मंगलवार, 15 मई 2018

ध्यान 'अस्तित्व की साधना'

(ध्यान की चर्चा से उल्झन बढ जाती है...ध्यान के बारे में सोचने से ध्यान उपलब्ध नहीँ हो पाता...ध्यान सत्संग और प्रवचन का विषय नहीँ...वो तो अस्तित्व से जुड कर अस्तित्व को जानने  की प्रणाली है)

ध्यान 'अस्तित्व की साधना'

ध्यान क्या है ये एक बडा ही गहरा प्रश्न है लेकिन ध्यान में उतरने से पहले ध्यान को जानने के बारे में बहुत लोगोँ की जिज्ञासाएँ रहती है जबकी ध्यान एक ऐसी प्रणाली और प्रक्रिया है कि इसे सीधे ही सीखा जाना चाहिए, अनुभव किया जाना चाहिए जैसे कोई व्यक्ति यदि तैरना चाहता हो तो उसे सीधे पानी में उतरकर अभ्यास करते हुए उसे अनुभव करना चाहिए लेकिन फिर भी जिज्ञासुओँ के मन में ये प्रश्न तो रहता ही है कि ध्यान क्या होता है ? और ध्यान करने से क्या होगा ? हालाँकि इस छोटे से प्रश्न का उत्तर इतना बडा और इतना विराट है कि उसे एक छोटे से अंश में समाहित करना बडा गलत होगा लेकिन फिर भी जो बिलकुल नया साधक है, योग में बिलकुल ही नया है, जो बिलकुल नया प्रशिक्षु ध्यानी है उसके लिए केवल इतना कहा जा सकता है कि ध्यान का तात्पर्य है तुम अपने अस्तित्व का बोध करो अर्थात् अस्तित्व का ज्ञान करना...अपने अस्तित्व का और तुम्हारे चारोँ तरफ जो अस्तित्व विचर रहा है प्रतिपल.. उसका बोध करना । फिर तुम चाहे जीवन मेँ कोई भी कार्य क्योँ न कर रहे हो ! जब तुम उससे गहनता से जुडने लगते हो तो वो ध्यान मेँ परिणत होने लगता है । वास्तव में ध्यान केवल अस्तित्वबोध की प्रणाली ही है । लेकिन हम अस्तित्वबोध से इसलिए नहीँ जुड पाते क्योँकि हमारे भीतर निरंतर एक शोर चल रहा है...कभी विचारोँ का शोर, तो कभी हमारे संस्कारोँ का शोर...ये शोर सदियोँ से चलता आ रहा है, इसी अबुज शोर के बीच मेँ तुम्हारा असली संगीत तुम्हेँ सुनाई नहीँ देता । तुम्हारे चारोँ तरफ ये जो प्रकृति है ये किस साँचे मेँ ढली हुई है तुम इसका पूरी तरह से बोध नहीँ कर पाते । तुम प्रकृति से जुडते तो हो, सर्दी-गरमी अनुभव तो करते हो लेकिन वो सब ऐसे होता है मानोँ तुम आधी निन्द की अवस्था मेँ ये सब अनुभव कर रहे हो, तो ध्यान वो तुम्हेँ इस अज्ञात बेहोशी से जागृत करनेवाली एक सटीक प्रणाली है । ध्यान करने के लिए ध्यानी चेतना का होना अनिवार्य है । जब तुम किसी चीज से बडा गहरा लगाव अनुभव करने लगते हो तो ध्यान की प्रणाली स्वतः घटित होने लगती है । अस्तित्व मूलतया बडा गुप्त है, मानोँ हजारोँ आवरणोँ के पीछे छुपाकर रखा गया हो ! इसीलिए तंत्र मेँ महाविद्याओँ का जब पूजन किया जाता है तो उनका आवरण-पूजन सबसे प्रथम किया जाता है, आवरण का तात्पर्य ही ये है कि वो शक्ति बहुत सारे आवरणोँ के पीछे छिपी हुई है, जब तुम क्रमशः एक एक कर आवरण को हटाना शुरु करते हो तभी तुम मूल शक्ति तक पहुँच बना पाते हो, ठीक इसी भाँति तुम स्वयं में कैसे हो ? तुम्हारा अस्तित्व स्वयं कैसा है ये बहुत सारे पर्दोँ के पीछे छिपा हुआ है इसीलिए हम बाहर के जगत को तो देख पाते है, बाहर के जगत को अनुभव करते है, सुनते है लेकिन भीतर अपने आप को न तो देख पाते है, न ही सुन पाते है केवल महसूस करते है । हमारी सारी इन्द्रियाँ बाहर को जानने में लगी हुई है । जब हम इन इन्द्रियोँ को बाहर के संसार से मोडकर भीतर के संसार की ओर प्रवाहित करते है तो इनकी