"ईश्वर सदाशिव महादेव" इस नाम में जो उच्चता है, जो गरिमा है, जो पवित्रता है वो इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में किसी तत्व में नहीं। उनके अनंत नाम है और वे हिमालय के शिखरों पर विराजते है। एक और जहां हिमालय के मध्य में रत्न के समान कैलाश पर्वत चमकता है उसी प्रकार वह कैलाश पर्वत हर भक्त के भीतर उसके हृदय में, इसके आज्ञाचक्र में, ब्रह्मरंध्र और कपाल में भी स्थित है! यही विराट दिव्य कैलाश इस ब्रह्मांड के बाहर दिव्य ब्रह्मांड में भी अन्य अन्य रूपों में प्रकट होता रहता है! महादेव ज्ञान के वोे भंडार है, महादेव सृष्टि के वह प्रथम पुरुष है जहां से ज्ञान की ये अविरल धारा, ये दिव्य गंगा प्रवाहित होती है। एक ओर जहां योग है, अध्यात्म है, तपस्या है और गरिमा है वही महादेव अपने आपको इस ब्रह्मांड का नायक होने के बाद भी मनुष्य के रूप में, साधारण देह धारण करके मां पार्वती को भी उसी शरीर में आबद्ध कर के कैलाश के दिव्य शिखर पर ज्ञान प्रदान करते हैं! बहुत कम लोग ऐसे हैं जो यह जानते हैं कि, क्या महादेव ने मनुष्य शरीर धारण किया? यदि नहीं किया तो कैलाश के शिखर पर जो महादेव भस्म लगाए हुए हैं देह पर, चंद्रमा को धारण किए हुए हैं, बाघम्बर अपने शरीर पर धारण करने वाले हैं, त्रिशूल धारण करके जो मां पार्वती को ज्ञान दे रहे हैं, आगम और निगम की उत्पत्ति कर्ता वो महादेव कौन है? यह अपने आप में एक रहस्य है और इसे शायद वेद, पुराण, शास्त्र भी प्रकट नहीं करना चाहते! इस तथ्य को लेकर वह भी मौन रहना ही उत्तम समझते हैं।
किंतु प्रश्न यह भी है कि वह सदाशिव ईश्वर महादेव उस स्वरूप को कब और कैसे धारण करते हैं? क्या शिव में, महेश में, महादेव में कोई अंतर है? क्या रूद्र कोई और है और काल के नियंता महाकाल कोई और ? क्या सदाशिव कोई और है और पारब्रह्म ईश्वर कोई और? अनेकों प्रश्न है। और इनका उत्तर केवल एक है। और वह है कैलाश का रम्य शिखर। कैलाश का वह रम्य शिखर जहां साक्षात् योग माया, साक्षात जगत जननी, साक्षात सूक्ष्मा रूप में, शक्ति के रूप में सर्वत्र उपस्थित रहने वाली मां शक्ति स्वयं देवाधिदेव ईश्वर से प्रार्थना करती है और उनसे प्रश्न करती है; अपनी जिज्ञासाएं प्रकट करती है एक साधारण मनुष्य की भांति। और महादेव भी अपने पारब्रह्म वाले स्वरूप को भूलकर, अपने आप को गुरु के रूप में स्थित कर के एक एक शंका, प्रश्न का समाधान प्रस्तुत करते हैं। जितने विचित्र महादेव है उतने ही विचित्र उनके अलंकरण है। जितनी अद्भुत और श्रेष्ठ मां पार्वती है, मां शक्ति है उतने ही अद्भुत उनके प्रश्न! ऐसा लगता है कि मां पार्वती आपका और मेरा प्रतिनिधित्व कर रही है! हमारे प्रश्नों को वह महादेव के सम्मुख रखती है, एक श्रेष्ठ गुरू के सम्मुख रखती है। और विचित्र अद्भुत, अवधूतेश्वर, महाकपालिक, परम तांत्रिक, परम योगी, समस्त विद्याओं को धारण करने वाले, 64 कलाओं के अधिपति, स्वयं भूत भावन महादेव समस्त प्रश्नों का उत्तर अपनी विचित्र रीति से प्रदान करते हैं !
एक अद्भुत ग्रंथ है जिसे कहा जाता है "विज्ञान भैरव"! याद रखिए यह ज्ञान भैरव नहीं है... विज्ञान भैरव। ज्ञान परिचर्चा का विषय है । मैंने आपको कुछ कहा, आपने सीख लिया यह ज्ञान है। लेकिन मैंने आपको कुछ दिया और उस प्रणाली से आपने कुछ प्राप्त कर लिया वह विज्ञान है! जो प्रयोगात्मक होता है वही विज्ञान होता है। और जो तथ्यात्मक होता है, परिचर्चा जिस पर की जा सके वह ज्ञान होता है! ज्ञान में भी कमियां हो सकती है लेकिन विज्ञान में कमी नहीं होती क्योंकि विज्ञान केवल तर्कों पर नहीं अपितु प्रयोगों पर चलता है, उसके पीछे पूरा एक गंभीर धरातल रहता है। तो प्रश्न ज्ञान के रूप में प्रकट होते हैं और उत्तर विज्ञान के रूप में दिए जाते हैं। अद्भुत ग्रंथ है विज्ञान भैरव। लेकिन क्या है विज्ञान भैरव? कौन है यह विज्ञान भैरव? वास्तव में स्वयं महादेव ही अपने आप को "भैरव" कहते हैं और मां शक्ति को "है भैरवी!" कहते हुए संबोधित करते हैं! और वही मां भैरवी.. भैरव रूप महादेव से प्रश्न करती है! किस महादेव के सहस्त्रों सहस्त्र नाम है। जिस महादेव का ना आदी है ना अंत है! जो अत्यंत प्रखरतम है! और जिनकी माया इतनी अभिभूत कर देने वाली है कि आज तक कोई मनुष्य इस धरा पर उत्पन्न नहीं हो सका जो महादेव के दिव्य स्वरूपों को जान सके! जितना जानते हैं उतना कम रहता है! जितना हम प्रयास करते हैं उतना अधूरा रह जाता है! महादेव जटा जूट थारी है, महादेव काल को संचालित करने वाली सत्ता है, महादेव आपके और मेरे भीतर है,वह सृष्टि को नष्ट करने का अद्भुत सौंदर्य तांडव के रूप में संजोकर रखते हैं! जो स्वयं नटराज है! स्वयं संगीत को धारण करने वाले हैं! जिनकी माया अपरंपार है वह स्वयं को महादेव, शिव, रूद्र, अथवा अन्य नामों से पुकारने की अपेक्षा, यह ज्यादा रुचिकर उनको लगता है, प्रतीत होता है कि उन्हें कोई "भैरव" कहे! साक्षात मां भैरवी, मां जोगमाया उनको भैरव कह कर पुकारती है।
जहां एक और पृथ्वी के कैलाश मंडल पर महादेव विराजमान है, वहीं आपके और मेरे भीतर के कैलाश मंडल पर भी वही महादेव विराजमान है! और वही महाभैरव इस ब्रह्मांड में अनेकों तत्वों के रूप में अन्य अन्य स्थानों पर भी प्रकट होते हैं!
भैरव-भयों से मुक्त जो है एकमात्र, न जीवन, ना मान अपमान, न मृत्यु, ना काल... हर तत्व से उस पार है; और वही महाभैरव अपनी शक्ति को भैरवी कहते हैं! इसी महा भैरव के द्वारा देवी को जो दिया गया वह ज्ञान नहीं है! आगम निगम में ज्ञान अवश्य दिखाई देता है लेकिन उसकी गहराई में उतर जाए तो वहां विज्ञान है! इसी कारण महादेव ने जो कहा, महा भैरव ने जो कहा वह महाविज्ञान अपने आप में "विज्ञान भैरव" बन जाता है! यह एक अभूतपूर्व ग्रंथ भी है! और प्रयोग का इतना सुंदर ग्रंथ कि महादेव देवी को ज्यों ज्यों वह प्रश्न करती है क्यों क्यों धीमे धीमे धीमे ध्यान के बारे में बताते चले जाते हैं! ध्यान के भीतर उतरकर जीवन के प्रश्नों को खोजने की और उनका चित्त प्रेरित करते हैं! महादेव देवी को ज्ञान नहीं देते! उन्हें सूत्र देते चले जाते हैं! उन्हें परंपराएं नहीं देते बल्कि उन्हें प्रयोग देते चले जाते हैं! यह एक प्राचीन विद्या है, प्राचीन परंपरा है और एक पुस्तक में 112 से अधिक ध्यान की परंपराओं, ध्यान की विधियों के बारे में स्वयं महादेव बताते हैं और देवी उस ज्ञान को धारण करती है! प्रश्न होते हैं, उसका उत्तर मिलता है, और प्रणालियां उतनी अद्भुत कि यह केवल पुरुषों का एकाधिकार नहीं है कि केवल पुरुष ही ध्यान में उतर जाए; स्त्रियों के लिए विशेष तौर पर एक अलग सी प्रणाली ध्यान की महादेव पार्वती माता को प्रदान करते हैं! उनके माध्यम से वह हमको, आपको, समस्त सृष्टि को प्राप्त होता है। तो वही ध्यान की प्रणालियां, वही योग की प्रणालियां, वही तंत्र की संपुटित प्रणालियां भेरवो के लिए है, भैरवियों के लिए है।
भैरव कौन? भैरवियां कौन?जिनको महादेव रूद्र से इतना प्रेम हो जाए कि वह अपने हृदय में महादेव का ही प्रतिबिंब देखने लग जाए; ऐसा ही ह्रदय अपने आप में भैरव हो जाता है! जो उस महाभैरव को देखकर कहें कि मैं भी भैरव हूं! उस शिव को देखकर कहे कि मैं भी शिव हूं! उस पार्वती को देखकर जो कहे कि मैं भी भैरवी हूं! उस पार्वती मां की झलक, उस शक्ति की झलक अपने हृदय प्रांगण में देख सके! वही भैरवी है। तो आपको भैरव और भैरवी तत्व को धारण करना है, इस हृदय को धारण करना है! और वह जो ग्रंथ है विज्ञान भैरव.. उसके भीतर की सूक्ष्म प्रणालियों को गुरु के सानिध्य में ग्रहण करना है! बेहद अद्भुत परंपराएं, रीतियां, उसके भीतर का सूक्ष्म ज्ञान आपको न जाने किस दूसरे आध्यात्मिक संसार में ले जा सकता है लेकिन उसके लिए सबसे पहले यह जरूरी है कि आप के भीतर यह भैरव तत्व हो और दूसरा आपके भीतर विज्ञान नाम का तत्व भी हो! इस विज्ञान को अगर आप धारण करना चाहते हो,भीतर के इस विज्ञान को यदि आप समझना चाहते हैं तो शिव के सूत्रों को समझना होगा। शिव ज्ञान जाता है लेकिन ज्ञान धारण करने के लिए मां शक्ति बैठी है। आपको भी ज्ञान धारण करना होगा तो गुरु के चरणों में आपको बैठना ही पड़ेगा और गुरु के ज्ञान को शिव मानना होगा और स्वयं को मां शक्ति पार्वती की तरह हृदय प्रधान... क्योंकि मां पार्वती का ह्रदय ममता से भरा है, स्नेह से भरा है, प्रेम से भरा है... उसमें श्रद्धा है और समर्पण है महादेव के प्रति! आपको भी जब हृदय में इसी प्रकार गुरु के प्रति समर्पण, प्रेम, स्नेह और श्रद्धा अनुभव होने लगे तो विज्ञान भैरव के द्वार आपके लिए खुलने लगते हैं! किंतु विज्ञान भैरव का पात्र कौन? कौन पुरुष, कौन सा भैरव अपने भीतर इस विज्ञान भैरव नाम के इस दिव्य भैरव को उतार सकता है? कौन भैरव अपने नाम के आगे विज्ञान भैरव जोड़ सकता है? और कौन सा पुरुष इस पृथ्वी पर, भूमंडल पर है जो विचरण करें और समस्त संसार उसको विज्ञान भैरव के दृष्टिकोण से देखें! इसके लिए आपको अपने भीतर उतरना पड़ेगा!आपको अपने भीतर की यात्रा करनी होगी और उस यात्रा का प्रारंभ होता है विज्ञान भैरव नाम की दीक्षा से...
