गुरुवार, 17 मई 2018

सहस्त्र कमलदल खिल खिल जायेँ

सहस्त्र कमलदल खिल खिल जायेँ 2, मध्य गुरु जो बिराज रहे है 2।
सृष्टि है सारी ये जो कपाल है, चारोँ ओर बिछा मायाजाल है।
भव के बन्धन कैसे कटेंगे, जग से मन के अनुराग हटेंगे।
ब्रह्मरंध्र का जो द्वार हटेगा, शिव संग गुरुवर साज रहे है।

सहस्त्र कमलदल...

दिव्य गुरु जो आज्ञा देते, आज्ञाचक्र भेदन कर देते।
मूलाधार मेँ होती हलचल, गुरु जो मंत्र है देते पल पल।
स्वाधिष्ठान भी गुरु का स्थान है, जहाँ पर बसता ज्ञान-विज्ञान है।
इडा-पिंगला जो हिलमिल जायेँ, नाडी सुषुम्ना जागृत कर जायेँ।

सहस्त्र कमलदल...

मणिपुर मेँ जो बसती शक्ति, जागृत हो जो करे गुरु भक्ति।
अनहद की कोई हद है नाही, जिसमेँ अणिमादि है समाई।
जोगी सत्येन्द्र जो भेद ये खोले, विशुद्ध सरस्वती की जय बोले।
नीलकण्ठ के कण्ठ मेँ जो है, गुरु के वाक्योँ मेँ भी वो है।

सहस्त्र कमलदल...

गुरु के वचन करे प्रहारा, मन हो विशुद्ध अनंत अपारा।
पुनः पुनः फिर फिर आज्ञा पे आवै, गुरुवर शक्तिपात करावै।
शक्ति से फिर जोग लगेगा, मानव मन का भोग हटेगा।
अतमा शुद्ध है सप्त पे जाके, सहस्रहारदल जहाँ बिराजे।

सहस्त्र कमलदल...

यही जोग के ग्रंथोँ का कहना, नित नित संग गुरु के है रहना।
कृपादृष्टि जो गुरु की होवै, जनम मरण के बंधन खोवै।
ज्योति का सागर भीतर बहेता, मौन-मूक है फिर भी कहेता।
इस तंत्र का गुरु ही सार है, जो लेता कई रुपवतार है।

सहस्त्र कमलदल खिल खिल जायेँ, मध्य गुरु जो बिराज रहे है,
मध्य गुरु जो बिराज रहे है,
मध्य गुरु जो बिराज रहे है,
मध्य गुरु जो बिराज रहे है ।