गुरुवार, 24 मई 2018

मनुष्यता - मानव की परम आवश्यकता


मानव का शरीर धारण कर लेनेँ मात्र से कोई मनुष्य नहीँ हो जाता । मनुष्य जीवन मेँ कुछ ऐसे तत्त्व है जिनके कारण वो मनुष्य "मनुष्य" कहलाता है । इन सभी तत्त्वोँ मेँ जिन्हे हम भाव कहते है या गुण कहते है इन सभी गुणोँ मेँ सबसे प्रधान गुण कौनसा है ? वो है प्रेम और वो है साधना । ईश्वर के पथ पर बढनेवाला हर एक साधक भिन्न भिन्न प्रकार की प्रणालिओँ पर चलता है । हठयोग, राजयोग, लययोक अर्थात् योग के अनेकोँ प्रकार; अनेकोँ प्रकार के मन्त्र; अनेकोँ प्रकार के धर्म; अनेकोँ प्रकार के सम्प्रदाय आदि आदि लेकिन यदि मनुष्य के भीतर मनुष्यता ही नहीँ होगी तो फिर चाहे तुम कुछ भी कर लो सबकुछ निरर्थक और व्यर्थ है । केवल मात्र मनुष्य होना ही अपने आप मेँ सर्वोच्च गुण है और मनुष्य बडा न तो पद-प्रतिष्ठा से होता है ना ही मान-सम्मान से । उसकी साधना ही सब कुछ है लेकिन उस साधना के पीछे उसके जीवन के पीछे जो तत्त्व प्रमुख है वो प्रेम है । जिसने इस प्रेम को समझ लिया वो अपने जीवन से प्रेम करने लग जाता है । साधना पथ बडा विचित्र है, बडा अद्भुत है । हिमालय पर रहनेवालेँ सिद्धोँ ने, हम योगियोँ नेँ और हमसे पूर्व इस स्थान पर रहे ऋषि-मुनियोँ नेँ इस प्रेम को जाना, इसकी अद्भुत गति को जाना, और उन्होने सर्वप्रथम मानव होने के लिए कुछ सूत्र दिए; ये सूत्र बडे ही विचित्र सूत्र थे । इनमेँ कुछ विशेष सूत्र थे वो प्रेम, दया, ममता, करुणा, स्नेह, भ्रातृत्व इस प्रकार के जो मानवोचित गुण है उन्हेँ ही धर्म मेँ सर्वश्रेष्ठ और सर्वोपरी माना गया । मनुष्य इस विराट सृष्टि मेँ जीवित रहता है, लेकिन जब तक मनुष्य छोटे संप्रदाय मेँ या छोटे से गाँव के रुप मेँ या दो-चार घरोँ के रुप मेँ, परिवारोँ के रुप मेँ रहता है तब वो कम लडता-झगडता है, तब वो कम अपराध करता है; लेकिन जैसे जैसे उसके चारोँ तरफ धन, तथाकथित माया और समाजिकता का अंबार लगना शुरु होता है और लोगोँ की भीड आनी शुरु होती है तो जैसे ही उस व्यक्तिविशेष के पीछे भीड आ जायेँ उसके भीतर पैशाचिक वृत्तियाँ जागने लगती है । मनुष्य को पुण्यभाव और पिशाचभाव दोनोँ के दोनोँ प्रभावित करते है और इन दोनोँ से ही मनुष्य अपने अस्तित्व को जानता है लेकिन मूल क्या है ? वास्तव मेँ मनुष्यता है क्या ? ना तो पैशाचिक भाव और ना ही पुण्य भाव; लेकिन मनुष्य होना, उसका प्रेम, दया, करुणा से आप्लावित ह्रदय होना वो उसकी सहज वृत्ति होनी चाहिए । एक तो है कि आपनेँ मुझसे सुन लिया, किसी गुरु से सुन लिया कि प्रेम करना चाहिए-भाई को भाई से और सदा स्नेहमय अनुशासित जीवन जीना चाहिए वो एक अलग बात है लेकिन जब इन्हीँ तत्त्वोँ को भीतर से अनुभव करके कोई मनुष्य अपनी स्थिति पर दृढ रहता है तो उसका जीवन देवताओँ के जीवन जैसा उच्चकोटि का जीवन हो जाता है । प्रेम शब्द बहुत छोटा है, करुणा , दया, ममता ये सारे शब्द बहुत छोटे है लेकिन