विज्ञान भैरव दीक्षा! एक दीक्षा तो वह है जो आपको भैरव बना देती है, एक दीक्षा वह है जो भैरव के मन मस्तिष्क के भीतर विज्ञान की दृष्टि उत्पन्न कर देती है! विज्ञान यदि ना हो तो भ्रमों का संसार है! आप ध्यान भी करेंगे तो किसी को रंग दिखाई देते हैं! किसी को सुगंध आती, है तो किसी को अमृत का स्वाद अनुभव होता है! किसी को कंप कंपी महसूस होती है, तो किसी के सभी चक्रों में स्पंदन होने लगता है... यह सभी भ्रम है, सत्य नहीं है और यदि आप इन भ्रमों में फंसे रह गए, यदि आपने इन भ्रमों को सत्य मान लिया तो आप ज्ञानी तो कहला सकते हो विज्ञानी नहीं कहलाने वाले; विज्ञान वह है जो अपने मस्तिष्क और मन के सारे तलों से उस पार विशुद्ध सत्य की ओर जाए, उसे नहीं लेना देना कि कौन सी गंध है, उसे नहीं लेना देना कि कौन सा अनुभव हो रहा है, उत्तर नहीं लेना देना कि मैं 4 घंटे या 10 घंटे समाधि में हूं, वह अपनी यात्रा जारी रखेगा और इन सभी तत्वों को असत्य के रूप में स्वीकार करेगा। विज्ञान बड़ा कठोर है, वह आपके हृदय की भावनाओं के बारे में सोचता नहीं है! आधुनिक विज्ञान से प्रेरणा लीजिए... आप आसमान में चंद्रमा देखते हो, बचपन से चंद्रमा की कहानी सुनाते हो, अपनी प्रेमिका को कहते हो तुम चांद सी सुंदर हो,बचपन में बालक को कहते हो कि यह चंदा तुम्हारे मामा है, न जाने चांद की कितनी कहानियां, चांद पर कैसी कैसी दादियां और नानियां है! लेकिन ज्यों ही आप बड़े होते हैं, विज्ञान से आप का सामना होता है तो आपकी सारी इन कहानियों को टूट जाना होगा, इनको गिर जाना होगा, इनको नष्ट हो जाना होगा क्योंकि यह चंद्रमा जो आपके हृदय में बसने वाला है, आपके हृदय में कल्पना के रूप में स्थापित है वह चंद्रमा छद्म है! विज्ञान उस काल्पनिक चंद्रमा को नष्ट कर देगा। आपको पीड़ा हो सकती है, आपके हृदय में चोट पहुंच सकती है किंतु विज्ञान इस तत्व की चिंता नहीं करेगा। वह तो कहेगा भले ही तुम पीड़ा में से गुजरो, भले ही तुम इस सत्य को न स्वीकारो लेकिन सत्य तो यही है कि यह चंद्रमा एक पिंड है और इस पृथ्वी के चारों तरफ घूमने वाला एक और छोटा लघु उपग्रह है!
आप अक्सर धर्मगुरुओं के पास, धर्मगुरुओं के सानिध्य में जाने वाले आध्यात्मिक लोगों के पास जाइए, न जाने कैसी कैसी कूड़ा करकट रूपी भ्रांतियों से भरे पड़े हैं उनके मस्तिष्क। कोई अपने आप को भगवान का अवतार मानता है, किसी को लगता है मैं ही शिव हूं, कोई अपने आप को भगवान विष्णु का अवतार बताने पर जुटा है, कोई अपने आपको कल्कि कहता है, तो कोई अपने आप को दैत्य या रावण कहने से से भी नहीं चुकता, कोई अपने आप को ऋषि मुनि बताता है, तो कोई अपने आप को दिव्य सत्ता बताता है...अजीबो गरीब किस्म के ये भ्रम मस्तिष्क में घर कर गए है। लगता है मनासोपचर की जगह मानस मानस के उपचार की आवश्यकता है...पूजन की नहीं चिकित्सा कि आवश्यकता है! मस्तिष्क के ततुओंं में न जाने ऐसे कौन कौन से भ्रम और ऐसे कौन कौन से तत्त्व और रसायन है जो अजीबो गरीब भ्रम पैदा कर देते हैं। योगी ध्यान कर रहे है और कहते है में ब्रह्मांड में गति कर रहा हूं, मेरे पांच शरीर बन गए हैं, मेरे सौ शरीर बन गए है...लेकिन शिव कहते है कि तुम्हे प्रयोग करना है उस प्रयोग में भीतर उतरते चले जाना है। विज्ञान भैरव कौन है? आप और हम विज्ञान भैरव है लेकिन कब? जब हमारे ये भ्रम जब हमारी ये भ्रांतियां एक ओर हो जाएं, हम इनसे दूर हो जाए, ये छन जाए, परिष्कृत हो जाए, संस्कारित हो जाए। अध्यात्म को छानते जाइए, भक्ति को छानते जाइए, श्रद्धा को छानते जाइए, हृदय को छानते जाइए, जिव्हा को छानते जाइए, अध्यात्म के तमाम रसों को छानते जाइए तो अंत में बुद्धि जो उत्पन्न होगी सत्यमय वह विज्ञानमय होगी।
तो आप और हम... वह सभी लोग जो शिव के भैरव है, अपने हृदय में शिव को प्राप्त करते हैं, शिव को मानते हैं और जो इस शिव की योगिनी कौल सिद्ध परंपरा से जुड़े हैं, जो कुल्लू की कौलांतक दिव्य परंपरा से जुड़े हैं, जो कौलांतक पीठ से जुड़े हैं, शास्त्र जिस कौलांतक पीठ को कुलांत पीठ कहकर संबोधित करता है; कुरुकुल्ला इत्यादि शक्तियां जिसकी नायिका है, चौसठ योगिनीयां जहां योग को प्रकट करने वाली है! एक एक योगिनी एक एक योग की परंपरा की नायिका शक्तियां है, तो 64 योग की परंपराएं उन योगिनियों ने संभाल कर रखी है और तंत्र ने उसका तांत्रिक स्वरूप सहेज कर रखा है लेकिन कितनों को आप और हम जानते हैं? इसका सा केवल वह भैरव धारण करता है जो गुरु रूपी शिव के सानिध्य में बैठकर सर्वप्रथम दीक्षा तत्व को शाक्त कुल से प्राप्त करता है...शैव कुल से नहीं! विज्ञान भैरव पुरुष प्रधान है लेकिन इसके ध्यान के भीतर जब जाएंगे...कुछ प्रणालियां केवल शाक्त प्रधान (स्त्री प्रधान) है। समझना होगा शिव अर्धनारीश्वर है, शक्ति भी स्वयं है और शिव के रूप में स्थूल भी स्वयं है! वही शिव आपके और मेरे भीतर भी विद्यमान है बस हमें उसकी यात्रा में उतरना है। विज्ञान रूपी ज्ञान प्राप्त करना है, छद्मता नहीं।
इसीलिए गुरु के पास जाकर विज्ञान भैरव दीक्षा प्राप्त करनी होगी! विज्ञान भैरव वह दीक्षा है जो आपके भीतर एक प्रणाली के रूप में बस जाएगी इसलिए उसे तंत्र का नाम दिया! तंत्र कोई खून खराबा नहीं है, कोई हिंसा नहीं है, कोई शोषण नहीं है, तंत्र एक पद्धति है! तो विज्ञान भैरव के इस तंत्र रूपी सिद्धांत को अपने भीतर दीक्षा के माध्यम से उतार लेना! शाक्ति दीक्षा आवश्यक है इसमें ! शाक्ति दीक्षा के माध्यम से आपके भीतर वह तत्व उतर जाए फिर योग को समझ लेना, 64 योग की परंपराओं को समझ लेना; की एक-एक योगिनी के पास आखिर कौन-कौन सा योग अवस्थित है, कौन सी योग की और तंत्र की वो परंपराएं है जिसकी वो नायिका शक्तियां है और क्यों शिव बिना उनका नाम लिए मां पार्वती को अत्यंत सहज सूत्र देते हैं लेकिन सहज दिखने वाले सूत्र की थाह कितनी गहरी है! ज्यों ही दीक्षा घटित हुई त्यों ही योग की यात्रा में उतर आना, क्यों ही समाधि की ओर दृष्टिपात करना, त्यों ही कुंडलिनी को समझने की कोशिश करना, त्यों ही शिव और शक्ति को जानने के रहस्य में जूट जाना और त्यों ही विज्ञान भैरव तंत्र के अद्भुत ग्रंथ को सीने से लगा लेना! यह वह अद्भुत ग्रंथ है कि इस पृथ्वी पर महात्मा बुद्ध जैसे अवतार भी आए, उन्होंने भी विज्ञान भैरव तंत्र के सूत्र को अपना कर ध्यान के लिए उसी के सूत्र को अपने जीवन में उतारा है... हालांकि कालांतर में बहुत सारे लोग यह कहते हैं कि बौद्ध धर्म से यह सूत्र विज्ञान भैरव में आया... लेकिन याद रखिए, विज्ञान और भैरव है... भैरव याचक नहीं है; भैरव ज्ञान के किसी उपाय, किसी शैली, किसी पद्धति के याचक या उसे एकत्रित करने वाले, बीनने वाले काक अर्थात् कौवे नहीं है! भैरव सत्य के ऊपर चलने वाले, सत्य को अपने गंभीर मति से समझने वाले, और सत्य यदि समझ में ना आए तो अपने मस्तिष्क में नवीन नाड़ी तंत्र का विकास करने वाले अद्भुत शिव के गण होते हैं! आप और हम याचक नहीं है! आप और हम पुरुषार्थी है! कर्मयोग को समझने वाले हैं। इसलिए हम विज्ञान भैरव को एक नई दृष्टि से समझते हैं, हमारे भीतर विज्ञान भैरव का एक एक हिस्सा ऐसे बसा है, एक एक श्लोक, एक एक पन्ना, एक एक शब्द ऐसे बसा है जैसे हमारी इन नलिकाओं में रक्त बसा है! हम शिव की परंपराओं में पैदा होने वाले, पलने बढ़ने वाले वह नन्हे शिशु है जो युवा हो जाते है, फिर योगी बनते हैं, वृद्ध हो कर भी अपनी गरिमा को नष्ट नहीं होने देते, अपने इस विज्ञान को नष्ट नहीं होने देते,अपनी बुद्धि को भ्रमों में नहीं जाने देते! हम बाह्य आडंबरों से मुक्त है । हम विज्ञान भैरव को पढ़ते नहीं है, हम विज्ञान भैरव के सिद्धांतों को सीखते नहीं है हम उनको जीते हैं! हम गुरु से विज्ञान भैरव दीक्षा प्राप्त कर स्वयं को विज्ञान भैरव बनाने के पथ पर अग्रसर होते हैं और एक एक सांस हमारी अपने आप में विज्ञान भैरव के सूत्र है!
