बुधवार, 16 मई 2018

ज्ञान का अभिमान - मूढता

ज्ञान मनुष्य की शोभा है और ज्ञान ही चेतना का विकास भी, लेकिन यही ज्ञान कब और कैसे साधक के लिए घातक हो जाता है ? क्योँ साधक का ज्ञान मस्तिष्क मेँ मचाता है घमासान ? इस मुसीबत से बचने का क्या है उपाय ?

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प्रणाम ! मैँ हुँ महायोगी सत्येन्द्र नाथ, साधक के जीवन में अनेकोँ उतार चढ़ाव आते है । और मनुष्य उन उतार चढावोँ के बीच में से गुजरता हुआ अपनी चेतना का विकास करता है । चेतना के विकास में जहाँ उसका कर्म उसका सहयोगी होता है, वहीं ज्ञान भी उसका सहयोगी होता है, लेकिन कर्म और ज्ञान की इस प्रक्रिया में बहुत सी जटिलताएँ है, उनमें से एक सबसे प्रमुख जटिलता है -
ज्ञान का एक अनूठा गुप्त अहंकार । जब बालक छोटा होता है तभी से लेकर वो सीखना शुरु करता है और अपने जीवन के हर क्षण, हर पल वो कुछ न कुछ ग्रहण करता रहता है, उसका लगातार सीखना ही उसे विस्तृत चेतना से जोड़ता चला जाता है, लेकिन धीरे-धीरे जब ज्ञान का जब ये प्रवाह आगे बढ़ता है, तो ये अपने मुख्य बिन्दू मेँ से च्युत होने लगता है, अपने मुख्य मार्ग में से ये धारा अलग होकर बहने लगती है, और ये अलग धारा ही चेतना की विकसित होने वाली नदी को सुखा डालती है ।
ये ठीक वैसा ही है, मानो हिमालय से कोई नदी शुरू हुई बहुत बड़ी और विस्तृत होती चली जा रही है और अंत में वो शाखाओं में विभक्त हो जाये और समुद्र तक पहुंच ही न सके । छोटी धाराएँ अक्सर टूट जाती हैं और सूख जाती है, ठीक वैसा ही ये ज्ञान है । जब मनुष्य भौतिक संसार में ये ज्ञान ग्रहण करता है और बाह्य उपादानों के माध्यम से, अनेक स्त्रोतों के माध्यम से ज्ञान अर्जित करने की चेष्ठा करता है, तो उसके भीतर उसके साथ-साथ उसमें से गुजरते हुए अनेकोँ तरह के अवयव और तत्व उसके साथ जुड़ते जाते हैं, जो उसकी इस अविरलता को-निश्चलता को-निरंतरता को बाधित कर देते हैं, ये ठीक वैसे ही है, जैसे पानी का गन्दा होते चले जाना अथवा रेगिस्तान के रेत में पानी का समा जाना और समाप्त हो जाना ।
जब हम आध्यात्म के बारे मेँ जिज्ञासा करते हैं, तो किसी योगी के बारे में पढ़ते हैं । किसी ऋषि- मुनि के बारे में पढ़ते है । किसी व्यक्तिविशेष के बारे में या ऐसे विशिष्ट व्यक्ति के बारे मेँ पढ़ते हैं जो परमात्मा से जुडा हुआ हो और फिर हम अपने धर्मग्रन्थों का अध्ययन करते है, लेकिन धीरे- धीरे हम उन बातों से बन्धते चले जाते हैं और कई बार तो हम इतनी हद कर देते हैं कि हम वास्तविक खोज नहीँ करते हैं हमेँ लगने लगता है कि मैने अमूक ग्रंथ में ये पढ़ रखा है, तो बस केबल यही सत्य होगा । और कई बार ये विषय इतने अधिक गंभीर हो जाते हैं कि सोचना पड़ जाता है कि ग्रन्थ या वाक्य प्रधान है अथवा अनुभूति