सोमवार, 28 मई 2018

साभार-पुस्तक भैरवी मृगाक्षी भाग-2

ईशपुत्र नें भैरवी मृगाक्षी की ओर देखा और कहा "अब तो चाहे दुनिया इधर से उधर हो जाए। मैं तुमको अपने साथ किसी कीमत पर नहीं रखूंगा।" लग रहा था मानो अब योगी हठ पकड़ चुका है। लेकिन तभी भैरवी मृगाक्षी नें नया दाव खेला। अचानक गाते हुए और मुस्कुराते हुए उसनें स्तुति करनी शुरू कर दी। 

     ।। श्री कौलान्तक नाथ स्तुति।।

नित्यं सिद्धेश्वरं, महारहस्यकारणं, योगीजन वंदितं।
प्रचंडचंडरूपिणं, शिवांशरूपम प्रणम्यम सदैवं।।

त्वं वीराटातिविराटम, त्वं कौतुकानंद स्वरूपं।
रागलयादिकारणं, शिवांशरूपम प्रणम्यम सदैवं।

ईशपुत्रोत्वं, परिपूर्णरूपं, सकल अवतारादि वंदितं,
शिखरपुरुषोनमस्तुभ्यं, शिवांशरूपम प्रणम्यम सदैवं।

अघोरेश्वरं, ब्रह्माण्डरूपं, पापादि बंध मोचनं।
सर्वकलाधरिणे, शिवांशरूपम प्रणम्यम सदैवं।

महाहिमालयेश्वरं, आनंद रासादिकारणं।
भक्तानन्द प्रदायकं, शिवांशरूपम प्रणम्यम सदैवं।।

सर्वदा सर्वकुलनायकं, सर्वसिद्धिप्रदायकं।
अक्षरपुरुष, शिवांशरूपम प्रणम्यम सदैवं।।

अप्सरादिवंदितं, भैरवीकुलनायकं।
ममप्रेमकारणं, शिवांशरूपम प्रणम्यम सदैवं।।

।।इति श्री महाभैरवी मृगाक्षी कृत श्री कौलान्तक नाथ स्तुति सम्पूर्ण।।   

जहरीले नोगों की तरह अतिक्रोधित योगी को बस इन कुछ चंद पंक्तियों नें मोम की तरह पिघला दिया और आखिर कौलान्तक नाथ का कभी न बदलने वाला फैसला भी बदल गया।

सुनिये स्वामी गिरिधरानंद जी! ये कुछ पंक्तियाँ हैं जो मैंने तब रची थीं जब मैंने ईशपुत्र को हिमालय के बनों में अश्वारोहण करते और युद्धाभ्यास करते देखा था। मेरा मन तब उनकी छवि पर मोहित हो गया था। संसार का सबसे बड़ा सुख बस ऐसे वीर महापुरुषों को मौन हो कर देखना ही है। आप कल्पना भी नहीं कर सकते की तप करने वाले महाभैरव योगी का वो स्वरूप कैसा रहा होगा? बस उसी सौन्दर्य पर मोहित हो कर मैंने कुछ पंक्तियाँ रची। रची कहना गलत होगा, बस मन में गूंजी और मैंने उनको "ईशपुत्र" को सूना दिया। "ईशपुत्र" नें तब मुझ पर प्रसन्न हो कर कुछ गूढतम विद्याओं को प्रकट किया और मैं धन्य हो गई। तभी से हर सुबह जब मैं उठती हूँ इन्हीं पंक्तियों को "कौलान्तक नाथ" के सम्मुख गुनगुनाती हूँ ।

।। भैरवी मृगाक्षीकृत ईशपुत्र स्तुति ।।
ॐ नमस्ते ईशपुत्रे कौलेश्वराय, नमस्ते चिते हिरण्यगर्भ स्वरूपाय।
नमो त्वं कलि नायकाय, नमो परब्रह्म क्षत्रिणे अद्वैत तत्वाय।।
नमो राजेश्वराय निर्गुणाय, नमो योगीजन प्राणबल्लभाय।
नमो कौलनाथाय, कौलान्तक नाथाय च ईशपुत्राय नमो नम:।।
त्वं सम्मोहनानाम सम्मोहनम,गति: प्राणिनां पवित्रं पवित्रानाम।
भयानां भयं भीषणं भीषणानाम,परेषां परं रक्षकं रक्षकानाम।।
नमो कौलासुर नाशकाय, हिमालय देव ऋषिजनादि वन्दिताय।
नमो कौलनाथाय, कौलान्तक नाथाय च ईशपुत्राय नमो नम:।।
नमस्ते ईशपुत्रे उपासकानाम वरं च, त्वं अभयं सर्व भक्तानाम।
उद्गीथं अक्षरं व्यापकं अव्यक्त तत्वं, त्वमेकं परं निश्चलं निर्विकल्पं।।
नमो मलेच्छ मर्दकाय, वीरादि वन्दित सत्य धर्म प्रदाताय।
नमो कौलनाथाय, कौलान्तक नाथाय च ईशपुत्राय नमो नम:।।
एको देव: त्वं सर्वभूतेषु गूढ़: सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।
कर्माध्यक्ष: त्वं सर्वभूताधिवास: साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च।।
नमो तिमिर नाशकाय देवाय, तपोभक्तिगम्याय च।
नमो कौलनाथाय, कौलान्तक नाथाय च ईशपुत्राय नमो नम:।।
ध्यानावस्थित अतिसुन्दरम, दिव्यं अमोघं महाअवतारिणे।
भैरव-भैरवी वृन्द पूजिते, सत्य सत्चिदानन्द स्वरूपिणे।।
नमो श्वेताश्वपरिस्थिताय, अद्भुताय रहस्यनाथ नाथाय च।
नमो कौलनाथाय, कौलान्तक नाथाय च ईशपुत्राय नमो नम:।।
।। अथ श्री महाहिमालय अवस्थित भैरवी मृगाक्षीकृत ईशपुत्र स्तुति संपूर्णम ।।
स्वामी गिरिधरानंद जी नें मृगाक्षी की और देखा और कहा की "ये तो अद्भुत है आपको ये स्त्रोत्र और श्लोक रचने की शक्ति कैसे मिली?" तब भैरवी मृगाक्षी मुस्कुराते हुए बोली "मुझे कहाँ ये जटिल संस्कृत आती है। काश! मैं संस्कृत जानती तो इतिहास को बताती की "ईशपुत्र" की स्तुति कैसे की जाती है। लेकिन स्वामी गिरिधरानंद जी जिसे आप स्तुति समझ रहर हैं वो कोई स्तुति नहीं वरन मेरा "कौलान्तक नाथ" के प्रति प्रेम हैं। आप भी जब उनको समझ कर भीतर उतार लोगे तो पूजा और साधना अलग से करने की जरूरत नहीं रहती। मैं और मेरा मन उनसे ऐसा अनुराग करता है की उनको ह्रदय में ध्याते ही शब्द फूटने लगते हैं। देखो मैं नेत्र बंद कर रही हौं और "ईशपुत्र कौलान्तक नाथ" को ह्रदय में ध्याते हुए निहारते हुए जो ह्रदय में आये कहती हूँ। मैं देख रही हूँ की मेरे हृदय कैलाश में "महातंत्रेश्वर कौलान्तक नाथ" का भैरव-भैरवियाँ दिव्य अमृत से अभिषेक कर रही हैं और शब्द गूँज रहे हैं-----------

ॐ नमो कौलाय च कौलान्तक नाथाय च नमो सत्याय च सत्येन्द्र नाथाय च नम: अवताराय च महाअवताराधिपतये च नमो दर्शनाय च सुदर्शनाय च प्रत्यक्षदेवस्वरूपिणे।
नमो वीराय च वीर नाथाय च नमो ईशाय च ईशपुत्राय च नम: ग्रहाय च ग्रहराजाय च
नमो कौतुकाय च कौतुक नाथाय च मायापुरुषस्वरूपिणे।
नमो प्रचंडाय च प्रचण्ड नाथाय च नमो नित्याय च नित्य नाथाय च नम: सर्वाय च सर्वेश्वराय च
नमो वराय च वरहस्ताय च दिव्यतेजस्वरूपिणे।
नमो विष्णवे च विष्णु स्वरूपाय च नमो शिवाय च शिव स्वरूपाय च नम: ब्रह्माय च ब्रह्मस्वरूपिणे च
नमो पूर्णाय च पूर्णावताराय च सत्यसत्येन्द्रस्वरूपिणे।
नमो शक्तिनाथाय इहा गच्छ मम ह्रदय कमल मध्ये, सह्स्त्राहारादि मध्ये तिष्ठ, आवाहयामि स्थापयामि नम:।।

भैरवी मृगाक्षी नें धीरे से नेत्र खोले। सब उसकी ओर ऐसे देख रहे थे की मानो ये संसार की नहीं वरन किसी अज्ञात ग्रह से आई हो। भैरवी मृगाक्षी सबकी ओर देखती हुई बोली "अरे क्या हो गया? आप सब अब मुझे घूरने क्यों लग गए?"

भैरवी मृगाक्षी की तन्मयता देख कर, पीछे खडी भैरवी ज्योत्स्ना बोली "चक्र नाथो! इस भैरवी की भोली सूरत और सुन्दरता पर मत जाना। माना की "भैरवी मृगाक्षी जी" "ईशपुत्र" को प्रेम करती है और उनको पूजती है, तो क्या आप और हम सब कम है? जितना प्रेम आप और हम करते हैं संसार में कोई दूसरा सोच भी नहीं सकता। रही मेरे प्रेम की बात तो अगर "देवी भैरवी मृगाक्षी" कुछ पंक्तियाँ सुना कर ये सोच ले की अब "ईशपुत्र" उनके हुए तो ये भ्रम है। अब मेरी बारी है।" "भैरवी ज्योत्स्ना" "कौलान्तक नाथ" के पास आ कर बैठ गई और "ईशपुत्र" की ओर निहारते हुए बोली " आप सबको एक युवा और सुन्दर "कौलान्तक नाथ" नजर आ रहे होंगे। लेकिन अब आप सब मेरी आँखों में देखो और अनुभव करो की तिब्बत के पर्वतों के मध्य एक शुरूआती नदी के किनारे जटा-जूट धारे एक महान युग पुरुष महाघोर तपस्या में लीन हैं। जिनकी स्तुति समस्त सृष्टि कर रही है। उस "कौलपुरुष" की स्तुति ऋषिवृन्द कर रहे हैं। समस्त धरा की पाँचों दिव्य सूक्ष्म पीठें उनकी जय-जयकार कर रही हैं।" भैरवी ज्योत्स्ना के शब्दों से सम्मोहन छाने का अनुभव होने लगा। अद्भुत सा नशा छा गया और एक दृश्य दिखाई देने लगा, जिसमें "ईशपुत्र" तिब्बत की भूमि पर जटा-जूट धारे तप कर रहे हैं। सब हतप्रभ से सम्मोहित उस चित्र को अनुभव कर रहे थे और तभी "भैरवी ज्योत्स्ना" "कौलान्तक नाथ" की स्तुति मधुर शैली में करने लगी-----

।। अथ श्री भैरवी ज्योत्स्नाकृत कौलान्तक नाथ ईशपुत्र स्तुति ।।

ॐ महातप: महातपेश्वराय महातेजोमय जगत्पते।
महासिद्ध महायोगिन महापुरुषाय नमोस्तुते।।
महारौद्र महानाथ महाकौल महा प्रभो।
महाचीनज्ञ महावामज्ञ महासत्वज्ञयाय नमोस्तुते।।
महाअघोर महाज्ञान महाअवतार तमोहन।
महाविकर्तन महातेज महाईश नमोस्तुते।।

सत्याय च नमस्तुभ्यं सत्येन्द्र नाथाय च नमः।
महाभैरवाय च नमस्तुभ्यं अप्सरापतये नमो नमः।।
हठाधिपतये च नमस्तुभ्यं ईशपुत्राय वै नमः।
निराकाराय च नमस्तुभ्यं साकाराय नमो नमः।।
ईशदूताय नमस्तुभ्यं प्रत्यक्षपुरुषाय वै नमः।
हिमशिखराधिपतये नमस्तुभ्यं शुक्लवर्ण नमो नमः।।
आदि महारहस्य स्वरूपाय रूद्ररूपाय वै नमः।
विष्णुअंश भूताय च युगावताराय वै नमः।।

महेश्वर रूपस्तवं सत्येन्द्र नाथाय नमोस्तुते।
ईशपुत्राय नमतुभ्यम बंधमोचनाय नमोस्तुते।।
सोम रूप नमस्तुभ्यं सर्वेश्वरानन्द नाथाय नमोस्तुते।
महाहिमालायाधिपते नमस्तुभ्यं अकाशाधिपते नमो नमः।।

सिद्धरूप नमस्तुभ्यं वैष्णव नाथाय नमोस्तुते।
कुण्डलिनी नाथाय नमस्तुभ्यं मायापति नमोस्तुते।।
बालरूप नमस्तुभ्यं यौवननाथाय नमोस्तुते।
वरदाताय नमस्तुभ्यं अभयदाताय नमो नमः।
नमः शान्त रूपाभ्याम शाश्वताय नमो नमः।।
सं सिद्धाय नमस्तुभ्यं निष्कलन्काय नमो नमः।
सचिदानंद स्वरूपाय सत्येन्द्रनाथाय ते नमः।।

प्रसीद में नमो नित्यं श्वेतवर्णाय नमोस्तुते।
प्रसीद में ईशपुत्राय नित्यस्थिताय नमो नमः।।
क्रीं बीजोद्भवाय पूर्ण स्वरूपाय आदिनाथ तेजसे
स्वः सम्पूर्ण मन्त्राय कं कौलनाथाय ते नमः।।

।। अथ श्री भैरवी ज्योत्स्नाकृत कौलान्तक नाथ ईशपुत्र स्तुति सम्पूर्णम ।।

भैरवियों का ऐसा कृत्य देख कर भैरव कहाँ पीछे रहने वाले थे। स्वामी गौरव नाथ नें कहा हम आप सब भैरवियों का सम्मान करते हैं लेकिन ईशपुत्र के प्रति वास्तव में हमारा प्रेम कम नहीं है। आप सबके बाद अब हमारी बारी है और हमें भी अवसर मिलना ही चाहिए।

स्वामी विज्ञानानंद नें कहा "कोई तो कारण है की कभी-कभी "ईशपुत्र" बेहद गंभीर और कुछ उदास प्रतीत होते हैं। न जाने क्यों वो मौन रहते हैं? मनुष्य होना या मनुष्यों का होना उनकी परेशानी है अथवा किसी की स्मृति उनको पीड़ित करती है?" भैरवी मृगाक्षी मुस्कुराई और बोली "जिसे प्राणी मात्र का दुःख अनुभव होता हो, जो संसार के रोगियों, दुखियों और तप्त जनों के दुःख को अनुभव करने वाले हैं, उनके चित्त पर कुछ तनाव या चिंता की रेखाएं आना स्वाभाविक है। आप चिंता ना करें "कौलान्तक नाथ" का परेशान रहना सृष्टि हित में ही है। उनका कार्य ही है दुखियों को दुखों से मुक्त करना, पापों से पार ले जा कर सत्य और पूर्णता को उपलब्ध करवाना। लेकिन इस कलिकाल में ये सरल नहीं होगा। आप सबको ये प्रतीत हो रहा होगा की "ईशपुत्र" तो एक बड़े ही नहीं वरन बहुत बड़े युगावतार हैं तो उनकी बराबरी किसी आम मनुष्य से क्या होगी? लेकिन जब मैंने स्वयं "ईशपुत्र" से बात की थी तो उनका कहना था "मृगाक्षी! संसार के सबसे दीन और सबसे कमजोर, दुखी, संतप्त व्यक्ति को याद करो और उसकी कल्पना करो। जो भी चेहरा दिखे याद रखना मैं उसका सेवक मात्र हूँ।" तो "कौलान्तक नाथ" वास्तव में ही सेवक हैं इसलिए उनका ये अचानक होता व्यवहार कोई नई घटना नहीं है।" वातावरण बहुत गंभीर हो गया था तब भैरवी मृगाक्षी "ईशपुत्र गायत्री का उच्चारण" करने लगी।
"।। ॐ भू: र्भुव: स्व: परमेष्ठिने महावताराय निष्कलन्काय विद्महे तन्नो ईशपुत्र प्रचोदयात ।।"
भैरवी मृगाक्षी नें कहा की आप सब "कौलान्तक नाथ" के नृत्य के केवल कुछ ही स्वरूपों से परिचित हैं। कुछ गोपनीय नृत्य और गोपनीय तंत्रोक्त स्वरूप कम साधकों नें देखे हैं। जैसे "ईशपुत्र" मेरे प्रिय स्वरूपों में "रुरु भैरव" के रूप में सुहाते हैं। "संहार भैरव" भी अद्भुत हैं"

