योग का व्यापक अर्थ होता है । योग को हम किसी साधारण परिपाटी में नहीं बाँध सकते अथवा इसकी कोई निश्चित व्याख्या नहीं दी जा सकती । योग को "जोडना" कहा गया है लेकिन वास्तव में ये जोडता तो है किन्तु बहुत बाद बात में...पहले तो ये बस विखण्डन करता चला जाता है...और वो विखण्डन बडा अद्भुत है । कहने को तो योग है अर्थात् जोडना...लेकिन मैने कहा, योग जोडता बाद में है, पहले तोडता है, विखंडित करता है । ये हमें हमारी ही उर्जा के साथ इस प्रकार जोडे हुए है कि हम जब साधना में उतरते है तो पाते है कि हम उर्जा के तल पर भिन्न है और भौतिक देह के तल पर भिन्न है...तो योग वहाँ दोनों को जोडता नहीं अपितु उर्जा के तल को तोड देता है, जिसे मूलाधार चक्र का भेदन कहा गया ! तब वो महानतम कुण्डलिनी शक्ति जागृत होती है और वो साधक को उस परम सहस्त्रार कमलदल तक ले जाती है ! तो योग कहने में जितना साधारण है समझने में उतना ही विचित्र...और जब तक हम योग को वास्तविक रुप में न जान ले कि योग क्या है तब तक योगाभ्यास, प्राणायाम, ध्यान, धारणा, समाधि, यम, नियम इत्यादि सभी खोखले है । मानव को किस वस्तु की आवश्यकता है ? सर्वप्रथम तो शायद देहसुख की और देहसुख के बाद जब वो सभ्यता में जीवनयापन करता है तो वो चाहता है कि में सुदृढ रहूँ, मेँ दिव्य बन सकुँ, मेँ ओजस्वी बन सकुँ, मेरे व्यक्तित्व का विकास हो सके और तदन्तर वो चाहता है कि मन-मस्तिष्क से मैं अक्षुण्ण रह सकुँ ताकि कहीँ बुद्धि का क्षय ना हो और योग इन सब में अतिसहायक सिद्ध होता है । लेकिन इसका तात्पर्य ये नहीं कि योग का बस इतना सा कार्य है ।
योग तो वो पारमार्तिक विधा है जिसके माध्यम से हम स्व को जानते है हम आत्मज्ञान को उपलब्ध होते है वह उस परम परमात्म तत्त्व जिसे "परम शाश्वत सत्य" कहा गया उसकी हम प्राप्ति करते है । योग शब्द जितना छोटा है उतना ही विराट भी ठीक गागर मेँ सागर के समान । योग कहाँ से शुरु होता है ? योग अपने भीतर क्या समेटे है ये बहुत ही गुढ विषय है जिसे प्रत्येक साधक अपने योग्य गुरु के निर्देश में ही प्राप्त कर सकता है लेकिन फिर भी हम योग की कुछ छोटी-छोटी बातें सीखकर अपने जीवन में उन्हें उतार सकते है लेकिन ध्यान रहे वे उचित होनी चाहिए, वे वास्तविक होनी चाहिए; मनघडंत व छद्म न हो ।
योग यदि हमें जोडता है तो योग कुछ समय के लिए हमें इस सभ्यता से तोडता भी तो है ! लेकिन साधक को सर्वप्रथम योग के विषय का सत्संग करना चाहिए...योग्य गुरुओं के पास जाकर अथवा योग्य ग्रंथों के माध्यम से और साथ ही साथ उसका अभ्यास करते रहना चाहिए क्योंकि जब तक हम ज्ञान पर अभ्यास को न लाएँ अर्थात् ज्ञान को जब तक हम चरितार्थ न करें वो व्यर्थ होता है और योग पर भी यदि हम सिर्फ बातें करते रहे तो कुछ भी नहीं होने वाला...