ईशपुत्र नें भैरवी मृगाक्षी की ओर देखा और कहा "अब तो चाहे दुनिया इधर से उधर हो जाए। मैं तुमको अपने साथ किसी कीमत पर नहीं रखूंगा।" लग रहा था मानो अब योगी हठ पकड़ चुका है। लेकिन तभी भैरवी मृगाक्षी नें नया दाव खेला। अचानक गाते हुए और मुस्कुराते हुए उसनें स्तुति करनी शुरू कर दी।
।। श्री कौलान्तक नाथ स्तुति।।
नित्यं सिद्धेश्वरं, महारहस्यकारणं, योगीजन वंदितं।
प्रचंडचंडरूपिणं, शिवांशरूपम प्रणम्यम सदैवं।।
त्वं वीराटातिविराटम, त्वं कौतुकानंद स्वरूपं।
रागलयादिकारणं, शिवांशरूपम प्रणम्यम सदैवं।
ईशपुत्रोत्वं, परिपूर्णरूपं, सकल अवतारादि वंदितं,
शिखरपुरुषोनमस्तुभ्यं, शिवांशरूपम प्रणम्यम सदैवं।
अघोरेश्वरं, ब्रह्माण्डरूपं, पापादि बंध मोचनं।
सर्वकलाधरिणे, शिवांशरूपम प्रणम्यम सदैवं।
महाहिमालयेश्वरं, आनंद रासादिकारणं।
भक्तानन्द प्रदायकं, शिवांशरूपम प्रणम्यम सदैवं।।
सर्वदा सर्वकुलनायकं, सर्वसिद्धिप्रदायकं।
अक्षरपुरुष, शिवांशरूपम प्रणम्यम सदैवं।।
अप्सरादिवंदितं, भैरवीकुलनायकं।
ममप्रेमकारणं, शिवांशरूपम प्रणम्यम सदैवं।।
।।इति श्री महाभैरवी मृगाक्षी कृत श्री कौलान्तक नाथ स्तुति सम्पूर्ण।।
जहरीले नोगों की तरह अतिक्रोधित योगी को बस इन कुछ चंद पंक्तियों नें मोम की तरह पिघला दिया और आखिर कौलान्तक नाथ का कभी न बदलने वाला फैसला भी बदल गया।
सुनिये स्वामी गिरिधरानंद जी! ये कुछ पंक्तियाँ हैं जो मैंने तब रची थीं जब मैंने ईशपुत्र को हिमालय के बनों में अश्वारोहण करते और युद्धाभ्यास करते देखा था। मेरा मन तब उनकी छवि पर मोहित हो गया था। संसार का सबसे बड़ा सुख बस ऐसे वीर महापुरुषों को मौन हो कर देखना ही है। आप कल्पना भी नहीं कर सकते की तप करने वाले महाभैरव योगी का वो स्वरूप कैसा रहा होगा? बस उसी सौन्दर्य पर मोहित हो कर मैंने कुछ पंक्तियाँ रची। रची कहना गलत होगा, बस मन में गूंजी और मैंने उनको "ईशपुत्र" को सूना दिया। "ईशपुत्र" नें तब मुझ पर प्रसन्न हो कर कुछ गूढतम विद्याओं को प्रकट किया और मैं धन्य हो गई। तभी से हर सुबह जब मैं उठती हूँ इन्हीं पंक्तियों को "कौलान्तक नाथ" के सम्मुख गुनगुनाती हूँ ।
।। भैरवी मृगाक्षीकृत ईशपुत्र स्तुति ।।
ॐ नमस्ते ईशपुत्रे कौलेश्वराय, नमस्ते चिते हिरण्यगर्भ स्वरूपाय।
नमो त्वं कलि नायकाय, नमो परब्रह्म क्षत्रिणे अद्वैत तत्वाय।।
नमो राजेश्वराय निर्गुणाय, नमो योगीजन प्राणबल्लभाय।
नमो कौलनाथाय, कौलान्तक नाथाय च ईशपुत्राय नमो नम:।।
त्वं सम्मोहनानाम सम्मोहनम,गति: प्राणिनां पवित्रं पवित्रानाम।
भयानां भयं भीषणं भीषणानाम,परेषां परं रक्षकं रक्षकानाम।।
नमो कौलासुर नाशकाय, हिमालय देव ऋषिजनादि वन्दिताय।
नमो कौलनाथाय, कौलान्तक नाथाय च ईशपुत्राय नमो नम:।।
नमस्ते ईशपुत्रे उपासकानाम वरं च, त्वं अभयं सर्व भक्तानाम।
उद्गीथं अक्षरं व्यापकं अव्यक्त तत्वं, त्वमेकं परं निश्चलं निर्विकल्पं।।
नमो मलेच्छ मर्दकाय, वीरादि वन्दित सत्य धर्म प्रदाताय।
नमो कौलनाथाय, कौलान्तक नाथाय च ईशपुत्राय नमो नम:।।
एको देव: त्वं सर्वभूतेषु गूढ़: सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।
कर्माध्यक्ष: त्वं सर्वभूताधिवास: साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च।।
नमो तिमिर नाशकाय देवाय, तपोभक्तिगम्याय च।
नमो कौलनाथाय, कौलान्तक नाथाय च ईशपुत्राय नमो नम:।।
ध्यानावस्थित अतिसुन्दरम, दिव्यं अमोघं महाअवतारिणे।
भैरव-भैरवी वृन्द पूजिते, सत्य सत्चिदानन्द स्वरूपिणे।।
नमो श्वेताश्वपरिस्थिताय, अद्भुताय रहस्यनाथ नाथाय च।
नमो कौलनाथाय, कौलान्तक नाथाय च ईशपुत्राय नमो नम:।।
।। अथ श्री महाहिमालय अवस्थित भैरवी मृगाक्षीकृत ईशपुत्र स्तुति संपूर्णम ।।
स्वामी गिरिधरानंद जी नें मृगाक्षी की और देखा और कहा की "ये तो अद्भुत है आपको ये स्त्रोत्र और श्लोक रचने की शक्ति कैसे मिली?" तब भैरवी मृगाक्षी मुस्कुराते हुए बोली "मुझे कहाँ ये जटिल संस्कृत आती है। काश! मैं संस्कृत जानती तो इतिहास को बताती की "ईशपुत्र" की स्तुति कैसे की जाती है। लेकिन स्वामी गिरिधरानंद जी जिसे आप स्तुति समझ रहर हैं वो कोई स्तुति नहीं वरन मेरा "कौलान्तक नाथ" के प्रति प्रेम हैं। आप भी जब उनको समझ कर भीतर उतार लोगे तो पूजा और साधना अलग से करने की जरूरत नहीं रहती। मैं और मेरा मन उनसे ऐसा अनुराग करता है की उनको ह्रदय में ध्याते ही शब्द फूटने लगते हैं। देखो मैं नेत्र बंद कर रही हौं और "ईशपुत्र कौलान्तक नाथ" को ह्रदय में ध्याते हुए निहारते हुए जो ह्रदय में आये कहती हूँ। मैं देख रही हूँ की मेरे हृदय कैलाश में "महातंत्रेश्वर कौलान्तक नाथ" का भैरव-भैरवियाँ दिव्य अमृत से अभिषेक कर रही हैं और शब्द गूँज रहे हैं-----------
ॐ नमो कौलाय च कौलान्तक नाथाय च नमो सत्याय च सत्येन्द्र नाथाय च नम: अवताराय च महाअवताराधिपतये च नमो दर्शनाय च सुदर्शनाय च प्रत्यक्षदेवस्वरूपिणे।
नमो वीराय च वीर नाथाय च नमो ईशाय च ईशपुत्राय च नम: ग्रहाय च ग्रहराजाय च
नमो कौतुकाय च कौतुक नाथाय च मायापुरुषस्वरूपिणे।
नमो प्रचंडाय च प्रचण्ड नाथाय च नमो नित्याय च नित्य नाथाय च नम: सर्वाय च सर्वेश्वराय च
नमो वराय च वरहस्ताय च दिव्यतेजस्वरूपिणे।
नमो विष्णवे च विष्णु स्वरूपाय च नमो शिवाय च शिव स्वरूपाय च नम: ब्रह्माय च ब्रह्मस्वरूपिणे च
नमो पूर्णाय च पूर्णावताराय च सत्यसत्येन्द्रस्वरूपिणे।
नमो शक्तिनाथाय इहा गच्छ मम ह्रदय कमल मध्ये, सह्स्त्राहारादि मध्ये तिष्ठ, आवाहयामि स्थापयामि नम:।।
भैरवी मृगाक्षी नें धीरे से नेत्र खोले। सब उसकी ओर ऐसे देख रहे थे की मानो ये संसार की नहीं वरन किसी अज्ञात ग्रह से आई हो। भैरवी मृगाक्षी सबकी ओर देखती हुई बोली "अरे क्या हो गया? आप सब अब मुझे घूरने क्यों लग गए?"