मैं जितने दिनों चक्र नाथों और भैरवियों के साथ रहा तो जाना की "ईशपुत्र" तो भगवान् है और मैंने भैरवी मृगाक्षी को कहा की "कौलान्तक नाथ" ही भगवान् हैं अब मुझको समझ आने लगा है। इस पर भैरवी मृगाक्षी जोर-जोर से ठहाका लगा कर हँसते हुए बोली "ऐसा दोबारा मत कहना और ना ही सोचना। क्योंकि महायोगी सत्येन्द्र नाथ नामधारी "ईशपुत्र" तुमको बहुत लाताडेंगे और छोड़ने वाले नहीं। क्योंकि उनके अनुसार कोई भगवान् नहीं हो सकता, जो हो जाता है वो पूर्ण हो कर विलीन हो जाता है। कहना है तो अवतार कहो। अवतार भगवान् नहीं होते, बल्कि अंश मात्र होते हैं और अवतार तुम, मैं संसार के सभी लोग हैं। क्योंकि सब इस मृत्यु लोक के उस पार से आये हैं। सबका अवतरण ही हुआ है। कोई इस बात को जान गया कोई जानेगा। यदि आप "कौलान्तक सम्प्रदाय" में रहना चाहते हैं, तो उसके नियम और मान्यताओं को जानना होगा, न की किसी सांसारिक मूर्ख या तथाकथित धार्मिक बुद्धिमान की भांति आप उनको भगवान् कहो। "कौलान्तक सम्प्रदाय" के शब्द बड़े भ्रमित करने वाले होते हैं। जो समझ ना आये पूछ लिया करो, किन्तु तथ्य को समझना अनिवार्य है। ये "रहस्य पीठ" है इसे कोई आचार, चटनी या मुरब्बा खा कर जीने वाला क्या समझेगा?" मैं ये सुन कर आवाक था की भगवान् और अवतार में क्या अंतर हो सकता है? और मैं या कोई साधारण पैदा हुआ व्यक्ति कैसे अवतार हो सकता है? तब भैरवी मृगाक्षी मेरी दुविधा को समझते हुए बोली "चाहे कौलान्तक नाथ हो या संसार का कोई भी मनुष्य यदि वो अपने भीतर 64 कलाओं का स्थापन करता है और शिव को भीतर उतार लेता है तो एक नए व्यक्ति का जन्म होता है जो अवतारी निश्चित ही है। तुम जब साधना का अभ्यास करोगे तो समझ आयेगा। तब हर वो अभ्यासी ही अवतार होने लगता है जो आम आदमी है। अवतार का अर्थ होता है उतर कर आना। स्वर्ग से या फिर भीतर से।" तब भी मैं कुछ ठीक से नहीं समझ पा रहा था। तो भैरवी मृगाक्षी बोली अच्छा तो
भैरवी मृगाक्षी बोली "हो सकता है ब्रहमांड बहुत बड़ा हो। अति रहस्यमय हो लेकिन मनुष्य चाहत रt तो उसके हर कोने को अपनी पहुँच में ला सकता है। उसी तरह यदि मन में "ईशपुत्र" जैसी लगन हो तो संसार बदल सकता है। संसार में आधे से ज्यादा लोग केवल ये सोचते हैं की बुराई का अंत करने स्वयं भगवान् आयेंगे और यही कारण उनको अकर्मण्य बना देता है। लेकिन क्या इस तथ्य को गलत नहीं समझा जा रहा? भगवान् जो करें सो करें लेकिन तुम क्या कर रहे हो ये महत्वपूर्ण है। हो सकता है की तुम ही भगवान् हो लेकिन सब ये सोचेंगे की नहीं वो तो कोई और है। इस तरह ईश्वरत्व की तुम्हारे भीतर संभावनाएं ही समाप्त कर दी जायेंगी। लोगों की और समाज की और देखोगे तो वो नपुसक स्वाभाव के लोगों से भरा पडा है। केवल आलोचना की उनका अस्त्र है जिससे वो अपनी नपुसक्ता को छुपा सकते हैं। इसलिए अध्यात्म केवल कर्मकांड और पूजा पाठ ही रह गया न की महामानव होने का सफर और स्वयं शिव होने का सफर। इस तरह अध्यात्म और धर्म समाप्त ही समझो। बस "कौलान्तक नाथ" में एक महासंभावना मैं इसलिए देखती हूँ क्योंकि केवल वहीँ हैं जो निंदा से घबराते नहीं आलोचनाएँ जिन्हें प्रेमिकाएं लगाती हैं, अपशब्द जो जो हलाहल की भांति पी जाने का साहस रखते हैं और स्वयं को शिव स्वरुप समझने और बनाने का साहस रखते हैं। लोग घंटियाँ बजाते हैं लेकिन वो शरीर को शिवत्व के लिए प्रवातों पर वृक्षों पर टांग देते हैं। उनके बिना धर्म केवल प्रवचन और कहानियाँ हैं वो हैं तो सब कुछ मनो जी उठाता है। बस दो आँखे और थोड़ी समझ चाहिए उनको और उनके कार्यों को समझने के लिए। उनके जीवन का सार बस इतना है की मनुष्य पैदा हो कर भगवान् बन उनमें ही समाहित हो जाओ, सृष्टि को शुभ दो, शुभता में जिओ, असत्य आलोचनाओं से दूर, स्थिरता और प्रेम में सहित रहो। क्या ये कोई युगीन सोच नहीं है? ऐसी बहुत सी बाते हैं लेकिन---------"

"भैरवी मृगाक्षी" नें "भैरवी ज्योत्स्ना" की ओर देखते हुए कहा "आकाश में उन्मुक्त उड़ने की इच्छा किसकी नहीं होती? लेकिन खुले आकाश में जाना आसन नहीं होता भैरवी ज्योत्सना। वहां खतरे भी उतने ही ज्यादा होते हैं। जब तुम किसी भी तरह की ऊंचाई प्राप्त कर लेती हो, तो संसार की नजर में आ जाती हो। तब संसार सहित पूरा अस्तित्व तुमको उस उंचाई पर से नीचे गिराने में लग जाएगा। जैसे कोई मनुष्य यदि अपने आप को "शैतान" कह कर बुलाये तो कोई ज्यादा विरोद्ध नहीं होगा लेकिन अगर कहीं गलती से भी अपने को तुम "भगवान्" कह कर बुलाना शुरू कर दो तो तुम देखोगी की संसार का हर मनुष्य तुम्हारे विरुद्ध खडा होगा। लोग बुआ बनने के लिए सहयोग करते हैं लेकिन अच्छे को गिराना चाहते हैं। "शैतान" किसी को नहीं चुभता लेकिन "भगवन" हो जाना जरूर चुभता है। एक बात में तुमको बताना चाहती हूँ प्यारी बहन! की "ईशपुत्र" नें सबको सामान प्यार दिया। लेकिन देखने वाले नें कम ज्यादा पाया। ये तो आपकी झोली पर निर्भर करता है की आप कितना पाती हो। "कौलान्तक नाथ" नें तो किसी को कभी शत्रु नहीं माना लेकिन सामने वाले नें सदा शत्रुता जैसा व्यवहार किया। मैं सोचती हूँ की क्या मनोदशा होती होगी "ईशपुत्र" जैसे परम साधकों की जिनको कोई ऊंचाई पर नहीं देखना चाहता अपितु उनको गिराने में संसार जुट जाता है। संसार दिखाना चाहता है की ये कोई उंचा मनुष्य नहीं बल्कि हमसे भी नीचे है। "कौलान्तक नाथ" को कोई सहारा नहीं, उनके पास कोई संगत नहीं, जबकि एक शराबी जुआरी को देख लो, न जाने कितने ही उसे मिल जायेंगे। लेकिन इन सबके बाबजूद, शत्रुओं की अथाह सेना होने के बाद भी मेरे "कौलान्तक नाथ" एक विजेता की तरह खड़े हैं और यही मैं उनमें पसंद करती हूँ। मेरे सभी सहयोगी भाई "ईशपुत्र" को प्रेम करते हैं इसलिए उनका अधिकार है "कौलान्तक नाथ" पर और उनके प्रेम पर। ठीक वैसे ही आप कोई भी क्यों न हों भला मैं आपको "कौलान्तक सम्प्रदाय" से या "कौलान्तक नाथ" से जुड़ने से रोकने वाली कौन होती हूँ। उनको प्रेम करने वाले तो हर उम्र के, हर देश के, हर विश्वास के लोग है। तो मैं अगर "कौलान्तक नाथ" के कार्यों को वर्तमान में देख रही हूँ तो उसका कारण केवल इतना है की भाग्य नें मुझको अवसर दिया है जानती हूँ जो मिला है छीन लिया जाएगा। पर मैं इतने से ही खुश हूँ। अगर मैंने कुछ गलत कह दिया हो तो अपनी अबोध बहन समझ कर क्षमा कर देना।" भैरवी ज्योत्स्ना आवक सी रह गयी उससे कुछ कहते नहीं बन रहा था। लेकिन चेहरा बता रहा था की "भैरवी मृगाक्षी" के सामने अभी वो बहुत बौनी है।"

स्वामी गिरिधरानंद बोले "भैरवी मृगाक्षी! मेरी बात पर यकीन करो। यदि "कौलान्तक नाथ" साधना जानते हैं और अश्वारोहण भी जानते हैं। तो वो केवल "उच्च हिम शिखर नायक" ही नहीं है बल्कि "महाचेतना" है। उनका बड़प्पन ये हैं की वो अपने बारे मैं मौन साध लेते हैं। मौन के दो ही अर्थ होते हैं या तो वो शून्य हैं या फिर अनंत। मैं आप जैसा ज्ञानी तो नहीं हूँ, की अच्छे शब्दों में अपने मन की अनुभूति को बता सकूँ पर इतना कहना चाहता हूँ की "अश्वाधिपति कौलान्तक नाथ" के निकट होने से ही मेरे मन की धारा बदलने लगाती है। ऐसा प्रतीत होता है की मानों सारी साधनाएँ अपने आप हो रहीं हो। कुछ कह नहीं पा रहा लेकिन अनुभव कर रहा हूँ। काश कोई मुझे समझ पाता की मैं "ईशपुत्र" बिना कैसा अनुभव करता हूँ। कोई यदि कहे की उनको छोड़ दो तो लगता है की दुनिया छोड़ने की बात कह रहा है।" ये कहते हुए स्वामी गिरिधरानंद जी कुछ भावुक हो गए। भैरवी मृगाक्षी उनके निकट गयी और बोली ऐसा क्यों सोचते हैं आप "कौलान्तक नाथ" तो इतने साधारण भोले और सौम्य हैं की बिना मन में कोई बात रखे उनसे कहें तो वो मुस्कुरा कर उत्तर देते हैं। आपको तो बहुत-बहुत प्रेम करते हैं। जबकि आप तो उनकी पिता की आयु से भी बड़े हैं और आप तो "महाभाग्यशाली" है की संसार जिसकी कथाएं सुनता है आप उनके साथ जी रहे हैं। अब स्वर्ग की क्या कामना और मोक्ष की क्या इच्छा?" आँखें डवडवाते हुए स्वामी गिरिधरानंद जी अचानक हलके से मुस्कुरा दिए। उनको खुश देख भैरवी मृगाक्षी बोली "बस कौलान्तक नाथ की बात मान लीजिये, मीठा बोलिए, कड़वे वचन से बचिए, मुस्कुराइए गुनगुनाइए और मुस्कराहट बाँटिये और सबको जीने दीजिये, उनके जीवन में व्यर्थ हस्तक्षेप ना कीजिये। बस धर्म यहीं से शुरू होता है।"

शंभर नाथ सबसे पहले देवदार के वृक्ष पर चढ़े और तीब्र बाहु सहित प्रगल्भ नाथ भी ऊपर गए। तीब्र बाहु नें पल भर में ही हल्की काया वाले "ईशपुत्र" को ऊपर खींच लिया और सबने मिल कर कौलान्तक नाथ को नीचे उतारा। किरीट नाथ उनके हाथ पाँव को मसलने लगे साथ ही भैरवी मृगाक्षी नें उनका सर गोद में रख लिया और उनका सर दवाने लगी क्योंकि सारा खून सर की ओर आ गया था। कुछ ही देर "ईशपुत्र" उठे और अपना सर पकड़ कर बैठ गए। लग रहा था की उनको भारी सर दर्द हो रहा है. तभी तीब्र बाहु बोला की "ईशपुत्र" आप आखिर इस तरह से जीवन को खतरे में क्यों डाल रहे हो? "ईशपुत्र" नें तीब्र बाहु का धन्यवाद व्यक्त करते हुए उनको बताया की "महाहिमालायाधिपति" की आज्ञा पर उनहोंने ऐसा किया है। तब तीब्र बाहु बोला "मैं कीचड में आप पेड़ पर------अब सब बराबर हो गया है" कौलान्तक नाथ और तीब्र बाहु मुस्कुराते हैं और फिर तीब्र बाहु नीचे घाटी की और लौट जाता है। अचानक मैंने भैरवी हेमाद्रि को रोकते हुए पूछा अब पहले की तुम ये बात पूरी करो ये तो बता दो की ये तीब्रबाहु कौन है? भैरवी हेमाद्री बोली "दरअसल तीब्र बाहु धेरंड संप्रदाय का योगी है।"
ईशपुत्र ने बताया कि, "मुझे ये रहस्य कहना तो नहीं चाहिए था पर कह देता हूँ की भैरवी मृगाक्षी मेरे समान ही मृकुल पीठ की पीठाधीश्वरी हैं। जब मुझे हिमालय की उपपीठों का अधिकार दिया जा रहा था तब मुझे "मृकुलाधिपति" की उपमा सहित "मृकुल तंत्र" के सभी अधिकार प्रदान किये गए। तब ये रहस्य मेरे सामने खुला था तो मैं भी हतप्रभ रह गया था। भैरवी मृगाक्षी नाम के इस वृक्ष की जड़ें बहुत गहरी हैं। आप जब सुबह की स्तुति करते हैं और हिमालय के सर्वाम्नाय मन्त्रों का उच्चारण करते हैं तो वहाँ आनेवाला शब्द "मृकुलनाथाय नम:" वास्तव में अभी "भैरवी मृगाक्षी को ही समर्पित होता है। पृथ्वी पर आखिरी साँसे गिन रहा तंत्र का "मृकुल सम्प्रदाय" केवल भैरवी मृगाक्षी को ही अपना प्रमुख और आध्या शक्ति मानता है। लेकिन देवी मृगाक्षी एक स्त्री होते हुए भी परिवार समाज से जूझती हुयी भी इस सर्वोच्चता तक कैसे पहुंची ये आप कभी जानेगे को हैरान रह जायेगे।" मैंने बड़ी ही उत्सुकता से पूछा तो "ईशपुत्र! मुझे वो रहस्य बता दीजिये" कौलान्तक नाथ मानों टालने के अंदाज में बोले " स्वामी जी पहली बात तो ये है की ये एक गोपनीय रहस्य है उसे रहस्य ही रहने दो और जब समय आयेगा आपको ये राहस्य भी पता चल जाएगा। फिर अभी आपको साधना और मंत्र जाप और बढ़ना होगा। क्योंकि बातों से नहीं साधकों को हर रहस्य साधना से सुलझाना चाहिए। मैं कुछ कह दूं पर गप्पों का विश्वास नहीं किया जाता। भैरवी मृगाक्षी आपके साथ हैं साधना कीजिये और अनुभव कीजिये।" तब तक भोजन तैयार हो चुका था सबने मिल कर भोजन पाया। भैरवी मृगाक्षी "कौलान्तक नाथ" के चरण दवाते हुए उनसे बातें करने लगीं। मैं बड़ी उहापोह की स्थिति में था की किसे पहले जानने की कोशिश करूँ "ईशपुत्र" को "सर्वेश्वर" को या फिर "भैरवी मृगाक्षी" को। रात्रि घिरते ही मेरी आँखें बोझिल हो गयीं और सबके जागते हुए भी मैं सो गया। सुबह भैरवी स्पन्दना के जगाने पर में उठा। सब तैयार हो गए थे। बाहर भी मौसम बेहद साफ था और सूर्य की किरणों से सफेद बर्फ ऐसा चमक रहा था की सामने कुछ साफ नजर नहीं आ रहा था। आपस में बाते करते हुए सब चल पड़े। सबसे आगे भैरवी मृगाक्षी थीं उनके पीछे "ईशपुत्र" फिर चक्रनाथ और अंत में मैं था। मुझे स्वामी गिरिधारानंद उतरने में सहायता प्रदान कर रहे थे।
सम्पूर्ण संसार को "रहस्य योगियों" नें पांच प्रमुख पीठों के रूप में बांटा हुआ है जिनको क्रमश: १) द्वीपराज पीठ २) चन्द्रदेश पीठ ३) छायामय पीठ ४) स्वर्णभूमि पीठ ५) रहस्यधर्मा पीठ कहा जाता है। इन पीठों को आध्यात्मिक जगत संसार अथवा पृथ्वी कहता है। पृथ्वी का सारा समुद्र सहित क्षेत्र इसमें आता है। हिमालय के योगियों नें चार अति योग्य अवतारी पुरुषों को अपनी पात्रता सिद्ध करने का अवसर दिया है ये चार पुरुष हैं १) किरीट नाथ २) प्रगल्भ नाथ ३) शंभर नाथ ४) सत्येन्द्र नाथ। अब देखना ये है की कौन पञ्चपीठों का नायक बनता है। हिमालय के सभी ऋषि मुनि और साधक मन ही मन "कौलान्तक नाथ ईशपुत्र" को ही भविष्य का पुरुष मानते हैं और अभी से उनकी पूजा और उपासना की जाती है। यदि "कौलान्तक नाथ" पञ्चपीठाधिपति बनते हैं तो इसमें कोई दो राय नहीं होगी की वो ही कलिकाल के परम पुरुष हैं लेकिन ये सब इतना भी आसान नहीं है। निष्कलंक होने के लिए उनको अपमान, अपयश, कुप्रचार और अति विरोध में से हो कर निकलना होगा। संसार प्रश्न करेगा और नियम के अनुसार वो "रहस्य" प्रकट नहीं कर सकते। तो रास्ता आसान नहीं होगा। अपने लिए कभी किसी शक्ति का प्रयोग नहीं कर सकते। मानव हो कर ही सर्वोच्चता पानी है। क्या ये सब आसान है? नहीं। लेकिन फिर भी सकल हिमालय "कौलान्तक नाथ" की स्तुति कर रहा है। ऋषि मुनि गण कुछ ऐसे रहस्य जानते हैं जो शायद आप और हम नहीं जान पा रहे। अन्यथा "पञ्चपीठाधिपति" होने से पहले ही "ईशपुत्र" को इतना मान क्यों दिया जा रहा है ये प्रशन संदेह पैदा करता है। लेकिन "महाहिमालय" में संदेह के लिए स्थान ही नहीं। बस हम पात्र नहीं होते तो जान नहीं पाते। मैंने स्वयं हिमालय में बहुत से वृद्ध दिव्य योगियों को "ईशपुत्र" की नाम महिमा गाते देखा है उनको "कौलान्तक नाथ" की स्तुति करते देखा है। जिस पुरुष को संसार एक आम युवा समझता है वो अपने अंतर में कुछ छुपाये है। ये राज समझ से परे है। लेकिन ऋषि-मुनियों के द्वारा वन्दित पुरुष के साथ आज आप और हम जी रहे हैं क्या ये कम है? हम इस काल का एक भी क्षण नहीं चूकेंगे। मुझे विश्वास है यही इतिहास है।

शनिवार, 26 मई 2018

ईशपुत्र सूत्र







-आत्मिक पूर्णता का सूत्र-
"यदि आप अध्यात्म पथ के पथिक है तो ये याद रखना रूपांतरण तो तुम्हारा निश्चित ही है...किन्तु भौतिक जगत भीतर के रूपांतरण को नहीं समझ पाता, वो केवल बाहर-बाहर देखता है.......इसलिए जो रूपांतरण की प्रक्रिया में हो उसे संसार में रहते हुए भी असंसारी जैसा होना पड़ता है......जो इस चुनौती को स्वीकारता है वो उपलब्ध हो जाता है."-'कौलान्तक पीठाधीश्वर महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी महाराज'-कौलान्तक पीठ टीम-हिमालय

अमृत चन्द्र मन्त्र

'चन्द्र ग्रहण' व पूर्णिमा की रात्रि समस्त योगी जन 'अमृत मण्डल' में ध्यान लगाते हैं। वास्तविक चन्द्र तो देवता हैं किन्तु उनके पिण्डज रुपी चन्द्रमा समस्त ब्रह्माण्ड में स्थित हैं। एक हमारे भीतर है और एक पृथ्वी के चारों और स्थित घूर्णन करता हुआ है।
आगम-निगम पूर्णिमा,अमावस और चन्द्र ग्रहण काल को दिव्यकाल कहते हैं। जो साधना का काल है 'ईशपुत्र-कौलान्तक नाथ' नें अपने सभी भैरव-भैरवियों हेतु एक मंत्र दिया है जो आप अवश्य जपें।
मंत्र - ॥ ॐ चं ह्रीं क्षौं हुं सोमाय नमः ॥