लेकिन योग असीम भंडार है वो इतना विस्तृत है कि जिसकी हम कल्पना नहीं कर पाते । एक आम जनमानस एक आम साधक योग की क्या कल्पना लिए बैठा है ? मात्र यही की कुछ प्राणायाम, कुछ योगासन...बस क्या यही योग है ? योग तो इतना विस्तृत है कि योग के अन्तर्गत ही हठयोग, राजयोग, लययोग, नादयोग, क्रियायोग, भक्तियोग, सांख्ययोग, संन्यासयोग आदि आदि न जाने कितने प्रकार के योग है ! जो कि योग के प्रकारान्तर उसकी शाखाएँ है...लेकिन हमने योग को सीमित कर लिया इसीलिए हम सीमित से हो गये । हमें पूर्णरुपेण उसी परम्परा के माध्यम से जिस माध्यम से ऋषियों ने ये ज्ञान आगे प्रसारित किया है उसी माध्यम से उसे समझना होगा । हम यदि उसे भलीभाँति जीवन में उतारते है तो क्रान्ति घटित होती ही होती है । जीवन मेँ दिव्य उर्जा का आवागमन होता है कभी वो उर्जा आती है, कभी वो उर्जा चली जाती है, इस आवागमन के मध्य जब साधक साक्षी होकर धैर्यवान अभ्यासी होकर गुरु चरणों में नित्य बैठकर जब साधना को लगातार जारी रखता है तो अन्ततः वह लक्ष्यभेदन करता है और तब उस महाशक्ति का भीतर विस्फोट होता है । हमारे जीवन में महाक्रान्ति घटित होती है तब हम जानते है कि योग क्या है ! तब हम महसूस कर पाते है कि योग कितना असीम है !
ज्युँ ही योग का अभ्यास साधक करता है त्युँ ही उसे अद्भुत अद्भुत अनुभव होते है । उसका मन-मस्तिष्क प्रखर हो जाता है । वो अपने भीतर संपूर्ण ब्रह्माण्ड के दर्शन करता है । समस्त प्रकार की उर्जा उसे अपने चारों ओर दृष्टिगोचर होती है । साधक को मूलाधार में स्पन्दन महसूस होता है और धीरे-धीरे वही मूलाधार की उर्जा बढते-बढते प्रकाशमय होते हुए सहस्त्रार कमलदल तक जा पहुँचती है, जहाँ जाने पर योगी को महासमाधि का ज्ञान होता है...और योग, योग की धारणा भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रकारान्तर मेँ भिन्न भिन्न-भिन्न कही गयी है । योग में कुण्डलिनी चक्रों को महत्व दिया गया है । हमारे शरीर के भीतर मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपूर चक्र, अनाहत चक्र, विशुद्ध चक्र, आज्ञा चक्र और सहस्त्रार कमलदल नाम के सप्त चक्र विद्यमान है । इन सातों चक्रों में सबसे अधिक सक्रिय आज्ञा नाम का चक्र है और हमारे शरीर के भीतर एक विलक्षण जो शक्ति है वो यही कुण्डलिनी शक्ति है । वास्तव में ये कुण्डलिनी शक्ति हमारी विराट चेतना ही है । ज्युँ-ज्युँ हम अपने ज्ञान को प्रगाढ करते जाते है, ज्युँ-ज्युँ हम साधना में भीतर उतरते जाते है त्युँ-त्युँ हमें इस कुण्डलिनी शक्ति से उर्जा प्राप्त होती चली जाती है और साधक भौतिक जगत में भी तीव्र होता है और आध्यात्मिक जगत में भी । भोग और मोक्ष दोनों साधक को एक साथ प्राप्त होते है । साधक अपने आप में प्रसन्न रहता है । उसके समस्त तनाव, समस्त प्रपंचों से उसे मुक्ति मिल जाती है । वो भीतर दिव्य उर्जा को अनुभव करता है ।... किन्तु योग इतना सरल नहीँ..