।। भैरवी मृगाक्षीकृत ईशपुत्र स्तुति ।।
ॐ नमस्ते ईशपुत्रे कौलेश्वराय, नमस्ते चिते हिरण्यगर्भ स्वरूपाय।
नमो त्वं कलि नायकाय, नमो परब्रह्म क्षत्रिणे अद्वैत तत्वाय।।
नमो राजेश्वराय निर्गुणाय, नमो योगीजन प्राणबल्लभाय।
नमो कौलनाथाय, कौलान्तक नाथाय च ईशपुत्राय नमो नम:।।
त्वं सम्मोहनानाम सम्मोहनम,गति: प्राणिनां पवित्रं पवित्रानाम।
भयानां भयं भीषणं भीषणानाम,परेषां परं रक्षकं रक्षकानाम।।
नमो कौलासुर नाशकाय, हिमालय देव ऋषिजनादि वन्दिताय।
नमो कौलनाथाय, कौलान्तक नाथाय च ईशपुत्राय नमो नम:।।
नमस्ते ईशपुत्रे उपासकानाम वरं च, त्वं अभयं सर्व भक्तानाम।
उद्गीथं अक्षरं व्यापकं अव्यक्त तत्वं, त्वमेकं परं निश्चलं निर्विकल्पं।।
नमो मलेच्छ मर्दकाय, वीरादि वन्दित सत्य धर्म प्रदाताय।
नमो कौलनाथाय, कौलान्तक नाथाय च ईशपुत्राय नमो नम:।।
एको देव: त्वं सर्वभूतेषु गूढ़: सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।
कर्माध्यक्ष: त्वं सर्वभूताधिवास: साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च।।
नमो तिमिर नाशकाय देवाय, तपोभक्तिगम्याय च।
नमो कौलनाथाय, कौलान्तक नाथाय च ईशपुत्राय नमो नम:।।
ध्यानावस्थित अतिसुन्दरम, दिव्यं अमोघं महाअवतारिणे।
भैरव-भैरवी वृन्द पूजिते, सत्य सत्चिदानन्द स्वरूपिणे।।
नमो श्वेताश्वपरिस्थिताय, अद्भुताय रहस्यनाथ नाथाय च।
नमो कौलनाथाय, कौलान्तक नाथाय च ईशपुत्राय नमो नम:।।
।। अथ श्री महाहिमालय अवस्थित भैरवी मृगाक्षीकृत ईशपुत्र स्तुति संपूर्णम ।।
स्वामी गिरिधरानंद जी नें मृगाक्षी की और देखा और कहा की "ये तो अद्भुत है आपको ये स्त्रोत्र और श्लोक रचने की शक्ति कैसे मिली?" तब भैरवी मृगाक्षी मुस्कुराते हुए बोली "मुझे कहाँ ये जटिल संस्कृत आती है। काश! मैं संस्कृत जानती तो इतिहास को बताती की "ईशपुत्र" की स्तुति कैसे की जाती है। लेकिन स्वामी गिरिधरानंद जी जिसे आप स्तुति समझ रहर हैं वो कोई स्तुति नहीं वरन मेरा "कौलान्तक नाथ" के प्रति प्रेम हैं। आप भी जब उनको समझ कर भीतर उतार लोगे तो पूजा और साधना अलग से करने की जरूरत नहीं रहती। मैं और मेरा मन उनसे ऐसा अनुराग करता है की उनको ह्रदय में ध्याते ही शब्द फूटने लगते हैं। देखो मैं नेत्र बंद कर रही हौं और "ईशपुत्र कौलान्तक नाथ" को ह्रदय में ध्याते हुए निहारते हुए जो ह्रदय में आये कहती हूँ। मैं देख रही हूँ की मेरे हृदय कैलाश में "महातंत्रेश्वर कौलान्तक नाथ" का भैरव-भैरवियाँ दिव्य अमृत से अभिषेक कर रही हैं और शब्द गूँज रहे हैं-----------
ॐ नमो कौलाय च कौलान्तक नाथाय च नमो सत्याय च सत्येन्द्र नाथाय च नम: अवताराय च महाअवताराधिपतये च नमो दर्शनाय च सुदर्शनाय च प्रत्यक्षदेवस्वरूपिणे।
नमो वीराय च वीर नाथाय च नमो ईशाय च ईशपुत्राय च नम: ग्रहाय च ग्रहराजाय च
नमो कौतुकाय च कौतुक नाथाय च मायापुरुषस्वरूपिणे।
नमो प्रचंडाय च प्रचण्ड नाथाय च नमो नित्याय च नित्य नाथाय च नम: सर्वाय च सर्वेश्वराय च
नमो वराय च वरहस्ताय च दिव्यतेजस्वरूपिणे।
नमो विष्णवे च विष्णु स्वरूपाय च नमो शिवाय च शिव स्वरूपाय च नम: ब्रह्माय च ब्रह्मस्वरूपिणे च
नमो पूर्णाय च पूर्णावताराय च सत्यसत्येन्द्रस्वरूपिणे।
नमो शक्तिनाथाय इहा गच्छ मम ह्रदय कमल मध्ये, सह्स्त्राहारादि मध्ये तिष्ठ, आवाहयामि स्थापयामि नम:।।
भैरवी मृगाक्षी नें धीरे से नेत्र खोले। सब उसकी ओर ऐसे देख रहे थे की मानो ये संसार की नहीं वरन किसी अज्ञात ग्रह से आई हो। भैरवी मृगाक्षी सबकी ओर देखती हुई बोली "अरे क्या हो गया? आप सब अब मुझे घूरने क्यों लग गए?"