मनुष्य केवल वही है जो इन कर्मोँ पर चल सके । मनुष्य के भीतर का पिशाच, उसके भीतर की कुत्सित वृत्तियाँ उसे बार बार जागृत करती है उद्वैलित करती है मनुष्य का मन सदा केवल अपने हित और अपने स्वार्थ तक ही सीमित रहता है लेकिन इसी कारण वो देवत्व नहीँ प्राप्त कर पाता । देवत्व का मार्ग, मुक्ति का मार्ग, आत्मज्ञान का मार्ग, आत्मकल्याण का मार्ग केवल उन कुछ बिन्दुओँ से होकर जाता है यदि तुम समाज मेँ रहकर उन कुछ चुनिन्दा बिन्दुओँ पर अपने आप को खरा साबित कर सको और अपने आप को मनुष्यत्व के स्तर पर लाकर खडा कर सको तो फिर समस्त ऋषि-मुनि, हमारे जैसे समस्त सिद्ध और गन्धर्व प्रतिपल तुम्हे शुभ आशिष देते है । ईश्वर कर्मप्रधान सृष्टि की रचना करते है लेकिन इस कर्मप्रधान सृष्टि मेँ उस व्यक्ति का कर्म सर्वोच्च हो जाता है जो अपनेँ हितोँ को छोडकर परहित मेँ लग जाता है । ये तथ्य और ये छोटी-छोटी बातेँ मुझसे पूर्व भी अनेँको बार धर्मगुरुओँ नेँ , बडे बडे आचार्योँ नेँ, ऋषि-मुनियोँ ने, सिद्धोँ ने कही है लेकिन हम इसे साधारण बात सोचकर या इसे सुनकर इसे भूल जाते है और यही हमारी सबसे बडी गलती होती है । मनुष्य तो बहोत विराट है लेकिन उसकी विराटता इतने छोटे-छोटे बिन्दुओँ पर टीकी हुई है जिससे उसके अस्तित्व मेँ देवत्व कहेलाते है । अध्यात्म की शुरुआत कहाँ से होगी तुम्हारे जीवन मेँ ? सीधे गुरु के पास चले जाने से अध्यात्म नहीँ आता ! गुरु से दीक्षा या मन्त्र ग्रहण करने से अध्यात्म नहीँ आता ! किसी देवी-देवता की प्रतिमा बनाकर पूजा करने से भी अध्यात्म नहीँ आता ! अध्यात्म बडी ही सूक्ष्म और गौण विधा है, वो इतनी सूक्ष्म है कि उसको जाननेँ के लिए तुम्हेँ पहले "मनुष्य" होना होता है और मनुष्यता के लिए तुम्हारे भीतर कुछ पवित्र गुण चाहिए...उन्हीँ मेँ ये प्रेम, दया, ममता, स्नेह, भ्रातृत्व इत्यादि गुण आते है । ये तो मैँ कुछ चंद गुणोँ की व्याख्या कर रहा हुँ । एक आत्मानुशासित भाई जब दुसरे भाई की सहायता करता है तो अध्यात्म का बीज उसके भीतर स्वतः अंकुरित होने लगता है । जब एक भाई घर बना रहा होँ और दुसरा भाई उसकी सहायता करे तो वो उसका विकास है । जब कोई भी व्यक्ति सामर्थ्य से अधिक अन्न अथवा धन एकत्रित कर लेँ और यदि वो उस अपने अन्न अथवा धन मेँ से कुछ हिस्सा अपने किसी दुसरे भाई को दे, अपने किसी सहयोगी या दुसरे मनुष्य को अथवा दुसरे प्राणी के हित के लिए लगाएँ वो उसका सबसे बडा गुण होता है । अध्यात्म उस दिन शुरु समझना जिस दिन तुमने इन गुणोँ को समज लिया और जब तक इन गुणोँ को नहीँ समजा तब तक न तो कोई देवी-देवता, तब तक न तो कोई मनुष्य, तब तक कोई भी तुम्हारी सहायता नहीँ कर पाएगा । तुम भले ही लाख यत्न करो, तुम भले ही अनेकोँ अनेक प्रयास करो लेकिन तुम्हारे समस्त प्रयास धीरे धीरे व्यर्थ हो जायेंगे । मन्त्र नहीँ फलते फुलते, ईश्वर की अनुकंपा अनुभव ही नहीँ होती इसके पीछे क्या कारण है ? इसके