उर्जा बहिर्जगत की ओर से प्रतिवर्तित होकर भीतर अंतर्जगत की ओर प्रवाहित होने लगती है, तब हम अपने मूल अस्तित्व को जानने लगते है । हमारी इन्द्रियाँ भीतर से जब हमेँ ही देखना शुरु कर दे तब हमें अपने अस्तित्व का बोध होने लगता है । अस्तित्वबोध की व्याख्या करना बडा मुश्किल है, उसे समझाना बडा जटिल है लेकिन अनुभव करने के बाद तुम्हारे जीवन को परिवर्तित हुआ देखना ये बडा सहज और सरल है इसलिए बडे बडे ध्यानी इस पृथ्वी पर आये, उन्होंने अनेकोँ प्रक्रियाओँ से ध्यान करवाया और अनेकोँ विधियाँ ध्यान की प्रदान की लेकिन इन सभी विधियोँ के मूल मेँ केवल अस्तित्व से जुडाव ही था । इस एक ही शब्द को अनेक प्रकार से व्याख्या में लाया गया है । किसी ने कहा कि, "तुम अपने आप को जान जाओगे ध्यान है ।", किसी ने  कहा, "तुम विचारोँ से मुक्त हो जाओ फिर जो स्थिति आयेगी वो ध्यान जैसी होगी"...व्याख्याएँ देते चले गये । लेकिन भगवान शिव से जब पार्वती ने पूछा तो ध्यान के बारे में और समाधि के बारे में उन्होने अधिक कुछ भी नहीँ कहा , उन्होंने व्याख्या नहीँ दी, क्योँकि व्याख्या देना बहुत विपरित हो जाता है इसलिए उन्होंने सीधे "क्रिया" का ज्ञान दिया । उन्होंने जब कहा कि ध्यान क्या है और समाधि तक कैसे पहुँचा जा सकता है तो उन्होंने बिंदुओँ पर, श्वास पर ध्यान लगाने की बात कही । उन्होंने  कहा, 'जो श्वास तुम भीतर ले जा रहे हो तो भीतर जो बिंदु है उस पर ध्यान लगाना और श्वास जब बाहर छोड देते हो तो बाहर कुछ क्षण जो तुम ठहरते हो तो उस बिंदु पर ध्यान लगाना..बस इस प्रक्रिया को कुछ समय करते रहो, लगातार अभ्यास करते रहो तो जो स्थिति होगी वो ध्यान अपने आप पहोँचने लगेगी अर्थात् ध्यान बनने लगेगी और पश्चात वो स्वतः समाधि के द्वार खोल देगी और ऐसी निर्विचार अवस्था आयेगी कि समाधि स्वयं घटित होने लगेगी । जो नया ध्यानी होता है वो कई तरह से खोजना चाहता है कई तरीकोँ से ये जानने की कोशिश करता है कि ध्यान का इतना महत्व बताया जाता है, आखिर ध्यान से होगा क्या ? क्योँकि ध्यान के बारे में जो उसकी अपनी जानकारी है वो बिलकुल अलग होती है । उसे ये बताया गया है कि यदि तुम ध्यान करोगे तो तुम्हारा दिमाग बडा तेज हो जायेगा, ध्यान करने से वृद्धावस्था नहीँ आएगी, ध्यान करने से मन हमेशा शान्त रहेगा, ध्यान करने से व्यक्ति एकाग्र रहेगा; इस प्रकार की जब बहुत सारे गुण वो ध्यान के सुनता है तो ध्यान की ओर आकृष्ट होता है और इसमेँ कोई दो राय भी नहीँ कि ये सब चीजेँ घटित न होती हो, ये तो ध्यान की बहुत छोटी छोटी क्रियाएँ है, छोटे छोटे लाभ है, लेकिन ध्यान इसका सबसे बडा लाभ ये है कि तुम अपने अस्तित्व को जानने लग जाते हो ।
ये ठीक रामायण के हनुमान जी की कथा जैसा है, कि हनुमान जी इतने विराट पुरुष है लेकिन अपने आप को नहीँ जानते ! सागर को देखकर भय के मारे एक कोने मेँ जाकर चुपचाप बैठ गये है ! ये तो जाम्बवंत है, ये तो बाकी उनके साथ गया हुआ पुरा का पुरा मण्डल है, वो वानरयुथ मण्डल जिन्होँने ये कहा कि, "हे हनुमत ! आप ये उदास होकर क्योँ बैठे है ? आप तो पवनपुत्र है ! आप तो सिन्धु को लांघने मेँ समर्थ है ! तो अपनी क्षमताओँ को याद कीजिए और इस सागर को लांघकर पार कीजिए ।" काफी समय हनुमान जी को इस बात का एहसास करने मे लग गया ! लेकिन जब उन्होँने ये एहसास