्तविक स्वरुप छिपे पडे है । यदि हमेँ ज्योतीष को पूर्णतया समझना होगा तो पहले अंकोँ को समझना होगा और ब्रह्माण्ड को समझना होगा और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की परिकल्पना इन दस महाविद्याओँ के भीतर समाहित है । विनाश की देवी कालिका है अर्थात् संपूर्ण सृष्टि जिस दिन नष्ट हो जाये (शून्य से निकली थी और जिस दिन शून्य मेँ विलीन हो जाये) वह महाकालिका है और शून्य की खोज कितनी गहरी है कि उन्होनेँ जब कालिका नाम की महाविद्या का दर्शन किया, उसे पाया, उस महाविद्या की खोज की तो उन्होनेँ जाना कि एक अज्ञात स्थान से एक साकार वस्तु या शक्ति उत्पन्न हो रही है और एक निराकार या अज्ञात मेँ पुनः खो जाती है; और दुसरी बात कि स्वयं यदि हम उसे खोजने चले कि वह क्या है तो उसका अस्तित्त्व नहीँ मिलता । वो स्वयंभु नहीँ है लेकिन है भी, वो शक्ति है लेकिन बिना शिव के उनका कोई अर्थ नहीँ है इसलिए वो शिव की दासी कहलाई गई और इसी भाव को लेकर के एक ऐसे अंक का आविष्कार हुआ जिसका नाम शून्य पडा । शून्य कौन है कहाँ से आता है इसका कितना परिमाण है कोई नहीँ जानता क्योँकि वह शून्य है । शून्य का भविष्य क्या है ? वह भी शून्य है और शून्य का शेष क्या है ? वह भी शून्य है; अर्थात् वो कुछ है ही नहीँ (वो शून्य है) लेकिन फिर भी "शून्य" नाम की सत्ता है; वो अपने आप मेँ सत्ता है और उसका पता हमेँ तभी चलता है जब वह शक्ति शिव के साथ जुड जाये अर्थात् जब वह शून्य किसी और अंक के साथ जुड जाए । 1 के साथ 0 जुड जाए 10, 2 के साथ जुड जाए तो 20, 8 के साथ जुड जाए तो 80 और 9 के साथ जुड जाए तो 90; और कहाँ वो 0 बिलकुल शक्तिहीन और कहाँ 9 अत्यंत लघुशक्तियुक्त ! लेकिन जैसे ही उस लघु के साथ इस परम रहस्यमय (0) का मिलन होता है तो यह 90 नाम की एक महाशक्ति मेँ परिणत हो जाता है; लघु सा 9 एक लघु यात्रा से विराट यात्रा तय कर जाता है ! कितनी गहरी खोज रही है अंकोँ की ! और हमने कभी इन विषयोँ पर ध्यान नहीँ दिया । तो ज्योतीष और तन्त्र की जो सबसे पुरानी खोज है दस महाविद्याएँ और वास्तव मेँ ये जो अंक है जिन्हेँ हम 0 से लेकर 9 तक प्रयुक्त करते है ये दस महाविद्याएँ है; इनके भीतर दस महाविद्याओँ का प्रारुप छिपा है और जिसे हम 1, 2, 3 कह रहे है इनके पीछे न जाने कितने ब्रह्माण्ड, कितने रहस्य, कितनी अलौकिकताएँ और क्या-क्या छिपा हुआ है ! हम तो मात्र इन्हेँ बाहर से देख रहे है । बडी गहरी बात है और ये हमारी समज से परे है इसलिए हमेँ साधक बनना पडता है, तप करना पडता है ताकि हम इसे जान सके । और याद रहे कि, दस महाविद्याओँ को जो नहीँ जानता वो वास्तव मेँ ज्योतीषी नहीँ हो सकता; वो ज्योतीषी होने का ढोंग तो कर सकता है लेकिन वास्तव मेँ ज्योतीषी वही है जिसने दस महाविद्याओँ को पहले आत्मसात् कर लिया हो; वो उनके बारे मेँ पूर्णतः बेशक न जानेँ लेकिन उनका कुछ ज्ञान तो रखेँ, तभी उसके भीतर अंकोँ की जानकारी का उदय होता है और जब उसके पास अंकोँ का निर्माण हो गया