होली-प्रेम का उत्सव

होली की साधना एवं महत्त्व संक्षेप में :
होली जीवन की प्रफुल्लता का पर्व है, प्रकृति के श्रृंगार, जीवों से सुख, मानव की प्रसन्नता का काल होली कहलाता है, होली ज्योतिषीय आधार सहित चिकित्सीय आधार और साधना का विशिष्ट समय लिए आने वाला दुर्लभ पर्व भी माना जाता है, रस और श्रृंगारमय वातावरण होने के कारण इसे प्रेम का उत्सव कहा जाता है, इस दिन प्रेम की ऐसी वयार बहती है की शत्रु भी मित्र हो जाते हैं, धार्मिक आधार ये भी है कि ये काल बुरे पर अच्छे की जीत का समय है, शास्त्रों के अनुसार स्वत: सिद्ध मुहूर्तों में से एक होली भी है, होली को कल्पतरु काल भी कहा जाता है क्योंकि इस दिन अनेक मन्त्रों कि सिद्धियाँ प्राप्त कि जाती है, होली के दिन किये गए सभी प्रयोग चमत्कारी रूप से त्वरित और दिव्य परिणाम ले कर आते हैं, इस दिन गुरु से परलौकिक दीक्षाएं प्राप्त कि जाती हैं, जीवन के अभावों को दूर करने के लिए इस काल में अवश्य साधना करें,शीघ्र विवाह, प्रेम प्राप्ति,शत्रु वशीकरण, सहित सर्वजन मोहन जैसे प्रयोग इस दिन किये जाते हैं, ईश्वर के सच्चे भक्तों को इस दिन निःस्वार्थ साधनाएँ ही करनी चाहियें, सौंदर्य-सम्मोहन के साथ ही कुण्डलिनी जागरण का मंत्र मार्गीय प्रोग भी इसी दिन से शुरू किया जा सकता है, होली के कुछ गुप्त रहस्य भी होते हैं जिन्हें गुरु केवल योग्य शिष्यों को ही बताता है।
आइये अब होली के कुछ दिव्य प्रयोगों के बारे में जानते हैं

धन लक्ष्मी प्रयोग-
लाल रंग से माथे को रंग कर लक्ष्मी माता के मन्त्रों का जाप करें लक्ष्मी कि कृपा बरसेगी
मंत्र-ॐ श्रीं श्रीं महालक्ष्मी आगच्छ आगच्छ धनं देहि देहि स्वाहा ॥
कमल गट्टे की माला से मंत्र का जाप करें
लाल गुलाल में कुछ दक्षिणा राशि रख कर दान करें व मंत्र का एक बार उच्चारण करें
मंत्र-श्री महालक्षमयै नम: दक्षिणां समर्पयामि।

रोग एवं ग्रह बाधा नाश हेतु प्रयोग-
हरे रंग से माथे को रंग कर सूर्य देवता के मन्त्रों का जाप करें तो बार-बार आने वाली मुसीबतों का नाश होता है
मंत्र-ॐ ऐं आदित्याय विद्महे सर्वारिष्ट निवृत्तये फट् ॥
हल्दी से स्वस्तिक का चिन्ह बना कर पुजा करें
यथा शक्ति अन्न दान करें

शत्रु वशीकरण प्रयोग-
पीले रंग से माथे को रंग कर हनुमान जी के मन्त्रों का जाप करें तो, जो अकारण शत्रु बन जाते है तो भी वे मित्र हो जायेंगे
मंत्र-हं हनुमते रुद्रत्मकाय हुं फट् ॥
मंत्र जाप के बाद गौग्रास अवश्य दें
हनुमान जी को सिन्दूर भेंट करें

मनोवांछित शीघ्र विवाह प्रयोग-
गुलाबी रंग से माथे को रंग कर कामाख्या देवी जी के मंत्र का जाप करें, तो मनोवांछित वर अथवा कन्या से विवाह होता है और शीघ्र विवाह होता है
मंत्र-स्त्रीं स्त्रीं कामाख्ये प्रसीद प्रसीद स्वाहा ॥
माता को पुष्प माला अर्पित करें
रुद्राक्ष माला का जाप करें

होली के दिन देवी कामाख्या जी की सोलह शक्तियों का नाम लेने से देवी प्रसन्न हो कर सब दुखों का नाश करती है, सावधानी पूर्वक नाम लिख कर उनको बार बार कहना चाहिए, देवी के ये सोलह नाम हैं-अन्नदा, धनदा, सुखदा, जयदा, रसदा, मोहदा, ऋद्धिदा, सिद्धिदा, वृद्धिका, शुद्धिका, भुक्तिदा, मुक्तिदा, मोक्षदा, शुभदा, ज्ञानदा, कान्तिदा, यदि आप दिव्य तेजस्विता प्राप्त करना चाहते हैं आध्यात्मिक तेज चाहते हैं तो होलिकाग्नि पर मंत्र ध्यान लगाना चाहिए

मंत्र-ॐ ह्रौं तेजस्विनी ज्वल्ल होलिकाग्ने स्वाहा ॥
विशेष बात यह है कि किसी 64 कला संपन्न दिव्य गुरु से दीक्षा अवश्य लेँ और होली जैसे पर्व के दौरान गुरुपूजन करें, शास्त्र कहता है कि संत-दर्शन और उनके चरणवंदन से आयुआरोग्य प्राप्त होता है, तपस्वी गुरु कि चरणपादुका-पूजन से दिव्य प्रज्ञा प्राप्त होती है

कौलान्तक पीठाधीश्वर
महायोगी सत्येन्द्र नाथ

चौसठ योगिनियाँ

"कौलान्तक संप्रदाय" योगिनी शक्तियों की उपासना को प्रमुखता देता है। चौंसठ योगिनी ही कलियुग में सशरीर दर्शन देने में समर्थ मानी जाती हैं। चौंसठ योगिनी मंडल में सत्व, रज, तम तीनों गुण विद्यमान होते हैं, किन्तु इनकी साधना को राजसी रीति से संपन्न करना ही श्रेष्ठ कहा गया है। योगिनियों को साध लेने वाला कभी भी अकेला नहीं होता। योगिनियाँ साधक को स्वयं ज्ञान देती हैं। भोग में प्रवृत्ति भी इनका ही गुण है। अक्सर ये पूछा जाता है की साधू-सन्यासियों के पास इतना पैसा कहाँ से आता है? वो महँगी गाड़ियों आश्रमों में राजसी तरीकों से कैसे रहते हैं। इसके पीछे कारण हैं योगिनी शक्तियों की साधना और आराधना। इसी कारण योगिनियों को भारतीय कर्मकांड सहित तंत्र नें अपनी पूजा उपासना में बड़ा अहम् स्थान प्रदान किया है। "कौलान्तक संप्रदाय प्रमुख" ईशपुत्र-कौलान्तक नाथ" संक्षेप में ये कहते हैं की इन चौंसठ योगिनियों का सिद्ध होना ही चौंसठ कलाओं को हस्तगत करने का उपाय है।
"चौंसठ योगिनियों" के सम्बन्ध में हमारी जानकारियाँ बहुत ही कम है। "कौलान्तक सम्प्रदाय" आपको कुछ नई जानकारी दे रहा है। योगिनिया तीन भागों में गुणों के अनुसार विभक्त हैं। सत्व, रज और तम। तीनों गुणों के अंतर्गत ६४-६४ योगिनियाँ आती है।तो कुल योगिनियों की संख्या १९२ हुई। इन तीनों विभागों में से सत्व, रज और तम की देवियों का चयन किया गया। जो की अति विशिष्ट योगिनियाँ हैं अब इनकी संख्या भी ६४ ही रखी गई। यहाँ कुछ साधकों में भ्रम है की तम कुल की योगिनियाँ ही "६४ कृत्या" हैं। ये गलत है ६४ कृत्याओं के सम्बन्ध में भविष्य में जानकारी देंगे। आज हम आपको बताने जा रहे हैं योगिनियों में से एक योगिनी "योगिनी चवाली देवी" के बारे में, जो की रसायन के साथ-साथ ही सुख समृद्धि व प्रसन्नता की देवी कही जाती है। इनको हिमालयी क्षेत्रों में पारिवारिक सुख व स्वर्ण आदि की प्राप्ति के लिए भी पूजा जाता है।
"योगिनी चवाली देवी" हिमालय के बनों में स्थित शक्ति है। "कौलान्तक सम्प्रदाय" की प्रख्यात कथा के अनुसार "योगिनी चवाली देवी" के पास कुछ दुर्लभ वृक्ष हैं जो की अति दुर्लभ और चमत्कारी माने जाते है। इनमें से एक है "शेता-चित्तरा पाजा". ये पाजा एक साधारण वृक्ष है, किन्तु यदि देवी की अनुकम्पा से आपको "शेता-चित्तरा" यानि सफेद और काला ये वृक्ष मिल जाए या इसकी लकड़ी प्राप्त हो जाए। तो ये बेहद चमत्कारी होती है, जिसके दिव्य चमत्कारों से ग्रन्थ भरे पड़े हैं। इसी वृक्ष से वो रसायन तैयार होता है। जिससे स्वर्ण निर्माण व पारद संस्कार संपन्न किये जाते हैं। "योगिनी चवाली देवी" को रसायन की योगिनी भी कहा जाता है। लेकिन इनका एक और वृक्ष भी है जिसे अमर जीवी कहते हैं। क्या है ये अमर जीवी वृक्ष?
एक रहस्य कथा के अनुसार "योगिनी चवाली देवी" हिमालय के बनों में फलदार नीम्बू प्रजाति के वृक्षों पर स्थित रहती है। इस फल को "गलगल" अथवा "गम्भरु" फल कहा जाता है। जो की खट्टा होता है व रंग में पीला होता है। इन वृक्षों में से कोई एक गोपनीय और दुर्लभ वो वृक्ष होता है जिस पर योगिनी का निवास होता है। यदि देवी की कृपा से इस दुर्लभ वृक्ष का हिमालय के बनों और झरनों के निकट पता चल जाए तो। शुभ "बाहण काल" यानी की वो समय जब देवी की शक्तियाँ आवागमन में हों, उस समय इस फल को तोड़ कर सेवन करने से साधक को महाआयु यानि की चिरंजीवी होने का लाभ प्राप्त होता है। ये ऐसा प्रयोग है जिसका वर्णन न केवल भारतीय तंत्र में है वरन विश्व के अन्य भागों में भी इसकी अद्भुत रहस्य कथाएँ प्रचलित हैं। आज भी सिद्ध साधक इस फल की प्राप्ति के लिए "योगिनी चवाली देवी" की हिमालय के बनों में साधनाएँ करते हैं। और विशेष बात ये भी की देवी का निवास कुछ काल के लिए इस फल में होता है। सिद्ध तांत्रिक इस फल को उस काल में तोड़ लाते हैं और देवी से वरदान प्राप्त करते हैं। ये "कौलान्तक सम्प्रदाय" की प्राचीन मान्यता है और इस पर अब तक अनुसरण किया जा रहा है। - कौलान्तक पीठ टीम-हिमालय। 

योनि पूजा

योनि तंत्र जैसे सामाजिक रूप से कलंकित और जटिल तंत्र के बारे में 'कौलान्तक पीठाधीश्वर महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी महाराज' कहते हैं की-भारत के ऋषियों नें जो भी मनुष्य को दिया वो अत्यंत श्रेष्ठ और उच्चकोटि का ज्ञान ही था. जिसमें तंत्र भी एक है. तंत्र में एक दिव्य शब्द है 'योनी पूजा' जिसका बड़ा ही गूढ़ और तात्विक अर्थ है. किन्तु कालान्तर में अज्ञानी पुरुषों व वासना और भोग की इच्छा रखने वाले कथित धर्म पुरोधाओं ने स्त्री शोषण के लिए तंत्र के महान रहस्यों को निगुरों की भांति स्त्री शरीर तक सीमित कर दिया. हालांकि स्त्री शरीर भी पुरुष की भांति ही सामान रूप से पवित्र है. लेकिन तंत्र की योनी पूजा सृष्टि उत्पत्ति के बिंदु को 'योनी' यानि के सृजन करने वाली कह कर संबोधित करता है. माँ शक्ति को 'महायोनी स्वरूपिणी' कहा जाता है. जिसका अर्थ हुआ सभी को पैदा करने वाली. उस 'दिव्य योनी' का यांत्रिक चित्र ही 'श्री यन्त्र' है. वो 'महायोनी' ही 'श्री विद्या' हैं.
किन्तु तंत्र मार्गी साधक को सावधान रहना चाहिए.....विशेषतया स्त्री साधिकाओं को की कहीं योनी तंत्र के नाम पर उनको कुछ अनर्गल सिखा कर कोई उन्हें कूकर्म के मार्ग पर न ले जाए. ऐसा बहुत सी साधिकाओं के साथ पूर्व व वर्तमान में हुआ है......हो रहा है. इसीलिए कथित तांत्रिक समाज को गलत दिशा दे सकता है. बातों में या तर्क द्वारा कुछ भी सिद्ध किया जा सकता है. पर योनी तंत्र चर्चा का नहीं प्रत्यक्ष सिद्धि का क्षेत्र है. इसलिए तंत्र की खोज करने वाले रहस्य चित्रों को यथारूप न ले कर उसे 'स्वरुप रहस्यानुसार' समझें. योनी तंत्र सृष्टि उत्पत्ति का परा विज्ञान है. न की स्त्री शरीर का अवयव. 'माँ करुणाकारिणी स्वर्ण सिंहासनमयी कामरूपिणी कामाख्या योनी' ब्रह्माण्ड उत्तपत्ति का प्रतीक हैं व शक्ति उतपत्ति का प्रतीक....वो प्रत्यक्ष विग्रह है. जिसकी तुलना किसी अंग विशेष से करना.......'मातृस्वरूपिनी पराम्बा' का घोर अपमान ही होगा.
योनी तंत्र का इतिहास परम पवित्र और बेदाग़ है इसलिए सामाजिक लोगों को इसे कलंकित या विकृत नहीं समझना चाहिए, बस तांत्रिकों की शक्ल में छिपे भेड़ियों से सावधान रहना चाहिए'-कौलान्तक पीठ टीम-हिमालय.

महासम्राटाभिषेक साधना

मनुष्यों में सर्वश्रेष्ठ तो केवल सम्राट ही होते हैं क्योंकि सम्राट का अर्थ ही हैं जीवन की हीनताओं से मुक्ति। निडरता, निर्भयता, सम्पन्नता, शक्ति, साहस और पूर्ण पौरुष। वो महासम्राट ही होते हैं जिनके ऐश्वर्य से ये पृथ्वी जगमगाती है। वो इतिहास बनाने की क्षमता रखते हैं जिनके भीतर एक सम्राट बसता है। लेकिन धन सम्पदा और राज्य सत्ताओं के दमन और शासन को सम्राट होना नहीं कहा जाता, बल्कि अस्तित्व की पूर्ण उच्चता में स्थिति और संसार व प्राणियों की रक्षा का संकल्प ही सम्राट होना है। वो योग्य अधिकारी साधक जिनको अस्तित्व महापरिवर्तन के लिए चुनता है महासम्राट बनते हैं। यही महासम्राट विश्व परिवर्तन का प्रथम आधार भी बनते हैं। इनका होना ही असत्य के दमन और तमस के नाश के साथ ही सृष्टि क्रम की पावनता और निरंतरता के लिए जरूरी है। हालांकि सम्राटों के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पक्ष रहे, किन्तु किसी नें भी आध्यात्मिक जगत से जुड़े महासम्राटों की ओर नहीं देखा। राज्य सत्ता से लेकर आध्यात्मिक तेज तक उनकी महासाधना चलती है। सम्राट और साम्राज्ञीयों के उच्च भाव को आज के परिवेश में केवल साधना और दीक्षा से ही प्राप्त किया जा सकता है। "कौलान्तक संप्रदाय" जो हिमालय के रहस्य पुरुषों का गोपनीय संसार है, इस साधना और विधि के लिए परम प्रसिद्द है। "कौलान्तक नाथ" की रहस्य साधनाओं के अमुल्य कोष से निकली प्रस्तुत क्रिया को वर्तमान साधक और मनुष्य अपनी बुद्धि से नहीं आंक सकता। क्योंकि ये राजशाही की शुरुआत नहीं, बल्कि सम्राट हो कर जीवन की सर्वोच्चता को पाना है।

आज भारत और भारतीय दोनों-अपने अपने संघर्ष में जुटे हैं। लेकिन युगों-युगों से सम्पूर्ण विश्व नें ये आशा की है की जब भी दुनिया भर में संकट, अनैतिकता, उपद्रव, अन्याय, अत्याचार, षड़यंत्र, शोषण और पाप का बोलबाला होगा। तो भारत की पवित्र भूमि उनकी सहायता करेगी। मनुष्यों के दुखों का, पीडाओं का हरण करेगी, अन्याय और अत्याचार से मुक्त करवा कर परम स्वतंत्रता और आनंद का मार्ग प्रदान करेगी। किन्तु आज भारत भूमि अपनी ही समस्याओं के घेरे में उलझी हुई है। अलग-अलग धर्मों, मतों, सम्प्रदायों के कारण स्थिति सुधरने के स्थान पर और बिगड़ गई है। सब अपने तक ही सीमित हो गया। भारत के भोजन, जल, वातावरण,भेषभूषा, शिक्षा, राजनीति और मीडिया को ऐसा बना दिया गया की जिससे इस देश से संस्कृति और धर्म को मिटाया जा सके। आज भारत चलते फिरते तर्क करने वाले, शिक्षित, बुद्धिमान, अच्छे कपड़ों वाले, कंप्यूटर चलाने वाले रोबोट्स का घर हो गया है। जहाँ अगर किसी से भी आप किसी भी साधू-संत के बारे में पूछो तो तुरंत कहेगा "ढोंगी है". जबकि वो न तो उनको अच्छी तरह जानता होगा और न ही धर्म, वेदों, पुरानों या उपनिषदों को जानता होगा। ऐसे में दुनिया के अन्य राष्ट्रों की उम्मीद धुंधला जाती है। भारतीय संस्कृति और धर्म का मानों आखिरी समय आ गया हो। नास्तिक और वर्णसंकर संतानें मिल कर धर्म, संस्कृति, संतों का अपमान कर रही हैं और सब मूक मौन हैं। कथित भ्रष्ट मीडिया धर्म को निशाना बना रहा है, धर्म प्रमुखों को निशाना बना रहा है और सब सुख की निद्रा ले रहे हैं। भारत वर्ष में संतों को मलेच्छों नें इतना डरा दिया है की वो तो धर्म प्रचार से भी डरने लगे हैं। पोलिस प्रशासन संतों-महात्माओंसे बेहद बुरा बर्ताव कर रहा है। साधू महात्माओं का आश्रमों से निकलना दूभर है। मलेच्छ शिक्षा प्राप्त हमारे ही भाई-पुत्र-बंधु हमारी ही संस्कृति और धर्म सहित संतों में खामियां ढूंढते, बखारते और प्राचीन काल के राक्षसों की भांति उपहास करते हर दिन, हर जगह, हर स्थान पर मिल जायेंगे। उन्हें ढूँढने कहीं भी नहीं जाना पड़ेगा। वो तो आपके आस-पास सैकड़ों-हजारों नहीं, बल्कि लाखो-करोड़ों की संख्या में उपलब्ध हैं। उनको बस साधू-महात्माओं-बाबाओं का तो नाम भी नहीं दिखना और सुनना चाहिए अन्यथा उनका असली चेहरा बाहर आने लगता है। संतों पर तो वे हंसते हैं और जो बाकी बचे धर्म या धार्मिक सम्प्रदायों या गुरुओं को मानाने वाले। जो किसी से जुड़े हैं वे दूसरे गुरु, संत या मत को नीचा दिखाने और खुद बड़ा बनने में जुटे हैं। तो क्या वास्तव में मलेच्छों की बुद्धि और सूक्ष्म षडयंत्रों के हाथों हमारी हार हो गई है। क्या धर्म कलियुग के आगे घुटने टेक चुका है ? क्या सबसे प्राचीन अध्यात्म मत का पूर्ण पतन हो गया है? नहीं! अभी प्रतीक्षा कीजिये, उत्तर अवश्य मिलेगा।