पीछे केवल इतना कारण है कि सभी योनियोँ से श्रेष्ठ मनुष्य की योनि को कहा गया लेकिन हमनेँ मनुष्य का शरीर तो धारण कर लिया लेकिन उसकी भीतर की जो वास्तविकता है, उसके जो गुण है उनको हमनेँ नहीँ माना । जो व्यक्ति सत्य के राह पर चलता है. जो सत्य पर दृढ रहता है, पाप आचरण से बचता है और पवित्रता सदा धारण करता है ऐसे व्यक्ति के पास आत्मज्ञान स्वतः चलकर आता है, वो भीतर से सहज ही दिव्य प्राप्तियाँ प्राप्त करने लगता है लेकिन हमारे अंदर जब तक नकारात्मक तत्व, पैशाचिक वृत्तियाँ, अभिमान, क्रोध, अत्यंत वासना इस तरह की पैशाचिक वृत्तियाँ कि दुसरोँ के पास जो है उसको भी हम छीन लाएँ, दुसरे को जो दिया है वो भी हम खा लेँ, हम केवल अपना ही अपना देखेँ और इसके अतिरिक्त सृष्टि के विनाश के लिए हम तत्पर रहे ये पैशाचिक वृत्तियाँ ही मनुष्य को महापातकी बना देती है और मनुष्य का ये स्वभाव बडा ही निन्दनीय है, बडा ही निकृष्ट है इसीलिए अध्यात्म के सभी दिव्य रास्ते, दिव्य मार्ग वो आम मनुष्योँ के लिए बन्द हो गए और ये दुःख की बात है ।
ऐसे मेँ साधक अब क्या कर सकता है ? वो कैसे सोचेगा ? और कैसे अध्यात्म की बुद्धि को प्राप्त करेगा ? कैसे अध्यात्म के मार्ग पर आगे बढेगा ? केवल यदि वो इस बात को समझ लेँ कि सबसे पहले मनुष्य होना जरुरी है और मनुष्य होने के लिए कुछ अच्छे गुणोँ का होना जरुरी है, जिन गुणोँ को "धर्म" के साथ जोडा गया तो वही अध्यात्म के लिए बीज का निर्माण करते है । एक ऐसी मृदा का निर्माण करते है जिस पर फिर कोई भी अध्यात्म फल फुल सकेगा । कोई भी धर्म ऐसा नहीँ होता और ना ही हो सकता है जो एक मनुष्य दुसरे मनुष्य की हत्या के लिए कहे, जहाँ एक मनुष्य दुसरे मनुष्य को दास बनाकर रखेँ । अध्यात्म तो बिलकुल अद्भुत है । ईश्वर तब मनुष्य से स्वयं बात करते है जब उसके भीतर ऐसे गुण होते है कि वो इस पृथ्वी जिसका वो अन्न खा रहा है इसका सम्मान करता हो ! इसे अपवित्र न करता हो ! मनुष्य जिस नदी का पानी पीता हो उस नदी की माँ के समान रक्षा करता हो तो ईश्वर उससे प्रसन्न रहते है । प्रकृति से केवल तुम्हेँ उतना लेना चाहिए जितनी तुम्हारी अति आवश्यकता हो, उसके अतिरिक्त प्रकृति मेँ ही बाकी तत्त्वोँ को रहने देना चाहिए । प्रकृति का अत्यंत दोहन पापाचार ही है और असत्य कथन सबसे बडा पापाचार है और आज तो असत्य का ऐसा बोलबाला है कि हरेक व्यक्ति असत्य से नहीँ सकुचाता । उसे लगता है कि असत्य उसकी जरुरत हो गई है । यही कारण है कि "अध्यात्म" उनको प्राप्त ही नहीँ हो पाता । वो प्रयास करते है, वो लगातार सोचते है लेकिन सोचने से क्या होनेवाला ! आज अध्यात्म को फिर से तलाशने की आवश्यकता है और उसके लिए तुम्हेँ अपने गुणोँ को तलाशना होगा । तुम भले ही योग के मार्ग पर जाओ, तुम भले ही तन्त्र के मार्ग पर जाओ, तुम भले ही किसी भी धर्म अथवा भक्ति मार्ग पर चले जाओ लेकिन जब तक तुम्हारे भीतर ये गुण नहीँ होँगे