योग के लिए तो हमेँ कुछ क्लिष्ट परिपाटियोँ को भी अपनाना होता है । हमेँ किस प्रकार के वस्त्र पहननेँ चाहिए ये बहुत अनिवार्य है । साधनाकाल मेँ हमारा आहार-विहार कैसा रहे, हमारा परिवेश कैसा रहे...हम वनोँ मेँ घुमेँ..हम नदी के किनारे, पर्वत-शिखर पर, गुफा-कन्दरा के निकट रहे..मन्दिर अथवा गुरु-आश्रय मेँ रहे तो शास्त्र नेँ कहा है कुण्डलिनी जागरण मेँ अथवा योग की प्रणालियोँ मेँ हमेँ शीध्र सफलता मिलती है । योग मेँ योगासन भी आते है, प्राणायाम भी आते है, योग एक अद्भुत विधा है, हमेँ उस विधा को जानना है, तभी हम समझ पायेंगे की हमेँ योग मेँ किस प्रकार गति करनी है और योग विषय क्या है, योग के समस्त बिन्दुओँ पर जब हम दृष्टिपात करते है तभी हम योगविद्या को जानने के अधिकारी होते है और तब हम भली प्रकार से योग को अपने जीवन मेँ उतार कर अपने व्यक्तित्व को उज्जवल बना सकते है । हम अपने भीतर उन पारलौकिक शक्तियोँ को जागृत कर सकते है और उनसे भिन्न भिन्न प्रकार के लाभ प्राप्त कर सकते है चाहेँ वो भौतिक हो अथवा आध्यात्मिक हो । हमारी उर्जा इतनी विकट है, हमारे भीतर इतनी उर्जा छिपी है कि हम उसकी कल्पना तक नहीँ कर सकते । योग एक परम विकसित प्रणाली है जिसके माध्यम से हम अपना संपूर्ण विकास कर सकते है । ये योगविद्या हमेँ अपने आप से जुडना सीखाती है । योग का अर्थ है कि, "हम स्व को जानेँ, सृष्टि को जानेँ, सब कुछ जो दृश्य अथवा अदृश्य है वे सब हमारे ज्ञान मेँ समाविष्ट हो जाएँ ।" योग एक दिव्य विधा है, एक ऐसी परम विधा जिसके अन्दर असीम भंडार छिपे पडे है । योग दिव्य है, अलौकिक है । इस योग विधा की खोज करने हेतु युगोँ युगोँ से ऋषि मुनियोँ नेँ अनेकोँ प्रकार से प्रयास किये है, तदोपरान्त जो प्रणाली प्रयोगो पर खरी उतरी उसे एक सुंदर प्रारुप देकर योगविद्या मेँ ढाल दिया गया । योग आदिविद्या है । महाशिव की परंपरा से चली आ रही विद्या है । ऋषियोँ नेँ वनोँ मेँ रहकर कठोर तप के उपरांत इस महान विद्या का आविष्कार किया तथा मानव हितार्थ ये संपूर्ण विश्व को प्रदान की गयी । योगविद्या हमेँ असीमित होने के अवसर देती है । बात चाहे भौतिक जीवन की हो या आध्यात्मिक जीवन की, भोग की अथवा मोक्ष की हर ओर योग नेँ अपनी बाँहे फैलाई हुई है । संपूर्ण प्रणालियाँ योग के अन्तर्गत आती है लेकिन ये योग इतना सहज और सरल नहीँ जितना की हम इसे मानते है । योग तो वह परम विज्ञान है जिसकी सीमाओँ का अभी तक कोई ज्ञाता न हो सका । वन-वन भटककर अपने आप को कठोर तप मेँ तपाकर इस महासाधना को पाया जा सकता है । योग शरीर को तोडना-मरोडना नहीँ, योग आँखेँ मुँदकर बैठ जाना नहीँ । योग का अर्थ तो है अपनी चेतना को असीम बना देना, उसे महानतम शिखर पर पहुँचा देना । योग हमारा पूर्ण विकास है, हम