प्रधान है । एक अधकचरा ज्ञानी, अगर किसी पुराण में ये लिखा होँ कि अमूक मंत्र है, इस मंत्र में चार बार "ह्रीं" शब्द का उच्चारण होना चाहिए, जैसे- ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं..... लेकिन यदि वो कहीं दूसरे स्थान पर, दूसरी जगह जाकर ये देख ले कि उस मंत्र का उच्चारण चार बार "ह्रीं" की जगह केबल दो बार ही ह्रीं हो रहा है, तो उसके भीतर का वो नकली तथाकथित ज्ञान, वो कुलबुलाहट करने लगेगा, उसके पेट में मानो मरोड़ उठने लगेंगे, उसका वो कथित ज्ञान उसके अहंकार को इस तरह से बढ़ा देता है कि वो तत्क्षण अपना संयम खो देता है और उसे लगने लगता है - 'अरे वाह ! यह आदमी तो सरासर गलत बात कह रहा है क्योंकि मैँ जो जानता हूँ वही सत्य है', और कई बार बात इससे आगे बढ़ जाती है और साधक उस व्यक्ति के पास पहुंच जाता है कि- "भाई साहब! आपने चार बार "ह्रीं" की जगह केबल दो बार लगाया", वो ये बात भूल जाता है कि सामने वाले व्यक्ति का "स्तर" क्या है ! उसकी साधना कैसी है ! उसकी रीत क्या है ! उसके गुरू कौन है ! वो ये सब नही देखना चाहता, वो तो केबल "लकीर का फकीर" है| उसने सुन लिया है, या उसने पढ़ लिया है कि वहाँ केबल चार बार "ह्रीं" लगा है |
जैसे कुछ लोग इस बात पर लगातार विवाद करते रहते हैं कि कुछ मंत्रों में जो "तंत्रोक्त मंत्र" है, वहाँ "प्रणव" - "ॐकार" नहीं लगता और अधिकांश "आगम-निगम ग्रंथों" में इसका विवरण भी है कि बहोत से मंत्रों के आगे उद्गीथ-प्रणव और इस प्रकार की जो व्याहृतियाँ हैं भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, सत्यम् ..... इस प्रकार की व्याहृतियोँ को नहीँ जोड़ा जाता, लेकिन कालान्तर में कुछ सम्प्रदाय ऐसे हुए, जब "सिद्ध गुरूओं" नेँ उन कीलित मंत्रों के उत्कीलन के लिए प्रणव और अन्य बीज मंत्रों के सम्पुट लगाये, और उसके बाद जो मंत्र बना, उसमें प्रणव था-उद्गीथ था, तो "ॐकार" का होना नहीँ होना कोई लड़ाई का विषय नहीँ हो सकता, ये तथाकथित ज्ञान हो सकता है, लेकिन हम उस "ॐकार" के पीछे या उस "ह्रींकार" के पीछे किसी व्यक्ति विशेष को ये कह दें कि तुम गलत साधना कर रहे हो ये केबल अन्धा ज्ञान ही है । ये वो ज्ञान है , जो ज्ञान जैसा भासता है, लेकिन ज्ञान नहीँ है । ये ठीक मनघढंत तथ्य है । जैसे- मान लीजिए कि आप किसी रात किसी सूनसान जंगल में से गुजरने वाले हो, लेकिन उससे पहले आप अपने मित्र के घर बैठे होँ और मित्र ये कह दे कि मैने सुना है "पाँच हजार साल पुरानी एक कहानी मेँ कहा गया है कि जिस जंगल मेँ से तुम गुजरने वाले होँ वहाँ एक विशालकाय डायनासोर रहता है और जब तुम उस जंगल के बीच में से जाओगे, तो वो तुम्हें खा सकता है ।" अब तुम ये भली प्रकार जानते हो कि डायनासोर आज के युग में है ही नहीं, तो अब यदि तुम उस