योगासन - देह कौशल

प्रकृति नेँ मानव को शरीर दिया और शरीर को "देव-मन्दिर" कहा गया । मानवदेह को सर्वश्रेष्ठ इसलिए भी कहा गया क्योँकि इसी देह को साधकर हम मोक्ष अथवा निर्वाण तक का अपना सफर तय कर पाते है किन्तु जब तक हम "देह कौशल" को भली प्रकार साध नहीँ लेते तब तक साधना दुरुह जान पडती है । हालाँकि हमारा शरीर बहुत सीमित और छोटा दिखता है किन्तु इसे ब्रह्माण्ड के सदृश विराट और अनसुलजा माना गया है । मानव देह मेँ विराट क्षमताएँ है । उसके भीतर दिव्य कुण्डलिनी नामक शक्ति विद्यमान है जो अनेकोँ-अनेकोँ अणुओँ की शक्तियोँ से भी अधिक विराट है ! जिसकी कोई सीमा अथवा कोई परिकल्पना नहीँ ! किन्तु एक साधक अपने आप को बिलकुल लघु पाता है क्योँकि पहले वो अपनी देह को ही नहीँ जानता इसलिए साधक सर्वप्रथम अपनी देह को साधने का प्रयास करेँ । किसी भी प्रकार की साधना हो साधक उसे दैहिक तल से ही शुरु करता है । प्राचीन ऋषि परंपरा से लेकर आज तक लगभग सभी साधकोँ ने अपनी देह को साधने का कोई न कोई अभ्यास अथवा कोई न कोई प्रयोग अवश्य किया है, कोई इसे योग के द्वारा साधता है, कोई व्यायाम करता है, कोई अपने शरीर के साथ भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रयोग करता है । कभी कभी योगी काँटोँ पर सो जाते है, कभी तेज धूप मेँ तपते है, कभी शीतल जल मेँ डूबकियाँ लगाते है । प्रकृति के मध्य रहकर प्रकृति को आत्मसात् करने का प्रयास करते है । देह भौतिक जगत से जुडे रहने का माध्यम है लेकिन अध्यात्म का मानना है कि यदि हम देह को शोधित न करेँ, उसे पुष्ट एवं दिव्य ना बनाएँ तो व्यक्ति भीतर की यात्रा मेँ नहीँ उतर सकता इसीलिए आचार, व्यवहार, भोजन, यम, नियम ये सब आचरण इसीलिए तो बताए जाते है ताकि आप उन्हेँ साधकर अपने आप को एक विराट वृक्ष बना सको । जब साधक साधना क्षेत्र मेँ पदार्पण करता है तो अपने आप को बहुत लघु पाता है क्योँकि देह के साथ मन भी जुडा रहता है । मन तरह-तरह की दुर्भितियोँ से ग्रसित है, अनेकोँ भावनाओँ के अधीन है अतः उस मन के साथ देह का सम्बन्ध होना देह को अपनी विराटता का बोध प्रदान करवाने का अवसर ही प्रदान नहीँ करता ऐसे मेँ साधक का कर्तव्य है कि वो गुरु द्वारा प्रदत्त मार्ग पर योगाभ्यास करेँ, हठयोग करेँ, तप करेँ ताकि वो अपने आप को तराश सके । इस परंपरा की सबसे बडी जो विशेषता है वो यही तो है कि एक ओर जहाँ हम अपने शरीर को तराश रहे है वहीँ साथ ही साथ अन्तः तलोँ पर आप मन और बुद्धि को भी साथ ही साथ तराशते चले जाते है । साधना की कोई भी शैली या रीत हो, यहाँ तक कि भजन-किर्तन भी करना हो तो नाम-सुमिरन करने के लिए भी आपकी देह वो भली प्रकार स्वस्थ तथा सुंदर होनी चाहिए । अपनी काया को भली प्रकार सुव्यवस्थित रखने का रास्ता अपना-अपना हो सकता है किन्तु मूलरुप से यह तथ्य साधक की समझ मेँ आना चाहिए कि शरीर एक दिव्य ब्रह्माण्ड है; जितना विशाल, जितना अनन्त