है तभी वह ज्योतीष की विधाओँ को जान पाता है । एक-एक अंक मेँ ब्रह्माण्ड का एक-एक हिस्सा छिपा है और बडी गूढतम बात है कि एक ज्योतीषी ने जैसे ही दस महाविद्याओँ को जान लिया तो उसका त्रिकालदर्शन सहज हो जाता है फिर वह ज्योतीष के लिए बाह्य आवलम्बन खोजता है, वो देखता है कि मैं इस सृष्टि मेँ लगातार बन्धा हुआ हुँ, काल की एक निश्चित गति है और मैँ उस काल की गति मेँ बन्धा हुआ हुँ । याद रहे दस महाविद्याएँ बिना शिव के नहीँ चलती और इसी शिव को "महाकाल" कहा गया है और दस महाविद्याओँ मेँ एक शक्ति है जिसका नाम है "धूमावती" जिसने अपने शिव को ही निगल लिया है और यही जो धूमावती है वही हमारा वर्तमान काल है । हमने अपने शिव को निगल रखा है अर्थात् हम जो है वह हम नहीँ जानते । हमने अपनी शक्ति को भीतर दबा रखा है, हम बाहर से उद्दंड और अनियमित है इसलिए धूमावती का चित्रांकन एक वृद्धा के रुप मेँ, एक भूखी, बुढी स्त्री के रुप मेँ किया गया है और जिसे बहुत ही अशुभ माना गया है । तो व्यक्ति स्वयं धूमावती स्वरुप रहता है और व्यक्ति की उत्पत्ति शून्य (महाकाली) से हुई है; महाकालिका को प्रथम इसीलिए माना जाता है और सबसे छोटी तथा दसवीँ महाविद्या श्रीविद्या है जिसे कमलात्मिका कहा जाता है । हमारी गति शून्य से साकार की ओर लगातार है अर्थात् हम अज्ञात से ज्ञात की ओर जाना चाहते है यही संपूर्ण प्रक्रिया ज्योतीष है और "शिव" जिस शक्ति को हम "महाकाल" कह रहे है वह काल का नियंत्रक है और काल का कोई नियंत्रक कैसे हो सकता है ? क्योँकि काल तो साक्षात् ईश्वर स्वरुप है; तो जो ईश्वर है हमने उसे ही "महाकाल" कहा है ! और जो ईश्वर का फैलाव है तथा जिस सत्ता के तहत यह संपूर्ण ब्रह्माण्ड, संपूर्ण आत्माएँ, संपूर्ण अस्तित्त्व गतिशील है वह काल ही है । काल के अन्तर्गत ही सबकुछ चलता है, सबकुछ निश्चित है और जो होनेवाला है वह भी निश्चित ही होता है । ये बहुत गहरी और गूढ बात है और आज ज्योतीषी अपने इन मूल तथ्योँ को ही भूल चूके है, वे आज महाकाल की उपासना तो करते है लेकिन महाकाल के विषय मेँ जानते नहीँ ! वे काल की गणनाओँ के चक्कर मेँ तो है लेकिन काल क्या है ये जानते नहीँ इसीलिए हमेँ यदि ज्योतीष को समझना है तो कुछ गहरे धरातलोँ पर उतरना होगा ।
ज्योतीष का मूलाधार काल है । यही काल इस सृष्टि को चला रहा है और हम इस सृष्टि के साथ आबद्ध है और यह सृष्टि बहुत अद्भुत संरचना है । एक-एक नक्षत्र का अलग-अलग प्रभाव है । नक्षत्रोँ के अतिरिक्त और भी अधिक प्रभाव ग्रहोँ का होता है । 9 ग्रह जो पृथ्वी की चारोँ तरफ है उनका सर्वाधिक प्रभाव इस पृथ्वीमण्डल के वायु, जल, आकाश और अग्नि पर भी पडता है । पश्चिम के ज्योतीषी सूर्य की गणनाओँ को प्रमुख आधार मानकर ज्योतीष का फलादेश बताते है क्योँकि उन्होनेँ पाया कि जैसे ही सूर्य मेँ कुछ गडबडेँ होती है तो वह गडबडेँ पृथ्वी पर भी आती है और इसीलिए सायन ज्योतीषी ये मानते है कि हर दस से ग्यारह वर्ष के बीच पृथ्वी पर जो लडाईयाँ, युद्ध