बन में से गुजरते हुए ये सोचने लग जाओ कि 'ये तो वही डायनासोर का जंगल है, अब डायनासोर आकर मुझे खा जायेगा', तो ये मूढ़ता है | ठीक उसी तरह यदि 5000 साल पहले किसी गुरू ने कहा कि इस मंत्र में "ॐकार" नहीं लगता और आज तुम 5000 साल के बाद इस बात का दावा कर रहे हो कि मैने वो पुस्तक पढ़ी है, अथवा अमूक गुरू को सुना है, उसने कहा कि इस मंत्र में "ॐकार" नहीँ लगेगा और तुम उसके लिए दावा ठोको, तो याद रखना तुमसे बड़ा "मूर्ख" इस पृथ्वी पर नहीँ हो सकता क्योंकि तुम ठीक वैसी ही बात पर यकिन कर रहे हो कि किसी नेँ कह दिया कि अगर तुम गंदी नाली का पानी भी पी लेते हो तो तुम्हें रोग नहीँ लगने वाले । ये हो सकता है कि गंदी नाली का पानी लेने के बाद तुम्हारे शरीर के भीतर की प्रतिरोधक क्षमता उस गंदगी से लड़ती रहे-लडती रहे लेकिन अगर तुम निरन्तर उस जल का सेबन करते रहोगे तो लम्बे समय तक रोगों से बचे रहना फिर कदापि संभव नहीँ,
इसलिए मूढ़ताओं का परित्याग करना बड़ा अनिवार्य है, इसलिए "गुरूगम्य साधनाओं" में जाना बड़ा अनिवार्य है, अन्यथा ये कथित "ज्ञान" बुरी तरह भ्रमित कर सकता है । और यदि इस "ज्ञान" में उतनी सार्थकता होती, तो वो जिस क्षण तुमने उस "मंत्र" को पढ़ लिया और जिस क्षण वो "ज्ञान" तुम्हे प्राप्त हो गया, तो तुम्हारा रूपांतरण तो तत्क्षण हो जाना चाहिए । तुम उस "मंत्र" को जानते हो तुम उस "ज्ञान" को भी जानते हो लेकिन क्या तुम्हारा रूपांतपण हुआ ? नहीँ । तुम्हारा स्वयं का रूपांतरण नहीँ हुआ, लेकिन तुम दूसरे को सिखाने चलते हो कि ये "ज्ञान" गलत है, तो ये "आध्यात्म - मार्ग" कि एक ऐसी बड़ी बाधा है जिसके बारे में तुम्हे स्वयं को , स्वयमेव ही सूचित करना होगा , स्वयं को स्वयं ही सतर्क करना होगा, क्योंकि यदि तुम इस मूढ़ता में पड़ गये , तो "वास्तविक ज्ञान के मार्ग की तलाश" बन्द कर दोगे । जिसके मन में साधना की ललक होती है, जिसके मन में अध्यात्म की ललक होती है, वो प्रश्न नहीँ करता, जो गुरुओँ के पास जाता है, वो केवल विसर्जन कर देता है । गुरु के पास जाना, फिर अपने तथाकथित ज्ञान के तराजू पे उनको तौलने लग जाना, ये पृथ्वीलोक पर सबसे घृणित और कुत्सित कर्म 'आध्यात्म' में माना जाता है । पृथ्वी पर जो बड़े से बड़ा पापाचार है तुम उसकी तुलना करो और दूसरे तराजू पर इस बात की कल्पना करो कि तुम किसी गुरु के पास जाते हो और उनका आँकलन अपनी बुद्धि और विवेक से करते हो, तो वो दोनो पाप समान्तर होते है ।