भैरवी मृगाक्षी की तन्मयता देख कर, पीछे खडी भैरवी ज्योत्स्ना बोली "चक्र नाथो! इस भैरवी की भोली सूरत और सुन्दरता पर मत जाना। माना की "भैरवी मृगाक्षी जी" "ईशपुत्र" को प्रेम करती है और उनको पूजती है, तो क्या आप और हम सब कम है? जितना प्रेम आप और हम करते हैं संसार में कोई दूसरा सोच भी नहीं सकता। रही मेरे प्रेम की बात तो अगर "देवी भैरवी मृगाक्षी" कुछ पंक्तियाँ सुना कर ये सोच ले की अब "ईशपुत्र" उनके हुए तो ये भ्रम है। अब मेरी बारी है।" "भैरवी ज्योत्स्ना" "कौलान्तक नाथ" के पास आ कर बैठ गई और "ईशपुत्र" की ओर निहारते हुए बोली " आप सबको एक युवा और सुन्दर "कौलान्तक नाथ" नजर आ रहे होंगे। लेकिन अब आप सब मेरी आँखों में देखो और अनुभव करो की तिब्बत के पर्वतों के मध्य एक शुरूआती नदी के किनारे जटा-जूट धारे एक महान युग पुरुष महाघोर तपस्या में लीन हैं। जिनकी स्तुति समस्त सृष्टि कर रही है। उस "कौलपुरुष" की स्तुति ऋषिवृन्द कर रहे हैं। समस्त धरा की पाँचों दिव्य सूक्ष्म पीठें उनकी जय-जयकार कर रही हैं।" भैरवी ज्योत्स्ना के शब्दों से सम्मोहन छाने का अनुभव होने लगा। अद्भुत सा नशा छा गया और एक दृश्य दिखाई देने लगा, जिसमें "ईशपुत्र" तिब्बत की भूमि पर जटा-जूट धारे तप कर रहे हैं। सब हतप्रभ से सम्मोहित उस चित्र को अनुभव कर रहे थे और तभी "भैरवी ज्योत्स्ना" "कौलान्तक नाथ" की स्तुति मधुर शैली में करने लगी-----
।। अथ श्री भैरवी ज्योत्स्नाकृत कौलान्तक नाथ ईशपुत्र स्तुति ।।
ॐ महातप: महातपेश्वराय महातेजोमय जगत्पते।
महासिद्ध महायोगिन महापुरुषाय नमोस्तुते।।
महारौद्र महानाथ महाकौल महा प्रभो।
महाचीनज्ञ महावामज्ञ महासत्वज्ञयाय नमोस्तुते।।
महाअघोर महाज्ञान महाअवतार तमोहन।
महाविकर्तन महातेज महाईश नमोस्तुते।।
सत्याय च नमस्तुभ्यं सत्येन्द्र नाथाय च नमः।
महाभैरवाय च नमस्तुभ्यं अप्सरापतये नमो नमः।।
हठाधिपतये च नमस्तुभ्यं ईशपुत्राय वै नमः।
निराकाराय च नमस्तुभ्यं साकाराय नमो नमः।।
ईशदूताय नमस्तुभ्यं प्रत्यक्षपुरुषाय वै नमः।
हिमशिखराधिपतये नमस्तुभ्यं शुक्लवर्ण नमो नमः।।
आदि महारहस्य स्वरूपाय रूद्ररूपाय वै नमः।
विष्णुअंश भूताय च युगावताराय वै नमः।।
महेश्वर रूपस्तवं सत्येन्द्र नाथाय नमोस्तुते।
ईशपुत्राय नमतुभ्यम बंधमोचनाय नमोस्तुते।।
सोम रूप नमस्तुभ्यं सर्वेश्वरानन्द नाथाय नमोस्तुते।
महाहिमालायाधिपते नमस्तुभ्यं अकाशाधिपते नमो नमः।।
सिद्धरूप नमस्तुभ्यं वैष्णव नाथाय नमोस्तुते।
कुण्डलिनी नाथाय नमस्तुभ्यं मायापति नमोस्तुते।।
बालरूप नमस्तुभ्यं यौवननाथाय नमोस्तुते।
वरदाताय नमस्तुभ्यं अभयदाताय नमो नमः।
नमः शान्त रूपाभ्याम शाश्वताय नमो नमः।।
सं सिद्धाय नमस्तुभ्यं निष्कलन्काय नमो नमः।
सचिदानंद स्वरूपाय सत्येन्द्रनाथाय ते नमः।।
प्रसीद में नमो नित्यं श्वेतवर्णाय नमोस्तुते।
प्रसीद में ईशपुत्राय नित्यस्थिताय नमो नमः।।
क्रीं बीजोद्भवाय पूर्ण स्वरूपाय आदिनाथ तेजसे
स्वः सम्पूर्ण मन्त्राय कं कौलनाथाय ते नमः।।
।। अथ श्री भैरवी ज्योत्स्नाकृत कौलान्तक नाथ ईशपुत्र स्तुति सम्पूर्णम ।।
भैरवियों का ऐसा कृत्य देख कर भैरव कहाँ पीछे रहने वाले थे। स्वामी गौरव नाथ नें कहा हम आप सब भैरवियों का सम्मान करते हैं लेकिन ईशपुत्र के प्रति वास्तव में हमारा प्रेम कम नहीं है। आप सबके बाद अब हमारी बारी है और हमें भी अवसर मिलना ही चाहिए।
स्वामी विज्ञानानंद नें कहा "कोई तो कारण है की कभी-कभी "ईशपुत्र" बेहद गंभीर और कुछ उदास प्रतीत होते हैं। न जाने क्यों वो मौन रहते हैं? मनुष्य होना या मनुष्यों का होना उनकी परेशानी है अथवा किसी की स्मृति उनको पीड़ित करती है?" भैरवी मृगाक्षी मुस्कुराई और बोली "जिसे प्राणी मात्र का दुःख अनुभव होता हो, जो संसार के रोगियों, दुखियों और तप्त जनों के दुःख को अनुभव करने वाले हैं, उनके चित्त पर कुछ तनाव या चिंता की रेखाएं आना स्वाभाविक है। आप चिंता ना करें "कौलान्तक नाथ" का परेशान रहना सृष्टि हित में ही है। उनका कार्य ही है दुखियों को दुखों से मुक्त करना, पापों से पार ले जा कर सत्य और पूर्णता को उपलब्ध करवाना। लेकिन इस कलिकाल में ये सरल नहीं होगा। आप सबको ये प्रतीत हो रहा होगा की "ईशपुत्र" तो एक बड़े ही नहीं वरन बहुत बड़े युगावतार हैं तो उनकी बराबरी किसी आम मनुष्य से क्या होगी? लेकिन जब मैंने स्वयं "ईशपुत्र" से बात की थी तो उनका कहना था "मृगाक्षी! संसार के सबसे दीन और सबसे कमजोर, दुखी, संतप्त व्यक्ति को याद करो और उसकी कल्पना करो। जो भी चेहरा दिखे याद रखना मैं उसका सेवक मात्र हूँ।" तो "कौलान्तक नाथ" वास्तव में ही सेवक हैं इसलिए उनका ये अचानक होता व्यवहार कोई नई घटना नहीं है।" वातावरण बहुत गंभीर हो गया था तब भैरवी मृगाक्षी "ईशपुत्र गायत्री का उच्चारण" करने लगी।
"।। ॐ भू: र्भुव: स्व: परमेष्ठिने महावताराय निष्कलन्काय विद्महे तन्नो ईशपुत्र प्रचोदयात ।।"
भैरवी मृगाक्षी नें कहा की आप सब "कौलान्तक नाथ" के नृत्य के केवल कुछ ही स्वरूपों से परिचित हैं। कुछ गोपनीय नृत्य और गोपनीय तंत्रोक्त स्वरूप कम साधकों नें देखे हैं। जैसे "ईशपुत्र" मेरे प्रिय स्वरूपों में "रुरु भैरव" के रूप में सुहाते हैं। "संहार भैरव" भी अद्भुत हैं"