क्रान्ति या विनाश होता है वह सहज है क्योँकि हर ग्यारह वर्ष के अन्तराल पर सूर्य मेँ ऐसी विशेष हलचलेँ होती है और उन्होनेँ इस चीज का बहुत गहरा अध्ययन किया । भारत के मनीषियोँ ने देखा कि पृथ्वी के सबसे निकटतम जो पिंड है उसका मनुष्योँ और प्रकृति के ऊपर एक बडा विशेष प्रभाव पडता है । उन्होनेँ अनेक प्रयोग किये; वे जान गये कि चन्द्रमा पृथ्वी की सबसे निकट है और चन्द्रमा का प्रभाव पृथ्वी के वायुमण्डल के भीतर अनेक तरह की उथल-पाथल मचाता है, यहाँ तक कि समुद्र मेँ स्थित अपार जलराशि पर भी चन्द्रमा का प्रभाव पडता है । इतिहास मेँ जितने भी लडाई-झगडेवाले लोग हुए है वे सब किसी सौम्य ग्रह मेँ उत्पन्न ही नहीँ होते, वे अवश्य ही किसी न किसी क्रुर ग्रह के साथ बन्धे रहते है । जितने भी खून-खराबे इस जगत मेँ हुए है, जितने भी लडाई-झगडे करवानेवाले लोग उत्पन्न हुए है वे मंगल को लेकर साथ चलते है । जितने भी शान्तिप्रधान लोग है उनकी कुण्डली मेँ चन्द्रमा की प्रबलता रही है, तो इसी प्रकार से भिन्न-भिन्न व्यक्ति पर भिन्न-भिन्न प्रकार के ग्रहोँ का विशेष प्रभाव रहता है । हमारा ज्योतीषशास्त्र तो ये कहता है कि व्यक्ति अपनी स्वेच्छा से कोई जन्म नहीँ ले सकता क्योँकि उसके पिछले जन्म के संस्कार जिस कोटि के है और जितनी उसकी चेतना विकसित है उसी स्तर के अनुरुप उसी ग्रह की अन्तर्दशा या प्रभाव मेँ उस विशेष आत्मा को देह धारण करने का अवसर मिलता है; ये बात सिर्फ कुछेक योगियोँ पर लागु नहीँ होती जिन्होनेँ आत्मसाक्षात्कार कर रखा है क्योँकि वे स्वेच्छा से जन्म लेते है; उन पर ग्रह तो प्रभाव करते है लेकिन जन्म का ग्रह उन पर विशेष प्रभाव नहीँ डालता । जिस दिन हम दस महाविद्याओँ को जान जायेँगे तो ब्रह्माण्ड के चप्पे-चप्पे को जानना प्रारंभ कर देंगे, उस दिन हमारा ज्योतिष पृथ्वीमण्डलीय नहीँ अपितु ब्रह्माण्डीय हो जाएगा । कुछ लोग पैरोँ की रेखाएँ देखते है, कुछ मस्तक की और हाथोँ की रेखाएँ देखते है यह ज्योतिष बहुत निम्नस्तर का ज्योतिष है । वास्तविक ज्योतिष तो महाविद्याओँ से प्रारंभ होता है । रक्त, ह्रदय की धडकन और हमारे सोचने के तरीकोँ पर ग्रहोँ का बडा गहरा प्रभाव पडता है । जो हमारा दैहिक व्यवहार है वह ग्रहोँ के कारण इसलिए निर्देशित हो जाता है क्योँकि हमारा रक्त, ह्रदय और मस्तिष्क उसके प्रभाव मेँ है तो हम उसी प्रकार की प्रतिक्रियाएँ करते है; यदि सौम्य ग्रह है तो हम सौम्य रहते है, उस दिन हम बहुत सी असहनीय बातोँ को भी सह जाते है लेकिन जिस समय ग्रहदशा उचित न हो, क्रुर ग्रह हो तो एक लघु सी बात के पीछे भी युद्ध हो सकता है । पशु-पक्षी और जीव-जंतुओँ की विभिन्न गतिविधियोँ के माध्यम से जाना जा सकता है कि भुकम्प आनेवाला है या प्रकृति मेँ कोई विनाशकारी तुफान आनेवाला है; जैसे ध्रुवीय प्रदेशोँ के पक्षियोँ को पता चलता है कि अब शीत ऋतु आनेवाली है तो शीत ऋतु मेँ बर्फबारी होने से एक माह पूर्व ही सभी पक्षी पलायन कर जाते है, तो उनके भीतर ऋतु का