आपके जीवन में यह विज्ञान भैरव उतर जाए, आप यह समझ सके कि आपके भीतर भी एक स्त्री है, आप यह समझ जाए कि आपके भीतर भी एक पुरुष है, आप यह समझ जाए कि आप स्त्री और पुरुष के तत्व से भी ऊपर हो, आप किसी तत्व से भयभीत ना हो। कुछ लोग, कुछ धर्म ऐसे हैं मूर्तियों को देखकर कांप जाते हैं कहते हैं यह भगवान नहीं! और कुछ धर्म ऐसे हैं जो कहते हैं कि वह सूक्ष्म भगवान नहीं, कुछ जीवित मनुष्यों में भगवान को देखते हैं,कुछ प्रकृति के तत्वों में भगवान को देखते हैं लेकिन विज्ञान भैरव वह है जो कहीं भी भ्रमित नहीं, वैज्ञानिक दृष्टि से, परम प्रज्ञा से बेहद उत्तम, पवित्र, स्थिर बुद्धि से उस परम ज्ञान को समजते है, धारण करते है... इसीलिए वो विज्ञान भैरव है!
क्या आप विज्ञान भैरव हो? क्या आपके अंदर विज्ञान भैरव तत्व है? क्या आपके भीतर मां पार्वती, मां शक्ति, मां विज्ञान भैरवी आपके मस्तिष्क और हृदय में निवास करने वाली शक्ति है? जीवन में ग्रंथ केवल ग्रंथ नहीं है... याद रखिए तंत्र के ग्रंथ ग्रंथ या पुस्तकें नहीं है, कि कोई लेखक उसे लिख से और आप उसे पढ़ ले, या कोई तंत्र आचार्य या कोई तांत्रिक एक पुस्तक लिखे और कहे, "देखिए मैंने विज्ञान भैरव की व्याख्या लिख दी है और मै तुम्हे इसका उपदेश करता हूं, तुम इसे समझ जाओगे!"...गुरु का स्पर्श लीजिए ; यहां स्पर्श की अनिवार्यता है! ये तुम्हारी मनघड़ंत व्याख्याओं पर नहीं चलेगा, यहां तुम्हारे कुतर्क नहीं चलेंगे, यहां पर तुम्हारे बहाने नहीं चलेंगे! यहां को गुरु कहेगा वो तुम्हे धारण करना ही होगा। यहां जो शिव ने परंपरा दी उसको तुम्हे सत्य स्वरूप में स्वीकारना ही होगा! यहां तुम्हे इसे परंपरा के साथ इसे धारण करना होगा, तब ये ग्रंथ नहीं रहेगा, तब ये जीवित पुरुष हो जाएगा !विज्ञान भैरव तंत्र के भीतर इतने रहस्य छिपे हैं कि जानना बड़ा जटिल लगता है लेकिन परेशान होने की आवश्यकता नहीं है; गुरु शिष्य परंपरा है, मै अभी जीवित हूं! तुम भी अभी जीवित हो! मेरे बाद भी इस रहस्य को बतनेवाले हमारी परम्पराओं के पुरोधा आगे आएंगे! जिन पुरोधाओं से मैंने सीखा उन्होंने मेरे भीतर भी इसका बीज डालकर स्थापित किया था, आज अंकुरित है! आज मै चाहता हूं कि ये परंपरा मुझ तक न रहे; तुम इसे स्वीकारो, धारण करो। एक ओर भैरव जहां विकराल है वहीं सौंदर्यशाली! एक ओर जहां वो तांडव करते हैं वहीं को लास नृत्य में भी भगवती के स्वरूप के भीतर ही विद्यमान रहते हैं! जहां वो रूद्र वीणा धारण करनेवाले है, नाद और संगीत के अधिपति है, उस सदाशिव ईश्वर महादेव के बारे में मै केवल ये कह सकता हूं कि, "वही विज्ञान भैरव है!" उनके सूत्रों को समझने के लिए आपको भी विज्ञान भैरव ही होना होगा! इससे कम में समझौता होने की गुंजाइश नहीं है, संभावनाएं नहीं है; इसलिए जीवन में जितनी भी तकलीफें हो तुम्हारी मुझे नहीं पता; तुम भैरव हो लडो, पैदा ही लड़ने के लिए हुए हो; हारने के लिए नहीं। विज्ञान भैरव हो तो अपने भीतर की वीरता को जागृत रखना, अपने भयों को रोंद कर रखना और भयों से उस पार निकाल जाओ। आओ हम इस विज्ञान भैरव के एक एक पृष्ठ पर अपने आप को बिछा देते हैं! विज्ञान भैरव के एक एक शब्द को सत्य स्वरूप अपने भीतर प्रयोगात्मक रीति से उतारते है, इसे समझते हैं! मै गुरु के सानिध्य में इसे समझ रहा हूं, स्वीकार रहा हूं; तुम्हे अपने गुरु के सानिध्य में इसे समझना है! श्रेष्ठ गुरु..श्रेष्ठ शिष्य...महा भैरव.. महा भैरव के महा भैरव पुत्र... इसी प्रकार ये परंपरा आगे बढ़ रही है, बढ़ेगी। इसलिए विज्ञान भैरव को पढ़ना नहीं धारण करना! स्वीकारना नहीं आत्मसात् कर लेना! इसे गुरु से खरीद मत लेना, धारण कर लेना! आज्ञा चक्र से ब्रह्मरंध में स्थापित कर लेना, यहां से विज्ञान भैरव की शुरुआत होगी । पुस्तक से उस पार एक और विज्ञान भैरव आपकी प्रतीक्षा कर रहा है उसकी तलाश में निकल जाओ, अभी इसी समय।
- महासिद्ध ईशपुत्र
देश, काल, स्थान और स्वभाव के अनुरूप मंत्र, औषधि और तप भी भिन्न भिन्न परिणाम उत्पन्न करते हैं! इसी प्रकृति में रहकर संपूर्ण ज्ञान प्राप्त किया जाता है! तथा उसे भोजपत्र और ताड़ पत्रों पर अंकित कर सभ्यता को दिया जाता है! और सभ्यता उन्हीं पन्नों के माध्यम से अलौकिक ज्ञान को समझने की चेष्टा करती है! हिमालय पर इनके अनेकों गुप्त स्थान होते हैं, जहां आम मानव न पहुंच सके! ऋतु परिवर्तन होने के साथ-साथ साधना का तरीका भी परिवर्तित होता चला जाता है! अक्सर योगी अपनी साधनाओं के लिए ऐसे ऐसे स्थान चुनते हैं जहां जाना बड़ा विकट हो! शीत ऋतु में योगी अपनी देह पर भस्म मल लेते हैं! हिमालयों की सीधी पगडंडियों पर चलकर यह अक्सर दरों के आर पार गुजर जाया करते हैं और कभी पतझड़ जैसी ऋतु आने पर यही जोगी शरीर पर मृदा का लेप कर अपने देह को विशेष प्रकार के वृक्षों के सूखे पत्तों में स्थिर कर समाधि लगाने का प्रयत्न करते हैं! जिसे देखते ही अपने आप में एक विचित्र अनुभूति होती है! संपूर्ण मानवीय धारणाओं को दरकिनार कर अपने मस्तिष्क के विभिन्न तंतुओं को जागृत कर ये अतीन्द्रिय हो जाते हैं! सदा अपनी क्रियाओं में एकाग्रता और एक निष्ठा रखना ही इनकी सफलता का परम रहस्य है! प्रकृति में जहां भी इन्हें सुंदर स्थान मिल जाए बस वही समाधि लगाने के लिए बैठ जाते हैं! फिर वह चाहे नदी हो, नाला हो, पर्वत हो, कंदरा हो या फिर घना वनप्रदेश! यहां तक कि वृक्षों के ऊपर, किसी विशाल चट्टान के नीचे, झाड़ियों के अंदर अथवा किसी भी शुद्ध स्थान में इन्हें समाधि लगाए देखा जा सकता है! क्यों क्या हम इस ऋषि परंपरा को भूल गए? शायद यही वह परंपरा है जिस पर चलकर सभी ऋषि-मुनियों ने ज्ञान प्राप्त किया था! किंतु अब शायद बहुत कम लोग शेष रह गए हैं जो इस विधा को जानने वाले हैं! आज सभ्यता प्रकृति से दूर होती जा रही है! कृत्रिम ता में लीन होती जा रही है! यही कारण है कि वे निरोगी नहीं है! वह स्वस्थ नहीं है! वह आत्म सत्ता से जुड़े नहीं है! अब वह जमाने शायद बीत गए जब एकांत में साधक आत्मचिंतन में तल्लीन नजर आता था! आज नदी, नाले, कंदराएं, गुफाएं, पठार और वृक्षों के कोटर रिक्त हो गए हैं क्योंकि आज वहां कोई आत्मा तितिक्षु नहीं है! ऐसा श्रेष्ठ ऋषि जीवन आखिर क्यों छूट गया? आखिर मानव के मन में मलिनता क्यों आ गई? मानव परमात्मा से, प्रकृति से और अपने आप से दूर क्यों हो गया?
क्योंकि वह योगी बनना ही भूल गया! वह साधना की विलक्षणताओं को ही भूल गया! आइए हम भी योगी बनने का प्रयास करें, हम भी ऐसा जीवन जीने का प्रयास करें ताकि हम विराट बन सके, हम उस शाश्वत सत्य को जान सके जिससे यह सृष्टि उत्पन्न होती है और अंततः जिसमें यह सृष्टि पूर्ववत समा जाती है! हम जान सके अध्यात्म के शीर्षतम सोपानों को! हम जीवन के उस पार देख सके! हम अथाह ज्ञान को प्राप्त कर अमृत मार्ग की ओर बढ़ सके!
