हमारे भीतर लय, सुर, ताल, संगीत सब है किन्तु वो हम से ही छिपा है; हम स्वयं अपने आप से ही बेगाने से है । तो हम किस प्रकार अपने आप को जान पाएँ उसकी पहली सीडी है देह कौशल अर्थात् अपने शरीर को जानना, समझना और उसे स्वस्थ तथा सुंदर बनाने का प्रयास करना । प्राचीन ऋषि परंपरा मेँ प्रत्येक साधक के लिए इसीलिए योगाभ्यास नितान्त अनिवार्य था क्योँकि देह का ह्रष्टपुष्ट होना मस्तिष्क के तंतुओँ का ह्रष्टपुष्ट होना चेतना को अनंत बनाने मेँ सहायक होता है । योग ने छोटे-छोटे आसनोँ को जोड-जोडकर विशेष-विशेष प्रकार की पद्धतियोँ का निर्भाण किया; इन्हीँ पद्धतियोँ से जुडकर प्रत्येक साधक देह कौशल प्राप्त कर सकता है । साधारण व्यायाम और देह कौशल मेँ ये अंतर है कि साधारण व्यायाम जल्दी-जल्दी और अव्यवस्था से किया जाता है किन्तु योग मेँ प्रत्येक आसन धीमी श्वास, लय, गति, ताल और बीजमन्त्रोँ के साथ किया जाता है; साथ ही ह्रदय मेँ पवित्रता, देवत्व, ईश्वरत्व का भाव समाहित रहता है; साधक भी स्वयं को मानवीय तलोँ से ऊपर पाता है; तब ये व्यायाम न होकर दिव्य आसन हो जाते है, जिस से देह कौशल का प्रादुर्भाव होता है । आप जहाँ भी रहे अपने आप को देह कौशल से जोडे रखेँ । देह के भीतर होनेवाले अनेकोँ परिवर्तनोँ को आप स्वयं संचालित कर सकते है । आप धारणा, इच्छाशक्ति, संकल्प, सूक्ष्म व्यायामोँ, योगासनोँ तथा अलग-अलग परंपराओँ के माध्यम से अपने भीतर के विकास को स्वयं प्रभावित कर सकते है; भीतर हो रहे परिवर्तनोँ पर आप स्वयं अपना प्रभुत्व स्थापित कर सकते है । देह को कैसे चलना है, देह के भीतर किन परिवर्तनोँ की आवश्यकता है, देह को किस तत्त्वोँ की आवश्यकता है ये सब चुनाव आपके भीतर ही होना चाहिए और इस प्रक्रिया को ठीक रखना ही समस्त रोगोँ से मुक्त रहना है । बहुत से रोग हमेँ सिर्फ इसलिए ग्रसित करते है क्योँकि हम इन्हेँ अपने भीतर आने का अवसर प्रदान करते है । यदि हम संक्षिप्त व्यायाम नित्य करेँ, देह कौशल मेँ उतरे तो आप पाएँगे कि थोडी जटिलता तो है, शरीर के साथ कुछ जबरजस्ती भी करनी ही पडेगी; इसके लिए आलस्य-प्रमाद का त्याग भी करना होगा किन्तु यही परंपरा आपको दिव्य और रोगमुक्त बना देती है; चाहे वो रीड की हड्डी होए, चाहे गरदन की, चाहे आपके बाजु होँ अथवा आपका चेहरा या जांघे सब जगह जब तक कंपन उत्पन्न न हो जाए, जब तक रक्त का प्रवाह न पहुँच जाए तब तक व्यायाम या देहकौशल को भली प्रकार हुआ नहीँ जानना चाहिए । देह कौशल मेँ श्वास की गति अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । हमेँ बहुत सहज गति से धीरे-धीरे श्वास को लेना और छोडना होता है । हम किस प्रकार श्वास के लय को समझेँ ये अभ्यास गुरु के