ये ज्ञान कैसे है ? अर्थात् कोई न कोई चेतना उनकी इस मौसम से, इस पृथ्वी के तापमान से जुडी हुई है, मानव की भी जुडी है लेकिन मानव की जो चेतना है वह उसने स्वयं कुंठित कर ली है; जिस दिन उनकी चेतना पुनः विकसित हो जाएगी तो वह भी सहजता से इन घटनाओँ को जान जाएगा । व्यक्ति इस जीवन मेँ कहने को तो पूर्ण स्वतंत्र है लेकिन वह पूरी तरह स्वतंत्र नहीँ है; उसकी स्वतंत्रता एक सीमित क्षेत्र मेँ सीमित सी होती है, बाकी तो वह अपनी चेतना के विकास के माध्यम से बंधा हुआ है, ग्रहोँ की दशा मेँ बन्धा हुआ है, इस संपूर्ण ब्रह्माण्ड मेँ बन्धा हुआ है इसीलिए तो इसे "मायाजाल" कहा गया है । विभिन्न-विभिन्न प्रकार के अवतार विभिन्न-विभिन्न प्रकार के नक्षत्रोँ और ग्रहोँ मेँ उत्पन्न होते है और जैसा ग्रह और नक्षत्र रहा है व्यक्ति की वृत्तियाँ वैसी रही है । आज मैँ आपके सम्मुख हुँ ! कभी किसी ज्योतिषी से यदि मेरी कुण्डली का आप विश्लेषण करवायेंगे तो उसे कुछ हैरानी होगी ! कि यह व्यक्ति यदि योगी है, यति है, सन्यासी है, सन्त है या गूढ व्यक्तित्व है तो इसका कारण बृहस्पति है लेकिन साथ ही उसे हैरानी होगी कि यह व्यक्ति उचित नहीँ है ! और वास्तव मेँ मैँ एक "उचित व्यक्ति" नहीँ हुँ ! वो इसलिए क्योँकि जिस उद्देश्य के लिए मैँ इस जगत मेँ अभी तुम्हारे सम्मुख हुँ, अपने प्रेमी साधकोँ के सम्मुख हुँ वह बहुत टेढा विषय है और मैँ जानता हुँ कि यह जगत साधारण तरीके से ये बात ग्रहण नहीँ करेगा इसलिए मैँ भीतर कहीँ "हिंसक" हुँ, इसलिए मैँ भीतर कहीँ "तामसिक" हुँ, इसलिए मैँ भीतर कहीँ "टेढा" हुँ और इसके लक्षण मेरी कुण्डली से झलकते है ! मेरे लग्न मेँ मंगल है और मंगल के प्रभाव के कारण आप देखेँ कि जगत मेँ जितने भी मंगल के प्रभाव मेँ उत्पन्न हुए जातक है सब नेँ बहुत अधिक खून-खराबा करवाया है लेकिन मैँ खून-खराबा नहीँ करवाऊँगा ! करवाऊँगा तो मैँ भी लेकिन वह खून-खराबा उस प्रकार का नहीँ है ! वह बाह्य खून-खराबा नहीँ है, तुम्हारे भीतर का खून-खराबा है ! मैँ एक-एक साधक को उसके भीतर उसे काट दूँगा ! जो छद्म आवरण उसने जिस छद्मता, जिस कृत्रिमता मेँ अपने आप को ढाल रखा है उस कृत्रिमता को मैँ मार दुँगा, उसका विनाश कर दुँगा ! तो मारकाट की वृत्ति मेरे भीतर है ! मैँ तुम्हारा यदि शोधन भी कर रहा हुँ तो वह मेरी वृत्ति भीतर से मेरे जो उपज रही है वह कहीँ हिंसक है ! अरे तुम्हेँ बिना हिंसा के तो परिवर्तित ही नहीँ किया जा सकता ! इस जगत मेँ तो जीवित भी बिना हिंसा के नहीँ रहा जा सकता, ये जगत ही ऐसा है ! और इसीलिए मुझे भी जन्म ऐसे क्रूर ग्रहोँ मेँ मिला ! शनि मेरा बहुत उच्च है और जो क्रूर ग्रहोँ मेँ उत्पन्न जातक होते है अधिकतर वे आतंकवादी, अधिकतर वे दुष्ट रहते क्योँकि ग्रह की उर्जा वैसी जाती है लेकिन एक योगी, एक श्रेष्ठ साधक अपने क्रूर ग्रहोँ की उर्जा को अपने भावोँ, धारणा और ध्यान के माध्यम से, विशेष पद्धतियोँ के माध्यम से साकार पथ की ओर ले जा सकते है ! अब जैसी मेरी