- महासिद्ध ईशपुत्र
आज हम वास्तविक मार्ग से च्यूत हो गए हैं। आज हमें वास्तविक मार्ग बताने वाला ही कोई ना रहा! आज स्वयं तपस्या करने वाला ही ना रहा! आज नैसर्गिक ज्ञान और अलौकिक ज्ञान को जानने वाला शायद कोई ना रहा! आज शीतलता और ग्रीष्मा को सहने वाले योगी ही न रहे! आज वैभव छोड़कर हिमालय विचरण करने वाले न रहे! शायद इसीलिए आज वास्तविक धर्म खो गया है और रह गया है मात्र नकली और बनावटी धर्म! योगियों की साधना पद्धति अपने आप में ही बड़ी विचित्र होती है! जितना भी हम जानने का प्रयास करें उतनाहीकमपड़ताहै! इस प्रक्रिया को शब्दों में बांध लेना एक मूढ़ प्रयास ही होगा ! हिमालय की गहरी तराइयों एवं घाटियों में रहने वाले यही योगी हमारी संस्कृति के प्रतीक है! हिमालय के आकाश के सूर्य है! तथा यही है वो विलक्षण मानव को मानवता का सन्देश देते है! और उस परमात्मा की ओर सोचने पर विवश कर देते हैं, जिसके अस्तित्व से हम आज शायद कट से गए हैं! अभी तक कोई समझ नहीं पाया इनके प्रकृति प्रेम को! अभी तक कोई जान नहीं पाया इनकी खोजों को! अभी तक कोई समझ नहीं पाया इन मायाधारियों की माया को! कभी यह महीनों एक स्थान पर रहकर समाधि लगाते हैं, तो कभी विचित्र क्रियाएं करते हैं! और प्रत्येक क्रिया का अपना एक गूढ़ विज्ञान होता है! सभ्यता से दूर रहकर सर्वदा अपने चित्र को परमात्मा की ओर लगाने वाले यह योगी अद्भुत अनुभवों से भरे होते हैं! यही कारण है कि इतिहास में योगियों को सर्वश्रेष्ठ माना गया है! प्रकृति के खूबसूरत प्रांगण में बसने वाले, शुद्ध वायु और जल का सेवन करने वाले, कठिन परिवेश में अपने जीवन को ढालने वाले योगी ही शाश्वत सत्य को जान पाते हैं! बाल्यावस्था से युवावस्था तक लगातार ब्रह्मचर्य का पालन करना होता है! साथ ही योग, ध्यान, ज्योतिष, वास्तु, नक्षत्र विज्ञान, पारद विज्ञान, पशु शास्त्र, पक्षी तंत्र, तंत्र ग्रंथ, आगम-निगम, शावर इत्यादि वैदिक कर्मकांड जैसी अनेकों विधाओं का स्वयं अध्ययन करना पड़ता है!
जहां घने जंगल होते हैं अथवा वन्य प्राणियों का भय रहता है वहां योगी अपनी साधना हेतु ऐसे स्थानों का चुनाव करते हैं जहां किसी प्रकार का पशु पक्षी तंग न कर सके और वो घंटों समाधि में लीन रह सके। आज इस जगत में धर्म अध्यात्म का यह सनातन मार्ग लगभग लुप्त हो चुका है! बड़ी बेदना है कि सभी लोग किताबी ज्ञान अथवा बौद्धिक चातुर्य को ही धर्म और अध्यात्म समझ बैठे हैं । हमें याद रखना चाहिए कि यदि हमें शाश्वत सत्य को जानना है तो हमें भी कुछ कुछ इसी तरह की प्रणाली में से होकर गुजरना होगा । प्रकृति को समझकर आत्मसात करना होगा। अपने भीतर की दुभितियों से मुक्त होना होगा। प्रकृति में इस कदर खो जाना होगा कि हम अपनी सत्ता को ही भूल जाए! और साथ ही अनेकों प्रयासों से अपनी चेतना को विकसित करना होगा। प्रकृति के एक एक हिस्से से हमें शिक्षा ग्रहण करनी होगी। जिस प्रकार योगी हिमालय के शिखरों पर साधना करते हैं उसी प्रकार वह भीतर की चेतना के उच्चतम सोपान पर होते हैं। आखिर वह क्या करते हैं? यह सब तो गुप्त है! लेकिन निश्चित ही उद्देश्य चेतना का विकास ही है। मार्ग अनेक हो सकते हैं लेकिन उद्देश्य एक ही होता है। कभी सूरज की तपती गर्मी, कभी हिमालय का निम्न तापमान, कभी तेज बरसात, कभी प्रकृति का कोप... सब सहते हुए योगियों को अपने मार्ग पर बढ़ना होता है! मार्ग में अनेकों परीक्षाएं होती है उन्हे लांघते हुए ही साधना में सफलता पाई जा सकती है। आज ऋषि परंपरा का सूर्य डूब रहा है! आज वास्तविक खोज के मार्ग अवरुद्ध हो चुके हैं! आज हमें खोजना होगा भारतीय ऋषि परंपरा को! हमें स्वयं तप करना होगा।
- महासिद्ध ईशपुत्र
योगी स्वयं पर्यावरण की बारिक परख रखते हैं इसलिए वह स्वयं ही अपनी साधनाओं में ऋतु अनुकूल परिवर्तन करते हैं। इसके साथ ही साधना काल में भोजन का बड़ा महत्व रहता है। अपनी दैनिक तपश्चार्य के पश्चात कुछ समय भोजन के निर्माण के लिए भी दिया जाता है; यह भोजन भी अत्यंत सादा होता है। साधना काल में नमक, मिर्च आदि से युक्त भोजन नहीं किया जाता! और ना जिव्हा की लोलुपता के लिए किसी प्रकार का स्वाद ही लिया जाता है! योगी अपने भोजन में कंदमूलों का अधिक सेवन करते हैं और भिन्न भिन्न प्रकार के सूखे पत्तों को अथवा फलों को एकत्रित कर अपने साधना काल में प्रयुक्त करते हैं। आलू लेकर उसे आग में भूना जाता है और उसका भोजन किया जाता है। साथ ही कभी-कभी आटे से विशेष प्रकार की मोटी मोटी रोटियां बनाई जाती है, जिन्हें तिककड़ कहा जाता है; ये तिक्कड मां अन्नपूर्णा का प्रसाद कहे जाते हैं। साधना काल में प्रत्येक योगी को स्वपाकी बनना पड़ता है तथा बड़े धीर स्वभाव से संयम पूर्ण प्रत्येक आचरण करना होता है क्योंकि प्रत्येक क्रिया उसके विकास को प्रभावित करती है।
- महसिद्ध ईशपुत्र
योगी अलग-अलग तौर तरीकों से साधनाएं करते है। कभी किसी गुफा में सूखे पत्ते बिछाकर घंटों समाधि में लीन रहते हैं, तो कभी किसी वृक्ष के नीचे । हमेशा इनके पास बहुत कम सामान पाया जाता है; एक त्रिशूल अथवा चिमटा, और दूसरा कमंडल । कमंडल में जल अथवा भोजन रखा जाता है; तथा चिमटा और त्रिशूल अपनी रक्षा के लिए हथियार है। योगी अपने आप को बहुत कष्ट देते हैं लेकिन उस कष्ट से मिलने वाला लाभ सम्पूर्ण जगत को मिलता है। योगियों को समाधि लगाना व भ्रमण करना अत्यंत प्रिय होता है। कभी कभी हिमालय पर योगी किसी गुफा या कंदरा का कृत्रिम रूप से निर्माण करता है! जहां पत्थरों की चुनाई कर मिट्टी से उसे लेप दिया जाता है, वही स्थान उनका प्रमुख आश्रम रहता है तथा उसी आश्रम से प्रतिदिन योगी आसपास के क्षेत्रों में साधना करने जाते हैं व संध्या काल में वापस लौट आते हैं। अत्यंत शीतलता से बचने के लिए उनके सम्मुख अग्नि का धुना चेतन रहता है। जिससे शीतलता तो दूर होती ही है साथ ही वन्य प्राणियों से भी रक्षा होती है। प्रतिदिन प्रातः योगाभ्यास किया जाता है; प्राणायाम व धारणा की जाती है; मंत्रजप, यौगिक क्रियाएं भी की जाती है; अनेकों गुप्त क्रियाएं भी होती है व दिन की शुरुआत भी इसी क्रम से होती है। साधना के तौर-तरीके भी परिवर्तनशील होते है।
- महासिद्ध ईशपुत्र
हिमालय सुदूर पर्वत श्रृंखलाओं के रूप में आदि काल से स्थित है। भारतीय धर्म, अध्यात्म और प्रकृति की अनन्यतम विरासत है हिमालय। इनकी जीवन यात्रा अनूठी होती है। इनको क्रियाओं का ज्ञान अद्भुत होता है। प्रकृति के सुरम्य परिवेश में ये योगी भिन्न भिन्न साधनाएं करते हैं और भिन्न भिन्न चेष्टाएं करते हैं; जिन्हें तप कहा जाता है। ये तप कि जीवनशैली बहुत ही अनूठी है। योगी विशेष वृक्षों के पत्तों को एकत्रित कर धुना रमाते है और इस धुने से उठनेवाके धुएं से अपनी बाह्य देहशुद्धी करते हैं। ऐसी धारणा है कि देह भी बाहर से अशुद्ध होती है जिसे औषधियों से उठानेवाला धुआं शुद्ध करता है; जिसके परिणास्वरूप साधक देह की पवित्रता को अनुभूत करता है। घंटों धुएं के भीतर समाधि लगाई जाती है और लगातार प्राणायाम किया जाता है; साथ ही मंत्र और धारणा का भी सहारा लिया जाता है, ताकि साधक अपने आप को परम तप के लिए तैयार कर सके। योगियों का सर्वप्रथम नियम है कि वे एक स्थान पर स्थित रहकर साधना नहीं करते; वे ऋतु और समय के अनुकूल भ्रमण करते रहते हैं; इन्हें शिक्षा दी जाती है कि, जितना हो सके उतना प्रकृतिमय जीवन जिया जाए, यही कारण है कि योगी योगी हमेशा अपनी साधना किसी झील, तालाब, पोखर, नदी नाले, पर्वत, कंदरा, गुफा अथवा पठार पर ही करता है। शरीर को कष्ट सहने के लिए तैयार किया जाता है ताकि योगी कठोर अनुशासनात्मक साधना प्रणाली में खरा उतर सके। कहते हैं व्यक्ति का विकास उसके वातावरण, जल, भोजन और रहन सहन पर निर्भर करता है; ठीक उसी प्रकार साधक का जीवन भी इन्हीं सब पर टिका है, क्योंकि जब तक साधक प्रकृति में रहकर अथवा तप करके अपनी चेतना को विकसित नहीं करता तब तक आत्मानुभूति सहज नहीं होती।
- महासिद्ध ईशपुत्र
रोगानशेषानपहंसि तुष्टा रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान् । त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति ॥6॥
भावार्थ :
देवी ! आप प्रसन्न होने पर सब रोगों को नष्ट कर देती हैं और कुपित होने पर मनोवांछित सभी कामनाओं का नाश कर देती हैं । जो लोग आपकी शरण में हैं, उनपर विपत्ति तो आती ही नहीं ; आपकी शरण में गए हुए मनुष्य दूसरों को शरण देनेवाले हो जाते हैं ।
माता तू कमला है तू ही नारायणी,
आदि सरस्वती काली संतोषी।
माता तू कमला है तू ही नारायणी।
तू ही नित लेती मां कई अवतार है,
दुष्टों का करती मां तू ही संहार है।
तू ही नित लेती मां कई अवतार है,
दुष्टों का करती मां तू ही संहार है।
पापों से मुक्ति तू पल में दिलाए,
मन के तू सारे मां भरम मिटाएं।
माता तू कमला है तू ही नारायणी,
आदि सरस्वती काली संतोषी।
तू ही है जग में मां तू ही संसार है,
तू ही है महिमा वो जो अपरम्पार है।
तू ही है जग में मां तू ही संसार है,