हमने "ईशपुत्र" का एक सांकेतिक चित्र साधकों के लिए तैयार किया है। जिसमें साधक की वीर भावना और शक्ति का प्रदर्शन "कौलान्तक नाथ" के रूप में हो रहा है। "कौलान्तक पीठाधीश्वर महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी महाराज" साधनात्मक तेज और बल को प्रमुखता देते हुए असत्य पर सत्य की जीत को प्रकट करते हुए दिखाए गए हैं। "कौलान्तक नाथ" का ये सांकेतिक चित्र प्रेमी साधको को समर्पित है। जो महायोगी जी के हर चित्र को बड़े चाव से देखते हैं। किन्तु ये चित्र केवल कौलान्तक पीठ के साधकों के लिए है, कृपया अन्य इसे अनदेखा करें। -कौलान्तक पीठ टीम-हिमालय।

महाकाल रुद्र साधना

जब जीवन को समझने का आप प्रयास करेंगे, तो पाएंगे कि जीवन समझ से पर है। यहाँ हर कोई रोता है.……हर कोई। कोई राजा हो कर रो रहा है, तो कोई भिखारी हो कर। कोई प्रेमी हो कर रो रहा है, तो कोई योगी हो कर। ये रुदन दुःख का रुदन है, जीवन में अभावों का रुदन है। ये अज्ञान का रुदन है, ये अभाव और अपूर्णता का रुदन है। कौन है इस रुदन के पीछे? कौन है जो रो रहा है? कंदन कर रहा है? हम यदि जीवात्माएं हैं, तो क्या इतनी भीड़ होने पर भी अकेली ही रह जाएँगी? क्या ये कष्ट ये पीड़ाएँ, मृत्यु के साथ ही खो जाएँगी। दर्द से तो ये ब्रह्माण्ड भी कराह रहा है। रुदन तो ग्रह, आकाश गंगायें भी कर रही हैं। पीड़ा तो हर तत्व की अपनी-अपनी है। इन सबके मूल में है शिव की एक ऐसी शक्ति, जो स्वयं रुदन का प्राकट्य है जिसे कहते है 'रूद्र'। शिव का वो स्वरुप जो काल को संचालित कर रहा है वही अभिन्न रूप से 'रूद्र' है। इसलिए महान ज्ञाताओं नें इसे 'महाकाल रूद्र' के नाम की संज्ञा दी है। ये रूद्र तो ब्रह्माण्ड के नित्य रुदन को हर कर उसे शांति और आनंद प्रदान करता है। जिस कारण ये सृष्टि आगे बढ़ रही है। ऐसे में जीवात्मा की स्थिति भी बेहद बुरी है। जो अज्ञानी है वो ज्ञानी होना चाहता है। जो ज्ञानी हो गया, वो ज्ञान से मुक्त हो अज्ञानी होने का अवसर देखता है। जो योगी नहीं वो, योगी को समझाते हैं कि तुमको कैसा होना चाहिए? जो योगी हैं वो योगी जैसे रहना नहीं चाहते। यहाँ नित्य युद्ध है.…नित्य युद्ध। कुछ उसे मीठी बातों, काल्पनिक धर्मों, कृत्रिम प्रेम और भ्रम युक्त आनंद से ढक लेना चाहते हैं। क्योंकि इस रुदन का सामना करने का उनमें साहस नहीं। वो वो तर्क से, आँखें और बुद्धि बंद कर इसका हल खोजते हैं। लेकिन क्या जीवन के संकट, जीवन की अपूर्णता इससे समाप्त हो जाएगी? नहीं ! अभी तो दुःख, शोक, पीड़ा के कुछ ही रूपों से तुम परिचित हो! ये तो अनंत है। ऐसे में ना तो भयभीत हो कर हल मिलेगा और न ही निर्भय हो कर इसका हल होगा। एक रास्ता है जिसकी आलोचना नास्तिक योगी और बुद्धिवादी अक्सर करते हैं, लेकिन समस्त तर्कों और आलोचनाओं के बाद भी वो मार्ग अब तक सबसे सही और सटीक निकला। वो मार्ग है साधना का मार्ग।
इस खोज के पथ पर बढ़ने का साहस हर किसी के बस का नहीं है। यहाँ तो बड़े-बड़े धुरंधर भी भाग खड़े होते हैं। लेकिन शिव भक्तों की बात ही निराली है। वो शिव के मार्ग पर चलते हैं और अपने शिव की ऐसी साधनाएं करते हैं कि सत्य प्रकट हुए बिना रह नहीं पाता। जीवन के अभाव, जीवन की कमजोरियां, दुःख और पीड़ाएँ उस साधक के सम्मुख ठहर कहाँ सकती हैं जिसनें 'महाकाल रूद्र' की शरण ले रखी हो। आस्तिक योगी 'काल ग्रंथी' के भीतर इसी 'महाकाल रूद्र' की शक्ति को भेदन कर प्राप्त करता है और साधक साधना के मंत्र मार्ग द्वारा। 'कौलान्तक परंपरा' में योगियों नें योग और मंत्र की विपरीत साधनाओं को आपस में ऐसे गूंथ लिया की देखने वाला भी हतप्रभ रह जाए। 'महाकाल रूद्र' की साधना कोई सरल कार्य नहीं है। किन्तु यदि आपको स्वयं 'महाकाल रूद्र' इसके निमित्त चुनते हैं तो आप इस मार्ग पर कदम बढ़ा पाते हैं। ये याद रखना चाहिए की ये कोई आम प्रवचन या योगशाला नहीं है साधना का रणक्षेत्र है। आप इन साधनाओं को तभी प्राप्त कर पाते हैं जब वो समय आ जाता है। अन्यथा लौटने वाले तो मीठी पानी की झील के किनारे पहुँच कर भी प्यासे लौट जाते हैं। इष्ट पर विश्वास नहीं, गुरु पर विश्वास नहीं तो इस पथ के बारे में सोचना भी नहीं। जब जीवन में कृत्रिम धर्म, अध्यात्म से मन भर जाए और भीतरी रुदन शुरू हो तभी 'महाकाल रूद्र' कृपा करते हैं। यदि आपकी स्थिति ऐसी है। आपको अब ना विज्ञान, ना ज्ञान, ना धर्म, ना संसार ठीक लगता हो, तो समय है इस साधना के पथ पर चल कर 'महाकाल रूद्र' की सत्ता से जुड़ने का। इस संसार से अलग 'कौलान्तक पीठ' का अपना एक संसार है। जिसमें रहने के लिए आपको हमारे सभी नियमों को मानना ही होगा। क्योंकि हमारा ज्ञान परम्पराओं पर आधारित है, हम उनका पालन हर हाल में करेंगे। बाहरी कलियुगी संसार से लोग अपनी विकृत मानसिकता ले कर यहाँ आते हैं तो भी हमारा प्रयास उनकी सहायता का रहता है। लेकिन सब 'महाकाल रूद्र' पर ही निर्भर करता है। 'महाकाल रूद्रसाधना' में व कौलान्तक पीठ की परंपरा में, बहुत सी बाते अवैज्ञानिक, अतार्किक व रूढ़िवादी है। जिनको हमारे आलोचक अन्धविश्वास व फर्जीवाड़ा भी कहते है। - कौलान्तक पीठ हिमालय

शुक्रवार, 25 मई 2018

योग कौशल

अगर आप घेरण्ड द्वारा प्रणीत योग को देखेंगे जिसे लोगोँ ने नकार दिया ! आखिर क्योँ नकारा ? क्या आपको ये मालूम है ? हठयोग को आखिर बल क्योँ मिलता गया ? और दर्शन अर्थात् philosophy मेँ केवल पतञ्जल की philosophy को इतना अधिक महत्व क्योँ दिया गया ? योग तो आपने बहुत लोगोँ से सीखा होगा, बहुत लोगोँ को आप योग करते देखते होंगे तब भी बहुत से लोग कौलान्तक पीठ आकर योग सीखना चाहते है ! क्योँकि हम योग को आपके सम्मुख अपने अंदाज मेँ लेकर आते है...वो अंदाज मेरा नहीँ है ! वो अंदाज है "देवाधिदेव महादेव" का ! वो है महादेव की सनातन परंपरा से आया हुआ योग; जो उन्होनेँ आगम के द्वारा निगम को अर्थात् माँ पार्वती को दिया ! और तभी से अनेकोँ ऋषि-मुनियोँ के द्वारा ये योग की धारा युँ ही बहती हुई इस पीठ मेँ आगे बढती आ रही है ।

आप कहेंगे, 'योग तो मैने अपने गुरु से भी सीखा है ! योग करते हुए तो हमने अन्य योगियोँ को भी देखा है । योग की बातेँ तो हमने भी हजार सुनी है और योग की कई पुस्तकेँ चाहे घेरण्ड योग हो, चाहे हठयोग प्रदीपिका हो, चाहे पतञ्जल योग हो, चाहे शिवसूत्र हो कोई भी योग से सम्बन्धित पुस्तक हो हमने जरुर पढी है... तो फिर कौलान्तक पीठ मेँ आकर वही पुस्तक और वही योग फिर से सीखने की क्या जरुरत ? आप कोई भी बडे से बडे योगी हो लेकिन तब तक अधूरे है जब तक आपने कौलान्तक पीठ मेँ योग की उस महादेव के द्वारा प्रदत्त उस परंपरा को देखा न हो जो उनके द्वारा बडी कठोरता से स्थापित की गयी है ! जहाँ संपूर्ण योग और उसके अस्तित्त्व को निचोडकर अर्क बनाकर के रखा गया है ताकि आप उस योग के बने हुए अर्क का सेवन कर योग के परम ज्ञान को उपलब्ध होकर, "महायोगी" बनकर समाधि की ओर जा सके, पूर्ण ज्ञान को प्राप्त कर सके ! - ईशपुत्र

वीरभद्र मन्त्र

'कौलान्तक पीठ हिमालय' प्रस्तुत करता है 'ईशपुत्र-कौलान्तक नाथ' की तंत्रमय आवाज में, शिव के प्रखरतम गण, दक्ष प्रजापति शिरोसंधानक 'श्री वीरभद्र' का तांत्रिक मंत्र'। इस मंत्र से ऊपर क्या हो सकता है? ये मंत्र बेहद तीब्र और शक्तिशाली माना गया है। सकल बाधा हरने वाले इस मंत्र को 'वीर भाव' से ही किया जाता है। आप सभी 'कौलान्तक पीठ' के भैरव-भैरवियाँ इस मंत्र की प्रखरता, विधि व महत्त्व को तो जानते ही है। तो ऊँची ध्वनि में सुनने योग्य इस वीर मंत्र का श्रवण कीजिये-कौलान्तकपीठ टीम-हिमालय।
'ॐ ड्रं ह्रौं बं जूं बं हूं बं स: बीर वीरभद्राय प्रस्फुर प्रज्वल आवेशय जाग्रय विध्वंसय क्रुद्धगणाय हुं'
"Om dram hroum bam joom bam hoom bam sah bir veerbhadraaya prasfura prajwala aaveshaya jaagraya vidhvamsaya kruddhagannaaya hoom"
वीरभद्र मन्त्र

सिद्ध गुरु का सानिध्य

आगम ग्रंथों में शिव स्वयं देवी पार्वती जी को कहते हैं की ''कलि काल में प्रत्यक्ष मायावी सिद्ध गुरु के सान्निध्य को मेरा ही सानिद्ध्य मानना, क्योंकि कोई मिटटी का पुतला इतना साहस नहीं रखता की वो 'शिव की महिमा' को अपने मुख से उच्चरित कर सके. 'शिव विद्याओं' को केवल में ही अपने मुख से बताने वाला हूँ.''

'कौलान्तक नाथ' कहते हैं की '' 'शिव पुत्र' 'निर्भय' होते हैं, वो 'काल की चुनौती' को भी स्वीकारते हैं. तो' शिव भक्त' धन, संपत्ति और दिव्यता से हीन हों ये हो ही नहीं सकता.''

हम 'संत नहीं' 'सिद्धों के योद्धा' हैं 'भारत के सुपूत' हैं, 'संस्कृति के पालक' हैं और 'अध्यात्म सहित मानव कल्याण' के 'पोषक' हैं. हमारे ही 'मृतक शरीरों' पर 'सभ्यताएं' सुख की साँसें लेती हैं.

गुरुवार, 24 मई 2018

महाशक्ति तन्त्र

आइये "कौलान्तक संप्रदाय" की गोपनीय "शाक्त" परम्पराओं के बारे में कुछ जानते हैं। हिमालय में सर्वोत्तम तंत्र पीठ के रूप में युगों से स्थापित "कौलान्तक पीठ" शक्ति की सभी पूजन विधियों को "शाक्त तंत्र" कहता है। ये शाक्त तंत्र कोई पुस्तक ना हो कर, अलिखित नियमों व परम्पराओं का समूह है। क्योंकि शैव और शाक्त मत दोनों ही गुरुगम्य हैं। इसलिए सर्वप्रथम हम "कौलान्तक पीठाधीश्वर महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी महाराज" के शाक्त तंत्रमतीय चित्र प्रस्तुत कर उनसे समस्त रहस्यों को उजागर करने की प्रार्थना करते हैं। "ईशपुत्र" अपने आप में एक रहस्य हैं, उनका विस्तार केवल एक साधक जान सकता है। जिसका तंत्र में गहरा अध्ययन हो। "कौलान्तक पीठ की प्रमुख शक्ति है "देवी कुरुकुल्ला" जो की चमत्कारों की देवी के रूप में विख्यात व प्रसिद्द हैं। मौलिक रूप से देवी "दुर्गा जी या शक्ति" ही हैं लेकिन उनका स्वरुप राजसी होने से व अवतार भेद से उनको "रक्त तारा" या "लाल तारा" भी कहा जाता है। लेकिन देवी से जो भी प्रार्थना हो उसे गुप्त ही रखने का विधान है। "कौलान्तक पीठ" दस महाविद्याओं को आधार मानता है और ६४ योगिनियों सहित अनेक मातृ शक्तियों की उपासना करता है। माँ पार्वती को ही "कौलान्तक सम्प्रदाय" शाक्त मत का प्रवर्तक मानता है व उनकी उपासना का बड़ा महत्त्व है। किन्तु सारा ज्ञान शाक्त प्रमुख से आता है। हम "महाहिन्दू" पंथ के शाक्त प्रमुख "कौलान्तक नाथ" जी का चित्र प्रस्तुत कर रहे हैं। "कौलान्तक संप्रदाय" शाक्त तंत्र को आधार तंत्र मानता है। मनुष्य के पास स्त्रेण व पुरुष दोनों तत्व हैं। एक प्रकट होता है तो दूसरा भीतर छिपा रहता है। जैसे पुरुष के भीतर स्त्री और स्त्री के भीतर पुरुष। शिव शक्ति तत्व वास्तव में उभयलिंगी होता है। इसी रहस्य को तंत्र उजागर करता है। शाक्त तंत्र का सबसे अहम् बिंदु ये है की वो बताता है की एक पुरुष की पूर्णता स्त्री या स्त्रेण तत्व में है और स्त्री की पुरुष या पौरुष में। दोनों तत्वों के सम हो जाने पर शिवभाव अथवा पूर्णता का अनुभव होता है। जिसे अर्धनारीश्वर के रूप में स्वयं महादेव शिव नें प्रकट किया। इस लिए शाक्त तंत्र में अवधूत स्त्री पुरुषों के चित्र बनाये जाते हैं और तंत्र अश्लील जान पड़ता है। जबकि ऐसा बिलकुल नहीं है वरन शाक्त तंत्र शरीर और उसके भीतर के रहस्यों के द्वार आपके लिए खोलता है और अशरीरी अनुभव तक ले जाता है। किन्तु इसे बेहद जटिल माना गया है साधकों का अधिकांशतय पतन हो जाता है। इसलिए इसे निषिद्ध कहा गया है। "भगवती कालिका" को इस विधा का प्राण माना गया है। लेकिन कालिका के वाम व दक्षिण भेद होने से वाम को गोपनीय व परम उच्च संसार से विरक्त, बीहड़ों में विचरण करने वालों के लिए व्यक्त किया गया जबकि दक्षिण को सभी साधकों सहित, गृहस्थ साधकों के लिए प्रकट किया गया। इस मार्ग की अधिष्ठात्री "दक्षिणा काली" अथवा "दक्षिण कालिका" कहलाई। यही दक्षिण काली पूर्ण काली का प्रतीक हैं। कौलान्तक संप्रदाय काली की उपासना "कामकलाकाली" के रूप में करता है।
"कौलान्तक संप्रदाय" "कामकलाकाली" की आराधना पर बल देता है किन्तु इसका अर्थ ये नहीं की अन्य स्वरूपों को महत्त्व नहीं देता। "कामकलाकाली" के कारण ही "कौलान्तक संप्रदाय" नें स्त्री-पुरुष प्रेम को धर्म में अपनाया और स्त्री को या पुरुष को कभी भी साधना मार्ग में अड़चन नहीं माना। किन्तु "देवी काली" एक महाशक्ति है। वो तमस समेटे हुए "महाविकराल" हो जाती है। इसलिए साधक को कहा जाता है की वो "दक्षिण कलिका" को प्रमुखता दे। बहुत से साधक निरंतर "दक्षिण काली" की साधना व मन्त्रों का जाप करते हैं। लेकिन "कौलान्तक संप्रदाय" में "देवी दक्षिण काली" के मन्त्रों का उच्चारण व शैली सबसे हट कर होती है व मंत्र भी थोड़ा भिन्न होता है। किन्तु सबसे अहम् जानकारी की काली को श्मशान से जोड़ा जाता है। ये श्मशान मुर्दे जलाने वाला श्मशान नहीं वरन प्रलय काल का ब्रह्माण्ड है। अग्नि तत्व उसकी प्रकृति है और विध्वंस उसका स्वभाव है। लेकिन शक्ति कभी भी मर्यादा के बंधन नहीं तोड़ती। वो स्वयं प्रकृति है और उसको रचती है। नित्य नूतन, नवीन यही रहस्य "शक्ति तंत्र" है। शक्ति ठहराव नहीं चाहती। वो सक्रियता देती है उन्माद देती है, लक्ष्य देती है, ताकि तुम शीर्ष पर पहुँच कर "माया" की बनावट को समझ सको और शिखर के आनंद को अनुभव कर सको। जो अकथनीय है, निराला है, चमत्कार जैसा है। "कौलान्तक संप्रदाय" "दक्षिण काली" की साधना को सबसे पहले संपन्न करने को कहता है ताकि आप "काली कुल" की सभी शक्तियों के रहस्य को जानने के लायक हो जाएँ। "काली कुल" में ही "चौंसठ कृत्याएं" आती हैं। "तमस रह्स्य योगिनियाँ व यक्षनियाँ" भी इससे सम्बंधित हैं। "शाक्त तंत्र" दक्षिण कालिका के गोपनीय स्वरूपों को गुप्त ही रखने की राय द्देता है। हम भी उसका पालन कर, ये आपको नहीं बताएँगे। ये गुरुगम्य है, - कौलान्तक पीठ टीम-हिमालय 