मैं जितने दिनों चक्र नाथों और भैरवियों के साथ रहा तो जाना की "ईशपुत्र" तो भगवान् है और मैंने भैरवी मृगाक्षी को कहा की "कौलान्तक नाथ" ही भगवान् हैं अब मुझको समझ आने लगा है। इस पर भैरवी मृगाक्षी जोर-जोर से ठहाका लगा कर हँसते हुए बोली "ऐसा दोबारा मत कहना और ना ही सोचना। क्योंकि महायोगी सत्येन्द्र नाथ नामधारी "ईशपुत्र" तुमको बहुत लाताडेंगे और छोड़ने वाले नहीं। क्योंकि उनके अनुसार कोई भगवान् नहीं हो सकता, जो हो जाता है वो पूर्ण हो कर विलीन हो जाता है। कहना है तो अवतार कहो। अवतार भगवान् नहीं होते, बल्कि अंश मात्र होते हैं और अवतार तुम, मैं संसार के सभी लोग हैं। क्योंकि सब इस मृत्यु लोक के उस पार से आये हैं। सबका अवतरण ही हुआ है। कोई इस बात को जान गया कोई जानेगा। यदि आप "कौलान्तक सम्प्रदाय" में रहना चाहते हैं, तो उसके नियम और मान्यताओं को जानना होगा, न की किसी सांसारिक मूर्ख या तथाकथित धार्मिक बुद्धिमान की भांति आप उनको भगवान् कहो। "कौलान्तक सम्प्रदाय" के शब्द बड़े भ्रमित करने वाले होते हैं। जो समझ ना आये पूछ लिया करो, किन्तु तथ्य को समझना अनिवार्य है। ये "रहस्य पीठ" है इसे कोई आचार, चटनी या मुरब्बा खा कर जीने वाला क्या समझेगा?" मैं ये सुन कर आवाक था की भगवान् और अवतार में क्या अंतर हो सकता है? और मैं या कोई साधारण पैदा हुआ व्यक्ति कैसे अवतार हो सकता है? तब भैरवी मृगाक्षी मेरी दुविधा को समझते हुए बोली "चाहे कौलान्तक नाथ हो या संसार का कोई भी मनुष्य यदि वो अपने भीतर 64 कलाओं का स्थापन करता है और शिव को भीतर उतार लेता है तो एक नए व्यक्ति का जन्म होता है जो अवतारी निश्चित ही है। तुम जब साधना का अभ्यास करोगे तो समझ आयेगा। तब हर वो अभ्यासी ही अवतार होने लगता है जो आम आदमी है। अवतार का अर्थ होता है उतर कर आना। स्वर्ग से या फिर भीतर से।" तब भी मैं कुछ ठीक से नहीं समझ पा रहा था। तो भैरवी मृगाक्षी बोली अच्छा तो
भैरवी मृगाक्षी बोली "हो सकता है ब्रहमांड बहुत बड़ा हो। अति रहस्यमय हो लेकिन मनुष्य चाहत रt तो उसके हर कोने को अपनी पहुँच में ला सकता है। उसी तरह यदि मन में "ईशपुत्र" जैसी लगन हो तो संसार बदल सकता है। संसार में आधे से ज्यादा लोग केवल ये सोचते हैं की बुराई का अंत करने स्वयं भगवान् आयेंगे और यही कारण उनको अकर्मण्य बना देता है। लेकिन क्या इस तथ्य को गलत नहीं समझा जा रहा? भगवान् जो करें सो करें लेकिन तुम क्या कर रहे हो ये महत्वपूर्ण है। हो सकता है की तुम ही भगवान् हो लेकिन सब ये सोचेंगे की नहीं वो तो कोई और है। इस तरह ईश्वरत्व की तुम्हारे भीतर संभावनाएं ही समाप्त कर दी जायेंगी। लोगों की और समाज की और देखोगे तो वो नपुसक स्वाभाव के लोगों से भरा पडा है। केवल आलोचना की उनका अस्त्र है जिससे वो अपनी नपुसक्ता को छुपा सकते हैं। इसलिए अध्यात्म केवल कर्मकांड और पूजा पाठ ही रह गया न की महामानव होने का सफर और स्वयं शिव होने का सफर। इस तरह अध्यात्म और धर्म समाप्त ही समझो। बस "कौलान्तक नाथ" में एक महासंभावना मैं इसलिए देखती हूँ क्योंकि केवल वहीँ हैं जो निंदा से घबराते नहीं आलोचनाएँ जिन्हें प्रेमिकाएं लगाती हैं, अपशब्द जो जो हलाहल की भांति पी जाने का साहस रखते हैं और स्वयं को शिव स्वरुप समझने और बनाने का साहस रखते हैं। लोग घंटियाँ बजाते हैं लेकिन वो शरीर को शिवत्व के लिए प्रवातों पर वृक्षों पर टांग देते हैं। उनके बिना धर्म केवल प्रवचन और कहानियाँ हैं वो हैं तो सब कुछ मनो जी उठाता है। बस दो आँखे और थोड़ी समझ चाहिए उनको और उनके कार्यों को समझने के लिए। उनके जीवन का सार बस इतना है की मनुष्य पैदा हो कर भगवान् बन उनमें ही समाहित हो जाओ, सृष्टि को शुभ दो, शुभता में जिओ, असत्य आलोचनाओं से दूर, स्थिरता और प्रेम में सहित रहो। क्या ये कोई युगीन सोच नहीं है? ऐसी बहुत सी बाते हैं लेकिन---------"
।। अथ श्री भैरवी ज्योत्स्नाकृत कौलान्तक नाथ ईशपुत्र स्तुति ।।
ॐ महातप: महातपेश्वराय महातेजोमय जगत्पते।
महासिद्ध महायोगिन महापुरुषाय नमोस्तुते।।
महारौद्र महानाथ महाकौल महा प्रभो।
महाचीनज्ञ महावामज्ञ महासत्वज्ञयाय नमोस्तुते।।
महाअघोर महाज्ञान महाअवतार तमोहन।
महाविकर्तन महातेज महाईश नमोस्तुते।।
सत्याय च नमस्तुभ्यं सत्येन्द्र नाथाय च नमः।
महाभैरवाय च नमस्तुभ्यं अप्सरापतये नमो नमः।।
हठाधिपतये च नमस्तुभ्यं ईशपुत्राय वै नमः।
निराकाराय च नमस्तुभ्यं साकाराय नमो नमः।।
ईशदूताय नमस्तुभ्यं प्रत्यक्षपुरुषाय वै नमः।
हिमशिखराधिपतये नमस्तुभ्यं शुक्लवर्ण नमो नमः।।
आदि महारहस्य स्वरूपाय रूद्ररूपाय वै नमः।
विष्णुअंश भूताय च युगावताराय वै नमः।।
महेश्वर रूपस्तवं सत्येन्द्र नाथाय नमोस्तुते।
ईशपुत्राय नमतुभ्यम बंधमोचनाय नमोस्तुते।।
सोम रूप नमस्तुभ्यं सर्वेश्वरानन्द नाथाय नमोस्तुते।
महाहिमालायाधिपते नमस्तुभ्यं अकाशाधिपते नमो नमः।।
सिद्धरूप नमस्तुभ्यं वैष्णव नाथाय नमोस्तुते।
कुण्डलिनी नाथाय नमस्तुभ्यं मायापति नमोस्तुते।।
बालरूप नमस्तुभ्यं यौवननाथाय नमोस्तुते।
वरदाताय नमस्तुभ्यं अभयदाताय नमो नमः।
नमः शान्त रूपाभ्याम शाश्वताय नमो नमः।।
सं सिद्धाय नमस्तुभ्यं निष्कलन्काय नमो नमः।
सचिदानंद स्वरूपाय सत्येन्द्रनाथाय ते नमः।।
प्रसीद में नमो नित्यं श्वेतवर्णाय नमोस्तुते।
प्रसीद में ईशपुत्राय नित्यस्थिताय नमो नमः।।
क्रीं बीजोद्भवाय पूर्ण स्वरूपाय आदिनाथ तेजसे
स्वः सम्पूर्ण मन्त्राय कं कौलनाथाय ते नमः।।
।। अथ श्री भैरवी ज्योत्स्नाकृत कौलान्तक नाथ ईशपुत्र स्तुति सम्पूर्णम ।।