ये बाह्य विशाल ब्रह्माण्ड है उतना ही हमारे भीतर का ब्रह्माण्ड भी विशाल और अनन्त है । बाहरी ब्रह्माण्ड से हम शक्तियाँ प्राप्त कर बाह्य जगत की वस्तुओँ को जोडकर हम भिन्न-भिन्न प्रकार की सामग्रियोँ का निर्माण करते है; उसी प्रकार भीतर के ब्रह्माण्ड से भिन्न-भिन्न प्रकार की शक्तियाँ और सामग्रियाँ एकत्रित कर हम विराट विश्व को अपने भीतर समझ सकते है और अपनी शक्तियोँ के माध्यम से अपनी अनन्त यात्रा तक गति प्राप्त कर सकते है किन्तु देह का शोधन प्रत्येक साधक को करना ही होगा क्योँकि देह और इसकी माया बडी विचित्र सी है । यदि हम इस देह के साथ थोडी जोर-जबरजस्ती करे तो ये देह हमारे साथ मित्रता का सम्बन्ध निभाती है किन्तु यदि इस शरीर को हम सुख मेँ, आराम मेँ और आनंद मेँ रखने की कोशिश करते है तो यही शरीर हमारे साथ शत्रुता निभाना शुरु कर देता है अतः शरीर के साथ मित्रवत् व्यवहार कम से कम करना चाहिए । मूलरुप से कहने का तात्पर्य ये है कि हमेँ आलस्य और प्रमाद का त्याग कर योगाभ्यास के चरणोँ मेँ उतरना चाहिए । देह कौशल के माध्यम से हमारे भीतर गहरे तलोँ तक परिवर्तन आता है, जैसे एक व्यक्ति जिस प्रकार के व्यायाम, जिस प्रकार का भोजन अथवा जिस प्रकार के वातावरण मेँ रहता है उसका प्रभाव उसके व्यक्तित्त्व, मन, शरीर, बुद्धि सब पर पडता है और अन्ततः यही परिवर्तन जब धीरे-धीरे हमारे भीतर देह के सूक्ष्म अवयवोँ तक पहुँच जाते है तो वही आगे सन्तानोत्पत्ति के समय अपना गुण उत्पन्न करते है, तब जो सन्तान उत्पन्न होती है उस सन्तान के भीतर कुछ गुण स्वतः ही विद्यमान होते है, वे गुण हमारे ही द्वारा पूर्व मेँ निर्मित किये गये है । अतः हमेँ दिव्य साधनाएँ, योग और देह-कौशल की क्रियाओँ को भली प्रकार सीखना होगा क्योँकि जब हम इस प्रकार देह-शोधन करते है, प्रकृति के मध्य रहते है और स्वच्छ प्राणवायु. स्वच्छ अन्न, स्वच्छ जल इन सब का सेवन करते है, बीजमन्त्रोँ से अपने मस्तिष्क का शोधन करते है तब अनेकोँ रोग नष्ट होते है । हम अपने भीतर स्वच्छता, तीव्रता और पवित्रता जैसे गुणोँ को धारण करते है । धीरे-धीरे ये गुण देवत्व का स्वरुप धारण करते है और क्रमशः हमारे देह के भीतर सूक्ष्म तलोँ तक प्रविष्ट हो जाते है । ऐसी स्थिति मेँ जब कोई योगी, साधक, पुरुष या स्त्री सन्तानोत्पत्ति करती है तो वे गुण सहज ही सन्तान तक पहुँचते ही है । इस प्रकार मानव के भीतर देवत्व का उदय होता है । तो देह-कौशल मात्र स्वयं के लिए ही अवश्यक नहीँ अपितु आनेवाली मानव-सभ्यता और भविष्य के लिए भी नितान्त आवश्यक एवं अनिवार्य तत्त्व है । हम देह-कौशल को प्रमुख आठ भागोँ मेँ बाँटते है, इन भागोँ का एक-एक जो प्रखण्ड है अपने भीतर विशेषतया अनेकोँ रासायणिक परिवर्तनोँ को लिए हुए रहता है किन्तु यह ज्ञान गुढतम है इसीलिए प्राचीन काल मेँ हठयोगी अधिकतया देह-कौशल के प्रयोग किया करते थे । कभी महिनोँ भूखे रहना, कभी