तू ही है महिमा वो जो अपरम्पार है।
जीवों को माया तू बनके भरमाए,
भक्तों को अपने तू दरशन करवाए।
माता तू कमला है तू ही नारायणी,
आदि सरस्वती काली संतोषी।
तू ही है ज्योति मां तू ही अंधकार है,
तू ही है लघुता मां तू ही विस्तार है।
तू ही है ज्योति मां तू ही अंधकार है,
तू ही है लघुता मां तू ही विस्तार है।
तू ही मां जीवन का सत्य बताए,
तू ही मां दुखों से पार लगाए।
माता तू कमला है तू ही नारायणी,
आदि सरस्वती काली संतोषी।
तू ही बल बुद्धि मां जीवन आधार है,
देवी ही शक्ति से चलता संसार है।
तू ही बल बुद्धि मां जीवन आधार है,
देवी ही शक्ति से चलता संसार है।
जीवों को भव से तू पार ले जाएं,
भक्तों को अपने तू चरण लगाए।
माता तू कमला है तू ही नारायणी,
आदि सरस्वती काली संतोषी।
माता तू कमला है तू ही नारायणी,
आदि सरस्वती काली संतोषी।
माता तू कमला है तू ही नारायणी...।
- महासिद्ध ईशपुत्र
संत, योगी यति, संन्यासी, गुरु सभी का एकमात्र प्रयास है कि तुम साधना करो क्योँकि साधना से तुम्हारे जन्म-जन्मान्तर के पाप क्षण मेँ नष्ट हो जाते है । शब्द आया है "क्षण मेँ" ! एक व्यक्ति था । उसने जीवन मेँ कभी भी अच्छा कार्य नहीँ किया ! वो बहुत ही अनैतिक व्यक्ति था, परम हिंसावादी था । वो डाकु बन गया और एक गाँव से दुसरे गाँव जानेवाले राहगीरोँ को लूटा करता था । यही उनकी दिनचर्या थी । ऐसे व्यक्ति के भीतर एक दिन परमात्मा को जानने की ललक किसी संत ने जगा दी । दरसल हुआ योँ कि उसी जंगल के मध्य मेँ से किसी योगी को गुजरना था, तो योगी तो अपनी मस्ती मेँ चलते हैँ । गाँववालोँ ने योगी को खुब समजाया कि, "बाबा ! देखो इधर से मत जाना क्योँकि गलती से तुम उस डाकु के हाथ मेँ पड गये तो तुम्हारे पास तो पहले ही कुछ नहीँ है तो क्रोध मेँ आकर वो तुम्हारा वध अवश्य कर देगा ।" लेकिन योगी भी अपनी मौज के मतवाले होते है । वे तो सृष्टि के प्रपंच को जाननेवाले होते हैँ । भला उनके लिए जीवन-मृत्यु का भय कहाँ अपनी स्थिति रखता है ? ये सब वस्तुएँ तो उसके सामने गौण होती है । वैसे ही वे परम दिव्य योगी ये जानने के बाद कि वो उनका वध कर देगा, वे उसी वन के मार्ग से होते हुए गुजर रहे थे । अचानक उस डाकु नेँ उसे आते देखा तो उसे उसने पकड लिया और कहा कि, "तुम्हारे पास जो कुछ है तुम मुझे दे दो ।" तो जोगी के पास एक कमण्डल था, उन्होने उसे वो पकडाया; कहा, " लो मेरे पास मात्र यही है ।" तो डाकु ने उसे ले लिया तो जोगी नेँ कहा, "देखो सावधान ! इस कमण्डल को रखने के बडे नियम है, बडे प्रपंच है, इसे हर कोई धारण नहीँ कर सकता ।" डाकु ने बडी-बडी मूछोँ को ताव देते हुए पूछा, "तू किसे डराने की चेष्टा कर रहा है ? और मैँ तेरी बातो मेँ नहीँ आनेवाला । तू भाग जा । मुझे तुम पर दया आ गयी है ।" वास्तव मेँ उसे कोई दया नहीँ आयी थी, वो योगी का प्रभाव, उसके भीतर की शक्ति का प्रभाव था कि उसके अंदर का हिंसक जानवर भी अहिंसक हो उठा था । उसके भीतर भी कहीँ प्रेम खडा हो गया था । तो योगी की बात पर उसने योगी को आँखे दिखाई तो योगी निर्भय रहते हुए पुनः बोला, "अगर तुम इसके नियम नहीँ अपनाओगे तो हानि तुम्हेँ अवश्य होगी ।" तो हानि के भय से वह पूछने लगा कि, "अच्छा ! चलो तुम कहते हो तो बता ही दो कि इसके क्या नियम है ?" उसने कहा कि, "जो भी व्यक्ति इस कमण्डल को अपने पास रखता है उसे प्रतिदिन एक ऐसा कार्य करना होता है जिस से वह परमात्मा की ओर थोडा सा बढ जाए ।" अब वो तो डाकु था, उसे परमात्मा से क्या लेना-देना ? लेकिन अब कमण्डल उसने ले लिया था और योगी ने कहा कि, "जो चीज मैँ तुम्हेँ एक बार दे चूका हुँ मैँ उसे वापिस नहीँ लेता ।" और ठाकु को इस बात का पता चला तो वो घबराया, उसने कहा, "मैँ परमात्मा को नहीँ मानता और तुम्हारे इन झंझट मेँ मैँ क्योँ पडुँ ? अपना कमण्डल पकडो और यहाँ से चलते बनो ।" लेकिन योगी ने कहा, "नहीँ ये कमण्डल अब मैँ तुम्हे दे चूका हुँ, अब मैँ किसी भी कीमत पर इसे वापिस नहीँ लुँगा और तुम्हेँ इसका जो नियम है वो मानना ही पडेगा, इसकी मर्यादा रखनी ही पडेगी और योगी की बात मेँ वो सम्मोहन, दिव्यता और गंभीरता थी कि उसे जुकना ही पडा । वो योगी तो चलते बने वहाँ से लेकिन फिर वह डाकु इस बात की चेष्टा मेँ प्रतिदिन रहता कि मैँ एक भला काम कर लुँ ताकि परमात्मा की ओर जा सकुँ और फिर वो इस बात की खोज करने लगा कि कौनसा माध्यम है जिसके द्वारा परमात्मा की ओर जाया जा सकता है और ऐसे पता करते करते एक दिन उसे पता चला कि गाँव मेँ कोई श्रेष्ठ भक्त आ रहा है, कोई भागवत का कार्यक्रम है । जिस समय भागवत हो रहा था तो वो डाकु अपने घोडे पर आया और उसने भागवताचार्य को एक हाथ से उठाया और घोडे पर बिठाकर जंगल मेँ ले गया । जंगल मेँ ले जाकर उसने पूछा कि, "देखो, डरने की कोई जरुरत नहीँ है । मैँ तुम्हेँ मारुँगा नहीँ मैँ तुम्हेँ वहीँ जाकर सुरक्षित छोड दुँगा किन्तु ये बताओ कि परमात्मा को पाया कैसे जा सकता है ?" अब भागवत का जिसने अध्ययन किया है भगवान तो उसके रोम-रोम मेँ बसा है और भागवताचार्य वो जिसने भगवान को भीतर उतार दिया है और उसका वह विवरण दे रहा हो । तो ऐसे दिव्य भागवताचार्य ने उसे बताया कि, "तुम तप करो, तुम ध्यान करो और भीतर उतरो ।" और उन्होनेँ उसे एक प्रणाली दी और एक पद्धति प्रदान कर दी और गुरुमन्त्र दे दिया । उसे परमात्मा के पथ पर दीक्षित कर दिया और एक क्रान्ति घटित हुई । भागवताचार्य को वापिस गाँव मेँ छोड दिया गया और वह डाकु एक सुमसान पर्वत पर चला गया, जहाँ पर मानवोँ का आवागमन बहुत दुर्लभ था । ऐसे पर्वत पर जा कर उसने अपनी साधना, अपना तप प्रारंभ कर दिया और वो अपना आत्मनिरीक्षण करता रहा । उसने देखा कि, आज मुझे दस दिन तप करते-करते हो गये है लेकिन मैँ हुँ अभी भी डाकु ही, आज एक माह हो चूका है लेकिन मै हूं अभी भी डाकू ही और जन्मो जन्म के पाप और इस जन्म के पाप मेरे साथ ही है, आज 4 माह हो चुके हैं लेकिन मैं हूं अभी भी डाकू ही, आज 1 वर्ष, 2 वर्ष, 5 वर्ष बीत चुके हैं लेकिन हूं अभी भी मैं एक डाकू ही लेकिन कितनी महान बात थी कि, 8 वर्ष बीत गए और वह डाकू इसी पर्वत पर उस भागवताचार्य के बताएं तप को लगातार एकजुट भाव से करता रहा और बीच में क्रांति घटित हुई! अचानक उसे समाधि का बोध हुआ! समाधि के कपाट उसके लिए खुल गए! वो उस समाधि के द्वार से भीतर प्रविष्ट हुआ और उस अलौकिक ब्रह्मांड को जानना उसने प्रारंभ कर दिया, वो परम विराट में जाकर खो गया उसके जन्मोजन्म के पाप क्षण मात्र में नष्ट हो गए! अगर किसी कालकोठरी में 25000 वर्षों से लगातार अंधकार है तो क्या जैसे ही उस कालकोठरी का किवाड़ खोला जाएगा तो प्रकाश को भीतर आने के लिए भी 25000 वर्ष लगेंगे? बिल्कुल नहीं। जैसे ही किवाड़ खुलेगा तुरंत अंधकार गायब और प्रकाश हो जाएगा। अमावस्या की रात्रि में जब कहीं कोई प्रकाश नहीं है, सर्वत्र अंधकार है, आकाश भी बादलों से आच्छादित है; ऐसे वातावरण में जब प्रकाश का कहीं नामोनिशान नहीं है; आप एक दिए को जलाते हैं तो क्या दिए को जलाते ही अंधकार नष्ट ना होगा? जैसे ही दिया जलेगा अंधकार तो उसी समय नष्ट हो गया! वैसे ही आपको तथ्य समझना होगा! उसी प्रकार जैसे ही परमात्मा का तुम्हें बोध होगा, तुम्हें ज्ञान मिलेगा तुम्हारे जन्म जन्मांतर के पाप तो स्वतः क्षणमात्र में नष्ट हो जाएंगे, देरी कहां है? तुम क्यों अपने आप को अंधकार में रख रहे हो? तुम क्यों इस तरह की मनघड़ंत बातें घड लेते हो?और ध्यान रहे, ये करना भी तुम्हारा खुद का है, तुम ही घड़ रहे हो; इसका भी कारण है, वो है तुम्हारा आलस्य, तुम्हारा जगत के प्रति खिंचाव । इस जगत ने तुम्हें अपनी और इतना खींच कर रखा है, इतना आकृष्ट कर के रखा है कि तुम इस जगत को त्यागना ही नहीं चाहते। जो चीज तुम्हें पसंद ना हो उसे ना करने के लिए तुम बहुत से बहाने खोज लेते हो। विद्यार्थियों में एक आदत होती है कि वह सुबह जल्दी नहीं उठ पाते। तो ऐसे विद्यार्थियों को यदि आप पूछेंगे कि, "तुम सुबह जल्दी क्यों नहीं उठते? क्योंकि ब्रह्म मुहूर्त में उठने से तो स्मरण शक्ति बढ़ती है, तुम्हें आसानी से याद हो जाएगा।" तो वो कहेंगे, "नहीं, मुझे सुबह याद नहीं होता! मुझे रात को याद होता है इसलिए मैं रात के 11-12 1:00 बजे तक बैठ सकता हूं लेकिन प्रभात में नहीं उठ पाऊंगा।"
वास्तव में ऐसी कोई भी बात नहीं है कि रात्रि में उससे अधिक याद होने वाला है। प्रभात में उससे दुगना होगा और होगा ही यह सत्यता है। लेकिन वह सुबह उठना नहीं चाहता इसलिए उसने बहाना बना लिया है।
बस उसी प्रकार यह सब बहाने तुमने बना रखे हैं परमात्मा की ओर नहीं जाने के। कि मैंने जन्मो जन्म से पाप किए हैं तो जन्मो जन्म अब इन पापों को नष्ट करने में लग जाएंगे तो परमात्मा को प्राप्त करते-करते बहुत देर लग जाएगी। और तुम बहाना निकालते हो कि यह मेरे बस की नहीं है और अब यह मुझसे नहीं होने वाला इसलिए मैं साधना क्यों करूं? मैं तप क्यों करूं? मैं भक्ति क्यों करूं?