दैहिक, मानसिक, बौधिक अथवा आध्यात्मिक रुप से भी पूर्णतः विकसित होते है । किन्तु योग के लिए हमेँ ऐसे परिवेश की आवश्यकता होती है जो पूर्णतया प्राकृतिक हो । हम वहीँ ध्यान करेँ, वहीँ साधनाएँ करेँ, वहीँ प्रयास करेँ योग विधा की प्राप्ति हेतु । योग स्वयं भीतर प्रस्फुरित होता है, वह सीखाया नहीँ जा सकता क्योँकि योग कोई आसनविशेष अथवा मंत्रविशेष अथवा क्रियाविशेष नहीँ है । योग तो एक स्थिति है, उच्चतम मनोस्थिति, दिव्यतम मनोभाव, पवित्रता और शक्तिसम्पन्नता..इसे तो मात्र अनुभव किया जा सकता है लेकिन प्रकृति से दूर होकर योग कदापि संभव नहीँ । हम कक्ष मेँ बैठकर योगाभ्यास करेँ तो वह फलिभूत न हो सकेगा क्योँकि उसकी भूमि वह तो प्रकृति ही है अतः हमेँ दिव्य होना होगा और योग के साधक संपूर्ण ग्रंथियोँ से मुक्त होने चाहिए.. उनके अंदर भय न हो, वे भयग्रंथि से सर्वदा मुक्त हो, किसी भी पाश मेँ वे आबद्ध न होँ, यदि साधक पूर्व जन्मोँ के पुण्योँ के फलस्वरुप गुरुकृपा के कारण अथवा किसी पराचेतना के वशीभूत होकर जब ऐसी साधना हेतु मुखर होता है तब वह योग की उस महास्थिति तक पहुँच पाता है.. तब हमारी संपूर्ण ग्रंथियाँ नष्ट हो जाती है । हम दिव्य हो सकते है । हम उर्जावान हो सकते है किन्तु इन सभी तथ्योँ को समझनेँ के लिए योग को साररुप से समझना होगा.. हालाँकि योग की अनेकोँ अनेक परिभाषाएँ है किन्तु यदि निश्चित रुप से कहा जाए या मैँ प्रयोगोँ के आधार पर कहुँ तो योग की कोई निश्चित परिभाषा ही नहीँ है ।
योग तो बस "होना" है, अपने आप मेँ होना । योग तो बस अनुभूति है, एक मस्ती है, एक अल्हडपन है । ये सृष्टि हम देख सकेँ, अनुभव कर सकेँ, हम इसके विराट आयामोँ को समझ सकेँ, हम हर दिशा मेँ अपना महानतम विकास कर सके, इसकी जो प्रणाली है वही योग है किन्तु योग के इतने प्रत्यन्तर विभाग है कि हम साधारण शब्दोँ मेँ अथवा दो वाक्योँ मेँ योग को नहीँ समेट सकते । बिलकुल सहज रहना, सहज रुप से प्रकृति को अनुभव करना, सहज रुप से अपने आप को अनुभव करना ये भी योग है, भक्ति करना भी योग है, वैराग्य होना भी योग है, मंत्र भी योग है, क्रिया भी योग है, तप भी योग है एवं स्व को जानने का प्रायास करना भी योग ही है; किन्तु बडी विडम्बना ये है कि समय के झंझावातोँ ने मानव को समूहोँ मेँ गठित कर शहरोँ मेँ, गाँव मेँ बसा दिया, भले ही उससे हमारा विकास हुआ हो, हमारा जीवन सरल हुआ हो लेकिन प्रकृति से दूरी ज्युँ ज्युँ बढती गयी त्युँ त्युँ हम अपने मूल से दूर होते चले गये अतः हमेँ आज भी योग्य माध्यम से अपने आप को उसी प्रकृति से जोडना है जिस प्रकृति के हम अभिन्न अंग है । योग से व्यक्ति का पूर्ण विकास होता है । योग शब्दोँ का विषय इसलिए भी नहीँ क्योँकि हम इसकी जितनी भी महिमा बखानते है वो अपने आप मेँ कम ही है । योग नेँ व्यक्ति को संयमी