श्री राजराजेश्वरी भूमण्डलिनी देवी कौल मन्त्र

'कौलान्तक पीठ हिमालय' प्रस्तुत करता है 'कौलान्तक संप्रदाय' के साधकों के लिए 'ईशपुत्र-कौलान्तक नाथ' द्वारा गाया गया 'श्री राजराजेश्वरी भूमण्डलिनी देवी कौल मन्त्र'। इस मंत्र की महिमा भला हम कैसे बता सकते हैं। ये मंत्र तो पञ्चपीठों की समस्त विद्याओं को प्रदान कराने में समर्थ है। तो आदेश! बोलिये और मंत्र जपिये भी व सुनिये भी-कौलान्तक पीठ टीम-हिमालय।


।। श्री राजराजेश्वरी भूमण्डलिनी देवी कौल मन्त्र ।।
ॐ उं उड्डीयणी जालंधरी कामरी कौलिनी श्री कालिका सुन्दरी, राजराजेश्वरी भगवती द्वीपराजेश्वरी चंद्रेश्वरी छायामयी, स्वर्णभूमि रहस्येश्वरी श्री पार्वती निगमेश्वरी सिद्ध सिद्ध सिद्ध।

बाह्य प्राणायाम

बाह्य प्राणायाम योगी ब्रह्ममूहुर्त मेँ किया करते है । इससे बहुत सारे प्राणायाम एकसाथ हो जाया करते है और बन्ध भी सहज ही लग जाते है । इस प्राणायाम को करने के लिए सहज आसन, सुखासन या पद्मासन मेँ बैठकर श्वास तीव्रता से बाहर छोड देँ और पेट को पीछे पिचका लेँ, उड्डीयान बन्ध लगा देँ और गरदन को ठोडी से लगाकर जालन्धर बन्ध लगा लेँ और गुदा को भीतर अन्दर की तरफ जोर से संकुचित करके रखेँ । इसमेँ जालन्धर बन्ध, उड्डीयान बन्ध और साथ ही मूलबन्ध भी व्यक्ति का लग जाता है । इस प्रक्रिया को "बाह्य प्राणायाम" कहते है । बाह्य प्राणायाम व्यक्ति के "सूक्ष्म शरीर" को जागृत करने मेँ अभूतपूर्व योगदान देता है । व्यक्ति के भीतर पंचतत्त्व होते है और सात शरीर विद्यमान होते है और पाँच शरीर भी विद्यमान होते है उन्हीँ पाँच शरीरोँ मेँ जो "सूक्ष्म शरीर" है वह इस प्राणायाम को करने से चलायमान होता है ! योगी अक्सर घण्टोँ इस प्राणायाम को किया करते है लेकिन आप इसे प्रारम्भ मेँ दो-तीन बार से अधिक न करेँ । - महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी महाराज ( ईशपुत्र)

वामेश्वरी कुरुकुल्ला वाम मंत्र

प्रस्तुत है 'कौलान्तक पीठ' की प्रमुख अधिष्ठात्री शक्ति 'देवी कुरुकुल्ला' का वाम मंत्र। ये मंत्र 'वामेश्वरी मंत्र' के नाम से भी जाना जाता है। चमत्कारों और जादु की देवी का विकराल मुख ही 'कुरुकुल्ला' है। देवी 'कुरुकुल्ला' जिन्हें 'रक्त तारा' कहा जाता है। वाममार्ग की भी प्रमुख आराध्या शक्ति हैं। उनका एक 'वाम मंत्र' साधक को अद्भुत विचार और सामर्थ्य प्रदान करता है। 'कौल' साधकों का ये गोपनीय मंत्र यहाँ स्वयं 'ईशपुत्र-कौलान्तक नाथ' प्रकट कर रहे हैं। हालाँकि इसे गोपनीय ही रखा जाता है। लेकिन 'कौलान्तक पीठ' के प्रमुख होने के नाते ये उनके अधिकार क्षेत्र में आता है। ये मंत्र 'ईशपुत्र-कौलान्तक नाथ' द्वारा गाया गया है । तो प्रस्तुत है 'कौल क्रमानुसार' देवी का ये दुर्लभ मंत्र-
                          ।। वामेश्वरी कुरुकुल्ला वाम मंत्र ।।





।। ॐ झां झां झां हां हां हां हें हें हें कौलिनी कामिनी द्राविणी प्रिये कुरुकुल्ले स्वाहा ।।



(मंत्र के लिए गुरु से आज्ञा और दीक्षा अवश्य प्राप्त करें, ध्यान रहे ये वाममार्गीय मंत्र है)-कौलान्तक पीठ टीम-हिमालय।




योगासन - देह कौशल

प्रकृति नेँ मानव को शरीर दिया और शरीर को "देव-मन्दिर" कहा गया । मानवदेह को सर्वश्रेष्ठ इसलिए भी कहा गया क्योँकि इसी देह को साधकर हम मोक्ष अथवा निर्वाण तक का अपना सफर तय कर पाते है किन्तु जब तक हम "देह कौशल" को भली प्रकार साध नहीँ लेते तब तक साधना दुरुह जान पडती है । हालाँकि हमारा शरीर बहुत सीमित और छोटा दिखता है किन्तु इसे ब्रह्माण्ड के सदृश विराट और अनसुलजा माना गया है । मानव देह मेँ विराट क्षमताएँ है । उसके भीतर दिव्य कुण्डलिनी नामक शक्ति विद्यमान है जो अनेकोँ-अनेकोँ अणुओँ की शक्तियोँ से भी अधिक विराट है ! जिसकी कोई सीमा अथवा कोई परिकल्पना नहीँ ! किन्तु एक साधक अपने आप को बिलकुल लघु पाता है क्योँकि पहले वो अपनी देह को ही नहीँ जानता इसलिए साधक सर्वप्रथम अपनी देह को साधने का प्रयास करेँ । किसी भी प्रकार की साधना हो साधक उसे दैहिक तल से ही शुरु करता है । प्राचीन ऋषि परंपरा से लेकर आज तक लगभग सभी साधकोँ ने अपनी देह को साधने का कोई न कोई अभ्यास अथवा कोई न कोई प्रयोग अवश्य किया है, कोई इसे योग के द्वारा साधता है, कोई व्यायाम करता है, कोई अपने शरीर के साथ भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रयोग करता है । कभी कभी योगी काँटोँ पर सो जाते है, कभी तेज धूप मेँ तपते है, कभी शीतल जल मेँ डूबकियाँ लगाते है । प्रकृति के मध्य रहकर प्रकृति को आत्मसात् करने का प्रयास करते है । देह भौतिक जगत से जुडे रहने का माध्यम है लेकिन अध्यात्म का मानना है कि यदि हम देह को शोधित न करेँ, उसे पुष्ट एवं दिव्य ना बनाएँ तो व्यक्ति भीतर की यात्रा मेँ नहीँ उतर सकता इसीलिए आचार, व्यवहार, भोजन, यम, नियम ये सब आचरण इसीलिए तो बताए जाते है ताकि आप उन्हेँ साधकर अपने आप को एक विराट वृक्ष बना सको । जब साधक साधना क्षेत्र मेँ पदार्पण करता है तो अपने आप को बहुत लघु पाता है क्योँकि देह के साथ मन भी जुडा रहता है । मन तरह-तरह की दुर्भितियोँ से ग्रसित है, अनेकोँ भावनाओँ के अधीन है अतः उस मन के साथ देह का सम्बन्ध होना देह को अपनी विराटता का बोध प्रदान करवाने का अवसर ही प्रदान नहीँ करता ऐसे मेँ साधक का कर्तव्य है कि वो गुरु द्वारा प्रदत्त मार्ग पर योगाभ्यास करेँ, हठयोग करेँ, तप करेँ ताकि वो अपने आप को तराश सके । इस परंपरा की सबसे बडी जो विशेषता है वो यही तो है कि एक ओर जहाँ हम अपने शरीर को तराश रहे है वहीँ साथ ही साथ अन्तः तलोँ पर आप मन और बुद्धि को भी साथ ही साथ तराशते चले जाते है । साधना की कोई भी शैली या रीत हो, यहाँ तक कि भजन-किर्तन भी करना हो तो नाम-सुमिरन करने के लिए भी आपकी देह वो भली प्रकार स्वस्थ तथा सुंदर होनी चाहिए । अपनी काया को भली प्रकार सुव्यवस्थित रखने का रास्ता अपना-अपना हो सकता है किन्तु मूलरुप से यह तथ्य साधक की समझ मेँ आना चाहिए कि शरीर एक दिव्य ब्रह्माण्ड है; जितना विशाल, जितना अनन्त ये बाह्य विशाल ब्रह्माण्ड है उतना ही हमारे भीतर का ब्रह्माण्ड भी विशाल और अनन्त है । बाहरी ब्रह्माण्ड से हम शक्तियाँ प्राप्त कर बाह्य जगत की वस्तुओँ को जोडकर हम भिन्न-भिन्न प्रकार की सामग्रियोँ का निर्माण करते है; उसी प्रकार भीतर के ब्रह्माण्ड से भिन्न-भिन्न प्रकार की शक्तियाँ और सामग्रियाँ एकत्रित कर हम विराट विश्व को अपने भीतर समझ सकते है और अपनी शक्तियोँ के माध्यम से अपनी अनन्त यात्रा तक गति प्राप्त कर सकते है किन्तु देह का शोधन प्रत्येक साधक को करना ही होगा क्योँकि देह और इसकी माया बडी विचित्र सी है । यदि हम इस देह के साथ थोडी जोर-जबरजस्ती करे तो ये देह हमारे साथ मित्रता का सम्बन्ध निभाती है किन्तु यदि इस शरीर को हम सुख मेँ, आराम मेँ और आनंद मेँ रखने की कोशिश करते है तो यही शरीर हमारे साथ शत्रुता निभाना शुरु कर देता है अतः शरीर के साथ मित्रवत् व्यवहार कम से कम करना चाहिए । मूलरुप से कहने का तात्पर्य ये है कि हमेँ आलस्य और प्रमाद का त्याग कर योगाभ्यास के चरणोँ मेँ उतरना चाहिए । देह कौशल के माध्यम से हमारे भीतर गहरे तलोँ तक परिवर्तन आता है, जैसे एक व्यक्ति जिस प्रकार के व्यायाम, जिस प्रकार का भोजन अथवा जिस प्रकार के वातावरण मेँ रहता है उसका प्रभाव उसके व्यक्तित्त्व, मन, शरीर, बुद्धि सब पर पडता है और अन्ततः यही परिवर्तन जब धीरे-धीरे हमारे भीतर देह के सूक्ष्म अवयवोँ तक पहुँच जाते है तो वही आगे सन्तानोत्पत्ति के समय अपना गुण उत्पन्न करते है, तब जो सन्तान उत्पन्न होती है उस सन्तान के भीतर कुछ गुण स्वतः ही विद्यमान होते है, वे गुण हमारे ही द्वारा पूर्व मेँ निर्मित किये गये है । अतः हमेँ दिव्य साधनाएँ, योग और देह-कौशल की क्रियाओँ को भली प्रकार सीखना होगा क्योँकि जब हम इस प्रकार देह-शोधन करते है, प्रकृति के मध्य रहते है और स्वच्छ प्राणवायु. स्वच्छ अन्न, स्वच्छ जल इन सब का सेवन करते है, बीजमन्त्रोँ से अपने मस्तिष्क का शोधन करते है तब अनेकोँ रोग नष्ट होते है । हम अपने भीतर स्वच्छता, तीव्रता और पवित्रता जैसे गुणोँ को धारण करते है । धीरे-धीरे ये गुण देवत्व का स्वरुप धारण करते है और क्रमशः हमारे देह के भीतर सूक्ष्म तलोँ तक प्रविष्ट हो जाते है । ऐसी स्थिति मेँ जब कोई योगी, साधक, पुरुष या स्त्री सन्तानोत्पत्ति करती है तो वे गुण सहज ही सन्तान तक पहुँचते ही है । इस प्रकार मानव के भीतर देवत्व का उदय होता है । तो देह-कौशल मात्र स्वयं के लिए ही अवश्यक नहीँ अपितु आनेवाली मानव-सभ्यता और भविष्य के लिए भी नितान्त आवश्यक एवं अनिवार्य तत्त्व है । हम देह-कौशल को प्रमुख आठ भागोँ मेँ बाँटते है, इन भागोँ का एक-एक जो प्रखण्ड है अपने भीतर विशेषतया अनेकोँ रासायणिक परिवर्तनोँ को लिए हुए रहता है किन्तु यह ज्ञान गुढतम है इसीलिए प्राचीन काल मेँ हठयोगी अधिकतया देह-कौशल के प्रयोग किया करते थे । कभी महिनोँ भूखे रहना, कभी काँटोँ पर समाधि लगा लेना, कभ साँस रोककर भूमि के भीतर कई दिनोँ तक ध्यानस्थ रहना, कभी अत्यन्त शीतल वातावरण को सहना ये भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रयोग हठयोग का एक अंग बन गये अपितु हठयोग का तात्पर्य जिद करना नहीँ होता ! लेकिन हठयोग का देह कौशल के साथ संबंध अवश्य है । किन्तु ये अभ्यास, यह साधना मूलरुप से कैसी है यह हमेँ जानना चाहिए क्योँकि जब हम हठात् अपनी मूढ बुद्धि से इन प्रयोगोँ को करते है तो वे व्यर्थ जान पडते है; अतः हमेँ दिव्य गुरु के आश्रय मेँ रहकर इस दिव्य ज्ञान को पुनः अर्जित करना होगा । हमेँ संरक्षण करना होगा इस दिव्य पद्धति का ताकि चिकित्सीय और मानवीय जगत मेँ एक क्रान्ति पुनः प्रविश्ट हो सके, मानव जीवन मेँ उल्लास, आनंद, दिव्यता आ सके । इन सभी आठोँ अंगो का अध्ययन करना होगा, साथ ही हमेँ आनेवाली पीढी को यह दिव्य ज्ञान आगे देना होगा, तभी हम स्वस्थ और सुन्दर विश्व की परिकल्पना कर सकेंगे । देह कौशल ध्यान मेँ उतरने की एक सुन्दर सीढी है । जिस प्रकार कोई व्यक्ति किसी सुन्दर मन्दिर मेँ प्रविश्ट होने के लिए उसकी सुन्दर सीढियोँ पर धीरे-धीरे कदम रखता हुआ ऊपर चढता जाता है, ठीक उसी प्रकार जब हम देह कौशल के आठोँ अंगोँ को समझ लेते है तब भीतर उतरना कितना सहज...कितना सरल हो जाता है ! हम रुपान्तरित हो जाते है ! सच्चा रुपान्तरण अब शुरु हो जाता है और ये रुपान्तरण "स्थायी रुपान्तरण" है, हम इस रुपान्तरण को अपनी अगली पीढियोँ तक दे सकते है । हम मानव को और दिव्य, और स्वस्थ, और ह्रष्टपुष्ट, और ओज से भरा हुआ बना सकते है । अपने आप को इस दिव्य रीत से बांधना, इस वैली मेँ उतारना कितना सुखद एहसास है ! तो जीवन पूर्ण एवं सफल बन सकेगा । अपने भीतर की क्रान्ति को जागृत करने का एक अवसर देना चाहिए ।
हमारे भीतर लय, सुर, ताल, संगीत सब है किन्तु वो हम से ही छिपा है; हम स्वयं अपने आप से ही बेगाने से है । तो हम किस प्रकार अपने आप को जान पाएँ उसकी पहली सीडी है देह कौशल अर्थात् अपने शरीर को जानना, समझना और उसे स्वस्थ तथा सुंदर बनाने का प्रयास करना । प्राचीन ऋषि परंपरा मेँ प्रत्येक साधक के लिए इसीलिए योगाभ्यास नितान्त अनिवार्य था क्योँकि देह का ह्रष्टपुष्ट होना मस्तिष्क के तंतुओँ का ह्रष्टपुष्ट होना चेतना को अनंत बनाने मेँ सहायक होता है । योग ने छोटे-छोटे आसनोँ को जोड-जोडकर विशेष-विशेष प्रकार की पद्धतियोँ का निर्भाण किया; इन्हीँ पद्धतियोँ से जुडकर प्रत्येक साधक देह कौशल प्राप्त कर सकता है । साधारण व्यायाम और देह कौशल मेँ ये अंतर है कि साधारण व्यायाम जल्दी-जल्दी और अव्यवस्था से किया जाता है किन्तु योग मेँ प्रत्येक आसन धीमी श्वास, लय, गति, ताल और बीजमन्त्रोँ के साथ किया जाता है; साथ ही ह्रदय मेँ पवित्रता, देवत्व, ईश्वरत्व का भाव समाहित रहता है; साधक भी स्वयं को मानवीय तलोँ से ऊपर पाता है; तब ये व्यायाम न होकर दिव्य आसन हो जाते है, जिस से देह कौशल का प्रादुर्भाव होता है । आप जहाँ भी रहे अपने आप को देह कौशल से जोडे रखेँ । देह के भीतर होनेवाले अनेकोँ परिवर्तनोँ को आप स्वयं संचालित कर सकते है । आप धारणा, इच्छाशक्ति, संकल्प, सूक्ष्म व्यायामोँ, योगासनोँ तथा अलग-अलग परंपराओँ के माध्यम से अपने भीतर के विकास को स्वयं प्रभावित कर सकते है; भीतर हो रहे परिवर्तनोँ पर आप स्वयं अपना प्रभुत्व स्थापित कर सकते है । देह को कैसे चलना है, देह के भीतर किन परिवर्तनोँ की आवश्यकता है, देह को किस तत्त्वोँ की आवश्यकता है ये सब चुनाव आपके भीतर ही होना चाहिए और इस प्रक्रिया को ठीक रखना ही समस्त रोगोँ से मुक्त रहना है । बहुत से रोग हमेँ सिर्फ इसलिए ग्रसित करते है क्योँकि हम इन्हेँ अपने भीतर आने का अवसर प्रदान करते है । यदि हम संक्षिप्त व्यायाम नित्य करेँ, देह कौशल मेँ उतरे तो आप पाएँगे कि थोडी जटिलता तो है, शरीर के साथ कुछ जबरजस्ती भी करनी ही पडेगी; इसके लिए आलस्य-प्रमाद का त्याग भी करना होगा किन्तु यही परंपरा आपको दिव्य और रोगमुक्त बना देती है; चाहे वो रीड की हड्डी होए, चाहे गरदन की, चाहे आपके बाजु होँ अथवा आपका चेहरा या जांघे सब जगह जब तक कंपन उत्पन्न न हो जाए, जब तक रक्त का प्रवाह न पहुँच जाए तब तक व्यायाम या देहकौशल को भली प्रकार हुआ नहीँ जानना चाहिए । देह कौशल मेँ श्वास की गति अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । हमेँ बहुत सहज गति से धीरे-धीरे श्वास को लेना और छोडना होता है । हम किस प्रकार श्वास के लय को समझेँ ये अभ्यास गुरु के सानिध्य मेँ करना चाहिए; साथ ही यदि हम अभ्यास मेँ बीजमन्त्रोँ का संपुट देँ तो यह घटना क्रान्तिकारी स्वरुप धारण कर लेती है । मस्तिष्क के दिव्य तन्तुओँ मेँ तीव्र विद्युत प्रवाहित होने लगती है और नये विचारोँ और नये तन्तुओँ का स्फुरण होने लगता हैः विश्व नया सा जान पडता है और ऐसी दिव्य देह ही अध्यात्म के विराट ज्ञान को समझ सकती है । ज्ञान को दो भागोँ मेँ बाँटा गया : एक विद्या, दुसरा अविद्या । विद्या वो जो आपको इस जगत से पार ले जाकर सत्य को उपलब्ध करवाएँ । अविद्या वो जो आपको इस जगत का ज्ञान और इस मायारुपी प्रपञ्च मेँ उलझाकर उस प्रपञ्च का सार प्रदान करेँ । किन्तु ज्ञान तो ज्ञान ही है, चाहे वो विद्या हो अथवा अविद्या; दोनोँ की प्राप्ति देह कौशल के बिना संभव नहीँ । किसी भी प्रकार के तप, साधना, मन्त्रजप, हठयोग सब के लिए देह को साधना अत्यंत आवश्यक बताया गया । शास्त्रोँ ने तो यहाँ तक कहा कि मनुष्य देह करोडोँ योनियोँ के पश्चात प्राप्त होती है इसलिए हमेँ इस देह की अमूल्यता को समझना होगा । हम विश्राम, आलस्य और प्रमाद तक ही सीमित न रहे, इस से मानवजाति का अनिष्ट होने की संभावना है क्योँकि मानव जितना कर्मठ कर्मशील, पवित्र और दिव्य होगा उसके भीतर वो परिवर्तन स्थायी होते चले जायेंगे । - ईशपुत्र