भैरवियों का ऐसा कृत्य देख कर भैरव कहाँ पीछे रहने वाले थे। स्वामी गौरव नाथ नें कहा हम आप सब भैरवियों का सम्मान करते हैं लेकिन ईशपुत्र के प्रति वास्तव में हमारा प्रेम कम नहीं है। आप सबके बाद अब हमारी बारी है और हमें भी अवसर मिलना ही चाहिए।
स्वामी विज्ञानानंद नें कहा "कोई तो कारण है की कभी-कभी "ईशपुत्र" बेहद गंभीर और कुछ उदास प्रतीत होते हैं। न जाने क्यों वो मौन रहते हैं? मनुष्य होना या मनुष्यों का होना उनकी परेशानी है अथवा किसी की स्मृति उनको पीड़ित करती है?" भैरवी मृगाक्षी मुस्कुराई और बोली "जिसे प्राणी मात्र का दुःख अनुभव होता हो, जो संसार के रोगियों, दुखियों और तप्त जनों के दुःख को अनुभव करने वाले हैं, उनके चित्त पर कुछ तनाव या चिंता की रेखाएं आना स्वाभाविक है। आप चिंता ना करें "कौलान्तक नाथ" का परेशान रहना सृष्टि हित में ही है। उनका कार्य ही है दुखियों को दुखों से मुक्त करना, पापों से पार ले जा कर सत्य और पूर्णता को उपलब्ध करवाना। लेकिन इस कलिकाल में ये सरल नहीं होगा। आप सबको ये प्रतीत हो रहा होगा की "ईशपुत्र" तो एक बड़े ही नहीं वरन बहुत बड़े युगावतार हैं तो उनकी बराबरी किसी आम मनुष्य से क्या होगी? लेकिन जब मैंने स्वयं "ईशपुत्र" से बात की थी तो उनका कहना था "मृगाक्षी! संसार के सबसे दीन और सबसे कमजोर, दुखी, संतप्त व्यक्ति को याद करो और उसकी कल्पना करो। जो भी चेहरा दिखे याद रखना मैं उसका सेवक मात्र हूँ।" तो "कौलान्तक नाथ" वास्तव में ही सेवक हैं इसलिए उनका ये अचानक होता व्यवहार कोई नई घटना नहीं है।" वातावरण बहुत गंभीर हो गया था तब भैरवी मृगाक्षी "ईशपुत्र गायत्री का उच्चारण" करने लगी।
"।। ॐ भू: र्भुव: स्व: परमेष्ठिने महावताराय निष्कलन्काय विद्महे तन्नो ईशपुत्र प्रचोदयात ।।"
भैरवी मृगाक्षी नें कहा की आप सब "कौलान्तक नाथ" के नृत्य के केवल कुछ ही स्वरूपों से परिचित हैं। कुछ गोपनीय नृत्य और गोपनीय तंत्रोक्त स्वरूप कम साधकों नें देखे हैं। जैसे "ईशपुत्र" मेरे प्रिय स्वरूपों में "रुरु भैरव" के रूप में सुहाते हैं। "संहार भैरव" भी अद्भुत हैं"
मैं जितने दिनों चक्र नाथों और भैरवियों के साथ रहा तो जाना की "ईशपुत्र" तो भगवान् है और मैंने भैरवी मृगाक्षी को कहा की "कौलान्तक नाथ" ही भगवान् हैं अब मुझको समझ आने लगा है। इस पर भैरवी मृगाक्षी जोर-जोर से ठहाका लगा कर हँसते हुए बोली "ऐसा दोबारा मत कहना और ना ही सोचना। क्योंकि महायोगी सत्येन्द्र नाथ नामधारी "ईशपुत्र" तुमको बहुत लाताडेंगे और छोड़ने वाले नहीं। क्योंकि उनके अनुसार कोई भगवान् नहीं हो सकता, जो हो जाता है वो पूर्ण हो कर विलीन हो जाता है। कहना है तो अवतार कहो। अवतार भगवान् नहीं होते, बल्कि अंश मात्र होते हैं और अवतार तुम, मैं संसार के सभी लोग हैं। क्योंकि सब इस मृत्यु लोक के उस पार से आये हैं। सबका अवतरण ही हुआ है। कोई इस बात को जान गया कोई जानेगा। यदि आप "कौलान्तक सम्प्रदाय" में रहना चाहते हैं, तो उसके नियम और मान्यताओं को जानना होगा, न की किसी सांसारिक मूर्ख या तथाकथित धार्मिक बुद्धिमान की भांति आप उनको भगवान् कहो। "कौलान्तक सम्प्रदाय" के शब्द बड़े भ्रमित करने वाले होते हैं। जो समझ ना आये पूछ लिया करो, किन्तु तथ्य को समझना अनिवार्य है। ये "रहस्य पीठ" है इसे कोई आचार, चटनी या मुरब्बा खा कर जीने वाला क्या समझेगा?" मैं ये सुन कर आवाक था की भगवान् और अवतार में क्या अंतर हो सकता है? और मैं या कोई साधारण पैदा हुआ व्यक्ति कैसे अवतार हो सकता है? तब भैरवी मृगाक्षी मेरी दुविधा को समझते हुए बोली "चाहे कौलान्तक नाथ हो या संसार का कोई भी मनुष्य यदि वो अपने भीतर 64 कलाओं का स्थापन करता है और शिव को भीतर उतार लेता है तो एक नए व्यक्ति का जन्म होता है जो अवतारी निश्चित ही है। तुम जब साधना का अभ्यास करोगे तो समझ आयेगा। तब हर वो अभ्यासी ही अवतार होने लगता है जो आम आदमी है। अवतार का अर्थ होता है उतर कर आना। स्वर्ग से या फिर भीतर से।" तब भी मैं कुछ ठीक से नहीं समझ पा रहा था। तो भैरवी मृगाक्षी बोली अच्छा तो
भैरवी मृगाक्षी बोली "हो सकता है ब्रहमांड बहुत बड़ा हो। अति रहस्यमय हो लेकिन मनुष्य चाहत रt तो उसके हर कोने को अपनी पहुँच में ला सकता है। उसी तरह यदि मन में "ईशपुत्र" जैसी लगन हो तो संसार बदल सकता है। संसार में आधे से ज्यादा लोग केवल ये सोचते हैं की बुराई का अंत करने स्वयं भगवान् आयेंगे और यही कारण उनको अकर्मण्य बना देता है। लेकिन क्या इस तथ्य को गलत नहीं समझा जा रहा? भगवान् जो करें सो करें लेकिन तुम क्या कर रहे हो ये महत्वपूर्ण है। हो सकता है की तुम ही भगवान् हो लेकिन सब ये सोचेंगे की नहीं वो तो कोई और है। इस तरह ईश्वरत्व की तुम्हारे भीतर संभावनाएं ही समाप्त कर दी जायेंगी। लोगों की और समाज की और देखोगे तो वो नपुसक स्वाभाव के लोगों से भरा पडा है। केवल आलोचना की उनका अस्त्र है जिससे वो अपनी नपुसक्ता को छुपा सकते हैं। इसलिए अध्यात्म केवल कर्मकांड और पूजा पाठ ही रह गया न की महामानव होने का सफर और स्वयं शिव होने का सफर। इस तरह अध्यात्म और धर्म समाप्त ही समझो। बस "कौलान्तक नाथ" में एक महासंभावना मैं इसलिए देखती हूँ क्योंकि केवल वहीँ हैं जो निंदा से घबराते नहीं आलोचनाएँ जिन्हें प्रेमिकाएं लगाती हैं, अपशब्द जो जो हलाहल की भांति पी जाने का साहस रखते हैं और स्वयं को शिव स्वरुप समझने और बनाने का साहस रखते हैं। लोग घंटियाँ बजाते हैं लेकिन वो शरीर को शिवत्व के लिए प्रवातों पर वृक्षों पर टांग देते हैं। उनके बिना धर्म केवल प्रवचन और कहानियाँ हैं वो हैं तो सब कुछ मनो जी उठाता है। बस दो आँखे और थोड़ी समझ चाहिए उनको और उनके कार्यों को समझने के लिए। उनके जीवन का सार बस इतना है की मनुष्य पैदा हो कर भगवान् बन उनमें ही समाहित हो जाओ, सृष्टि को शुभ दो, शुभता में जिओ, असत्य आलोचनाओं से दूर, स्थिरता और प्रेम में सहित रहो। क्या ये कोई युगीन सोच नहीं है? ऐसी बहुत सी बाते हैं लेकिन---------"