होना सीखाया, योग नेँ व्यक्ति को कठोर बनाया, योग नेँ व्यक्ति को सीमित आयामोँ से सिमटकर ना रहने की सलाह दी, योग नेँ व्यक्ति को मुक्त किया, योग नेँ साधक को चरम बना दिया, चरमोत्कर्ष की वो महाभूमि प्रदान की जिसकी हम कल्पना भी नहीँ कर सकते ! योग एक अनुठा विषय है अतः इसे योग्य गुरु, तपस्वी गुरु की शरण मेँ रहकर हम जान सकते है । स्वयं महागुरुओँ नेँ योग को कठिनतम प्रणालियोँ से ग्रहण किया है किन्तु वे अपने योग्य शिष्योँ को बहुत ही सहज माध्यमोँ से इसका ज्ञान प्रदान करते है । प्रत्येक साधक का ये कर्तव्य है कि वह योग को सीमित न बनाएँ, वो योग को बंधनोँ मेँ न बांधे, वो योग को कुछ आसनोँ अथवा प्राणायामोँ तक सीमित न रखेँ क्योँकि ऐसा करना योग का साक्षात् अपमान होगा और योग से हमेँ मात्र स्वार्थसिद्धि ही नहीँ करनी क्योँकि ऐसा करना भी इस महाविद्या का उल्लंघन होगा । योग दिव्य है, इसका परिचय देना संभव नहीँ तथापि हमेँ इसके प्रत्येक पहलुओँ को अवश्य समझना होगा तभी हम योगविद्या को जान पायेंगे । - ईशपुत्र
योग यदि हमें जोडता है तो योग कुछ समय के लिए हमें इस सभ्यता से तोडता भी तो है ! लेकिन साधक को सर्वप्रथम योग के विषय का सत्संग करना चाहिए...योग्य गुरुओं के पास जाकर अथवा योग्य ग्रंथों के माध्यम से और साथ ही साथ उसका अभ्यास करते रहना चाहिए क्योंकि जब तक हम ज्ञान पर अभ्यास को न लाएँ अर्थात् ज्ञान को जब तक हम चरितार्थ न करें वो व्यर्थ होता है और योग पर भी यदि हम सिर्फ बातें करते रहे तो कुछ भी नहीं होने वाला...लेकिन योग असीम भंडार है वो इतना विस्तृत है कि जिसकी हम कल्पना नहीं कर पाते । एक आम जनमानस एक आम साधक योग की क्या कल्पना लिए बैठा है ? मात्र यही की कुछ प्राणायाम, कुछ योगासन...बस क्या यही योग है ? योग तो इतना विस्तृत है कि योग के अन्तर्गत ही हठयोग, राजयोग, लययोग, नादयोग, क्रियायोग, भक्तियोग, सांख्ययोग, संन्यासयोग आदि आदि न जाने कितने प्रकार के योग है ! जो कि योग के प्रकारान्तर उसकी शाखाएँ है...लेकिन हमने योग को सीमित कर लिया इसीलिए हम सीमित से हो गये । हमें पूर्णरुपेण उसी परम्परा के माध्यम से जिस माध्यम से ऋषियों ने ये ज्ञान आगे प्रसारित किया है उसी माध्यम से उसे समझना होगा । हम यदि उसे भलीभाँति जीवन में उतारते है तो क्रान्ति घटित होती ही होती है । जीवन मेँ दिव्य उर्जा का आवागमन होता है कभी वो उर्जा आती है, कभी वो उर्जा चली जाती है, इस आवागमन के मध्य जब साधक साक्षी होकर धैर्यवान अभ्यासी होकर गुरु चरणों में नित्य बैठकर जब साधना को लगातार जारी रखता है तो अन्ततः वह लक्ष्यभेदन करता है और तब उस महाशक्ति का भीतर विस्फोट होता है । हमारे जीवन में महाक्रान्ति घटित होती है तब हम जानते है कि योग क्या है ! तब हम महसूस कर पाते है कि योग कितना असीम है !