तब तक तो सब व्यर्थ है । हिमालय पर भी सिद्ध, गन्धर्व इत्यादि, साधक इत्यादि लम्बे समय तक बीहडोँ मेँ क्योँ रहते है ? ताकि वो अपने अस्तित्त्व को भूला सके ! और वो वर्षोँ अकेले मेँ रहते है ! जहाँ अपने सिवा किसी मनुष्य को नहीँ पाते ! और जब वो पूरी तरह से ह्रदय से रिक्त हो जाते है उस स्थिति मेँ वो अपने दिव्य गुरु के पास जाते है और केवल उन्हीँ के पास कुछ वर्षोँ रहते है ! उससे क्या होता है ? उनके भीतर का जो अपनत्व है वो धीरे धीरे नष्ट होने लगता है साधना, अभ्यास के द्वारा एकांत मेँ ! और फिर वो दिव्य गुरु जिनके अंदर अच्छे गुण होँ, दिव्य गुण होँ, प्रेम होँ, करुणा होँ और अहिंसा के मार्ग पर चलनेवाले होँ ऐसे दिव्य गुण जो गुरु धारण किये है उनके पास जब साधक जाकर बैठता है तो वही गुण साधक के भीतर आने लगते है ! और शिष्य धीरे धीरे उसी साँचे मेँ ढल जाता है ! आज यदि धर्म की मौलिक बातोँ को, मूल बिंदुओँ को मनुष्य नेँ और समस्त संसार के मनुष्योँ नेँ माना होता तो आज प्राणी इस तरह से त्राहि त्राहि नहीँ कर रहे होते ! आज ये धरती, ये पृथ्वी हाहाकार नहीँ कर रही होती ! आज ये पृथ्वी अपने ही अस्तित्व पर शंकित सी लगती है ! आज ये पृथ्वी जो जीवनदायिनी है ये भी उदास सी लगती है ! क्योँकि मनुष्योँ के स्वार्थ नेँ इसे भी प्रभावित किया है ! इसलिए अध्यात्म से हम कोसोँ दूर होते चले गये ! इसलिए हम धर्म से दूर होते चले गये ! अब धर्म बिलकुल अलग है । पहले धर्म एकांकी था, निजी था । आज धर्म समूहोँ का है, संगठनोँ का है । ये कैसा धर्म ? क्या वास्तव मेँ तुम इस धर्म से कुछ पा लोगे ? आज तुम बडे-बडे संगठनोँ के रुप मेँ धर्म को मानते हो लेकिन ज्युँ ही उस संगठन की विचारधारा से बाहर आते हो त्युँ ही तुम इतने पैशाचिक होते हो कि भले ही तुम बडे से बडे धार्मिक गुरु के शिष्य हो, बडे से बडे धार्मिक संगठन से जुडे हुए हो लेकिन तुम्हारी जीवनशैली इतनी पैशाचिक है कि कोई दुसरा व्यक्ति तुम्हे देख ले तो तुमसे बात तक न करना चाहे । तो फिर काहे की आध्यात्मिकता तुम्हारे भीतर ? आध्यात्मिकता सामूहिक नहीँ होती, वो निजी होती है । ऐसे हिमालयोँ मेँ, ऐसे बिहडोँ मेँ जहाँ से उपर अब कोई दुसरा पर्वत नहीँ, पृथ्वी के सबसे उँचे स्थल पर इस समय मेँ हुँ । इससे उपर उँचाईवाला कोई दुसरा स्थल नहीँ । लेकिन यहाँ पर भी मेँ धर्म को अनुभव कर सकता हुँ । यदि यहाँ पथ्थर है, तो जितने पथ्थरोँ की मुझे आवश्यकता होगी उनका मेँ प्रयोग कर सकता हुँ लेकिन सभी पथ्थरोँ को मैँ अपने साथ समेटने का प्रयास नहीँ करुँगा । ये धर्म की धारणा है । यदि मेरे कमंडल मेँ एक फल होगा या एक सुखा फल का टुकडा होगा तो मेरे पास यदि कोई दुसरा भाई है तो मैँ उस फल के टुकडे को आधा बाँटकर दुँगा । ये जो छोटे से विचार है, याद रहे यही वास्तव मेँ "धर्म" के मौलिक सिद्धांत है क्योँकि ये हमेँ "मनुष्य" होना सीखाते है । जब हम दुसरे को सम्मान देते है, दुसरे