मन्त्र क्या है ?

मंत्र का एक साधारण अर्थ होता है जो मन के अंतर मेँ समाहित हो जाए या जो हमारे भीतर समाहित हो वो मंत्र है । ये अत्यंत साधारण परिभाषा है मंत्र की, लेकिन मंत्र का अर्थ बेहद व्यापक और बहुत बडा और गंभीर है लेकिन एक साधारण व्यक्ति को समझने के लिए कि उत्पत्ति पहले कैसे मंत्र की हुई है तो इसके संबंध मेँ आगम-निगम ग्रंथ बताते है...जब ये ब्रह्माण्ड उत्पन्न हुआ इस ब्रह्माण्ड के साथ ही नाद उत्पन्न हुआ, तो जो इस ब्रह्माण्ड का सर्वप्रथम और पहला नाद है वह है ॐकार; और वही ॐकार जब शब्द रुप मेँ इस ब्रह्माण्ड मेँ रहता है तो वही ॐकार हमारे भीतर भी अनहद नाद के रुप मेँ स्थापित होता है । इसी ॐकार से समस्त ब्रह्माण्ड जुडा हुआ है । इसीलिए कहा "शब्द ब्रह्म" अर्थात् शब्द ही ब्रह्म है । इसी शब्द की महिमा का विस्तार भगवान देवाधिदेव महादेव नेँ किया । जब उन्होनेँ आगम-निगम मेँ माँ पार्वती को ये समजाते हुए और ऋषि-मुनियोँ को ये ज्ञान दिया तो ये बताया की यही जो दिव्य ज्ञान है ॐकार नाद का इसके भीतर अन्य बहुत सारे नाद छीपे हुए है यदि आप अपने भीतर के समस्त चक्रोँ को देखेँ अपनी भीतर के अध्यात्म की यात्रा करेँ या फिर आप बहिर्जगत के समस्त इन शोर, गुल, ध्वनि सब तत्वोँ को सुनेँ और उनका वर्गीकरण करेँ तो वो 51 प्रमुख वर्गीकरणोँ मेँ विभक्त हो जाते है । इसलिए योगियोँ ने सहस्त्रार कमलदल अर्थात् मस्तिष्क मेँ 51 बिंदुओँ की स्थापना की और हरेक बिंदु का एक विशेष बीजमन्त्र अर्थात् एक विशेष प्रकार की ध्वनि है । इसी तरह संपूर्ण ब्रह्मांड को यदि आप 51 भागोँ मेँ बाँट दे तो सबका एक विशेष ध्वनि से लेनादेना है और वो ध्वनि एक विशेष प्रकार की उर्जा को प्रभावित करती है इसीलिए ये मंत्र बेहद रहस्यमय हो गये लेकिन मंत्र का जो ये क्षेत्र है इसकी परिभाषा बहुत छोटी सी है । लोग कहते है कि मंत्र का अर्थ है एक ऐसा शब्द जो प्रभाव उत्पन्न कर सके... हाँ लेकिन मंत्र जुडा कैसे है ? मन के भीतर से मन के अंतर से जो उर्जा को बहिर्जगत मेँ लेकर आये, प्रस्फुरित करे या जो मन के द्वारा जो ध्वनि जुडी हुई हो श्रद्धा और भावना सहित वही वास्तव मेँ मंत्र हो जाता है जैसे कि शाबर मंत्र, वैदिक मंत्र, तान्त्रोक्त मंत्र, बीज मंत्र इत्यादि । मंत्र भी स्रीलिंग, पुल्लिंग, नपुँसकलिंग होते है । तो इस तरह से मंत्र का संसार बहुत बडा है । एक आम व्यक्ति ये नहीँ जान पाता कि कौनसा मंत्र शाबर है, कौनसा वेदोक्त, कौनसा तान्त्रोक्त, कौनसा बीजमंत्र तो ये सब गुरु के आश्रय मेँ रहकर सीखे जाने वाले मंत्र है लेकिन मंत्रोँ के इस विशद संसार से घबराने की जरुरत नहीँ है । आपको ये महसूस नहीँ होना चाहिए कि मंत्र केवल किसी पंडित के लिए, किसी महात्मा के लिए, किसी संसार से विरक्त हुए व्यक्ति के लिए बने हुए है । मंत्र आपके मन से जुडे रहते है, यदि आपके मन मेँ श्रद्धा है और यदि आप मंत्र के विज्ञान को समझते है, यदि आपको मंत्र का जो विन्यास है कि ये एक शब्द के बाद दुसरा बीज, दुसरे के बाद तीसरा बीज ये क्योँ जुडा है ? अगर इन रहस्योँ को आप अपने गुरु से सीख लेँ तो एक छोटा सा मंत्र भी आपके जीवन मेँ परिवर्तन लेकर आ सकता है लेकिन प्रश्न आपके मन मेँ पैदा होगा कि मंत्र मेरे जीवन मेँ क्या परिवर्तन ला सकता है ? क्योँकि मंत्र तो एक ध्वनि है, जैसे मैने कहा "राम"...राम तो किसी का नाम भी हो सकता है, मैने कह दिया लक्ष्मण, मैने कह दिया कृष्ण, मैने कह दिया राधा या मैँ कोई भी अन्य नाम लुँ तो सब ध्वनियाँ समान है, सब नाम समान है । तो मंत्र मेरे जीवन मेँ कैसे परिवर्तन लेकर आ सकता है ? तो इसके पीछे कुछ सूक्ष्म सिद्धान्त है जो मंत्र होता है...सुनने को वो केवल साधारण ध्वनि मात्र है लेकिन जब आप उस मंत्र के पीछे एक निहित उर्जा होती है जिसे कहा जाता है दीक्षा । जब आप गुरु से दीक्षा लेते है, मंत्र के भाव को जानते है, मंत्र के उद्देश्य को जानते है, उसके ऋषि और छंद को जानते है तब मंत्र से उत्पन्न होनेवाली तरंगेँ, मंत्र से उत्पन्न होनेवाला वो दिव्य तेज वो आपकी किसी भी इच्छा के साथ जुडकर उसे पूर्णता तक पहुँचा सकता है, क्योँकि सारा ब्रह्माण्ड...पृथ्वी घुम रही है तो पृथ्वी का अपना एक sound है, जितने भी आप चांद, तारेँ आसमान मेँ देखते है सबका अपना-अपना एक sound है । आज तो विज्ञान नेँ भी प्रमाणित कर दिया कि छोटी सी छोटी चीज का भी अपना एक sound होता है, ठीक वैसे ही हमारे ऋषिमुनियोँ ने इस ब्रह्माण्ड के समस्त जो ध्वनिकारक ये तत्त्व है, नाद है उनका अनुसंधान कर के विशिष्ट बीजोँ का चयन किया, वो बीज कुछ भी करने मेँ सामर्थ्यवान है, बस आपको मालूम होना चाहिए उसके पीछे का सही विज्ञान, सही तर्क और सही समर्पण और श्रद्धा का तालमेल...अगर वो हो गया तो मंत्र को आपने जान लिया । वैसे तो सृष्टि की उत्पत्ति से ही मंत्र हमारे बीच मेँ है लेकिन उन्हेँ वर्गीकृत किया महादेव भगवान सदाशिव नेँ । उसी माध्यम से समस्त मंत्र हम तक पहुँचे है और कुछ मंत्रोँ को तराशा है हमारे सिद्धोँ नेँ, ऋषिमुनियोँ नेँ और हिमालय पे निरंतर समाधिस्थ और ध्यानस्थ रहनेवाले "गुरुमण्डल" नेँ । यही मंत्र की साधारण सी परिभाषा है । - ईशपुत्र

कुण्डलिनी महाचन्द्रायणम्

मानव शरीर के भीतर एक विलक्षण चमत्कारी शक्ति छिपी है जैसे मानो हमारे भीतर एक विराट संसार एक विराट उर्जा का पिंड या एक लघु ब्रह्माण्ड छिपा हो । साधक साधनाकाल मेँ जबतक इन प्रत्येक विषयोँ को न जान लेँ तो साधना का सार ही न समझ पाए । ये जो भीतर की शक्ति है इसे कुल कुण्डलिनी शक्ति कहा गया है । कुल कुण्डलिनी का तात्पर्य है एक पूरा समूह । "कुल" कहते है एक लम्बी परंपरा को, तो कुल कुण्डलिनी का तात्पर्य है कि जो भीतर अदृश्य शक्ति विद्यमान है जो भीतर एक अलौकिक सत्ता है उसके सारे प्रारुपोँ को जान लेना कुल कुण्डलिनी को जानना हुआ । कुण्डलिनी का यदि शाब्दिक अर्थ देखा जाए तो इसका अर्थ है कुण्डल के समान विद्यमान कोई शक्ति । कुण्डल मेँ जो "इ" की मात्रा लगी है "ल" के बाद वो इकार शक्ति का प्रतीक है और हमेशा इकार ही अर्थात् "इ" शब्द, "इ" की मात्रा शक्ति का बीज कहलाता है, शक्ति का बोध कराता है । जैसे "शिव" है । "शिव" मेँ से यदि ये छोटी "इ" की मात्रा निकाल दी जाये तो शिव "शव" हो जायेगा । शव का अर्थ है मृतक, मरा हुआ । तो हम शक्ति को समझेँ, हम इकार को समझेँ लेकिन याद रहे ये इकार भी जब तक शव ना हो तब तक निरर्थक है अर्थात् शिव और शक्ति जब तक एकदुसरे से जुडे हुए ना हो तब तक कुछ भी पूर्ण नहीँ । इसीलिए शास्त्रोँ मेँ एक सुंदर शब्द आया है "आत्मरति"...अर्थात् अपने आप मेँ आनंद लेना...और ये आत्मरति जो शब्द है इसका चित्रण अर्धनारीश्वर के रुप मेँ हुआ...कि हम स्वयं ही अपने आप मेँ नर भी है, हम स्वयं ही अपने आप मेँ नारी भी है । हमारे भीतर दोनोँ ही तरह की संभावनाएँ छिपी पडी है लेकिन जब हम इस कुल कुण्डलिनी की बात करते है तो कुल कुण्डलिनी एक ऐसी विशिष्ट उर्जा है जिसे हम चेतना का महाविकास कह सकते है । हमारे भीतर असीम संभावनाएँ विद्यमान है जो कुण्डलिनी के रुप मेँ है । कुण्डलिनी एक विकास की प्रणालि है, एक चेतना का तरीका है, एक उपाय अपने आप को विकसित करने का । लेकिन हम कुण्डलिनी शक्ति के बारे मेँ अधिक नहीँ जानते इसीलिए कुण्डलिनी शक्ति के जागरण के लिए हमने शीर्षक दिया "महाचन्द्रायणम्" । सर्वप्रथम तो ये समझ लेते है कि "चन्द्रायण क्या है ?" यदि हम धर्मग्रंथोँ को टटोले, शास्त्रोँ को टटोले तो उसमेँ एक शब्द आता है "चन्द्रायण व्रत" आखिर क्या है ये चन्द्रायण व्रत ? शास्त्र नेँ कहा कि जहाँ किसी भी मनुष्य से कोई बहुत बडा पातक हो जाए...गौहत्या, ब्राह्मणहत्या, गुरुनिन्दा, परस्त्रीगमन इत्यादि इत्यादि ये सभी महापाप-महापातक कहलाए जिनका कोई प्रायश्चित नहीँ है । यदि इस प्रकार के दोष मानव को लग जाएँ तो इसका एक मात्र निदान है "चन्द्रायण व्रत" । अब ये चन्द्रायण व्रत तीन-चार प्रकार के होते है । एक चन्द्रायण नव दिवस का होता है, एक चन्द्रायण अठ्ठाईस दिन या उनत्तीस दिन अर्थात् चन्द्रमा की दो कलाओँ के बराबर का होता है, एक चन्द्रायण दो अयनोँ का होता है अर्थात् उत्तरायण और दक्षिणायन अर्थात् एक वर्ष का एक चन्द्रायण ! तो जो "महाचन्द्रायण" हम शीर्षक दे रहे है तो इसका तात्पर्य है कि हमेँ न जानेँ कितने पापोँ का प्रायश्चित करना है क्योँकि जब हमेँ ये मालूम हो की एक गौहत्या, ब्राह्मण की निन्दा अथवा गुरुनिन्दा करने से ही हमेँ भयानक पाप लग गया है तो उससे यथाशीघ्र मुक्ति हेतु हमेँ चन्द्रायण करना होगा लेकिन हम स्वयं मेँ ये नहीँ जानते कि हमने जन्मोँ जन्मोँ से कितने पाप किये है ! हमनेँ क्या क्या कलुष भीतर भर रखे है ! हम पूर्णतः आप्लावित है जन्मोँ जन्मोँ के दूषित संस्कारोँ से ! हम ऐसे घडे है ऐसे कलश है जो हलाहल विष से, कालकूट विष से भरे हुए है ! लेकिन तथापि ये ज्ञान होने के पश्चात भी हम अपने आप को बहुत उज्जवल मानते है, बहुत निखरा हुआ मानते है...इसका कारण है वो कुण्डलिनी शक्ति, वो अन्तश्चेतना, वो महाविराट शक्ति ! क्योँकि वो स्वभाव से पवित्र है, स्वभाव से दिव्य है, स्वभाव से चैतन्य है ! लेकिन जन्मोँ जन्मोँ के पापोँ से दबी हुई होने के कारण अपने आप को नहीँ जानती ! इसलिए हमेँ जन्म जन्म के पापोँ को जिस प्रणाली से नष्ट करना है अथवा जिस माध्यम से जन्म जन्मोँ की सोई इस कुण्डलिनी को जगाना है उसके लिए जो प्रायश्चित करना होगा या उसके लिए जो विधि अपनानी होगी वो है महाचन्द्रायणम् ।
यदि एक वर्ष सिर्फ एक पाप को नष्ट करने के लिए लग जाते है तो न जानेँ इस कुल कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करने के लिए हमेँ कितना समय लग जाये ! लेकिन ये तो एक गौरव का विषय है, ये तो एक आनंद का विषय है कि बहुत कम साधक इस क्षेत्र की ओर मुड पाते है...और जो मुडा उसने निश्चित ही बहुत कुछ प्राप्त किया है, वो निश्चित ही गौरवान्वित हुआ है उसने अवश्य ही अपने वास्तविक मार्ग को खोज लिया । अत्यंत उर्जामय, अत्यंत विराट, अत्यंत सूक्ष्म ये शक्ति है कुण्डलिनी शक्ति ! योग कहता है, तंत्र कहता है कि हमारे भीतर बहुत गहरे मेँ, बहुत सूक्ष्म मेँ ये शक्ति छीपी है लेकिन हम मेँ से बहुत लोग ये कल्पना करते है कि ये कुण्डलिनी शक्ति हमारे शरीर मेँ विद्यमान है ! जब कि ऐसा नहीँ है...कुण्डलिनी शक्ति हमारे इस शरीर मेँ नहीँ...वो तो सूक्ष्म शरीर मेँ है । यदि आप इस शरीर का विच्छेदन करते है, इसे चीरते-फाडते है और कुण्डलिनी चक्रोँ को देखना चाहेँ तो वे नहीँ मिलेँगे ! हाँ, उनके स्थान इस देह मेँ अवश्य है.. जैसे आज्ञा चक्र, सहस्त्रहार कमलदल, विशुद्ध चक्र, मणिपुर, मूलाधार इत्यादि ! लेकिन वास्तव मेँ इनकी क्रियान्वित होनेवाली शक्ति सूक्ष्म शरीर मेँ विद्यमान है !
योग कहता है कि हम पञ्चकोशयुक्त जीवन जीते है ! पाँच कोशोँ के परिणाम स्वरुप ये मानवजीवन हमेँ प्राप्त हुआ है : अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश, अनंदमय कोश । जो ये हमारा शरीर हमेँ नजर आ रहा है ये अन्नमय कोश है क्योँकि इसका भरण अन्न के द्वारा होता है, भोजन के द्वारा होता है अतः ये अन्नमय कोश हुआ । तदन्तर प्राणमय कोश...जिसके माध्यम से ये देह जीवित है, इस देह के पीछे जो पर्दा है उस पर्दे के पीछे जो वास्तविक स्थिति है वो प्राण है ! उन प्राणोँ का प्राणवायु के साथ भी संबंध है । वास्तव मेँ इस प्राण को खिँचनेवाला और इसे छोडनेवाला जो कारण शरीर भीतर विद्यमान है वो प्राणमय कोश हुआ । मनोमय कोश अन्नमय शरीर को भी और प्राणमय शरीर को भी सर्वदा सर्वदा गतिशील रखनेवाला एक "तत्त्व" है ! जो मस्तिष्क नहीँ, जो विचार नहीँ...एक स्वतंत्र शक्तिरुपी सत्ता है ! ये देह रहे अथवा न रहे तो भी मन विद्यमान रहता ही है ! और उसी मन मेँ...हमारी सारी याददास्त जैसे मस्तिष्क मेँ भण्डारित रहती है वैसे ही उस देह मेँ भी विद्यमान रहती है ! इसीलिए जो भी व्यक्ति पुनर्जन्म लेता है, उसका मस्तिष्क तो नष्ट हो गया ! तो उसे पूर्व जन्म की स्मृति कैसे रहेगी ! उसका आधार है मनोमय शरीर ! चौथा शरीर है विज्ञानमय शरीर...इसी शरीर के भीतर एक अलौकिक शरीर विद्यमान है जिसका कोई आकार नहीँ, जिसका कोई प्रकार नहीँ ! वो शरीर किसी भी रुप मेँ ढल सकता है, किसी भी पदार्थ मेँ परिवर्तित हो सकता है, किसी भी सत्ता को अपने भीतर अनुभव कर सकता है ! तो वो जो अलौकिक शरीर है उसे "विज्ञानमय" इसीलिए कहा गया, क्योँकि उस शरीर मेँ जब योगीपुरुष अथवा साधक की गति होती है तो वो विज्ञान का अतिक्रमण कर जाता है ! इस सृष्टि का प्रत्येक विज्ञान उसके लिए सुलभ हो जाता है ! वो जगत को जान जाता है ! वो सब कुछ जान जाता है ! कि ये प्रपञ्च आखिर चल क्युँ रहा है ! आखिर मेँ जी क्युँ रहा हुँ ! आखिर मेँ भोजन क्युँ कर रहा हुँ ! मैँ नृत्य क्युँ करता हुँ ! मैँ संगीत मेँ क्युँ बन्धा हुआ हुँ !...और यही असलियत है ! यही हकिकत है ! यही सत्यता है !...तो विज्ञनमय शरीर चौथा शरीर है ! और इस शरीर के बाद पञ्चम शरीर आनंदमय शरीर है ! जो कि वास्तविक स्थिति है हमारे शरीर की ! तो ये पंचकोश एकसाथ हमारे भीतर है लेकिन हम इनसे अपरिचित है ! ठीक इसी प्रकार सातोँ लोक हमारे ही भीतर है : भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, सत्यम् ! हमारे शरीर के भीतर, हमारे देह के भीतर अलौकिकता ही अलौकिकता है !