ज्युँ ही योग का अभ्यास साधक करता है त्युँ ही उसे अद्भुत अद्भुत अनुभव होते है । उसका मन-मस्तिष्क प्रखर हो जाता है । वो अपने भीतर संपूर्ण ब्रह्माण्ड के दर्शन करता है । समस्त प्रकार की उर्जा उसे अपने चारों ओर दृष्टिगोचर होती है । साधक को मूलाधार में स्पन्दन महसूस होता है और धीरे-धीरे वही मूलाधार की उर्जा बढते-बढते प्रकाशमय होते हुए सहस्त्रार कमलदल तक जा पहुँचती है, जहाँ जाने पर योगी को महासमाधि का ज्ञान होता है...और योग, योग की धारणा भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रकारान्तर मेँ भिन्न भिन्न-भिन्न कही गयी है । योग में कुण्डलिनी चक्रों को महत्व दिया गया है । हमारे शरीर के भीतर मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपूर चक्र, अनाहत चक्र, विशुद्ध चक्र, आज्ञा चक्र और सहस्त्रार कमलदल नाम के सप्त चक्र विद्यमान है । इन सातों चक्रों में सबसे अधिक सक्रिय आज्ञा नाम का चक्र है और हमारे शरीर के भीतर एक विलक्षण जो शक्ति है वो यही कुण्डलिनी शक्ति है । वास्तव में ये कुण्डलिनी शक्ति हमारी विराट चेतना ही है । ज्युँ-ज्युँ हम अपने ज्ञान को प्रगाढ करते जाते है, ज्युँ-ज्युँ हम साधना में भीतर उतरते जाते है त्युँ-त्युँ हमें इस कुण्डलिनी शक्ति से उर्जा प्राप्त होती चली जाती है और साधक भौतिक जगत में भी तीव्र होता है और आध्यात्मिक जगत में भी । भोग और मोक्ष दोनों साधक को एक साथ प्राप्त होते है । साधक अपने आप में प्रसन्न रहता है । उसके समस्त तनाव, समस्त प्रपंचों से उसे मुक्ति मिल जाती है । वो भीतर दिव्य उर्जा को अनुभव करता है ।... किन्तु योग इतना सरल नहीँ..योग के लिए तो हमेँ कुछ क्लिष्ट परिपाटियोँ को भी अपनाना होता है । हमेँ किस प्रकार के वस्त्र पहननेँ चाहिए ये बहुत अनिवार्य है । साधनाकाल मेँ हमारा आहार-विहार कैसा रहे, हमारा परिवेश कैसा रहे...हम वनोँ मेँ घुमेँ..हम नदी के किनारे, पर्वत-शिखर पर, गुफा-कन्दरा के निकट रहे..मन्दिर अथवा गुरु-आश्रय मेँ रहे तो शास्त्र नेँ कहा है कुण्डलिनी जागरण मेँ अथवा योग की प्रणालियोँ मेँ हमेँ शीध्र सफलता मिलती है । योग मेँ योगासन भी आते है, प्राणायाम भी आते है, योग एक अद्भुत विधा है, हमेँ उस विधा को जानना है, तभी हम समझ पायेंगे की हमेँ योग मेँ किस प्रकार गति करनी है और योग विषय क्या है, योग के समस्त बिन्दुओँ पर जब हम दृष्टिपात करते है तभी हम योगविद्या को जानने के अधिकारी होते है और तब हम भली प्रकार से योग को अपने जीवन मेँ उतार कर अपने व्यक्तित्व को उज्जवल बना सकते है । हम अपने भीतर उन पारलौकिक शक्तियोँ को जागृत कर सकते है और उनसे भिन्न भिन्न प्रकार के लाभ प्राप्त कर सकते है चाहेँ वो भौतिक हो अथवा आध्यात्मिक हो । हमारी उर्जा इतनी विकट