काँटोँ पर समाधि लगा लेना, कभ साँस रोककर भूमि के भीतर कई दिनोँ तक ध्यानस्थ रहना, कभी अत्यन्त शीतल वातावरण को सहना ये भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रयोग हठयोग का एक अंग बन गये अपितु हठयोग का तात्पर्य जिद करना नहीँ होता ! लेकिन हठयोग का देह कौशल के साथ संबंध अवश्य है । किन्तु ये अभ्यास, यह साधना मूलरुप से कैसी है यह हमेँ जानना चाहिए क्योँकि जब हम हठात् अपनी मूढ बुद्धि से इन प्रयोगोँ को करते है तो वे व्यर्थ जान पडते है; अतः हमेँ दिव्य गुरु के आश्रय मेँ रहकर इस दिव्य ज्ञान को पुनः अर्जित करना होगा । हमेँ संरक्षण करना होगा इस दिव्य पद्धति का ताकि चिकित्सीय और मानवीय जगत मेँ एक क्रान्ति पुनः प्रविश्ट हो सके, मानव जीवन मेँ उल्लास, आनंद, दिव्यता आ सके । इन सभी आठोँ अंगो का अध्ययन करना होगा, साथ ही हमेँ आनेवाली पीढी को यह दिव्य ज्ञान आगे देना होगा, तभी हम स्वस्थ और सुन्दर विश्व की परिकल्पना कर सकेंगे । देह कौशल ध्यान मेँ उतरने की एक सुन्दर सीढी है । जिस प्रकार कोई व्यक्ति किसी सुन्दर मन्दिर मेँ प्रविश्ट होने के लिए उसकी सुन्दर सीढियोँ पर धीरे-धीरे कदम रखता हुआ ऊपर चढता जाता है, ठीक उसी प्रकार जब हम देह कौशल के आठोँ अंगोँ को समझ लेते है तब भीतर उतरना कितना सहज...कितना सरल हो जाता है ! हम रुपान्तरित हो जाते है ! सच्चा रुपान्तरण अब शुरु हो जाता है और ये रुपान्तरण "स्थायी रुपान्तरण" है, हम इस रुपान्तरण को अपनी अगली पीढियोँ तक दे सकते है । हम मानव को और दिव्य, और स्वस्थ, और ह्रष्टपुष्ट, और ओज से भरा हुआ बना सकते है । अपने आप को इस दिव्य रीत से बांधना, इस वैली मेँ उतारना कितना सुखद एहसास है ! तो जीवन पूर्ण एवं सफल बन सकेगा । अपने भीतर की क्रान्ति को जागृत करने का एक अवसर देना चाहिए ।
हमारे भीतर लय, सुर, ताल, संगीत सब है किन्तु वो हम से ही छिपा है; हम स्वयं अपने आप से ही बेगाने से है । तो हम किस प्रकार अपने आप को जान पाएँ उसकी पहली सीडी है देह कौशल अर्थात् अपने शरीर को जानना, समझना और उसे स्वस्थ तथा सुंदर बनाने का प्रयास करना । प्राचीन ऋषि परंपरा मेँ प्रत्येक साधक के लिए इसीलिए योगाभ्यास नितान्त अनिवार्य था क्योँकि देह का ह्रष्टपुष्ट होना मस्तिष्क के तंतुओँ का ह्रष्टपुष्ट होना चेतना को अनंत बनाने मेँ सहायक होता है । योग ने छोटे-छोटे आसनोँ को जोड-जोडकर विशेष-विशेष प्रकार की पद्धतियोँ का निर्भाण किया; इन्हीँ पद्धतियोँ से जुडकर प्रत्येक साधक देह कौशल प्राप्त कर सकता है । साधारण व्यायाम और देह कौशल मेँ ये अंतर है कि साधारण व्यायाम जल्दी-जल्दी और अव्यवस्था से किया जाता है किन्तु योग मेँ प्रत्येक आसन धीमी श्वास, लय, गति, ताल और बीजमन्त्रोँ के साथ किया जाता है; साथ ही ह्रदय मेँ पवित्रता, देवत्व, ईश्वरत्व का भाव समाहित रहता है; साधक भी स्वयं को मानवीय तलोँ से ऊपर पाता है; तब ये व्यायाम न होकर