को मान देते है, दुसरे को प्रेम देते है तो हम दुसरे को कुछ नहीँ दे रहे अपितु अपनी भावभूमि निर्मित कर रहे है । दुसरे निंदा करते है, दुसरे न जाने कैसे कैसे प्रपंच और षड्यंत्र रचते है लेकिन तुम उनसे दुर रहो, उन्हेँ छोड दो । ईश्वर नेँ केवल ऐसे लोगोँ को अपने पास बिठाया, अपने सीने से लगाया जो समाज मेँ अनेक मुर्खोँ के द्वारा, पैशाचिक वृत्तियोँ के जो मनुष्य है उनके द्वारा यदि प्रताडित किये जाते है; तब भी यदि वो शान्त बने रहते है और ईश्वर को पुकारते रहते है तो ईश्वर उनको अपनी ओर अवश्य बुलाते है ! लेकिन ये इतना सहज और सरल नहीँ है ! व्यक्ति साधना के लिए सब कुछ करता है । वो मंदिर बनाता है परमेश्वर के नाम पर, लेकिन मैने कहा कि, ईश्वर के लिए मंदिरोँ की आवश्यकता नहीँ होती; वो है तो उत्तम है, उनकी निंदा नहीँ, उनकी बुराई नहीँ लेकिन समाज की जो पैशाचिक वृत्तियाँ है यदि वो तुम्हेँ प्रताडित करती है तो तुम उनका सत्यमय तरीके से जहाँ तक संभव हो उनका प्रत्युत्तर दो लेकिन पैशाचिक वृत्तियाँ संगठित होकर तुम पर टूट पडेगी । जब तुम अध्यात्म के मार्ग पर चलने लगोगे, सत्य के मार्ग पर चलने लगोगे तो तुम्हारे अपने भी तुम्हारा साथ छोड देते है ! लेकिन यदि तुम्हेँ दिव्यता धारण करनी है, यदि तुम्हेँ मनुष्यता के वास्तविक धरातल को प्राप्त करना है तो तुम्हेँ ऐसी स्थिति तक पहुँचना ही होगा । तुम चाहे बहुत बडे साधक बनना चाहो, चाहे तुम धर्म के छोटे से पथिक या अनुयायी बनना चाहो, जब तक तुम पापाचार मेँ लिप्त हो तब तक धर्म का कोई भी कर्मकांड, कोई भी माला, कौई भी मंत्रजाप, कोई भी मंदिर या मस्जिद तुम्हेँ पवित्र नहीँ कर सकती; कोई भी स्थल तुम्हारा उद्धार नहीँ कर सकता । जब तुम पाप को समझ लेते हो और उस से किनारा करने लेगते हो तभी वो अलौकिक शक्ति तुम्हेँ स्वीकारती है और जब तक धर्म के नाम पर तुम स्वार्थी रहते हो, चाहते हो कि ईश्वर तुम्हारा व्यापार चलाना शुरु कर दे, ईश्वर तुम्हारे रोगोँ को दूर करना शुरु कर देँ, ईश्वर तुम्हेँ बहुत सी धन-संपत्ति इत्यादि तुम्हेँ प्रदान करे तब तक सब कुछ गलत हो रहा है । हो सकता है ईश्वर दयालु है, कृपानिधान है, अपनी शक्तियोँ के माध्यम से तुम्हेँ वो सब प्रदान कर देँ लेकिन उस सब से क्या हो जायेगा ? कंकड-पथ्थर जोडकर क्या कर लोगे ? तुम्हारा जीवन ही नष्ट हो जायेगा ! ईश्वर नेँ तुम्हारे लिए समस्त व्यवस्थाएँ की है लेकिन तुम उनको देख नहीँ पाते हो । इसलिए ईश्वर के नाम पर ईश्वर की शक्तियोँ के नाम पर यदि तुम्हेँ कुछ दिया जाता है वो बडा ही गलत है । ईश्वर के नाम पर यदि तुम्हे कुछ दिया जाना चाहिए तो वो प्रेम है, वो ऐसे सद्गुण है, यदि उन सद्गुणो को तुम अपना लेते हो तो वास्तव मेँ तुम "ईश्वर के पुत्र" होते हो ! क्या तुम सब से समान रुप से प्रेम कर पाते हो ? क्या तुम सब को सम्मान दे पाते हो ? यदि हाँ तो उत्तम है और यदि नहीँ तो अब तुम्हेँ पुनः एक