है, हमारे भीतर इतनी उर्जा छिपी है कि हम उसकी कल्पना तक नहीँ कर सकते । योग एक परम विकसित प्रणाली है जिसके माध्यम से हम अपना संपूर्ण विकास कर सकते है । ये योगविद्या हमेँ अपने आप से जुडना सीखाती है । योग का अर्थ है कि, "हम स्व को जानेँ, सृष्टि को जानेँ, सब कुछ जो दृश्य अथवा अदृश्य है वे सब हमारे ज्ञान मेँ समाविष्ट हो जाएँ ।" योग एक दिव्य विधा है, एक ऐसी परम विधा जिसके अन्दर असीम भंडार छिपे पडे है । योग दिव्य है, अलौकिक है । इस योग विधा की खोज करने हेतु युगोँ युगोँ से ऋषि मुनियोँ नेँ अनेकोँ प्रकार से प्रयास किये है, तदोपरान्त जो प्रणाली प्रयोगो पर खरी उतरी उसे एक सुंदर प्रारुप देकर योगविद्या मेँ ढाल दिया गया । योग आदिविद्या है । महाशिव की परंपरा से चली आ रही विद्या है । ऋषियोँ नेँ वनोँ मेँ रहकर कठोर तप के उपरांत इस महान विद्या का आविष्कार किया तथा मानव हितार्थ ये संपूर्ण विश्व को प्रदान की गयी । योगविद्या हमेँ असीमित होने के अवसर देती है । बात चाहे भौतिक जीवन की हो या आध्यात्मिक जीवन की, भोग की अथवा मोक्ष की हर ओर योग नेँ अपनी बाँहे फैलाई हुई है । संपूर्ण प्रणालियाँ योग के अन्तर्गत आती है लेकिन ये योग इतना सहज और सरल नहीँ जितना की हम इसे मानते है । योग तो वह परम विज्ञान है जिसकी सीमाओँ का अभी तक कोई ज्ञाता न हो सका । वन-वन भटककर अपने आप को कठोर तप मेँ तपाकर इस महासाधना को पाया जा सकता है । योग शरीर को तोडना-मरोडना नहीँ, योग आँखेँ मुँदकर बैठ जाना नहीँ । योग का अर्थ तो है अपनी चेतना को असीम बना देना, उसे महानतम शिखर पर पहुँचा देना । योग हमारा पूर्ण विकास है, हम दैहिक, मानसिक, बौधिक अथवा आध्यात्मिक रुप से भी पूर्णतः विकसित होते है । किन्तु योग के लिए हमेँ ऐसे परिवेश की आवश्यकता होती है जो पूर्णतया प्राकृतिक हो । हम वहीँ ध्यान करेँ, वहीँ साधनाएँ करेँ, वहीँ प्रयास करेँ योग विधा की प्राप्ति हेतु । योग स्वयं भीतर प्रस्फुरित होता है, वह सीखाया नहीँ जा सकता क्योँकि योग कोई आसनविशेष अथवा मंत्रविशेष अथवा क्रियाविशेष नहीँ है । योग तो एक स्थिति है, उच्चतम मनोस्थिति, दिव्यतम मनोभाव, पवित्रता और शक्तिसम्पन्नता..इसे तो मात्र अनुभव किया जा सकता है लेकिन प्रकृति से दूर होकर योग कदापि संभव नहीँ । हम कक्ष मेँ बैठकर योगाभ्यास करेँ तो वह फलिभूत न हो सकेगा क्योँकि उसकी भूमि वह तो प्रकृति ही है अतः हमेँ दिव्य होना होगा और योग के साधक संपूर्ण ग्रंथियोँ से मुक्त होने चाहिए.. उनके अंदर भय न हो, वे भयग्रंथि से सर्वदा मुक्त हो, किसी भी पाश मेँ वे आबद्ध न होँ, यदि साधक पूर्व जन्मोँ के पुण्योँ के फलस्वरुप गुरुकृपा के कारण अथवा किसी पराचेतना के वशीभूत होकर जब ऐसी साधना हेतु मुखर होता है तब वह योग की उस महास्थिति तक पहुँच पाता है.. तब हमारी संपूर्ण ग्रंथियाँ नष्ट हो जाती है । हम दिव्य हो सकते है । हम उर्जावान हो सकते है किन्तु इन सभी तथ्योँ को समझनेँ के लिए योग को साररुप से समझना होगा.. हालाँकि योग की अनेकोँ अनेक परिभाषाएँ है किन्तु यदि निश्चित रुप से कहा जाए या मैँ प्रयोगोँ के आधार पर कहुँ तो योग की कोई निश्चित परिभाषा ही नहीँ है ।