दिव्य आसन हो जाते है, जिस से देह कौशल का प्रादुर्भाव होता है । आप जहाँ भी रहे अपने आप को देह कौशल से जोडे रखेँ । देह के भीतर होनेवाले अनेकोँ परिवर्तनोँ को आप स्वयं संचालित कर सकते है । आप धारणा, इच्छाशक्ति, संकल्प, सूक्ष्म व्यायामोँ, योगासनोँ तथा अलग-अलग परंपराओँ के माध्यम से अपने भीतर के विकास को स्वयं प्रभावित कर सकते है; भीतर हो रहे परिवर्तनोँ पर आप स्वयं अपना प्रभुत्व स्थापित कर सकते है । देह को कैसे चलना है, देह के भीतर किन परिवर्तनोँ की आवश्यकता है, देह को किस तत्त्वोँ की आवश्यकता है ये सब चुनाव आपके भीतर ही होना चाहिए और इस प्रक्रिया को ठीक रखना ही समस्त रोगोँ से मुक्त रहना है । बहुत से रोग हमेँ सिर्फ इसलिए ग्रसित करते है क्योँकि हम इन्हेँ अपने भीतर आने का अवसर प्रदान करते है । यदि हम संक्षिप्त व्यायाम नित्य करेँ, देह कौशल मेँ उतरे तो आप पाएँगे कि थोडी जटिलता तो है, शरीर के साथ कुछ जबरजस्ती भी करनी ही पडेगी; इसके लिए आलस्य-प्रमाद का त्याग भी करना होगा किन्तु यही परंपरा आपको दिव्य और रोगमुक्त बना देती है; चाहे वो रीड की हड्डी होए, चाहे गरदन की, चाहे आपके बाजु होँ अथवा आपका चेहरा या जांघे सब जगह जब तक कंपन उत्पन्न न हो जाए, जब तक रक्त का प्रवाह न पहुँच जाए तब तक व्यायाम या देहकौशल को भली प्रकार हुआ नहीँ जानना चाहिए । देह कौशल मेँ श्वास की गति अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । हमेँ बहुत सहज गति से धीरे-धीरे श्वास को लेना और छोडना होता है । हम किस प्रकार श्वास के लय को समझेँ ये अभ्यास गुरु के सानिध्य मेँ करना चाहिए; साथ ही यदि हम अभ्यास मेँ बीजमन्त्रोँ का संपुट देँ तो यह घटना क्रान्तिकारी स्वरुप धारण कर लेती है । मस्तिष्क के दिव्य तन्तुओँ मेँ तीव्र विद्युत प्रवाहित होने लगती है और नये विचारोँ और नये तन्तुओँ का स्फुरण होने लगता हैः विश्व नया सा जान पडता है और ऐसी दिव्य देह ही अध्यात्म के विराट ज्ञान को समझ सकती है । ज्ञान को दो भागोँ मेँ बाँटा गया : एक विद्या, दुसरा अविद्या । विद्या वो जो आपको इस जगत से पार ले जाकर सत्य को उपलब्ध करवाएँ । अविद्या वो जो आपको इस जगत का ज्ञान और इस मायारुपी प्रपञ्च मेँ उलझाकर उस प्रपञ्च का सार प्रदान करेँ । किन्तु ज्ञान तो ज्ञान ही है, चाहे वो विद्या हो अथवा अविद्या; दोनोँ की प्राप्ति देह कौशल के बिना संभव नहीँ । किसी भी प्रकार के तप, साधना, मन्त्रजप, हठयोग सब के लिए देह को साधना अत्यंत आवश्यक बताया गया । शास्त्रोँ ने तो यहाँ तक कहा कि मनुष्य देह करोडोँ योनियोँ के पश्चात प्राप्त होती है इसलिए हमेँ इस देह की अमूल्यता को समझना होगा । हम विश्राम, आलस्य और प्रमाद तक ही सीमित न रहे, इस से मानवजाति का अनिष्ट होने की संभावना है क्योँकि मानव जितना कर्मठ कर्मशील, पवित्र और दिव्य होगा उसके भीतर वो परिवर्तन स्थायी होते चले जायेंगे । - ईशपुत्र