बार सोचना होगा क्योँकि यदि तुम्हारा उत्तर नकार है तो तुम्हारे जीवन मेँ बहुत सी मुश्किलेँ है, तुम सही रास्ते पर नहीँ हो । यदि तुम इस सृष्टि से केवल लेते हो और देना नहीँ जानते तो भी तुम गलत रास्ते पर हो । यदि तुम केवल ऐसे गुरु, ऐसे धर्मपथ पर विश्वास करते हो जो केवल तुम्हारे दु:ख-दर्द मिटानेवाला हो और तुम्हेँ अध्यात्म के वास्तविक मार्ग की ओर इंगित ही नहीँ करता, ले ही नहीँ जाता तो भी समझना कि फिर तुम किसी भ्रम मेँ पड चूके हो अब फिर तुम मनुष्यता की ओर नहीँ । क्या मनुष्य इतना स्वार्थी हो सकता है कि वो केवल अपना व्यापार देखेँ ? अपना परिवार देखेँ और अपने पुत्रोँ का और पुत्रियोँ का सुख देखेँ ? नहीँ ! ये तो पैशाचिक और जीवोँ जैसी वृत्तियाँ है । "मनुष्य" तो वो है कि अगर अपने पुत्र-पुत्री दुःखी है और दुसरे पडोशी के भी तो पहली प्रार्थना पडोशी के पुत्रोँ और पुत्रियोँ के लिए होनी चाहिए ! यदि ये संभव है तो जीवन उच्चकोटि का होगा, तब तुम मनुष्य हो ! और यदि तुम्हारे अंदर ये मानवीय गुण है, तुम देश के लिए, राष्ट्र के लिए, विश्व के लिए सोचते हो तो इससे उत्तम और क्या हो सकता है ! तब सब कुछ तुम्हेँ सहज ही प्राप्त होने लगेगा ! और उस दिन एक "सिद्ध गुरु" तुम्हारे जीवन को बदल सकता है ! उस दिन परमात्मा का प्रकाश स्वतः तुम्हारी ओर आने लगेगा । तब किसी की सहायता की आवश्यकता नहीँ होगी । तब छोटी-छोटी चीजोँ के लिए तुम्हेँ परमेश्वर से प्रार्थना नहीँ करनी होगी । इसलिए प्राचीनकाल मेँ हमारे पूर्वज जो भी कुछ प्राप्त करते थे उसमेँ से कुछ हिस्सा ईश्वर के नाम पर रख देते थे और उसे समाज मेँ बाँटते थे । मैँ चाहुँ तो कथा और प्रसंग यहाँ भी दे सकता हुँ लेकिन मैँ नहीँ दुँगा क्योँकि तुम साधक हो, खोज लो स्वयं ।
मैँ केवल ये बताना चाहता हुँ कि ये जो प्राचीन काल से इस धर्म के नाम पर कुछ सद्गुणोँ की बात की जाती रही है उनको जानना और अपनाना बडा ही जरुरी है, यदि तुम उन पर आचरण करते हो, तुम उनको ग्रहण करते हो तो तुम्हारा जीवन वास्तव मेँ एक ऐसी स्थिति पर पहुँच जाएगा जहाँ प्रकाशित होना बडा ही सहज है, बडा ही सरल और आसान है लेकिन दु:ख की बात ये है कि तुम साधना भी कर रहे हो, ईश्वर के नाम पर बडे-बडे मन्दिर, आश्रम और भी न जाने क्या-क्या चीजोँ का निर्माण कर रहे हो; विशाल प्रतिमाएँ, विशाल यज्ञोँ का आयोजन, विशाल पूजन और विशाल जागरण इत्यादि और भी न जानेँ परमेश्वर को बुलाने के लिए, ईश्वरीय शक्तियोँ को प्रसन्न करने के लिए क्या-क्या प्रपञ्च कर रहे हो ! तुम्हारे ये सभी प्रपञ्च तब तक प्रपञ्च ही रहेंगे जब तक मौलिक रुप से तुम सबसे स्नेह और प्रेम करने न लग जाओ ! धर्म के मूल सिद्धान्त जब तक तुम्हारे भीतर न हो तब तक कुछ नहीँ होगा । तुम किसी भी रंग के चोले धारण कर लो, किसी भी धर्म के अनुयायी हो जाओ वो सब केवल व्यर्थ की बातेँ है । जीवन को इन बिन्दुओँ के आसपास ही ऋषियोँ नेँ पाया