कुण्डली है उसके हिसाब से तो मैँ बहुत बडा आतंकवादी बन सकता हुँ क्योँकि मंगल का दोष है ! हिटलर, स्टालिन जैसा व्यक्ति मैँ भी हो सकता हुँ लेकिन मैँ इसे बाह्य हिंसा का प्रारुप नहीँ दुँगा ! मैने अपने आप को बाल्यावस्था से इस रुप मेँ ढाल लिया है कि मैँ अधिक से अधिक हिंसा करुँ, मैँ अहिंसक न रहुँ लेकिन वह जो हिंसा है वह ऐसी न होँ जिससे किसी का अहित होता हो बल्कि वह हिंसा ऐसी हो कि जो अहिंसा की तरह लगे अर्थात् मैँ तुम्हेँ भीतर से मार रहा हुँ, काट रहुँ, तुम्हेँ परिवर्तित कर रहा हुँ ! तुम्हेँ इस जगत के प्रति भडका रहा हुँ कि, 'तुम इस जगत मेँ मत रहो, ये जगत तुम्हारे लिए नहीँ है ! जगत किसी प्रपञ्च के साथ बन्धा हुआ है लेकिन तुम इस प्रपञ्च से सर्वथा मुक्त हो !' तो ये एक प्रकार का भडकाना है तुम्हेँ क्योँकि अगर तुम सहजवृत्ति से जीवन जी रहे हो तो तुम आज यदि मोहनदास या जोहन, जोसफ या यूसुफ कुछ भी हो तो तुम वही रहोगे लेकिन मेरा उद्देश्य है तुम्हेँ जोहन, यूसुफ से निकालकर के "परम विराट" बना देना ! अरे कितनी बडी हिंसा है ये, कितना बडा पाप है ये ! लेकिन यह गौण है । तो आप किसी भी परिस्थिति मेँ देख ले ग्रहोँ का प्रभाव तो कहीँ न कहीँ हमेँ प्रभावित करता ही है । आपके वैवाहिक जीवन मेँ भी ग्रहोँ का बडा गहरा प्रभाव होता है; जिस समय चन्द्रमा उचित पक्षोँ पर हो तो आपके भीतर वासना प्रगाढ रहती है और आप वैवाहिक सुख का भोग भोगते है । जिस समय शुक्र नाम का सितारा आपके जीवन मेँ आ जाए तो आपके जीवन की गति स्त्री पक्ष की ओर हो सकती है । इसी तरह से भिन्न-भिन्न ग्रहोँ का भिन्न-भिन्न कार्योँ पर प्रभाव पडता है । सूर्य के आते ही राजनीति मेँ आप प्रखर हो जाते है । शनि के आते ही आप अत्यंत न्यायवादी होना कर देते है, आपके भीतर न्याय की अभिप्सा जागृत होती है और आप कष्टोँ मेँ फसे रहते है और आप चाहते है कि आपको न्याय मिले लेकिन न्याय नहीँ मिलता और न्याय के लिए एक अद्भुत छटपटाहट शनि देता है । बृहस्पति यदि उत्तम है तो विद्या और बुद्धि मेँ आप प्रकाण्ड रहेंगे । जब कौए और गिदड इस सृष्टि मेँ होनेवाले हलचलोँ को महसूस कर सकते है तो मानव क्योँ नहीँ ? मानव के भीतर आज वो चेतना मर चूकी है; उसकी अतिन्द्रिय शक्ति जिसे आज्ञा चक्र का प्रारुप कहा गया है वह मध्यम पड चूका है इसलिए उसे आज्ञा चक्र की शक्ति को जगाना होगा जिसे चेतना कहा गया है; इन सब के जागृत होते ही वह अपनी चेतना का विकास कर लेगा तो वह भी एक सहज प्राणी हो जाएगा । आज मानव नेँ अपनी मानवीय वृत्तियोँ को मार दिया है इसलिए उसके पास ये सहज शक्तियाँ ना रही है और वह ज्योतिष को खोज रहा है !
अरे तुम प्रकृति से तादात्म्य स्थापित कर लो तो तुम्हारे भीतर बहुत सी ज्योतिषीय विधाओँ का प्रादुर्भाव स्वतः हो जाएगा । तुम दस महाविद्याओँ की खोज करो, उन्हेँ जानोँ तो ज्योतिष और भी सहज हो जाएगा । तुम चेतना का परम विकास करो तो संपूर्ण ब्रह्माण्ड की गतिविधि को तुम जान जाओगे । - ईशपुत्र-कौलान्तक नाथ