"भैरवी मृगाक्षी" नें "भैरवी ज्योत्स्ना" की ओर देखते हुए कहा "आकाश में उन्मुक्त उड़ने की इच्छा किसकी नहीं होती? लेकिन खुले आकाश में जाना आसन नहीं होता भैरवी ज्योत्सना। वहां खतरे भी उतने ही ज्यादा होते हैं। जब तुम किसी भी तरह की ऊंचाई प्राप्त कर लेती हो, तो संसार की नजर में आ जाती हो। तब संसार सहित पूरा अस्तित्व तुमको उस उंचाई पर से नीचे गिराने में लग जाएगा। जैसे कोई मनुष्य यदि अपने आप को "शैतान" कह कर बुलाये तो कोई ज्यादा विरोद्ध नहीं होगा लेकिन अगर कहीं गलती से भी अपने को तुम "भगवान्" कह कर बुलाना शुरू कर दो तो तुम देखोगी की संसार का हर मनुष्य तुम्हारे विरुद्ध खडा होगा। लोग बुआ बनने के लिए सहयोग करते हैं लेकिन अच्छे को गिराना चाहते हैं। "शैतान" किसी को नहीं चुभता लेकिन "भगवन" हो जाना जरूर चुभता है। एक बात में तुमको बताना चाहती हूँ प्यारी बहन! की "ईशपुत्र" नें सबको सामान प्यार दिया। लेकिन देखने वाले नें कम ज्यादा पाया। ये तो आपकी झोली पर निर्भर करता है की आप कितना पाती हो। "कौलान्तक नाथ" नें तो किसी को कभी शत्रु नहीं माना लेकिन सामने वाले नें सदा शत्रुता जैसा व्यवहार किया। मैं सोचती हूँ की क्या मनोदशा होती होगी "ईशपुत्र" जैसे परम साधकों की जिनको कोई ऊंचाई पर नहीं देखना चाहता अपितु उनको गिराने में संसार जुट जाता है। संसार दिखाना चाहता है की ये कोई उंचा मनुष्य नहीं बल्कि हमसे भी नीचे है। "कौलान्तक नाथ" को कोई सहारा नहीं, उनके पास कोई संगत नहीं, जबकि एक शराबी जुआरी को देख लो, न जाने कितने ही उसे मिल जायेंगे। लेकिन इन सबके बाबजूद, शत्रुओं की अथाह सेना होने के बाद भी मेरे "कौलान्तक नाथ" एक विजेता की तरह खड़े हैं और यही मैं उनमें पसंद करती हूँ। मेरे सभी सहयोगी भाई "ईशपुत्र" को प्रेम करते हैं इसलिए उनका अधिकार है "कौलान्तक नाथ" पर और उनके प्रेम पर। ठीक वैसे ही आप कोई भी क्यों न हों भला मैं आपको "कौलान्तक सम्प्रदाय" से या "कौलान्तक नाथ" से जुड़ने से रोकने वाली कौन होती हूँ। उनको प्रेम करने वाले तो हर उम्र के, हर देश के, हर विश्वास के लोग है। तो मैं अगर "कौलान्तक नाथ" के कार्यों को वर्तमान में देख रही हूँ तो उसका कारण केवल इतना है की भाग्य नें मुझको अवसर दिया है जानती हूँ जो मिला है छीन लिया जाएगा। पर मैं इतने से ही खुश हूँ। अगर मैंने कुछ गलत कह दिया हो तो अपनी अबोध बहन समझ कर क्षमा कर देना।" भैरवी ज्योत्स्ना आवक सी रह गयी उससे कुछ कहते नहीं बन रहा था। लेकिन चेहरा बता रहा था की "भैरवी मृगाक्षी" के सामने अभी वो बहुत बौनी है।"
स्वामी गिरिधरानंद बोले "भैरवी मृगाक्षी! मेरी बात पर यकीन करो। यदि "कौलान्तक नाथ" साधना जानते हैं और अश्वारोहण भी जानते हैं। तो वो केवल "उच्च हिम शिखर नायक" ही नहीं है बल्कि "महाचेतना" है। उनका बड़प्पन ये हैं की वो अपने बारे मैं मौन साध लेते हैं। मौन के दो ही अर्थ होते हैं या तो वो शून्य हैं या फिर अनंत। मैं आप जैसा ज्ञानी तो नहीं हूँ, की अच्छे शब्दों में अपने मन की अनुभूति को बता सकूँ पर इतना कहना चाहता हूँ की "अश्वाधिपति कौलान्तक नाथ" के निकट होने से ही मेरे मन की धारा बदलने लगाती है। ऐसा प्रतीत होता है की मानों सारी साधनाएँ अपने आप हो रहीं हो। कुछ कह नहीं पा रहा लेकिन अनुभव कर रहा हूँ। काश कोई मुझे समझ पाता की मैं "ईशपुत्र" बिना कैसा अनुभव करता हूँ। कोई यदि कहे की उनको छोड़ दो तो लगता है की दुनिया छोड़ने की बात कह रहा है।" ये कहते हुए स्वामी गिरिधरानंद जी कुछ भावुक हो गए। भैरवी मृगाक्षी उनके निकट गयी और बोली ऐसा क्यों सोचते हैं आप "कौलान्तक नाथ" तो इतने साधारण भोले और सौम्य हैं की बिना मन में कोई बात रखे उनसे कहें तो वो मुस्कुरा कर उत्तर देते हैं। आपको तो बहुत-बहुत प्रेम करते हैं। जबकि आप तो उनकी पिता की आयु से भी बड़े हैं और आप तो "महाभाग्यशाली" है की संसार जिसकी कथाएं सुनता है आप उनके साथ जी रहे हैं। अब स्वर्ग की क्या कामना और मोक्ष की क्या इच्छा?" आँखें डवडवाते हुए स्वामी गिरिधरानंद जी अचानक हलके से मुस्कुरा दिए। उनको खुश देख भैरवी मृगाक्षी बोली "बस कौलान्तक नाथ की बात मान लीजिये, मीठा बोलिए, कड़वे वचन से बचिए, मुस्कुराइए गुनगुनाइए और मुस्कराहट बाँटिये और सबको जीने दीजिये, उनके जीवन में व्यर्थ हस्तक्षेप ना कीजिये। बस धर्म यहीं से शुरू होता है।"