तुमने अपने आप को बचाने के बहुत से बहाने ढूंढ रखे हैं। लेकिन गलत गलत ही होता है। असत्य असत्य ही होता है। उसका आधार नहीं होता, वह निराधार होता है। उसी प्रकार आप का प्रश्न निराधार है।
मन की मूढ़ताओं से सावधान रहना, ये मन बहुत चालाक है!साधना से, तप से तुम्हे विमुख करने के लिए कोई ना कोई माध्यम, कोई ना कोई बहाना ढूंढ लेगा।
- महासिद्ध ईशपुत्र
1. सिद्ध धर्म का दर्शन
2. सिद्ध योग मार्ग
3. तन्त्र मार्ग
4. सिद्ध मनो लोक मार्ग
5. सिद्ध चिकित्सा
6. सिद्ध संगीत नृत्य कला मार्ग
7. सिद्ध चित्रकला मूर्तिकला मार्ग
8. सिद्ध धातु रत्न विद्या मार्ग
9. सिद्ध रसायन मार्ग
10. सिद्ध कामकला मार्ग
11. सिद्ध तर्कशास्त्र
12. सिद्ध विद्या मार्ग
13. सिद्ध परंपरा अनुराग
14. देवानुराग और स्थलानुराग मार्ग
15.भविष्य बोध मार्ग
16. युद्ध विद्या मार्ग
17. सिद्ध विश्व बोध मार्ग
18. सिद्ध न्याय शास्त्र
19. सिद्ध वैश्य शास्त्र
20. सिद्ध प्रजा नृप शास्त्र
उज्जाई प्राणायाम कंठ के रोगों को दूर करता है, श्वास नली को शुद्ध रखता है और थायराइड से संबंधित रोग इससे नहीं होते और आपकी ध्वनि अर्थात आवाज वृद्धावस्था तक युवकों जैसी सुंदर ही रहती है उसमें कंपन नहीं आता । इस प्राणायाम को करने के लिए कंठ से शंख जैसी ध्वनि करते हुए धीरे-धीरे भीतर श्वास ले जाएं और गर्जना करते हुए श्वास को बाहर निकालें। यही उज्जाई प्राणायाम है।
- महासिद्ध ईशपुत्र
मूर्छा प्राणायाम हाई ब्लड प्रेशर वाले और जिन्हें ह्रदय से संबंधित या स्पाइनल कॉर्ड से संबंधित कोई समस्या हो वह ना करें । इस प्राणायाम को पूर्णतया स्वस्थ व्यक्ति ही कर सकता है और यह प्राणायाम योगियों का सबसे प्रिय प्राणायाम है । इससे ज्यादा प्रिय दूसरा कोई प्राणायाम इसलिए नहीं है क्योंकि कुंडलिनी जागरण में सबसे अधिक महत्वशील यही प्राणायाम है और इसी प्राणायाम से वृद्धावस्था होने के बावजूद भी व्यक्ति का मस्तिष्क और याददाश्त उतनी ही तीव्र रहती है जितने की बाल्यावस्था में ।
इस प्राणायाम को करने की रीती को भली भांति देख ले ।
इस प्राणायाम को करने के लिए आपको दोनों नासिका उसे धीरे-धीरे श्वास भीतर भरना होता है और भीतर उस श्वास को ले जाकर पेट में एकत्रित करना पड़ता है एकत्रित करने के बाद गर्दन को पीछे कर दिया जाता है और मुख को खोल दिया जाता है और श्वास को पेट में ही रोक कर रखा जाता है और जब तक रक्त मस्तिष्क तक ना पहुंचे तब तक पीछे रहते हैं और धीरे-धीरे आगे होने के बाद स्वास्थ्य छोड़ दिया जाता है । यह है मूर्छा प्राणायाम ।
इस प्राणायाम को करते ही आप पाएंगे कि संपूर्ण रक्त आपके मस्तिष्क तक चढ गया है और पुनः जब आप आगे झुकते हैं तो सारे शरीर में रक्त का प्रवाह बढ़ जाता है । आपको मूर्छा सी आनी प्रतीत होती है । यह मूर्छा प्राणायाम है और मंत्र साधक इसे किया करते हैं ।
- महासिद्ध ईशपुत्र
कौलान्तक पीठाधीश्वर महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी महाराज योग क्षेत्र के चमकते सूर्य हैं...उनसा योगी युगों युगों में ही धरती पर जन्म लेता होगा...एक अद्भुत सा जीवन है महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी महाराज का....जिनको इसलिए समझना मुश्किल है क्योंकि उनका महामस्तिष्क मानवीय सीमाओं से परे हैं.....एक ओर महायोगी कहते फिरते हैं कि वो बहुत ही साधारण से हिमालय के जोगी हैं......वहीँ दूसरी और उनका महाविराट स्वरुप देख कर साधक की आँखें फटी की फटी रह जाती है......पर यदि साधक हो तो!....क्योंकि भले ही कोई कुछ कहे लेकिन सच ये है कि कोई यदि इस दुनिया का सबसे बड़ा विचारक हो.......चिन्तक हो.......दुनिया उसे मानती हो....तो वो भी सत्य स्वरुप को नहीं समझ सकता.....मेरा ये दावा नहीं है कि महायोगी अवतार हैं....लेकिन साहित्यक भाषा में ऐसा मानव अवतारी ही माना और कहा जाता है.....योग के न जाने कितने रूपों को महायोगी जी जानते है...पर बात वही कि बताएँगे किसको..?...सामान तो है.....दुकानदार भी.....पर बिडम्बना ये है कि ग्राहक ही नहीं हैं.....शायद यही कारण है कि महायोगी हिमालय के सबसे बड़े योगी होने के बाद भी बिलकुल गौण हैं.....जिस हिमालय को महायोगी पर नाज है...जो हिमालय महायोगी को अपना पुत्र कहता है.....शायद उसी हिमालय ने महायोगी को इतना जटिल बना दिया कि उनको कोई समझ ही नहीं पा रहा....लेकिन मुझे विश्वास है कि एक दिन प्रबुद्ध साधकों का एक बड़ा समूह महायोगी जी के रहस्यों से जुड़ कर...महासमाधि के महारहस्य को जान जायेगा....
भारत में ऐसे बहुत ही कम साधक होंगे जिनको बाल्यकाल से समाधि का अनुभव हुआ हो.....लेकिन सिद्ध परम्परा के चंद्रमा....कौलान्तक पीठ को वाममार्गी घृणित तंत्र मंत्र से मुक्ति दिलानेवाले महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी सहज समाधी को उपलब्ध मायाधारी योगी हैं....शायद उनको प्राकृतिक तौर पर ही समाधी लगती है....क्यूंकि वो समाधी के लिए कोई महाभ्यास नहीं करते.....मैंने उनके साथ जितना भी समय बिताया......तब यही जान पाया हूँ कि......एक दुबला पतला सुन्दर सा बालक महायोगी और पीठाधीश्वर वो भी सबसे रहस्यमयी पीठ का..?....उस पीठ के हजारों नहीं लाखों दुश्मन है.....लेकिन जब वास्तविकता से पाला पड़ा तो मुझे सूर्य कहाँ से उदय होता है ये पता चला..!.....महायोगी जी की समाधी का तरीका देख कर तो मैं सोचता हूँ कि मुझ जैसे आदमी के लिए ये संभव ही नहीं हैं.....लेकिन महायोगी जी जब समझाते हैं तो लगता है कि मैं भी एक न एक दिन पहुँच ही जाऊँगा........कभी कभी समाज में महायोगी जी को देख कर बहुत हंसी आती है......कोई भी साधारण सा पुजारी.....पंडा....पुरोहित....बड़े बड़े तर्क महायोगी को दे कर ये जताने का प्रयास करते हैं कि वो ही सबकुछ जानते हैं महायोगी जी तो बच्चे हैं....और
सचमुच बच्चे ही हैं......उनको जबाब ही नहीं देते....बस हाथ जोड़े हाँ में हाँ मिला देते हैं.....ऐसे पुरुष में समाधी के ज्वलंत बीज देख कर भ्रमित हो जाना सहज ही है.....ये तो छोडिये ज्योतिष और समय साधना..!...काल पुरुष की महापूजा के महारहस्यों को जानने वाले महायोगी जी का दुर्भाग्यबश कभी किसी ज्योतिषी से मिलना हो जाये तो समझ लीजिये महायोगी जी के राहु-केतु खराब हो गए....वो आते ही बताना शुरू कर देंगे मंगल से ये होता है...शनि ये कर देगा.... ये वाला रंग ऐसे हो तो ये प्रभाव होगा.....मेरा ये सब देख कर मस्तिष्क चकराने लगता है कि ये माजरा क्या है.....सनातन विद्याओं के रक्षक को ये क्या समझा रहे हैं.....उस पर अपनी की हुई मूर्खता पर इतने प्रसन्न होते हैं कि मानो कोई बहुत बड़ी जंग जीत ली हो.....पहले अपने अहंकार से ही नहीं जीत सकते....तो धर्म को क्या जानेगे....यहाँ तक की कोई-कोई तो पंडा पुरोहित या कथित योगी तो ये समझाना शुरू कर देते हैं कि यदि आप इतने बड़े योगी है तो समाज में क्या कर रहे हैं....?.....जंगलों या हिमालय में ही रहना चाहिए...आपको इन चीजों से..........समाज से क्या लेना देना..?..