किया तो उन्हें इसमेँ सत्यता नजर आयी और उन्होँने एक लंबी छलांग भरी और लंका जाकर ही वो रुके । ठीक वैसे ही हमारे भीतर की घटना भी है । हम भीतर स्वयं मेँ हनुमान जी से कम नहीँ है ! उनके अंश है, उनके पुत्र है तो उनसे कम कैसे हो सकते है ! लेकिन हम अपनी उन क्षमताओँ को नहीँ जानते । तो ध्यान वानरयुथ की तरह और ध्यान जाम्बवंत की तरह हमेँ इस बात का अहसास दिलाता है कि हम आखिर है कौन ? तब हमेँ अपनी अतीन्द्रिय क्षमताओँ का पता चलना शुरु होता है । तब हमारी जीने की धारा बदल जाती है और ये जरुरी नहीँ कि ये कहा जाए कि हम आध्यात्मिक हो जाते है, आध्यात्मिक हम इसलिए हो जाते है क्योँकि हमें सत्य का ज्ञान हो जाता है तो हम सत्य की राह पर चलने लगते है । जो नाशवान है उससे मुँह मोड लेते है और जो नित्य है उसकी तरफ अपना ध्यान रखना शुरु करते है इसलिए अकसर ये लगता है कि ध्यानी जगत से आँखे मुँद बैठा है लेकिन ऐसा नहीँ है एक ध्यानी उतनी ही सजगता से, उतनी ही चेतना से, उतनी ही प्रसन्नता से जीवन जीता है जितनी प्रफुल्लता से एक आम व्यक्ति जी सकता है...बल्कि ये कहना तो बहुत निम्न हो जायेगा, एक ध्यानी तो इतनी सजीवता से, इतनी सक्रियता से इस जीवन को जीता है जितने एक हजार पुरुष अपने जीवन मेँ इस सक्रियता से जीवन को जीने का प्रयास कर रहे है । तो अतिन्द्रिय क्षमताओँ के साथ पूरे अस्तित्व के साथ जुडकर जीवन जीने की कला ही ध्यान है लेकिन ध्यान की ज्यादा व्याख्याओँ मेँ नहीँ पडना चाहिए केवल तुम्हारा ध्यान आकर्षित हो, केवल तुम उसके कुछ एक गुणोँ को जान सको इसलिए समस्त गुण तुम्हे बताये जाते है । तुम लम्बी आयु जी सकते हो, तुम तनावरहित भी हो सकते हो, बहुत से रोगोँ से तुम बचे रहोगे, तुम्हारा व्यक्तित्व आकर्षक होगा, तुम्हारे भीतर एक अद्भुत सी मीठास, प्रेम और शान्ति होगी, तुम्हारे भीतर एक ऐसा आकर्षण होगा जिसे देखकर सब खिँचे चले आयेगे...ये सब ध्यान के छोटे छोटे गुण है लेकिन जब तुम्हेँ अपने अस्तित्व का ज्ञान हो जाता है तब तो मानो सारी सृष्टि तुम्हारी ओर खिँची चली आती है । तब तुम्हेँ प्रतिपल इस बात का अहसास होने लगता है कि ये चाँद, ये तारेँ, ये नदी, ये पर्वत, ये सब कुछ तुम्हारे लिए ही बनाया गया है; तब तुम इन सब का रसास्वादन करने लगते हो । अभी तो ये केवल है...है तो है...तुम्हेँ कोई फर्क नहीँ पडता । तुम रास्ते से गुजर रहे हो, हजारोँ पेड-पौधे तुम्हारे साथ-साथ गुजरते जा रहे है लेकिन तुम्हेँ उनके होने का कोई अहसास नहीँ है । बहुत से पशु-पक्षी मार्ग मेँ होते हुए निकल जाते है लेकिन तुम उनको अनुभव नहीँ कर पाते । ध्यानी की चेतना असीमित होती चली जाती है । अभी तुम ध्यानी नहीँ हो इसीलिए कहीँ एक आध बिन्दु पर ही तुम अपना ध्यान लगा पाते हो और उसी को एक समय मेँ अनुभव कर पाते हो लेकिन ध्यानी बडा ही विराट होता चला जाता है । ध्यान की अवस्था में उतरते-उतरते चेतना इतनी फैलती चली जाती है कि तुम एक ही समय पर न जाने कितने तत्वो का अहसास करने लग जाते हो, तब जिंदगी बदल जाती है । अभी हम एक समय में या तो ठंडी हवा को या गरम हवा को अनुभव कर सकते हो लेकिन जब ध्यानी हो जाएँ तो पेडोँ से आनेवाली हवा और बहकर आनेवाले हवा और पर्वतोँ से आनेवाली हवा और आंधी से आनेवाली हवा को अलग अलग महसूस कर पाएंगे। हम यदि मार्ग में जा रहे