इसलिए उन्होनेँ कहा कि, "पैशाचिक वृत्तियाँ, असत्य वृत्तियाँ, पाप-वृत्तियोँ का परित्याग करना चाहिए ।" नशोँ का परित्याग कर दो ! एक ओर तुम ईश्वर का नाम लेते हो और दुसरी ओर नशा करते हो ! एक और तुम मन्दिर को झुक कर नमस्कार करते हो, दुसरी ओर संतो और ब्राह्मणोँ और ईश्वर के पथ पर चलनेवाले या किसी साधारण अपने ही भाई का अपमान करते हो ! एक ओर तुम ईश्वर को नमस्कार करते हो और दुसरी ओर अपने ही लोगोँ की निन्दा करते हो ! तो तुम सा बुरा कोई नहीँ, तुम सा पैशाचिक कोई नहीँ, तुम्हारी जैसी दयनीय स्थिति इस पृथ्वी मेँ किसी की नहीँ...और आज तो व्यक्तिगत तौर पर तुम बुराईयाँ नहीँ कर रहे, आज तो अब तुम समूहोँ मेँ एकत्रित होकर सामूहिक रुप से किसी व्यक्ति अथवा किसी संगठन की बुराई करते हो ! अर्थात् पिशाच भी अब संगठन मेँ आ गये, पाप भी अब संगठन मेँ आ गया !...तो फिर से एक बार विचार करो कि जीवन कैसे सफल होगा ! यदि तुम केवल पाप और पुण्य मेँ भेद करना जान जाओ और फिर पाप के साथ को छोड दो और पुण्य के पक्ष मेँ चलना शुरु कर दो तो उस से तुम्हेँ पुण्य मिलता है, लेकिन किसी नेँ कहा कि, "पुण्य केवल स्वर्ग देता है ।" बात सत्य है लेकिन तुम यदि पुण्योँ को छोड दो तो धीरे-धीरे पुण्य तुम्हारे भीतर ही एक ऐसी भावभूमि उत्पन्न करेंगे कि अब वो पुण्य तुम्हेँ लिप्त नहीँ करेंगे बल्कि तुम्हारी भीतर की एक ऐसी स्थिति का निर्माण कर देंगे जहाँ अध्यात्म को जबरजस्ती प्रदान करने की जरुरत नहीँ होती ! जहाँ धर्म फिर इस तरह का धर्म नहीँ होता जिस तरह के धर्म पर तुम चल रहे हो ! वो धर्म उँचाईयोँ का है, ऐसी उँचाईयोँ का नहीँ जैसे अभी मैँ हिमालय पर बैठा हुँ । उँचाई अर्थात् चेतना की उँचाई, भीतर की उँचाई । हिमालय पर बैठने से ही सिद्ध नहीँ होता व्यक्ति; वो इन गुणोँ पर आरुढ होने से सिद्ध होता है । और मेरी केवल इतनी प्रार्थना है कि यदि तुम जाने-अनजाने मेँ मुझे सुन लेते हो, तो मेरी बुराईयोँ की ओर न देखना, मेरे पापाचारोँ की ओर न देखना; केवल पुण्योँ को देखना, सत्कर्मोँ को देखना और उन्हीँ का आचरण करना । इस जगत मेँ जो भी मिले उसके लिए ईश्वर का आभार व्यक्त करना और मानवीय गुणोँ को भीतर रखना ! तो देखना तुम्हारा संपूर्ण जीवन बदलने लग जायेगा ! तब समस्त गुरु-शक्तियाँ, समस्त दैविक-शक्तियाँ और यहाँ तक कि "स्वयं परमेश्वर" तुम्हारी ओर स्वयं आने लगेंगे और परमेश्वर तक जाने के सारे द्वार तुम्हारे लिए खुले हुए होंगे ! तब तुम धर्म को समझ पाओगे, अभी नहीँ । क्योँकि अभी तो तुम चाहे विज्ञान का सहारा लो, चाहे राजनीति का सहारा लो उन सब के पीछे मौलिक केवल एक ही वृत्ति है कि तुम अपने लिए आनंद जुटा सको और जो अपने लिए आनंद जुटा रहा है और दुसरे के लिए अपने आनंद के कारण पीडा दे रहा है, तो फिर से धर्म की तरफ सोचना होगा ! कि क्या तुम सही धर्म और सही मार्ग पर हो अथवा नहीँ ! अभी के लिए इतना ही ! ॐ नमः शिवाय ! - ईशपुत्र