और अपनी महिमा में कहेंगे कि हमने पीएचडी की है.....विदेशों में जा कर लेक्चर देते है....वैदिक ज्योतिष योग आयुर्वेद के हम महापंडित हैं......अब आप ही बताइये ऐसे में महायोगी जी क्या कर सकते हैं...?..दरअसल इस समाज में बैठे कुछ धर्म के ठेकेदारों से ये बर्दाश्त ही नहीं हो रहा कि एक सच्चा जानकार योगी हिमालय से उतर कर लोगों तक सही सटीक जानकारियां पहुंचाए.....क्योंकि महायोगी जी सच कहेंगे और फिर ये झूठ बोल कर किसको लूटेंगे....वास्तु ग्रहों के नाम पर या योग को बेचने कहाँ जायेंगे.....इसमें केवल इनकी ही गलतियाँ नहीं हैं.....हमारी भी हैं कि जिसने योग किया ही नहीं उसको हम सबकुछ मान लेते हैं......और असली मिल जाए तो हम उसके साथ केवल फोटो खिचवाते हैं.....उससे ज्यादा कुछ नहीं.....लेकिन जो महायोगी जी की तरह सचमुच साधनारत हों.....वो समझ ही नहीं आते....जो बेचारा थोडा अध् कचरा अध्यात्म का ज्ञान रखता है....उससे कहियेगा कि हम कौलान्तक पीठ से हैं तो तुरंत कहेगा अच्छा वाममार्गी कौलाचारी....बेचारे ये ही नहीं जानते कि कौलान्तक पीठ का वास्तविक नाम कुलांत पीठ है......वो कुलांत पीठ जहाँ सिद्धों की भूमि है......इसी सिद्धभूमि में समाधि लगाते हैं कौलान्तक पीठाधीश्वर.....
जहाँ हिमाच्छादित पर्वत मधुर गीत गुनगुनाते हैं.....जहाँ झरनों की पवित्रता सम्मोहित करती है.....शीतल समीर में जहाँ अनहद नाद गूंजता हो....वो धरा महायोगी जी की ही तो है......शायद पत्थर पत्थर....पेड़ पेड़ भी महायोगी जी को पहचानता है......लेकिन संसार के लिए ये कहानी के सिवा कुछ भी नहीं.....जबकि हाथ कंगन को आरसी क्या...महायोगी जी अभी धरा पर ही हैं उनको देखना चाहिए.....पर नहीं! हम कष्ट नहीं उठा सकते....जब काम करना पड़ जाए तप करना पड़े तो महायोगी जी जैसे साधकों को करना चाहिए और जब केवल भगवान के बारे में मलाईदार बातें करनी हों तो वो लोग खुद उपस्थित.....जीभ हिलाना सरल जो हैं....ऊपर से भक्ति ने बिगाड़ कर रख दिया....वास्तव में भक्ति किसको उपलब्ध है? ये तो जानने में आने वाला है नहीं.....तो बैठे रहो! साधना करो नहीं! बस भक्ति हो गई.....लेकिन भला हो भाग्य का....क्योंकि मैं स्वयं ब्राह्मण हूँ ये सारी बाते जो मैंने कहीं इसीलिए सटीक कहीं......क्योंकि मैंने भी महायोगी जी के साथ शुरू में कुछ ऐसा ही किया था....पर अब वास्तविकता समझ पाया हूँ.....आप कहेंगे की समाधि की बात क्यों नहीं कर रहा हूँ....?....मैं समाधी की ही बात कर रहा हूँ कि जबतक ऐसी कुत्सित वृत्तियाँ रहेंगी....साधक का कल्याण नहीं हो सकता....साधक को सूक्ष्म बुद्धि वाला होना चाहिए......
कालनेमियों की इस दुनिया में सब समझ में नहीं आता.....सच जानना बहुत जटिल है.....लेकिन समाधी की बात कहने से पहले मैं ये जरूर बताना चाहूँगा कि जबतक हम लोगों में अधकचरा ज्ञान होता हैं.....और उस ज्ञान के आधार पर जब हमारी आजीविका और नाम समाज में चल रहा होता है तो ऐसे में महायोगी जी जैसे योगी और वास्तविक पुरुष के आ जाने से भरण पोषण का प्रबंधन और समझ को अँधेरे में रख कर कमाया हुआ नाम डगमगाने लगता है....इसीलिए हम लोग महायोगी जी जैसे आदमी का विरोध करते हैं.....लोगों का तो पता है कि वो कुछ जानते ही नहीं...वहां हम जो कहेंगे वो ही मान्य है.....फिर लगातार झूठ बोलते बोलते आदत हो जाती है....फिर लगता है कि दुनिया ऐसे ही चलती है......फिर सच्चे लोगों के सामने भी कथित ज्ञान उबाले ले ही लेता है....इसमें हमारा भी कसूर नहीं है......पर मैं गुरुदेव महायोगी जी की अनुकम्पा से ही मुक्त हो सका हूँ.....शायद इसे ही जातिपाश.....और पशुपाश से मुक्ति कहते हैं.....महायोगी जी के दर्शन मुझे तब हुए थे जब वो कालेज मैं पढ़ भी रहे थे और शिष्यों को ज्ञान भी दे रहे थे.....तब तक तो महायोगी जी की ख्याति बहुत हो चुकी थी....उनकी चर्चाएँ ही सबके मुह पर होती थी.....कि वो चमत्कारी बालक है....उसके पास अनेकों सिद्धियाँ हैं......और भी न जाने क्या क्या...?
लेकिन वो सदा ही इन बातों को नकारते रहे....वो मनोविज्ञान का अध्ययन कर रहे थे और साथ ही फिलासफी का भी...जब भी मैं कोई बात करता तो कह देते.....तुम्हें ये मानसिक बिमारी है.....बात बदलता तो कहते अब ये वाली मानसिक बिमारी है.....मैं जो भी करता वो कोई न कोई बिमारी ही होती....अब समझ गया हूँ कि मनोविज्ञान भी अपने आप मैं एक बिमारी ही है.....ठीक वैसी ही बात फिलासफी में भी थी......मैं कोई बात कहूँ तो कहेंगे कि ये नास्तिकतावाद का सिद्धांत है.....ये मार्क्सवाद का सिद्धात है....ये प्रलयवाद की सोच है.....लगता था कि जीवन एक फिलासफी ही है.....धर्म भी फिलासफी ही है.....फिर एक दौर आया जब महायोगी जी हमेशा लोगों से नास्तिकता कि बाते ही करते रहते........हर चीज उनको बस अन्धविश्वास ही लगती......हर बात में विज्ञान पदार्थ और प्रकाश अणु सूक्ष्म जीव रासायनिक परिवर्तन की ही बातें.....मुझे तो लगता था कि दुनिया के सबसे बड़े नास्तिक युवा के साथ मैं रह रहा हूँ.....लेकिन बाबजूद इसके साधना में वैसे ही....बहुत गहन तलों तक उतर कर प्रतिदिन ध्यानस्थ होना....मैं समझ नहीं पाता था.....लेकिन मैं तब ये जानता था कि मुझे देखते रहना है.....क्योंकि मायावी गुरुओं की थाह इतनी आसानी से नहीं मिलती.....यही मेरा संयम मेरे काम आया और मैं महायोगी जी को जान पाया.....जल्द्वाजी और मानवीय बुद्धि समाधि की महाशत्रु होती है.....इसीलिए ब्रह्म्प्रग्या होनी चाहिए.....यूँ तो बहुत बार मैंने महायोगी जी को समाधी की हालत में देखा है लेकिन हर बार उनका एक नया ही रूप देखने को मिलता हैं......हिमालय में बिचरण करते हुए मान लो कहीं कोई पेड़ या पत्थर या फिर कोई गुफा नजर आई तो वहां बैठ जाते हैं.....कुछ देर उस जगह की प्रशंसा करेंगे कुछ बातें करेंगे.......और कहेंगे की मैं कुछ देर ध्यान करना चाहता हूँ और बैठ गए....बस यदि चार पांच घंटे तक नहीं उठे तो बस समझ जाइये कि अब पता नहीं कब उठेंगे..?..हम सभी साथ रहने वाले समझ जाते हैं.....लेकिन समस्या तब हो जाती है जब महायोगी जी जंगल में कहीं भयानक जगह बैठ जाएँ......एक बार बर्फ से घिरे स्थान पर बड़े से पत्थर के नीचे बनी छोटी सी गुफा में महायोगी जी तेरह दिनों के लिए समाधिस्थ हो गए.....पहले ही दिन जब महायोगी जी वहां बैठे और लम्बे समय तक उठे ही नहीं तो साँसे गले में ही अटक गयी....रात हो रही थी जंगल में कडकडाती ठण्ड अब क्या करें.....तो भाई गुरुदेव जो महायोगी जी के शिष्य है नाम भी गुरुदेव ही है...है न हैरान करने वाली बात.?....और भाई हरीश जी ने जंगल से लकड़ियाँ बीन कर रात बिताई....मुश्किल से रात बीती क्योंकि साथ ही बहन मञ्जूषा जी भी थीं.......और पहली ही रात को जंगली कुत्ते काफी पास तक आ गए......मुश्किल से ही उनको भगा सके....दरअसल गलती हमारी थी हम ही जंगली कुत्तों के रास्ते में बैठ गए थे ये बाद के दिनों में पता चला.....लेकिन हम काफी नीचे थे और महायोगी जी अकेले समाधिस्थ.......तो बहन मञ्जूषा जी और भाई गुरुदेव लकड़ियाँ ले कर रात को महायोगी जी की गुफा में पहुंचे और सामने आग जला दी....ठण्ड से दांत कटकटा रहे थे.....महायोगी जी को छू कर देखा तो बिलकुल ठन्डे पड़ चुके थे नाख़ून हल्के नीले थे.....लेकिन शांत बैठे थे समाधिस्थ.....किसी तरह रात समाप्त होते ही बैग में पड़ी माता की चुनरियों और लाल कपडे से झंडियाँ बनायीं गयी और भाई गुरुदेव और हरीश ने टेंट और भोजन की व्यवस्था भी की....साथ ही महायोगी जी की गुफा के तीनो ओर झण्डों से मार्ग रोका गया ताकि भालू जैसे जानवर का अंदाजा दूर से ही लगाया जाए....
महायोगी जहाँ बैठे थे वो गलेशियर वाली जगह थी ढलान था लेकिन भाई हरीश जी की मेहनत से बाद का काम बर्फ पर भी पूरा हो गया......हमने तीन टेंट लगा लिए एक टेंट हमने महायोगी जी की गुफा के पास लगा लिया.....जो बहत ही छोटा टेंट था.....जिसमें दो आदमी भी मुश्किल से ही आ सकते थे......उस टेंट को भी जबरदस्ती वहां लगाया गया....उसके लिए भी जगह नहीं थी.......लेकिन एक आदमी को तो महायोगी जी की रक्षा के लिए वहां रहना ही था.....इसलिए ये टेंट जरूरी था.......करीब 200मीटर नीचे बेस केम्प लगाया गया था......दो आदमी वहां रह कर लकड़ी पानी भोजन की व्यवस्था करते.......भले ही महायोगी जी समाधिस्थ थे लेकिन बाकी तो भूखे नहीं रह सकते थे न.......खाली समय में हम भजन गाते जंगल घूमते.....सफाई का ध्यान रखते और कोशिश रहती कि ज्यादा से ज्यादा समय महायोगी जी के निकट ही बैठ कर ध्यान किया जाए......लेकिन थोड़ी देर में ही सबकी छुट्टी हो जाती....हम थक जाते लेकिन महायोगी एक ही आसन में रहते,सूरज निकलता और डूब जाता.....आधी रात के बाद तो ठण्ड के कारण नींद ही नहीं आती थी सुबह होने का ही इन्तजार करते रहते कि कब सूरज निकलेगा.....और इस कडकडाती ठण्ड से राहत मिलेगी......