गुरु की तलाश में तुम्हे बुद्धि का प्रयोग अवश्य करना चाहिए लेकिन जब तुम दैवयोग से उनके श्रीचरणों में पहुँच जाओ तो इस तथाकथित ज्ञान को एक ओर रखना बड़ा अनिवार्य है; वरना तुम गुरु के शरीर को देखोगे, उनके क्रिया-कलाप को देखोगे, उनके आसपास के वातावरण और लोगों को देखोगे, गुरू के विषय में लोग क्या कहते हैं-समाज क्या कहते हैं ये सब सुनने लग जाओगे...याद रखना इन सब बातों से आध्यात्म का कोई लेना देना नहीँ है । जो व्यक्ति जानकार है, जो व्यक्ति किसी तथ्य को जानता है, वह सरलता से तुम्हेँ उपलब्ध नहीँ होने वाला और ना ही वो सरलता से तुम्हें कुछ देने वाला है, इसे जरा गंभीरता से समझना, ये साधना मार्ग की एक बड़ी अद्भुद सी अड़चन है ।
एक शिष्य जब पहली बार किसी गुरु से मिलता है, तो वो पूरी तैयारी करके गया होता है कि मै गुरु से ये प्रश्न करुँगा । मै गुरु को देखुँगा, उनके बारे में जानकारीयाँ प्राप्त करुँगा, वो कौन हैं ? कहाँ से पैदा हुए हैं ? उनका वातावरण क्या है ? उनका ज्ञान कैसा है ? वो कितने तपस्वी हैं ? किस तरह की सिद्धियाँ उनके पास हैं ? क्या वो मेरे लायक है या नहीँ है ? ये सब बातें एक तरफ व्यक्ति के मन में रहती हैं और दूसरी ओर यदि गुरु सिद्ध है, गुरु अपने आप मेँ पूर्ण चौंसठ कला सम्पन्न हैं, तो वो भली प्रकार बड़ी बारीकी से तुम्हारी एक-एक हरकत को देख रहे हैं । तुम क्या सोचते हो, तुम क्या कहना चाहते हो, तुम्हारे स्वार्थ क्या हैं , तुम्हारी बुद्धि क्या है, ये सब गुरु पहले से पढ़ रहे हैं । अब जब तुम उनके सम्मुख जाते हो, तो तुम अपना बुद्धिबल का प्रयोग करना चाहते हो, अपना कौशल दिखाना चाहते हो, अपना चातुर्य दिखाते हो, और गुरु ! वो न तो कोई चातुर्य दिखाते, वो केवल मौन रहते हैं और तुम्हें वो सब करने देते है, जो भी तुम कर सकते हो और इस उलझन के बीच वास्तविक ज्ञान तो खो जाता है ।...
एक तो पहले ही जीवन में समय कम था, मुश्किल से पुण्यवश यदि तुम गुरु के पास पहुंचे, फिर तुम्हारे कथित ज्ञान ने तुम्हें लपेट लिया, इससे बड़ा दुर्भाग्य अब पृथ्वी पर और क्या हो सकता है ! इललिए मेरे हित में ये है कि जब मैं श्रीगुरु के पास किसी कारणवश पहुंच जाउँ, तो उनके दिये साधना-मार्ग पर पूर्ण आस्था और विश्वास करके आगे बढुँ, क्योंकि दूसरा कोई चारा नहीँ है । मेरे पास दो ही मार्ग हैं, या तो फिर गुरु की निन्दा करुँ, कहुँ कि वो कपटी हैं, वो ठीक नही है, उनका चरित्र ठीक नहीँ है, उनका व्यक्तित्व ठीक नहीँ है, उनका पंथ ठीक नहीँ है, उनकी परंपरा ठीक नहीँ है । वो "शैव" हैं, वो "शाक्त" हैं, वो "वैष्णव" हैं, वो "गाणपत्य" हैं, उनको संप्रदायों में तोड़ दो, क्योंकि वो तो तुम्हारा अपना कथित ज्ञान है । तुमने गुरू को हरि के रूप में देखा, तो वो हरि के रूप में दिखेंगे । तुम गुरु को शिव के रूप में देखते हो तो शिवमय देखोगे । स्वयं को भी तुम गुरूवत् जानोगे, जब तुम गुरू से जुड़ जाते हो । ये तुम्हारी अपनी दृष्टि है, तुम किस दृष्टि से गुरू को देखते हो, तुम वैसे ही शब्दों का उच्चारण करते हो । अधिकांशतया अगर तुम प्राचीन गुरु परंपरा का अध्ययन