योग तो बस "होना" है, अपने आप मेँ होना । योग तो बस अनुभूति है, एक मस्ती है, एक अल्हडपन है । ये सृष्टि हम देख सकेँ, अनुभव कर सकेँ, हम इसके विराट आयामोँ को समझ सकेँ, हम हर दिशा मेँ अपना महानतम विकास कर सके, इसकी जो प्रणाली है वही योग है किन्तु योग के इतने प्रत्यन्तर विभाग है कि हम साधारण शब्दोँ मेँ अथवा दो वाक्योँ मेँ योग को नहीँ समेट सकते । बिलकुल सहज रहना, सहज रुप से प्रकृति को अनुभव करना, सहज रुप से अपने आप को अनुभव करना ये भी योग है, भक्ति करना भी योग है, वैराग्य होना भी योग है, मंत्र भी योग है, क्रिया भी योग है, तप भी योग है एवं स्व को जानने का प्रायास करना भी योग ही है; किन्तु बडी विडम्बना ये है कि समय के झंझावातोँ ने मानव को समूहोँ मेँ गठित कर शहरोँ मेँ, गाँव मेँ बसा दिया, भले ही उससे हमारा विकास हुआ हो, हमारा जीवन सरल हुआ हो लेकिन प्रकृति से दूरी ज्युँ ज्युँ बढती गयी त्युँ त्युँ हम अपने मूल से दूर होते चले गये अतः हमेँ आज भी योग्य माध्यम से अपने आप को उसी प्रकृति से जोडना है जिस प्रकृति के हम अभिन्न अंग है । योग से व्यक्ति का पूर्ण विकास होता है । योग शब्दोँ का विषय इसलिए भी नहीँ क्योँकि हम इसकी जितनी भी महिमा बखानते है वो अपने आप मेँ कम ही है । योग नेँ व्यक्ति को संयमी होना सीखाया, योग नेँ व्यक्ति को कठोर बनाया, योग नेँ व्यक्ति को सीमित आयामोँ से सिमटकर ना रहने की सलाह दी, योग नेँ व्यक्ति को मुक्त किया, योग नेँ साधक को चरम बना दिया, चरमोत्कर्ष की वो महाभूमि प्रदान की जिसकी हम कल्पना भी नहीँ कर सकते ! योग एक अनुठा विषय है अतः इसे योग्य गुरु, तपस्वी गुरु की शरण मेँ रहकर हम जान सकते है । स्वयं महागुरुओँ नेँ योग को कठिनतम प्रणालियोँ से ग्रहण किया है किन्तु वे अपने योग्य शिष्योँ को बहुत ही सहज माध्यमोँ से इसका ज्ञान प्रदान करते है । प्रत्येक साधक का ये कर्तव्य है कि वह योग को सीमित न बनाएँ, वो योग को बंधनोँ मेँ न बांधे, वो योग को कुछ आसनोँ अथवा प्राणायामोँ तक सीमित न रखेँ क्योँकि ऐसा करना योग का साक्षात् अपमान होगा और योग से हमेँ मात्र स्वार्थसिद्धि ही नहीँ करनी क्योँकि ऐसा करना भी इस महाविद्या का उल्लंघन होगा । योग दिव्य है, इसका परिचय देना संभव नहीँ तथापि हमेँ इसके प्रत्येक पहलुओँ को अवश्य समझना होगा तभी हम योगविद्या को जान पायेंगे । - ईशपुत्र