शंभर नाथ सबसे पहले देवदार के वृक्ष पर चढ़े और तीब्र बाहु सहित प्रगल्भ नाथ भी ऊपर गए। तीब्र बाहु नें पल भर में ही हल्की काया वाले "ईशपुत्र" को ऊपर खींच लिया और सबने मिल कर कौलान्तक नाथ को नीचे उतारा। किरीट नाथ उनके हाथ पाँव को मसलने लगे साथ ही भैरवी मृगाक्षी नें उनका सर गोद में रख लिया और उनका सर दवाने लगी क्योंकि सारा खून सर की ओर आ गया था। कुछ ही देर "ईशपुत्र" उठे और अपना सर पकड़ कर बैठ गए। लग रहा था की उनको भारी सर दर्द हो रहा है. तभी तीब्र बाहु बोला की "ईशपुत्र" आप आखिर इस तरह से जीवन को खतरे में क्यों डाल रहे हो? "ईशपुत्र" नें तीब्र बाहु का धन्यवाद व्यक्त करते हुए उनको बताया की "महाहिमालायाधिपति" की आज्ञा पर उनहोंने ऐसा किया है। तब तीब्र बाहु बोला "मैं कीचड में आप पेड़ पर------अब सब बराबर हो गया है" कौलान्तक नाथ और तीब्र बाहु मुस्कुराते हैं और फिर तीब्र बाहु नीचे घाटी की और लौट जाता है। अचानक मैंने भैरवी हेमाद्रि को रोकते हुए पूछा अब पहले की तुम ये बात पूरी करो ये तो बता दो की ये तीब्रबाहु कौन है? भैरवी हेमाद्री बोली "दरअसल तीब्र बाहु धेरंड संप्रदाय का योगी है।"
ईशपुत्र ने बताया कि, "मुझे ये रहस्य कहना तो नहीं चाहिए था पर कह देता हूँ की भैरवी मृगाक्षी मेरे समान ही मृकुल पीठ की पीठाधीश्वरी हैं। जब मुझे हिमालय की उपपीठों का अधिकार दिया जा रहा था तब मुझे "मृकुलाधिपति" की उपमा सहित "मृकुल तंत्र" के सभी अधिकार प्रदान किये गए। तब ये रहस्य मेरे सामने खुला था तो मैं भी हतप्रभ रह गया था। भैरवी मृगाक्षी नाम के इस वृक्ष की जड़ें बहुत गहरी हैं। आप जब सुबह की स्तुति करते हैं और हिमालय के सर्वाम्नाय मन्त्रों का उच्चारण करते हैं तो वहाँ आनेवाला शब्द "मृकुलनाथाय नम:" वास्तव में अभी "भैरवी मृगाक्षी को ही समर्पित होता है। पृथ्वी पर आखिरी साँसे गिन रहा तंत्र का "मृकुल सम्प्रदाय" केवल भैरवी मृगाक्षी को ही अपना प्रमुख और आध्या शक्ति मानता है। लेकिन देवी मृगाक्षी एक स्त्री होते हुए भी परिवार समाज से जूझती हुयी भी इस सर्वोच्चता तक कैसे पहुंची ये आप कभी जानेगे को हैरान रह जायेगे।" मैंने बड़ी ही उत्सुकता से पूछा तो "ईशपुत्र! मुझे वो रहस्य बता दीजिये" कौलान्तक नाथ मानों टालने के अंदाज में बोले " स्वामी जी पहली बात तो ये है की ये एक गोपनीय रहस्य है उसे रहस्य ही रहने दो और जब समय आयेगा आपको ये राहस्य भी पता चल जाएगा। फिर अभी आपको साधना और मंत्र जाप और बढ़ना होगा। क्योंकि बातों से नहीं साधकों को हर रहस्य साधना से सुलझाना चाहिए। मैं कुछ कह दूं पर गप्पों का विश्वास नहीं किया जाता। भैरवी मृगाक्षी आपके साथ हैं साधना कीजिये और अनुभव कीजिये।" तब तक भोजन तैयार हो चुका था सबने मिल कर भोजन पाया। भैरवी मृगाक्षी "कौलान्तक नाथ" के चरण दवाते हुए उनसे बातें करने लगीं। मैं बड़ी उहापोह की स्थिति में था की किसे पहले जानने की कोशिश करूँ "ईशपुत्र" को "सर्वेश्वर" को या फिर "भैरवी मृगाक्षी" को। रात्रि घिरते ही मेरी आँखें बोझिल हो गयीं और सबके जागते हुए भी मैं सो गया। सुबह भैरवी स्पन्दना के जगाने पर में उठा। सब तैयार हो गए थे। बाहर भी मौसम बेहद साफ था और सूर्य की किरणों से सफेद बर्फ ऐसा चमक रहा था की सामने कुछ साफ नजर नहीं आ रहा था। आपस में बाते करते हुए सब चल पड़े। सबसे आगे भैरवी मृगाक्षी थीं उनके पीछे "ईशपुत्र" फिर चक्रनाथ और अंत में मैं था। मुझे स्वामी गिरिधारानंद उतरने में सहायता प्रदान कर रहे थे।
सम्पूर्ण संसार को "रहस्य योगियों" नें पांच प्रमुख पीठों के रूप में बांटा हुआ है जिनको क्रमश: १) द्वीपराज पीठ २) चन्द्रदेश पीठ ३) छायामय पीठ ४) स्वर्णभूमि पीठ ५) रहस्यधर्मा पीठ कहा जाता है। इन पीठों को आध्यात्मिक जगत संसार अथवा पृथ्वी कहता है। पृथ्वी का सारा समुद्र सहित क्षेत्र इसमें आता है। हिमालय के योगियों नें चार अति योग्य अवतारी पुरुषों को अपनी पात्रता सिद्ध करने का अवसर दिया है ये चार पुरुष हैं १) किरीट नाथ २) प्रगल्भ नाथ ३) शंभर नाथ ४) सत्येन्द्र नाथ। अब देखना ये है की कौन पञ्चपीठों का नायक बनता है। हिमालय के सभी ऋषि मुनि और साधक मन ही मन "कौलान्तक नाथ ईशपुत्र" को ही भविष्य का पुरुष मानते हैं और अभी से उनकी पूजा और उपासना की जाती है। यदि "कौलान्तक नाथ" पञ्चपीठाधिपति बनते हैं तो इसमें कोई दो राय नहीं होगी की वो ही कलिकाल के परम पुरुष हैं लेकिन ये सब इतना भी आसान नहीं है। निष्कलंक होने के लिए उनको अपमान, अपयश, कुप्रचार और अति विरोध में से हो कर निकलना होगा। संसार प्रश्न करेगा और नियम के अनुसार वो "रहस्य" प्रकट नहीं कर सकते। तो रास्ता आसान नहीं होगा। अपने लिए कभी किसी शक्ति का प्रयोग नहीं कर सकते। मानव हो कर ही सर्वोच्चता पानी है। क्या ये सब आसान है? नहीं। लेकिन फिर भी सकल हिमालय "कौलान्तक नाथ" की स्तुति कर रहा है। ऋषि मुनि गण कुछ ऐसे रहस्य जानते हैं जो शायद आप और हम नहीं जान पा रहे। अन्यथा "पञ्चपीठाधिपति" होने से पहले ही "ईशपुत्र" को इतना मान क्यों दिया जा रहा है ये प्रशन संदेह पैदा करता है। लेकिन "महाहिमालय" में संदेह के लिए स्थान ही नहीं। बस हम पात्र नहीं होते तो जान नहीं पाते। मैंने स्वयं हिमालय में बहुत से वृद्ध दिव्य योगियों को "ईशपुत्र" की नाम महिमा गाते देखा है उनको "कौलान्तक नाथ" की स्तुति करते देखा है। जिस पुरुष को संसार एक आम युवा समझता है वो अपने अंतर में कुछ छुपाये है। ये राज समझ से परे है। लेकिन ऋषि-मुनियों के द्वारा वन्दित पुरुष के साथ आज आप और हम जी रहे हैं क्या ये कम है? हम इस काल का एक भी क्षण नहीं चूकेंगे। मुझे विश्वास है यही इतिहास है।