करो तो समस्त बड़े बड़े गुरुओं की अवमानना, उनका अपयश, उनके खिलाफ कहने वाले वही लोग हैं, जो कभी उन गुरुओं के चरणों में बैठे थे; क्योंकि वो अति लोलुप, अति लोभी, अति कामुक, व्यसनी, पूरी तरह से भोग में लिप्त, कभी किसी भी उच्च कोटि के संत के भीतर के उच्च सोपान को नहीँ देख सकते और फिर गुरु मायावी हैं तो माया के अपने आवरण को सरलता से बींधने कहाँ देँगे ! और फिर तुम्हारा अपना वो ज्ञान, जिसको तुमने सदियों से पकड़ रखा है, वो एक परंपरा बन गया है, उसमें कोई अनुभूति नहीँ है, कोई तथ्य नहीँ है । जब तथ्यहीन तुम्हारा ज्ञान हो, जब अनुभवहीन तुम्हारा ज्ञान हो, तो वो केवल व्यर्थ की बस्तु हो जाती है, वो कुड़ा करकट है और उसका स्थान केवल कुड़ादान ही है । एक समय मैं कुछ साधकों के बीच बैठा था तो प्रश्न हुआ कि इस सृष्टि को संचालित करने वाली और नष्ट करने वाली शक्ति कौन है ? सबने कहा, 'सृष्टि को बनाने वाले ब्रह्मा जी हैं, पालक विष्णु जी हैं और संहार करने वाले भगवान शिव हैं', लेकिन मैने कहा, "अवश्य भगवान शिव संहारक हैं, लेकिन सृष्टि बनाने वाले भी वही हैं, पालने वाले भी वही हैं ।" अब इस तत्व के पीछे विवाद हो सकता है लेकिन विवाद कौन करेगा ? जो मूढ़ होगा । इसका कारण स्पष्ट है । कारण इसलिए स्पष्ट है - यदि कोई व्यक्ति 'शैव' होकर ये तथ्य कह रहा है, तो वो सत्य है । जिस समय मै 'शैव' बनकर तुमसे ये बाद करता हूँ, तो शिव को ही प्रधान रखता हुँ, शिव की निंदा नही करता, शिव के उपर किसी तत्व को नहीँ जानता और जब मै 'शाक्त' होकर बात करता हुँ तो शक्ति को ही श्रेष्ठ मानता हूँ और उनसे उपर किसी तत्व की बात नहीँ करता, इसे "दैवत्व का चिंतन" कहा जाता है, "तत्व निरूपण" कहा जाता है ।
'अग्नि पुराण' में अग्नि देवता कहते हैं कि "मुझसे ही सृष्टि उत्पन्न हुई है, मै ही इसका पालन करने वाला, आदि और अंत का कारण हुँ ।" शेषनाग 'गुह्य विद्या तंत्र' में कहते हैं कि "मैँ ही सहस्त्रमुखी होकर नारायण को उत्पन्न करता हूँ और सृष्टि के आगे के क्रिया कलापों को गति देने के लिए उनको प्रेरित करता हूँ और अंत में सहस्त्रों मुखों से 'क्रोधाग्नि' के द्वारा इस संपूर्ण सृष्टि का अंत करने वाला हुँ ।" इसी प्रकार भगवान नारायण कहते हैं कि "मै ही योगमाया को धारण करने वाला हुँ। मेरी ही इच्छा से ये सृष्टि बनी है, चलती है और लय हो जाती है ।" अब यहाँ कथित ज्ञान झगड़ा कर सकता है, लेकिन मूल ज्ञान नहीँ ।