हमारे ही इस शरीर के भीतर कुल कुण्डलिनी है जिसे तन्त्रशास्त्र नेँ कमलदल के रुप मेँ चित्रित किया है और एक एक चक्र हमारे ही शरीर मेँ क्रमशः है । मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपुर चक्र, अनाहत चक्र, विशुद्ध चक्र, आज्ञा चक्र और सहस्त्रहार कमलदल अथवा सहस्त्रहार चक्र ये सातोँ के सातोँ चक्र हमारे ही शरीर के भीतर विद्यमान है । इसी प्रकार शरीर मेँ ये जो चक्र हमेँ नजर आ रहे है ये कमल के रुप मेँ नहीँ है, ये तो प्रतीकात्मक स्वरुप है इनका ! और साधक को इस संपूर्ण कुल कुण्डलिनी को भली प्रकार समझना होता है । यही कुल कुण्डलिनी योग का मूल है और जब तक हमेँ इस कुण्डलिनी शक्ति का ज्ञान न हो तब तक हमारे समस्त योगासन, प्राणायाम, मंत्र, ध्यान इत्यादि की क्रियाएँ व्यर्थ है । इसी कुल कुण्डलिनी शक्ति को मूलाधार से जागृत किया जाता है । हमारे इस मूलाधार मेँ एक दिव्य, अदृश्य सुप्त पडी शक्ति विद्यमान है । योग, साधना, तप के माध्यम से इस शक्ति को जागृत किया जाता है और धीरे धीरे मूलाधार चक्र से ये शक्ति उपर की ओर बढती चली जाती है, मूलाधार-स्वाधिष्ठान-मणिपुर-अनाहत-विशुद्ध-आज्ञा-सहस्त्रार कमलदल तक । और ज्युँ ही ये दिव्य शक्ति सहस्त्रहार कमलदल तक पहुँचती है वैसे ही योगी को महासमाधि का ज्ञान प्राप्त होता है । वो दिव्य होकर उस परम परमात्मा से साक्षात्कार कर लेता है । तब वह जीवन और मृत्यु के चक्र से मुक्त होकर परम शाश्वत सत्य की प्राप्ति करता है । वो दिव्य हो उठता है, वो चैतन्य हो उठता है, वो अलौकिक हो जाता है । यही कुण्डलिनी शक्ति हमारे जीवन का मूल है । कुण्डलिनी शक्ति ही हमेँ उर्जा देती है । कुण्डलिनी शक्ति ही हमेँ निरंतर जीवन जीने के लिए प्रेरित करती है और यही कुण्डलिनी शक्ति कोई अलग सत्ता नहीँ, हमारा ही स्वरुप, हमारी ही शक्ति है । हम अपनी ही शक्तियोँ से अनभिज्ञ है । हम अपने आप को ही नहीँ जानते, अतः योग नेँ कहा कि तुम मार्ग की खोज करना, तुम शोध करना, तभी तुम इस दिव्य शक्ति के विषय मेँ कुछ जान सकोगे और जब तक हम महाचन्द्रायण जैसे व्रत न करेँ, (व्रत का अर्थ है : दृढ संकल्प) जब तक हम इस कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करने का महाचन्द्रायण न कर ले तब तक ये शक्ति जागृत न हो सकेगी इसलिए दृढ विश्वास के साथ, योग्य गुरु के सानिध्य मेँ इस महाचन्द्रायण को करना चाहिए । अपनी सुषुप्त पडी इस महाउर्जा को जागृत करना होगा और इसके लिए हमेँ निरंतर प्रयास करने होँगे । धीरे धीरे जब हम इसके एक एक चरण को समजते है तो हम इस कुण्डलिनी शक्ति को जानना शुरु करते है ।
जिस प्रकार एक अणु के भीतर एक विराट शक्ति विद्यमान है ठीक उसी प्रकार हमारे भीतर भी एक दिव्य शक्ति विद्यमान है और इसी दिव्य शक्ति नेँ पञ्च तत्त्वोँ को समेटकर इस देह का संबंध बनाया है, इस देह को पूर्णतया निर्मित किया है ।
पृथ्वी, जल, वायु, गगन, समीर, महातत्व न जानेँ कितनी वस्तुओँ से, कितनी दिव्य शक्तिओँ से ये देह बनी हुई है और ये सारे के सारे तत्व हमारे ही भीतर विद्यमान है । सातोँ के सातोँ लोक हमारे ही भीतर विद्यमान है । हमारे भीतर अपार संभावनाएँ है । मनुष्य-मानव ही वो है, ऐसा जीव है जो अनंत विकसित हो सकता है, जो अनंत गुणित हो सकता है, जो पारब्रह्म को प्राप्त कर सकता है, जो अपने आप को अतीन्द्रिय कर सकता है क्योँकि उसके भीतर ये महाशक्ति विद्यमान है...तो साधक इसकी खोज करे, साधक इसे जानेँ और इसको जागृत करनेँ का प्रयास करे...हालाँकि जागृत बहुत कम लोगोँ की होती है, बहुत कम साधक ही इसे जागृत कर पाते है, लेकिन हमेँ हिम्मत नहीँ हारनी है, हमेँ तो प्रारम्भ करना है, हमेँ तो बस मार्ग पर चलना है, जो भी मार्ग पर चलेगा वो अवश्य ही कुछ न कुछ पायेगा जरुर ! - ईशपुत्र