होँ तो हमें पेड-पौधे, पशु-पक्षी गीत-संगीत, सृष्टि का लय, सृष्टि का नाद सब अनुभव होता रहेगा और साथ ही साथ हम इन सबके अनुभव को अपनी चेतना में जोडते चले जाते है जिससे ऐसा प्रतीत होने लगता है कि मानो एक हजार जीवन हम एक ही जीवन में जी रहे हो, तब तुम्हारी खुशी एक हजार गुना बढ जाती है । आज जो खुशी तुम्हेँ अनुभव हो रही है वो एक गुना है । ध्यान की परम अवस्था में जाने के बाद तुम्हारी वही खुशी एक हजार गुना करने के बाद जो खुशी बन जाये उतनी विराट हो जाती है इसलिए ध्यानी बडा ही संयमी, बडा ही संतोषी व्यक्ति होता है । उसके चेहरे पर एक अनन्य भाव होता है, शांति का, प्रेम का, आनंद का ।
ध्यान की व्याख्या देना जटिल है इसीलिए जब शिव ने उत्तर देने का प्रयास किया तो उन्होंने उत्तर न देते हुए सीधे ही विधि का विवरण देना शुरु किया, इसे "परम प्रज्ञा" कहा जाता है और शिव ही इनके मूल में है, तो शिव से बडा भला और कौन हो सकता है ! शिव जानते है कि, पार्वती को यदि व्याख्या दी जाएगी तो शायद न जाने कौनसी कल्पनाओँ में खो जाएगी और न जाने काल्पनिक उनका जो विश्व होगा उसमें किस तरह का ध्यान उतरने लगेगा, क्योँकि अकसर ध्यान के बारे मेँ ये कहा जाता है, कोई कहता है, "मुझे प्रकाश नजर आ रहा है", "कोई कहता है मुझे कोई दूर शहर नजर आ रहा है", कोई कहता है, "मुझे किसी प्रकाश के बिन्दु के दर्शन हो रहे हैं",  तो किसी को कोई देवी-देवता नजर आने लगते है लेकिन ये सब चीजेँ ध्यान में प्रत्यारोपित है । ध्यान के प्रथम स्तर पर हमें कल्पनाएँ बहुत तंग करती है क्योँकि हमने कल्पनाओँ को अपने मन में बिठा रखा है इसलिए कल्पनाएँ तरह-तरह से हमारे सामने आती है लेकिन जब तुम सीधे अभ्यास पर उतर जाते हो और लगातार अभ्यास करते रहते हो तो कुछ समय के बाद जब मन विचारों से मुक्त होने लगे, बाहर के चित्र तुम्हारे चित्त पर से मिटने लगे तो धीरे धीरे स्वच्छ निर्मल झील के पानी की तरह तुम्हारा ह्रदय साफ हो जाता है । तब उस झील में तुम्हें अपना प्रतिबिंब नजर आने लगता है । तब ध्यान अनुभूति पर उतरता है । इसलिए भगवान शिव ने व्याख्या न देकर सीधे एक विधि बता दी इसलिए जब भी तुम ध्यान की खोज में जाते हो कि ध्यान क्या है तो इसके तत्त्वोँ को खोजने की जगह, इसकी व्याख्या को खोजने की जगह सीधे विधियोँ को खोजो । ध्यान की अनेकोँ विधियाँ है । एक विधि का चयन कर उसका अभ्यास शीघ्र शुरु कर दो और जैसे ही तुम इसे प्रारम्भ करोगे तो तुम देखोगे की अब ध्यान की व्याख्या देने की जरुरत नहीँ है, धीरे धीरे तुम ध्यान को समझने लग जाओगे । ध्यान करने से पूर्व यदि तुम्हें ध्यान की व्याख्या दी भी गयी तो भी वो तुम्हें भ्रमित करनेवाली होगी क्योँकि अभी तुम्हारे पास ध्यान का अनुभव नहीँ । जैसे ही तुम ध्यान शुरु करोगे उसके बाद ध्यान के विषय में जो भी तुम्हारे प्रश्न होते है, जो भी तुम्हारे मन में जिज्ञासा होती है तब उसे सामने रखना तब वो सार्थक होने लगती है अन्यथा ध्यान शुरु करने से पहले ध्यान को ज्यादा जानने का प्रयास करना लगभग रिक्तहस्त रहने जैसा ही है इसलिए तुम इस मूढता मेँ न पडकर सीधे ध्यान की विधियोँ को खोजो । गुरु से ध्यान की विधि को जानो और स्वयं जितना जल्दी हो सके ध्यान मेँ उतर जाओ और देखो तुम्हारे जीवन में अद्भुत प्रकाश बिखरने लगेगा । - ईशपुत्र