मुझे अच्छी तरह से याद है कि एक विशेष कार्यक्रम के दौरान मुझसे ये पूछा गया कि "दुःख देने वाले देवता कौन है?" तो चार प्रमुख देवता होते हैं । जिसमें मैने 'रूद्र' का उच्चारण नही किया । 'रूद्र' के स्थान पर 'कुबेर' शब्द का उच्चारण किया, जिसके लिए कार्यक्रम का संचालन करने वालों ने बड़ी कठोर आपत्ति की । उन्होंने कहा, "महाराज आपने इससे पहले भी कई प्रवचनों में चार देवताओं का पहले भी उल्लेख किया है, तो इस बार ऐसा क्यों ?" तो मैने कहा, "आपकी दृष्टि का भेद है । इस समय जो 'प्रवचन' मै कर रहा हूँ, या जिस विषय को मै समझा रहा हूँ वो 'महाविद्याओं' से जुड़ा हुआ है और 'महाविद्याएं' समस्त शिवाधीन हैं । शिव के बिना कोई 'महाविद्या' नही है, शिवरहित नही होती और बिना शिव के उन्हेँ सिद्ध नहीँ किया जा सकता और यदि इस समय मैं दुःख देने वाले देवताओं में 'रूद्र' शब्द का उच्चारण कर देता हूँ, तो उससे महाविद्या कुपित हो जाती है; इसलिए 'रूद्र' के स्थान पर 'कुबेर' शब्द कहा जाता है क्योंकि जो रूद्र है, उनका कार्यभार देव-परंपरा के अनुसार उपविभाग में कोषाध्यक्ष कुबेर सम्भालते हैं । तो जहाँ मुझे लगता है कि यहाँ सीमा टूट न जाए, यहाँ 'शिवत्व' का उल्लंघन न हो जाए, यहाँ शिव की मर्यादा खंडित न होने लगे, वहाँ हमे ऐसा ही कहना होता है...ऐसे शब्दों के कारण भ्रम हो सकता है । लेकिन किसे ? केवल उसी को जो उस कथित ज्ञान की परंपरा से बंधा हुआ है । परंपराओं से तो मै भी बंधा हुआ हूँ । हजारों अरबों वर्षों पूर्व जिनकी मेरे पास गणना भी नहीं है ! जिसके लिए आदि, अनादि, अनंत ऐसे शब्दों का प्रयोग हुआ है ! ऐसी सनातन परंपरा से जुड़े होने के बाद भी मै उन समस्त परंपराओं का पालन करता हूँ, लेकिन वहाँ कथित ज्ञान को आड़े नही आने देता ।
अक्सर यही कारण है कि बहुत से लोग अमृत कलश के पास पहुँच कर भी प्यासे लौट आते हैं , तो ऐसे ज्ञान का क्या लाभ जो तुम्हारा ही शत्रु हो जाए, जो तुम्हारे ही मार्ग में रोड़ा बन जाए और तुम्हे कुछ पाने न दे, उस ज्ञान को त्याग देना जो इतने प्रश्न खड़े कर दे; अपितु उस ज्ञान को उत्पन्न करने की कोशिश करना जो गुरू और उनके बाद गुरु प्रदत्त साधना और उनके श्री चरणों में बैठ कर मूल साधना को करने का यथावत् अवसर प्रदान करे । यदि एक साधना भी तुमने गुरु के चरणों में पूरी तरह से संपन्न कर ली, तो अपने जीवन में समझ लेना कि कोई सार्थक प्राप्ति तुमने अब अवश्य कर ली । साधना मार्ग में सबसे बड़ा अडंगा, सबसे बड़ी अड़चन ये "ज्ञान" है । तो ज्ञान कभी-कभी मित्र न होकर हमारा शत्रु हो जाता है, और ऐसे में बड़े बड़े "ज्ञानी" मोह और ममता के गर्त में जाकर भ्रमित होकर गुरू के चरणों से भी रिक्त लौट आते हैं । यही योगमाया की अद्भुद सृष्टि है, इसीलिए स्वयं कहा गया है- "ज्ञानिनामपि चेतांषि देवी भगवती हि सा।" वो योगमाया तो बड़े-बड़े ज्ञानियोँ को भी मोहित करने वाली हैं । तो आप और हम बड़ी सहजता से भ्रमित हो सकते हैं । ऐसी परिस्थिति से बचते हुए, योगमाया की स्तुति करते हुए हमे जीवन में आगे कदम बढ़ाना चाहिए । अभी के लिए इतना ही । ॐ नमः शिवाय !
- ईशपुत्र-कौलान्तक नाथ