मनुष्यता - मानव की परम आवश्यकता


मानव का शरीर धारण कर लेनेँ मात्र से कोई मनुष्य नहीँ हो जाता । मनुष्य जीवन मेँ कुछ ऐसे तत्त्व है जिनके कारण वो मनुष्य "मनुष्य" कहलाता है । इन सभी तत्त्वोँ मेँ जिन्हे हम भाव कहते है या गुण कहते है इन सभी गुणोँ मेँ सबसे प्रधान गुण कौनसा है ? वो है प्रेम और वो है साधना । ईश्वर के पथ पर बढनेवाला हर एक साधक भिन्न भिन्न प्रकार की प्रणालिओँ पर चलता है । हठयोग, राजयोग, लययोक अर्थात् योग के अनेकोँ प्रकार; अनेकोँ प्रकार के मन्त्र; अनेकोँ प्रकार के धर्म; अनेकोँ प्रकार के सम्प्रदाय आदि आदि लेकिन यदि मनुष्य के भीतर मनुष्यता ही नहीँ होगी तो फिर चाहे तुम कुछ भी कर लो सबकुछ निरर्थक और व्यर्थ है । केवल मात्र मनुष्य होना ही अपने आप मेँ सर्वोच्च गुण है और मनुष्य बडा न तो पद-प्रतिष्ठा से होता है ना ही मान-सम्मान से । उसकी साधना ही सब कुछ है लेकिन उस साधना के पीछे उसके जीवन के पीछे जो तत्त्व प्रमुख है वो प्रेम है । जिसने इस प्रेम को समझ लिया वो अपने जीवन से प्रेम करने लग जाता है । साधना पथ बडा विचित्र है, बडा अद्भुत है । हिमालय पर रहनेवालेँ सिद्धोँ ने, हम योगियोँ नेँ और हमसे पूर्व इस स्थान पर रहे ऋषि-मुनियोँ नेँ इस प्रेम को जाना, इसकी अद्भुत गति को जाना, और उन्होने सर्वप्रथम मानव होने के लिए कुछ सूत्र दिए; ये सूत्र बडे ही विचित्र सूत्र थे । इनमेँ कुछ विशेष सूत्र थे वो प्रेम, दया, ममता, करुणा, स्नेह, भ्रातृत्व इस प्रकार के जो मानवोचित गुण है उन्हेँ ही धर्म मेँ सर्वश्रेष्ठ और सर्वोपरी माना गया । मनुष्य इस विराट सृष्टि मेँ जीवित रहता है, लेकिन जब तक मनुष्य छोटे संप्रदाय मेँ या छोटे से गाँव के रुप मेँ या दो-चार घरोँ के रुप मेँ, परिवारोँ के रुप मेँ रहता है तब वो कम लडता-झगडता है, तब वो कम अपराध करता है; लेकिन जैसे जैसे उसके चारोँ तरफ धन, तथाकथित माया और समाजिकता का अंबार लगना शुरु होता है और लोगोँ की भीड आनी शुरु होती है तो जैसे ही उस व्यक्तिविशेष के पीछे भीड आ जायेँ उसके भीतर पैशाचिक वृत्तियाँ जागने लगती है । मनुष्य को पुण्यभाव और पिशाचभाव दोनोँ के दोनोँ प्रभावित करते है और इन दोनोँ से ही मनुष्य अपने अस्तित्व को जानता है लेकिन मूल क्या है ? वास्तव मेँ मनुष्यता है क्या ? ना तो पैशाचिक भाव और ना ही पुण्य भाव; लेकिन मनुष्य होना, उसका प्रेम, दया, करुणा से आप्लावित ह्रदय होना वो उसकी सहज वृत्ति होनी चाहिए । एक तो है कि आपनेँ मुझसे सुन लिया, किसी गुरु से सुन लिया कि प्रेम करना चाहिए-भाई को भाई से और सदा स्नेहमय अनुशासित जीवन जीना चाहिए वो एक अलग बात है लेकिन जब इन्हीँ तत्त्वोँ को भीतर से अनुभव करके कोई मनुष्य अपनी स्थिति पर दृढ रहता है तो उसका जीवन देवताओँ के जीवन जैसा उच्चकोटि का जीवन हो जाता है । प्रेम शब्द बहुत छोटा है, करुणा , दया, ममता ये सारे शब्द बहुत छोटे है लेकिन मनुष्य केवल वही है जो इन कर्मोँ पर चल सके । मनुष्य के भीतर का पिशाच, उसके भीतर की कुत्सित वृत्तियाँ उसे बार बार जागृत करती है उद्वैलित करती है मनुष्य का मन सदा केवल अपने हित और अपने स्वार्थ तक ही सीमित रहता है लेकिन इसी कारण वो देवत्व नहीँ प्राप्त कर पाता । देवत्व का मार्ग, मुक्ति का मार्ग, आत्मज्ञान का मार्ग, आत्मकल्याण का मार्ग केवल उन कुछ बिन्दुओँ से होकर जाता है यदि तुम समाज मेँ रहकर उन कुछ चुनिन्दा बिन्दुओँ पर अपने आप को खरा साबित कर सको और अपने आप को मनुष्यत्व के स्तर पर लाकर खडा कर सको तो फिर समस्त ऋषि-मुनि, हमारे जैसे समस्त सिद्ध और गन्धर्व प्रतिपल तुम्हे शुभ आशिष देते है । ईश्वर कर्मप्रधान सृष्टि की रचना करते है लेकिन इस कर्मप्रधान सृष्टि मेँ उस व्यक्ति का कर्म सर्वोच्च हो जाता है जो अपनेँ हितोँ को छोडकर परहित मेँ लग जाता है । ये तथ्य और ये छोटी-छोटी बातेँ मुझसे पूर्व भी अनेँको बार धर्मगुरुओँ नेँ , बडे बडे आचार्योँ नेँ, ऋषि-मुनियोँ ने, सिद्धोँ ने कही है लेकिन हम इसे साधारण बात सोचकर या इसे सुनकर इसे भूल जाते है और यही हमारी सबसे बडी गलती होती है । मनुष्य तो बहोत विराट है लेकिन उसकी विराटता इतने छोटे-छोटे बिन्दुओँ पर टीकी हुई है जिससे उसके अस्तित्व मेँ देवत्व कहेलाते है । अध्यात्म की शुरुआत कहाँ से होगी तुम्हारे जीवन मेँ ? सीधे गुरु के पास चले जाने से अध्यात्म नहीँ आता ! गुरु से दीक्षा या मन्त्र ग्रहण करने से अध्यात्म नहीँ आता ! किसी देवी-देवता की प्रतिमा बनाकर पूजा करने से भी अध्यात्म नहीँ आता ! अध्यात्म बडी ही सूक्ष्म और गौण विधा है, वो इतनी सूक्ष्म है कि उसको जाननेँ के लिए तुम्हेँ पहले "मनुष्य" होना होता है और मनुष्यता के लिए तुम्हारे भीतर कुछ पवित्र गुण चाहिए...उन्हीँ मेँ ये प्रेम, दया, ममता, स्नेह, भ्रातृत्व इत्यादि गुण आते है । ये तो मैँ कुछ चंद गुणोँ की व्याख्या कर रहा हुँ । एक आत्मानुशासित भाई जब दुसरे भाई की सहायता करता है तो अध्यात्म का बीज उसके भीतर स्वतः अंकुरित होने लगता है । जब एक भाई घर बना रहा होँ और दुसरा भाई उसकी सहायता करे तो वो उसका विकास है । जब कोई भी व्यक्ति सामर्थ्य से अधिक अन्न अथवा धन एकत्रित कर लेँ और यदि वो उस अपने अन्न अथवा धन मेँ से कुछ हिस्सा अपने किसी दुसरे भाई को दे, अपने किसी सहयोगी या दुसरे मनुष्य को अथवा दुसरे प्राणी के हित के लिए लगाएँ वो उसका सबसे बडा गुण होता है । अध्यात्म उस दिन शुरु समझना जिस दिन तुमने इन गुणोँ को समज लिया और जब तक इन गुणोँ को नहीँ समजा तब तक न तो कोई देवी-देवता, तब तक न तो कोई मनुष्य, तब तक कोई भी तुम्हारी सहायता नहीँ कर पाएगा । तुम भले ही लाख यत्न करो, तुम भले ही अनेकोँ अनेक प्रयास करो लेकिन तुम्हारे समस्त प्रयास धीरे धीरे व्यर्थ हो जायेंगे । मन्त्र नहीँ फलते फुलते, ईश्वर की अनुकंपा अनुभव ही नहीँ होती इसके पीछे क्या कारण है ? इसके पीछे केवल इतना कारण है कि सभी योनियोँ से श्रेष्ठ मनुष्य की योनि को कहा गया लेकिन हमनेँ मनुष्य का शरीर तो धारण कर लिया लेकिन उसकी भीतर की जो वास्तविकता है, उसके जो गुण है उनको हमनेँ नहीँ माना । जो व्यक्ति सत्य के राह पर चलता है. जो सत्य पर दृढ रहता है, पाप आचरण से बचता है और पवित्रता सदा धारण करता है ऐसे व्यक्ति के पास आत्मज्ञान स्वतः चलकर आता है, वो भीतर से सहज ही दिव्य प्राप्तियाँ प्राप्त करने लगता है लेकिन हमारे अंदर जब तक नकारात्मक तत्व, पैशाचिक वृत्तियाँ, अभिमान, क्रोध, अत्यंत वासना इस तरह की पैशाचिक वृत्तियाँ कि दुसरोँ के पास जो है उसको भी हम छीन लाएँ, दुसरे को जो दिया है वो भी हम खा लेँ, हम केवल अपना ही अपना देखेँ और इसके अतिरिक्त सृष्टि के विनाश के लिए हम तत्पर रहे ये पैशाचिक वृत्तियाँ ही मनुष्य को महापातकी बना देती है और मनुष्य का ये स्वभाव बडा ही निन्दनीय है, बडा ही निकृष्ट है इसीलिए अध्यात्म के सभी दिव्य रास्ते, दिव्य मार्ग वो आम मनुष्योँ के लिए बन्द हो गए और ये दुःख की बात है ।
ऐसे मेँ साधक अब क्या कर सकता है ? वो कैसे सोचेगा ? और कैसे अध्यात्म की बुद्धि को प्राप्त करेगा ? कैसे अध्यात्म के मार्ग पर आगे बढेगा ? केवल यदि वो इस बात को समझ लेँ कि सबसे पहले मनुष्य होना जरुरी है और मनुष्य होने के लिए कुछ अच्छे गुणोँ का होना जरुरी है, जिन गुणोँ को "धर्म" के साथ जोडा गया तो वही अध्यात्म के लिए बीज का निर्माण करते है । एक ऐसी मृदा का निर्माण करते है जिस पर फिर कोई भी अध्यात्म फल फुल सकेगा । कोई भी धर्म ऐसा नहीँ होता और ना ही हो सकता है जो एक मनुष्य दुसरे मनुष्य की हत्या के लिए कहे, जहाँ एक मनुष्य दुसरे मनुष्य को दास बनाकर रखेँ । अध्यात्म तो बिलकुल अद्भुत है । ईश्वर तब मनुष्य से स्वयं बात करते है जब उसके भीतर ऐसे गुण होते है कि वो इस पृथ्वी जिसका वो अन्न खा रहा है इसका सम्मान करता हो ! इसे अपवित्र न करता हो ! मनुष्य जिस नदी का पानी पीता हो उस नदी की माँ के समान रक्षा करता हो तो ईश्वर उससे प्रसन्न रहते है । प्रकृति से केवल तुम्हेँ उतना लेना चाहिए जितनी तुम्हारी अति आवश्यकता हो, उसके अतिरिक्त प्रकृति मेँ ही बाकी तत्त्वोँ को रहने देना चाहिए । प्रकृति का अत्यंत दोहन पापाचार ही है और असत्य कथन सबसे बडा पापाचार है और आज तो असत्य का ऐसा बोलबाला है कि हरेक व्यक्ति असत्य से नहीँ सकुचाता । उसे लगता है कि असत्य उसकी जरुरत हो गई है । यही कारण है कि "अध्यात्म" उनको प्राप्त ही नहीँ हो पाता । वो प्रयास करते है, वो लगातार सोचते है लेकिन सोचने से क्या होनेवाला ! आज अध्यात्म को फिर से तलाशने की आवश्यकता है और उसके लिए तुम्हेँ अपने गुणोँ को तलाशना होगा । तुम भले ही योग के मार्ग पर जाओ, तुम भले ही तन्त्र के मार्ग पर जाओ, तुम भले ही किसी भी धर्म अथवा भक्ति मार्ग पर चले जाओ लेकिन जब तक तुम्हारे भीतर ये गुण नहीँ होँगे तब तक तो सब व्यर्थ है । हिमालय पर भी सिद्ध, गन्धर्व इत्यादि, साधक इत्यादि लम्बे समय तक बीहडोँ मेँ क्योँ रहते है ? ताकि वो अपने अस्तित्त्व को भूला सके ! और वो वर्षोँ अकेले मेँ रहते है ! जहाँ अपने सिवा किसी मनुष्य को नहीँ पाते ! और जब वो पूरी तरह से ह्रदय से रिक्त हो जाते है उस स्थिति मेँ वो अपने दिव्य गुरु के पास जाते है और केवल उन्हीँ के पास कुछ वर्षोँ रहते है ! उससे क्या होता है ? उनके भीतर का जो अपनत्व है वो धीरे धीरे नष्ट होने लगता है साधना, अभ्यास के द्वारा एकांत मेँ ! और फिर वो दिव्य गुरु जिनके अंदर अच्छे गुण होँ, दिव्य गुण होँ, प्रेम होँ, करुणा होँ और अहिंसा के मार्ग पर चलनेवाले होँ ऐसे दिव्य गुण जो गुरु धारण किये है उनके पास जब साधक जाकर बैठता है तो वही गुण साधक के भीतर आने लगते है ! और शिष्य धीरे धीरे उसी साँचे मेँ ढल जाता है ! आज यदि धर्म की मौलिक बातोँ को, मूल बिंदुओँ को मनुष्य नेँ और समस्त संसार के मनुष्योँ नेँ माना होता तो आज प्राणी इस तरह से त्राहि त्राहि नहीँ कर रहे होते ! आज ये धरती, ये पृथ्वी हाहाकार नहीँ कर रही होती ! आज ये पृथ्वी अपने ही अस्तित्व पर शंकित सी लगती है ! आज ये पृथ्वी जो जीवनदायिनी है ये भी उदास सी लगती है ! क्योँकि मनुष्योँ के स्वार्थ नेँ इसे भी प्रभावित किया है ! इसलिए अध्यात्म से हम कोसोँ दूर होते चले गये ! इसलिए हम धर्म से दूर होते चले गये ! अब धर्म बिलकुल अलग है । पहले धर्म एकांकी था, निजी था । आज धर्म समूहोँ का है, संगठनोँ का है । ये कैसा धर्म ? क्या वास्तव मेँ तुम इस धर्म से कुछ पा लोगे ? आज तुम बडे-बडे संगठनोँ के रुप मेँ धर्म को मानते हो लेकिन ज्युँ ही उस संगठन की विचारधारा से बाहर आते हो त्युँ ही तुम इतने पैशाचिक होते हो कि भले ही तुम बडे से बडे धार्मिक गुरु के शिष्य हो, बडे से बडे धार्मिक संगठन से जुडे हुए हो लेकिन तुम्हारी जीवनशैली इतनी पैशाचिक है कि कोई दुसरा व्यक्ति तुम्हे देख ले तो तुमसे बात तक न करना चाहे । तो फिर काहे की आध्यात्मिकता तुम्हारे भीतर ? आध्यात्मिकता सामूहिक नहीँ होती, वो निजी होती है । ऐसे हिमालयोँ मेँ, ऐसे बिहडोँ मेँ जहाँ से उपर अब कोई दुसरा पर्वत नहीँ, पृथ्वी के सबसे उँचे स्थल पर इस समय मेँ हुँ । इससे उपर उँचाईवाला कोई दुसरा स्थल नहीँ । लेकिन यहाँ पर भी मेँ धर्म को अनुभव कर सकता हुँ । यदि यहाँ पथ्थर है, तो जितने पथ्थरोँ की मुझे आवश्यकता होगी उनका मेँ प्रयोग कर सकता हुँ लेकिन सभी पथ्थरोँ को मैँ अपने साथ समेटने का प्रयास नहीँ करुँगा । ये धर्म की धारणा है । यदि मेरे कमंडल मेँ एक फल होगा या एक सुखा फल का टुकडा होगा तो मेरे पास यदि कोई दुसरा भाई है तो मैँ उस फल के टुकडे को आधा बाँटकर दुँगा । ये जो छोटे से विचार है, याद रहे यही वास्तव मेँ "धर्म" के मौलिक सिद्धांत है क्योँकि ये हमेँ "मनुष्य" होना सीखाते है । जब हम दुसरे को सम्मान देते है, दुसरे को मान देते है, दुसरे को प्रेम देते है तो हम दुसरे को कुछ नहीँ दे रहे अपितु अपनी भावभूमि निर्मित कर रहे है । दुसरे निंदा करते है, दुसरे न जाने कैसे कैसे प्रपंच और षड्यंत्र रचते है लेकिन तुम उनसे दुर रहो, उन्हेँ छोड दो । ईश्वर नेँ केवल ऐसे लोगोँ को अपने पास बिठाया, अपने सीने से लगाया जो समाज मेँ अनेक मुर्खोँ के द्वारा, पैशाचिक वृत्तियोँ के जो मनुष्य है उनके द्वारा यदि प्रताडित किये जाते है; तब भी यदि वो शान्त बने रहते है और ईश्वर को पुकारते रहते है तो ईश्वर उनको अपनी ओर अवश्य बुलाते है ! लेकिन ये इतना सहज और सरल नहीँ है ! व्यक्ति साधना के लिए सब कुछ करता है । वो मंदिर बनाता है परमेश्वर के नाम पर, लेकिन मैने कहा कि, ईश्वर के लिए मंदिरोँ की आवश्यकता नहीँ होती; वो है तो उत्तम है, उनकी निंदा नहीँ, उनकी बुराई नहीँ लेकिन समाज की जो पैशाचिक वृत्तियाँ है यदि वो तुम्हेँ प्रताडित करती है तो तुम उनका सत्यमय तरीके से जहाँ तक संभव हो उनका प्रत्युत्तर दो लेकिन पैशाचिक वृत्तियाँ संगठित होकर तुम पर टूट पडेगी । जब तुम अध्यात्म के मार्ग पर चलने लगोगे, सत्य के मार्ग पर चलने लगोगे तो तुम्हारे अपने भी तुम्हारा साथ छोड देते है ! लेकिन यदि तुम्हेँ दिव्यता धारण करनी है, यदि तुम्हेँ मनुष्यता के वास्तविक धरातल को प्राप्त करना है तो तुम्हेँ ऐसी स्थिति तक पहुँचना ही होगा । तुम चाहे बहुत बडे साधक बनना चाहो, चाहे तुम धर्म के छोटे से पथिक या अनुयायी बनना चाहो, जब तक तुम पापाचार मेँ लिप्त हो तब तक धर्म का कोई भी कर्मकांड, कोई भी माला, कौई भी मंत्रजाप, कोई भी मंदिर या मस्जिद तुम्हेँ पवित्र नहीँ कर सकती; कोई भी स्थल तुम्हारा उद्धार नहीँ कर सकता । जब तुम पाप को समझ लेते हो और उस से किनारा करने लेगते हो तभी वो अलौकिक शक्ति तुम्हेँ स्वीकारती है और जब तक धर्म के नाम पर तुम स्वार्थी रहते हो, चाहते हो कि ईश्वर तुम्हारा व्यापार चलाना शुरु कर दे, ईश्वर तुम्हारे रोगोँ को दूर करना शुरु कर देँ, ईश्वर तुम्हेँ बहुत सी धन-संपत्ति इत्यादि तुम्हेँ प्रदान करे तब तक सब कुछ गलत हो रहा है । हो सकता है ईश्वर दयालु है, कृपानिधान है, अपनी शक्तियोँ के माध्यम से तुम्हेँ वो सब प्रदान कर देँ लेकिन उस सब से क्या हो जायेगा ? कंकड-पथ्थर जोडकर क्या कर लोगे ? तुम्हारा जीवन ही नष्ट हो जायेगा ! ईश्वर नेँ तुम्हारे लिए समस्त व्यवस्थाएँ की है लेकिन तुम उनको देख नहीँ पाते हो । इसलिए ईश्वर के नाम पर ईश्वर की शक्तियोँ के नाम पर यदि तुम्हेँ कुछ दिया जाता है वो बडा ही गलत है । ईश्वर के नाम पर यदि तुम्हे कुछ दिया जाना चाहिए तो वो प्रेम है, वो ऐसे सद्गुण है, यदि उन सद्गुणो को तुम अपना लेते हो तो वास्तव मेँ तुम "ईश्वर के पुत्र" होते हो ! क्या तुम सब से समान रुप से प्रेम कर पाते हो ? क्या तुम सब को सम्मान दे पाते हो ? यदि हाँ तो उत्तम है और यदि नहीँ तो अब तुम्हेँ पुनः एक बार सोचना होगा क्योँकि यदि तुम्हारा उत्तर नकार है तो तुम्हारे जीवन मेँ बहुत सी मुश्किलेँ है, तुम सही रास्ते पर नहीँ हो । यदि तुम इस सृष्टि से केवल लेते हो और देना नहीँ जानते तो भी तुम गलत रास्ते पर हो । यदि तुम केवल ऐसे गुरु, ऐसे धर्मपथ पर विश्वास करते हो जो केवल तुम्हारे दु:ख-दर्द मिटानेवाला हो और तुम्हेँ अध्यात्म के वास्तविक मार्ग की ओर इंगित ही नहीँ करता, ले ही नहीँ जाता तो भी समझना कि फिर तुम किसी भ्रम मेँ पड चूके हो अब फिर तुम मनुष्यता की ओर नहीँ । क्या मनुष्य इतना स्वार्थी हो सकता है कि वो केवल अपना व्यापार देखेँ ? अपना परिवार देखेँ और अपने पुत्रोँ का और पुत्रियोँ का सुख देखेँ ? नहीँ ! ये तो पैशाचिक और जीवोँ जैसी वृत्तियाँ है । "मनुष्य" तो वो है कि अगर अपने पुत्र-पुत्री दुःखी है और दुसरे पडोशी के भी तो पहली प्रार्थना पडोशी के पुत्रोँ और पुत्रियोँ के लिए होनी चाहिए ! यदि ये संभव है तो जीवन उच्चकोटि का होगा, तब तुम मनुष्य हो ! और यदि तुम्हारे अंदर ये मानवीय गुण है, तुम देश के लिए, राष्ट्र के लिए, विश्व के लिए सोचते हो तो इससे उत्तम और क्या हो सकता है ! तब सब कुछ तुम्हेँ सहज ही प्राप्त होने लगेगा ! और उस दिन एक "सिद्ध गुरु" तुम्हारे जीवन को बदल सकता है ! उस दिन परमात्मा का प्रकाश स्वतः तुम्हारी ओर आने लगेगा । तब किसी की सहायता की आवश्यकता नहीँ होगी । तब छोटी-छोटी चीजोँ के लिए तुम्हेँ परमेश्वर से प्रार्थना नहीँ करनी होगी । इसलिए प्राचीनकाल मेँ हमारे पूर्वज जो भी कुछ प्राप्त करते थे उसमेँ से कुछ हिस्सा ईश्वर के नाम पर रख देते थे और उसे समाज मेँ बाँटते थे । मैँ चाहुँ तो कथा और प्रसंग यहाँ भी दे सकता हुँ लेकिन मैँ नहीँ दुँगा क्योँकि तुम साधक हो, खोज लो स्वयं ।
मैँ केवल ये बताना चाहता हुँ कि ये जो प्राचीन काल से इस धर्म के नाम पर कुछ सद्गुणोँ की बात की जाती रही है उनको जानना और अपनाना बडा ही जरुरी है, यदि तुम उन पर आचरण करते हो, तुम उनको ग्रहण करते हो तो तुम्हारा जीवन वास्तव मेँ एक ऐसी स्थिति पर पहुँच जाएगा जहाँ प्रकाशित होना बडा ही सहज है, बडा ही सरल और आसान है लेकिन दु:ख की बात ये है कि तुम साधना भी कर रहे हो, ईश्वर के नाम पर बडे-बडे मन्दिर, आश्रम और भी न जाने क्या-क्या चीजोँ का निर्माण कर रहे हो; विशाल प्रतिमाएँ, विशाल यज्ञोँ का आयोजन, विशाल पूजन और विशाल जागरण इत्यादि और भी न जानेँ परमेश्वर को बुलाने के लिए, ईश्वरीय शक्तियोँ को प्रसन्न करने के लिए क्या-क्या प्रपञ्च कर रहे हो ! तुम्हारे ये सभी प्रपञ्च तब तक प्रपञ्च ही रहेंगे जब तक मौलिक रुप से तुम सबसे स्नेह और प्रेम करने न लग जाओ ! धर्म के मूल सिद्धान्त जब तक तुम्हारे भीतर न हो तब तक कुछ नहीँ होगा । तुम किसी भी रंग के चोले धारण कर लो, किसी भी धर्म के अनुयायी हो जाओ वो सब केवल व्यर्थ की बातेँ है । जीवन को इन बिन्दुओँ के आसपास ही ऋषियोँ नेँ पाया इसलिए उन्होनेँ कहा कि, "पैशाचिक वृत्तियाँ, असत्य वृत्तियाँ, पाप-वृत्तियोँ का परित्याग करना चाहिए ।" नशोँ का परित्याग कर दो ! एक ओर तुम ईश्वर का नाम लेते हो और दुसरी ओर नशा करते हो ! एक और तुम मन्दिर को झुक कर नमस्कार करते हो, दुसरी ओर संतो और ब्राह्मणोँ और ईश्वर के पथ पर चलनेवाले या किसी साधारण अपने ही भाई का अपमान करते हो ! एक ओर तुम ईश्वर को नमस्कार करते हो और दुसरी ओर अपने ही लोगोँ की निन्दा करते हो ! तो तुम सा बुरा कोई नहीँ, तुम सा पैशाचिक कोई नहीँ, तुम्हारी जैसी दयनीय स्थिति इस पृथ्वी मेँ किसी की नहीँ...और आज तो व्यक्तिगत तौर पर तुम बुराईयाँ नहीँ कर रहे, आज तो अब तुम समूहोँ मेँ एकत्रित होकर सामूहिक रुप से किसी व्यक्ति अथवा किसी संगठन की बुराई करते हो ! अर्थात् पिशाच भी अब संगठन मेँ आ गये, पाप भी अब संगठन मेँ आ गया !...तो फिर से एक बार विचार करो कि जीवन कैसे सफल होगा ! यदि तुम केवल पाप और पुण्य मेँ भेद करना जान जाओ और फिर पाप के साथ को छोड दो और पुण्य के पक्ष मेँ चलना शुरु कर दो तो उस से तुम्हेँ पुण्य मिलता है, लेकिन किसी नेँ कहा कि, "पुण्य केवल स्वर्ग देता है ।" बात सत्य है लेकिन तुम यदि पुण्योँ को छोड दो तो धीरे-धीरे पुण्य तुम्हारे भीतर ही एक ऐसी भावभूमि उत्पन्न करेंगे कि अब वो पुण्य तुम्हेँ लिप्त नहीँ करेंगे बल्कि तुम्हारी भीतर की एक ऐसी स्थिति का निर्माण कर देंगे जहाँ अध्यात्म को जबरजस्ती प्रदान करने की जरुरत नहीँ होती ! जहाँ धर्म फिर इस तरह का धर्म नहीँ होता जिस तरह के धर्म पर तुम चल रहे हो ! वो धर्म उँचाईयोँ का है, ऐसी उँचाईयोँ का नहीँ जैसे अभी मैँ हिमालय पर बैठा हुँ । उँचाई अर्थात् चेतना की उँचाई, भीतर की उँचाई । हिमालय पर बैठने से ही सिद्ध नहीँ होता व्यक्ति; वो इन गुणोँ पर आरुढ होने से सिद्ध होता है । और मेरी केवल इतनी प्रार्थना है कि यदि तुम जाने-अनजाने मेँ मुझे सुन लेते हो, तो मेरी बुराईयोँ की ओर न देखना, मेरे पापाचारोँ की ओर न देखना; केवल पुण्योँ को देखना, सत्कर्मोँ को देखना और उन्हीँ का आचरण करना । इस जगत मेँ जो भी मिले उसके लिए ईश्वर का आभार व्यक्त करना और मानवीय गुणोँ को भीतर रखना ! तो देखना तुम्हारा संपूर्ण जीवन बदलने लग जायेगा ! तब समस्त गुरु-शक्तियाँ, समस्त दैविक-शक्तियाँ और यहाँ तक कि "स्वयं परमेश्वर" तुम्हारी ओर स्वयं आने लगेंगे और परमेश्वर तक जाने के सारे द्वार तुम्हारे लिए खुले हुए होंगे ! तब तुम धर्म को समझ पाओगे, अभी नहीँ । क्योँकि अभी तो तुम चाहे विज्ञान का सहारा लो, चाहे राजनीति का सहारा लो उन सब के पीछे मौलिक केवल एक ही वृत्ति है कि तुम अपने लिए आनंद जुटा सको और जो अपने लिए आनंद जुटा रहा है और दुसरे के लिए अपने आनंद के कारण पीडा दे रहा है, तो फिर से धर्म की तरफ सोचना होगा ! कि क्या तुम सही धर्म और सही मार्ग पर हो अथवा नहीँ ! अभी के लिए इतना ही ! ॐ नमः शिवाय ! - ईशपुत्र