शंभर नाथ सबसे पहले देवदार के वृक्ष पर चढ़े और तीब्र बाहु सहित प्रगल्भ नाथ भी ऊपर गए। तीब्र बाहु नें पल भर में ही हल्की काया वाले "ईशपुत्र" को ऊपर खींच लिया और सबने मिल कर कौलान्तक नाथ को नीचे उतारा। किरीट नाथ उनके हाथ पाँव को मसलने लगे साथ ही भैरवी मृगाक्षी नें उनका सर गोद में रख लिया और उनका सर दवाने लगी क्योंकि सारा खून सर की ओर आ गया था। कुछ ही देर "ईशपुत्र" उठे और अपना सर पकड़ कर बैठ गए। लग रहा था की उनको भारी सर दर्द हो रहा है. तभी तीब्र बाहु बोला की "ईशपुत्र" आप आखिर इस तरह से जीवन को खतरे में क्यों डाल रहे हो? "ईशपुत्र" नें तीब्र बाहु का धन्यवाद व्यक्त करते हुए उनको बताया की "महाहिमालायाधिपति" की आज्ञा पर उनहोंने ऐसा किया है। तब तीब्र बाहु बोला "मैं कीचड में आप पेड़ पर------अब सब बराबर हो गया है" कौलान्तक नाथ और तीब्र बाहु मुस्कुराते हैं और फिर तीब्र बाहु नीचे घाटी की और लौट जाता है। अचानक मैंने भैरवी हेमाद्रि को रोकते हुए पूछा अब पहले की तुम ये बात पूरी करो ये तो बता दो की ये तीब्रबाहु कौन है? भैरवी हेमाद्री बोली "दरअसल तीब्र बाहु धेरंड संप्रदाय का योगी है।"
ईशपुत्र ने बताया कि, "मुझे ये रहस्य कहना तो नहीं चाहिए था पर कह देता हूँ की भैरवी मृगाक्षी मेरे समान ही मृकुल पीठ की पीठाधीश्वरी हैं। जब मुझे हिमालय की उपपीठों का अधिकार दिया जा रहा था तब मुझे "मृकुलाधिपति" की उपमा सहित "मृकुल तंत्र" के सभी अधिकार प्रदान किये गए। तब ये रहस्य मेरे सामने खुला था तो मैं भी हतप्रभ रह गया था। भैरवी मृगाक्षी नाम के इस वृक्ष की जड़ें बहुत गहरी हैं। आप जब सुबह की स्तुति करते हैं और हिमालय के सर्वाम्नाय मन्त्रों का उच्चारण करते हैं तो वहाँ आनेवाला शब्द "मृकुलनाथाय नम:" वास्तव में अभी "भैरवी मृगाक्षी को ही समर्पित होता है। पृथ्वी पर आखिरी साँसे गिन रहा तंत्र का "मृकुल सम्प्रदाय" केवल भैरवी मृगाक्षी को ही अपना प्रमुख और आध्या शक्ति मानता है। लेकिन देवी मृगाक्षी एक स्त्री होते हुए भी परिवार समाज से जूझती हुयी भी इस सर्वोच्चता तक कैसे पहुंची ये आप कभी जानेगे को हैरान रह जायेगे।" मैंने बड़ी ही उत्सुकता से पूछा तो "ईशपुत्र! मुझे वो रहस्य बता दीजिये" कौलान्तक नाथ मानों टालने के अंदाज में बोले " स्वामी जी पहली बात तो ये है की ये एक गोपनीय रहस्य है उसे रहस्य ही रहने दो और जब समय आयेगा आपको ये राहस्य भी पता चल जाएगा। फिर अभी आपको साधना और मंत्र जाप और बढ़ना होगा। क्योंकि बातों से नहीं साधकों को हर रहस्य साधना से सुलझाना चाहिए। मैं कुछ कह दूं पर गप्पों का विश्वास नहीं किया जाता। भैरवी मृगाक्षी आपके साथ हैं साधना कीजिये और अनुभव कीजिये।" तब तक भोजन तैयार हो चुका था सबने मिल कर भोजन पाया। भैरवी मृगाक्षी "कौलान्तक नाथ" के चरण दवाते हुए उनसे बातें करने लगीं। मैं बड़ी उहापोह की स्थिति में था की किसे पहले जानने की कोशिश करूँ "ईशपुत्र" को "सर्वेश्वर" को या फिर "भैरवी मृगाक्षी" को। रात्रि घिरते ही मेरी आँखें बोझिल हो गयीं और सबके जागते हुए भी मैं सो गया। सुबह भैरवी स्पन्दना के जगाने पर में उठा। सब तैयार हो गए थे। बाहर भी मौसम बेहद साफ था और सूर्य की किरणों से सफेद बर्फ ऐसा चमक रहा था की सामने कुछ साफ नजर नहीं आ रहा था। आपस में बाते करते हुए सब चल पड़े। सबसे आगे भैरवी मृगाक्षी थीं उनके पीछे "ईशपुत्र" फिर चक्रनाथ और अंत में मैं था। मुझे स्वामी गिरिधारानंद उतरने में सहायता प्रदान कर रहे थे।
सम्पूर्ण संसार को "रहस्य योगियों" नें पांच प्रमुख पीठों के रूप में बांटा हुआ है जिनको क्रमश: १) द्वीपराज पीठ २) चन्द्रदेश पीठ ३) छायामय पीठ ४) स्वर्णभूमि पीठ ५) रहस्यधर्मा पीठ कहा जाता है। इन पीठों को आध्यात्मिक जगत संसार अथवा पृथ्वी कहता है। पृथ्वी का सारा समुद्र सहित क्षेत्र इसमें आता है। हिमालय के योगियों नें चार अति योग्य अवतारी पुरुषों को अपनी पात्रता सिद्ध करने का अवसर दिया है ये चार पुरुष हैं १) किरीट नाथ २) प्रगल्भ नाथ ३) शंभर नाथ ४) सत्येन्द्र नाथ। अब देखना ये है की कौन पञ्चपीठों का नायक बनता है। हिमालय के सभी ऋषि मुनि और साधक मन ही मन "कौलान्तक नाथ ईशपुत्र" को ही भविष्य का पुरुष मानते हैं और अभी से उनकी पूजा और उपासना की जाती है। यदि "कौलान्तक नाथ" पञ्चपीठाधिपति बनते हैं तो इसमें कोई दो राय नहीं होगी की वो ही कलिकाल के परम पुरुष हैं लेकिन ये सब इतना भी आसान नहीं है। निष्कलंक होने के लिए उनको अपमान, अपयश, कुप्रचार और अति विरोध में से हो कर निकलना होगा। संसार प्रश्न करेगा और नियम के अनुसार वो "रहस्य" प्रकट नहीं कर सकते। तो रास्ता आसान नहीं होगा। अपने लिए कभी किसी शक्ति का प्रयोग नहीं कर सकते। मानव हो कर ही सर्वोच्चता पानी है। क्या ये सब आसान है? नहीं। लेकिन फिर भी सकल हिमालय "कौलान्तक नाथ" की स्तुति कर रहा है। ऋषि मुनि गण कुछ ऐसे रहस्य जानते हैं जो शायद आप और हम नहीं जान पा रहे। अन्यथा "पञ्चपीठाधिपति" होने से पहले ही "ईशपुत्र" को इतना मान क्यों दिया जा रहा है ये प्रशन संदेह पैदा करता है। लेकिन "महाहिमालय" में संदेह के लिए स्थान ही नहीं। बस हम पात्र नहीं होते तो जान नहीं पाते। मैंने स्वयं हिमालय में बहुत से वृद्ध दिव्य योगियों को "ईशपुत्र" की नाम महिमा गाते देखा है उनको "कौलान्तक नाथ" की स्तुति करते देखा है। जिस पुरुष को संसार एक आम युवा समझता है वो अपने अंतर में कुछ छुपाये है। ये राज समझ से परे है। लेकिन ऋषि-मुनियों के द्वारा वन्दित पुरुष के साथ आज आप और हम जी रहे हैं क्या ये कम है? हम इस काल का एक भी क्षण नहीं चूकेंगे। मुझे विश्वास है यही इतिहास है।