सानिध्य मेँ करना चाहिए; साथ ही यदि हम अभ्यास मेँ बीजमन्त्रोँ का संपुट देँ तो यह घटना क्रान्तिकारी स्वरुप धारण कर लेती है । मस्तिष्क के दिव्य तन्तुओँ मेँ तीव्र विद्युत प्रवाहित होने लगती है और नये विचारोँ और नये तन्तुओँ का स्फुरण होने लगता हैः विश्व नया सा जान पडता है और ऐसी दिव्य देह ही अध्यात्म के विराट ज्ञान को समझ सकती है । ज्ञान को दो भागोँ मेँ बाँटा गया : एक विद्या, दुसरा अविद्या । विद्या वो जो आपको इस जगत से पार ले जाकर सत्य को उपलब्ध करवाएँ । अविद्या वो जो आपको इस जगत का ज्ञान और इस मायारुपी प्रपञ्च मेँ उलझाकर उस प्रपञ्च का सार प्रदान करेँ । किन्तु ज्ञान तो ज्ञान ही है, चाहे वो विद्या हो अथवा अविद्या; दोनोँ की प्राप्ति देह कौशल के बिना संभव नहीँ । किसी भी प्रकार के तप, साधना, मन्त्रजप, हठयोग सब के लिए देह को साधना अत्यंत आवश्यक बताया गया । शास्त्रोँ ने तो यहाँ तक कहा कि मनुष्य देह करोडोँ योनियोँ के पश्चात प्राप्त होती है इसलिए हमेँ इस देह की अमूल्यता को समझना होगा । हम विश्राम, आलस्य और प्रमाद तक ही सीमित न रहे, इस से मानवजाति का अनिष्ट होने की संभावना है क्योँकि मानव जितना कर्मठ कर्मशील, पवित्र और दिव्य होगा उसके भीतर वो परिवर्तन स्थायी होते चले जायेंगे । - ईशपुत्र
योगासन - देह कौशल
कुण्डलिनी शक्ति
·
मन्त्र
·
योग
·
योगासन
हमारे भीतर लय, सुर, ताल, संगीत सब है किन्तु वो हम से ही छिपा है; हम स्वयं अपने आप से ही बेगाने से है । तो हम किस प्रकार अपने आप को जान पाएँ उसकी पहली सीडी है देह कौशल अर्थात् अपने शरीर को जानना, समझना और उसे स्वस्थ तथा सुंदर बनाने का प्रयास करना । प्राचीन ऋषि परंपरा मेँ प्रत्येक साधक के लिए इसीलिए योगाभ्यास नितान्त अनिवार्य था क्योँकि देह का ह्रष्टपुष्ट होना मस्तिष्क के तंतुओँ का ह्रष्टपुष्ट होना चेतना को अनंत बनाने मेँ सहायक होता है । योग ने छोटे-छोटे आसनोँ को जोड-जोडकर विशेष-विशेष प्रकार की पद्धतियोँ का निर्भाण किया; इन्हीँ पद्धतियोँ से जुडकर प्रत्येक साधक देह कौशल प्राप्त कर सकता है । साधारण व्यायाम और देह कौशल मेँ ये अंतर है कि साधारण व्यायाम जल्दी-जल्दी और अव्यवस्था से किया जाता है किन्तु योग मेँ प्रत्येक आसन धीमी श्वास, लय, गति, ताल और बीजमन्त्रोँ के साथ किया जाता है; साथ ही ह्रदय मेँ पवित्रता, देवत्व, ईश्वरत्व का भाव समाहित रहता है; साधक भी स्वयं को मानवीय तलोँ से ऊपर पाता है; तब ये व्यायाम न होकर दिव्य आसन हो जाते है, जिस से देह कौशल का प्रादुर्भाव होता है । आप जहाँ भी रहे अपने आप को देह कौशल से जोडे रखेँ । देह के भीतर होनेवाले अनेकोँ परिवर्तनोँ को आप स्वयं संचालित कर सकते है । आप धारणा, इच्छाशक्ति, संकल्प, सूक्ष्म व्यायामोँ, योगासनोँ तथा अलग-अलग परंपराओँ के माध्यम से अपने भीतर के विकास को स्वयं प्रभावित कर सकते है; भीतर हो रहे परिवर्तनोँ पर आप स्वयं अपना प्रभुत्व स्थापित कर सकते है । देह को कैसे चलना है, देह के भीतर किन परिवर्तनोँ की आवश्यकता है, देह को किस तत्त्वोँ की आवश्यकता है ये सब चुनाव आपके भीतर ही होना चाहिए और इस प्रक्रिया को ठीक रखना ही समस्त रोगोँ से मुक्त रहना है । बहुत से रोग हमेँ सिर्फ इसलिए ग्रसित करते है क्योँकि हम इन्हेँ अपने भीतर आने का अवसर प्रदान करते है । यदि हम संक्षिप्त व्यायाम नित्य करेँ, देह कौशल मेँ उतरे तो आप पाएँगे कि थोडी जटिलता तो है, शरीर के साथ कुछ जबरजस्ती भी करनी ही पडेगी; इसके लिए आलस्य-प्रमाद का त्याग भी करना होगा किन्तु यही परंपरा आपको दिव्य और रोगमुक्त बना देती है; चाहे वो रीड की हड्डी होए, चाहे गरदन की, चाहे आपके बाजु होँ अथवा आपका चेहरा या जांघे सब जगह जब तक कंपन उत्पन्न न हो जाए, जब तक रक्त का प्रवाह न पहुँच जाए तब तक व्यायाम या देहकौशल को भली प्रकार हुआ नहीँ जानना चाहिए । देह कौशल मेँ श्वास की गति अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । हमेँ बहुत सहज गति से धीरे-धीरे श्वास को लेना और छोडना होता है । हम किस प्रकार श्वास के लय को समझेँ ये अभ्यास गुरु के सानिध्य मेँ करना चाहिए; साथ ही यदि हम अभ्यास मेँ बीजमन्त्रोँ का संपुट देँ तो यह घटना क्रान्तिकारी स्वरुप धारण कर लेती है । मस्तिष्क के दिव्य तन्तुओँ मेँ तीव्र विद्युत प्रवाहित होने लगती है और नये विचारोँ और नये तन्तुओँ का स्फुरण होने लगता हैः विश्व नया सा जान पडता है और ऐसी दिव्य देह ही अध्यात्म के विराट ज्ञान को समझ सकती है । ज्ञान को दो भागोँ मेँ बाँटा गया : एक विद्या, दुसरा अविद्या । विद्या वो जो आपको इस जगत से पार ले जाकर सत्य को उपलब्ध करवाएँ । अविद्या वो जो आपको इस जगत का ज्ञान और इस मायारुपी प्रपञ्च मेँ उलझाकर उस प्रपञ्च का सार प्रदान करेँ । किन्तु ज्ञान तो ज्ञान ही है, चाहे वो विद्या हो अथवा अविद्या; दोनोँ की प्राप्ति देह कौशल के बिना संभव नहीँ । किसी भी प्रकार के तप, साधना, मन्त्रजप, हठयोग सब के लिए देह को साधना अत्यंत आवश्यक बताया गया । शास्त्रोँ ने तो यहाँ तक कहा कि मनुष्य देह करोडोँ योनियोँ के पश्चात प्राप्त होती है इसलिए हमेँ इस देह की अमूल्यता को समझना होगा । हम विश्राम, आलस्य और प्रमाद तक ही सीमित न रहे, इस से मानवजाति का अनिष्ट होने की संभावना है क्योँकि मानव जितना कर्मठ कर्मशील, पवित्र और दिव्य होगा उसके भीतर वो परिवर्तन स्थायी होते चले जायेंगे । - ईशपुत्र
SEARCH
LATEST
10-latest-65px