आपको लग रहा होगा कि जंगल तो है पेड़ काट कर आग क्यों नहीं सेक लेते.....तो इसका जबाब यह है कि महायोगी जी के अनुसार प्रकृति को हानि नहीं पहुंचानी है...केवल सूखी लकड़ियाँ ही जलाई जाएँ जबतक कि बहुत ही ज़रूरी न हो जाए....तो उनके नियम का पालन करना था.....सारी लकडियाँ तो बर्फ में दबी हुयी थी....ऐसे में सारा दिन कोई न कोई लकड़ियों का ही प्रबंध करता रहता....फिर दूर से बर्फ पर उठा कर लाना और भी बड़ी चुनौती.....एक तो आक्सीजन की कमी उरार से सीधी चढ़ाई....पीठ पर लकडियाँ......हमारी तो आँखें और जीभ ही बाहर निकल आती.....बस केवल एक सुख था दिन चढ़ते ही बर्फ कुछ पिघल जाती...पानी के छोटे छोटे झरने बहने लगते....तो पानी नसीब हो जाता....लकड़ियों की बार बार इसलिए भी याद आ जाती है....क्योंकि लकड़ियाँ एक नहीं दो-दो जगहों के लिए लानी पड़ती थी......महायोगी जी की गुफा तक पहुंचाना मतलब बहादुर पुरुष होना.....बीस बार तो बर्फ पर फिसल कर गिरते ऊपर से गिरती लकड़ियाँ.......तो रोना ही आ जाए.....पर जब देखते कि बिना खाए पिए महायोगी जी एक ही आसन में दिन रात वो भी बिना सोये बैठे हैं.....!....तो जोश आ जाता कि ये सेवा का अवसर हमें नहीं चूकना है.....तब लकड़ियाँ फिर कंधे पर होती और हांफते हांफते सब गुफा तक पहुँच ही जाते.....
सोचता हूँ कि महायोगी जी न जाने किस मिटटी के बने हुए हैं....समाधी में बैठ जाएँ तो बैठ जाएँ...पांच दिन.....दस दिन....पंद्रह दिन....और शांत......ऐसा लगता है कि मानो मूर्ती बैठी हो....लेकिन समाधी के दौरान भी चेहरे के हाव भाव बदलते रहते हैं....जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि अभी किस तरह की अनुभूति महायोगी जी को हो रही है....आप यदि इन फोटोस को गौर से देखेंगे तो पायेंगे कि उनकी भाव भंगिमाएं बदल रही होती हैं......एक दिन तो हद हो गयी जंगली कुत्ते बेस केम्प के बीच में से गुजर गए....और चंडीगढ़ से एक टीवी चैंनल के रिपोर्टर और केमरा पर्सन भी वहां आ पहुंचे....ये तो किस्मत ही थी कि बेस में ही दो टेंट लगे हुए थे तो रहने की कोई समस्या नहीं थी....अब वो महायोगी जी को लगातार रिकार्ड करने लगे.....तो बिजली कहाँ से आती....फिर हरीश जी को जनरेटर की व्यवस्था के लिए जाना पड़ा......सड़क तक तो जनरेटर आ गया लेकिन वो बहुत ही भारी था.....उसे लाने में भाई गुरुदेव जी ने सहायता की......वो दमदार आदमी हैं.....भगवान की माया देखिये कि ये ठीक ही हुआ कि बेस केम्प इतनी दूर था की जनरेटर की आवाज गुफा तक नहीं पहुंचती थी.....अब बहन मञ्जूषा पर खाना बनाने और बीच-बीच में गुरु जी को देखते रहने का जिम्मा और बढ़ गया..........हैरानी की बात ही थी कि गुफा के आस पास कहीं भी मोबाईल फ़ोन का सिग्नल नहीं था पर बेस केम्प में था.....अब तो जनरेटर होने से और मोबाईल फ़ोन होने के कारण लोगों के फ़ोन भी आने लग गए तो मञ्जूषा जी उसमें भी व्यस्त हो गयी....जंगल में भी काम ही काम हो गया....
हालाँकि अब हम बहुत लोग वहां हो गए थे पर समस्याएं कम नहीं हुई....बर्फबारी शुरू हो गयी....हालाँकि जिस दिन महायोगी जी समाधी में बैठे थे सूर्य उसी दिन तक था.....रात को मौसम खराब हुआ और बरसता ही रहा....जबतक महायोगी जी समाधी से नहीं उठे तबतक मौसम खराब ही रहा.....लेकिन अब सबको लकड़ियों की चिंता हो गयी......तो ऐसे मौसम में भी भाई गुरुदेव जी लकड़ियाँ लाने जाते थे और गीली लकड़ियों को आग के नजदीक सूखने रखा जाता....बर्फ में खाना बनाना बर्तन धोना हमारा नहाना मुश्किल हो गया......बैसे तो कोई डरता नहीं है पर ऐसी जगह डर तो लगता ही है.....इस लिए पत्थर पर हनुमान जी कि मूर्ती बना कर स्थापित कर ली और उनसे प्रार्थना करते कि जंगली जीवों से हमारी रक्षा करें.....काफी दिनों से भोजन पानी के बिना बैठे महायोगी जी का रंग धीरे-धीरे काला पड़ने लगा......होंठ फट गए.......सबको फिर महायोगी जी की ही चिंता होने लगी.......तो महायोगी जी के नजदीक आग बढ़ा दी गयी.......अब माइनस तापमान में ठंडी हवा में मह्योगी जी की सुरक्षा ने सबकी नींद उड़ा दी.....अब गुफा वाला टेंट काम आया एक आदमी वहीँ सोता और बीच-बीच में आग जलाता जाता.....लेकिन ठण्ड में मानो आग को भी ठण्ड लग रही हो वो जलती ही नहीं थी.....बहुत ही मुश्किल से आग बनाये रखी जाती...महायोगी जी की हालत बहुत ख़राब दिख रही थी सब भगवान से प्रार्थना कर रहे थे कि काश ये समाधी जल्दी टूट जाए.....पर कोई लाभ नहीं....
सोचता हूँ कि इस बार तो अपेक्षाकृत महायोगी जी को काफी निचले स्थान पर स्वतः समाधि लग गयी थी लेकिन बहुत ऊँची चोटियों पर क्या होता होगा..?...सोचता हूँ महायोगी जी को किसी दुष्ट की नजर न लगे क्योंकि स्वयं महायोगी जी समाज से दूर दूर रहते हैं जिसका कारण बताते हुए वो कहते हैं कि सत्य का मार्ग असत्य को आकर्षित करता है.....सच्च झूठ को आकर्षित करता है......सज्जन दुर्जन जो सहज ही आकर्षित करते हैं.......योगी अक्सर भोगियों को आकर्षित करते हैं......तो बचना मुश्किल होता है......क्योंकि मकड़ी का सुन्दर दिखने वाला जाल परमात्मा का नहीं मौत का संकेत होता है.....महायोगी जी को समाज में बिलकुल नहीं जाना चाहिए बस इसी तरह अद्भुत जीवन जीना चाहिए.....हिमालय की कंदराओं में उनका वास्तविक रूप देख कर सुखद अनुभूति होती है......जब महायोगी जी समाधी में रहे तो टीवी रिपोर्टरों ने उनकी लगातार विडिओ बनायी जो उनके पास है....हमारे पास विड़ोज नहीं हैं केवल कुछ ही फोटोज हैं.....लेकिन बीच में भाई रमेश जी भी कुल्लू से समाधी वाली गुफा तक आये थे.....उनहोंने महायोगी जी की और समाधी गुफा के आस पास की कुछ तस्वीरें अपने मोबाईल से ली वो मेरे पास भी हैं आपके लिए मैं यहाँ दुर्लभ चित्र प्रस्तुत कर रहा हूँ......
मुझे महायोगी जी की बात 100 % ठीक लगती है कि कोई कहता है ये सब कुछ झूठ है.....तो सचमुच उसके लिए झूठ ही हैं.....जिसने रेगिस्तान नहीं देखा होता....उसे रेगिस्तान की पूरी कहानी ही झूठी लगती हैं.........महायोगी जी कहते है कि कथित ज्यादा पढ़े लिखे लोग इतने अभद्र होते है कि शिक्षा को भी शर्म आ जाए...जिसका कारण होता है अज्ञान......वे साक्षर हो सकते हैं....पर ज्ञानी नहीं.....महायोगी जी बचपन से समाधी में बैठते थे.....एक दिन किसी डाक्टर से मुलाक़ात हुयी......डाक्टर महोदय ने कहा महायोगी जी इतने-इतने दिनों एक ही स्थान पर आपके बैठने का कारण ये है कि आप मनोरोग से गुजर रहे हैं आपको एक योग्य चिकित्सक की जरूरत है......डाक्टर के सझाने से महायोगी मनोचिकित्सक के पास जाने को तैयार हो गए......महायोगी जी हमसे कहने लगे कि डाक्टर बेफिजूल तो कोई बात कहेगा नहीं......चेक करवा लेते हैं......तीन महीने तक मनोचिकित्सक से रोज मिलते उनकी बातें सुनते.....उनकी दी अंग्रेजी दवाइयां भी खाते....लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ....बल्कि दवाओं के सेवन से पाचन तंत्र जरूर गडबडा गया.....फिर मनोचिकित्सक ने उनको और बड़े मनोचिकित्सक से मिलने कि सलाह दी......लेकिन हम दुखी हो चुके थे.....रोज रोज डॉक्टर के चक्कर नहीं लगा सकते थे......और हमें तो महायोगी जी पर गुस्सा आ रहा था कि किस मूर्ख कि बातों में आ गए....फिर महायोगी जी ने केवल इतना कहा कि इस चिकित्सक को चिकित्सा का रोग हो गया है......मैं ऐसे ही पढ़े लिखे रोगी को नजदीक से देखना सुनना चाहता था.......जिस तरह उदाहरण से महायोगी जी ने समझाया वो मैं नहीं बता सकता लेकिन सचमुच समझ आ गया कि जो कभी-कभी दूसरों को सलाह दे रहे होते हैं वो भी स्वयं एक रोग से ही जूझ रहे होते हैं.....और हैरानी की बात कि जिन्होंने समाधी कभी नहीं लगाई वो ही अक्सर समाधी पर टिप्पणियां करने बैठते हैं......जो धर्म को नहीं जांनते वो ही धर्म को समझाने बैठ जाते हैं......हम लोगो ने समाधी की स्थिति में किसी को बहुत निकट से देखा ये हमारा गौरव है.......समाधी में क्या होता है ये तो महायोगी जी ही जानते हैं पर मैं केवल ये बता सकता हूँ कि लगभग तेरह दिनों बाद सुबह 8 : 15 पर महायोगी जी महासमाधि से उठे......और उनहोंने सबको आशीवाद दिया लेकिन वो बहुत कमजोर हो चुके थे.....सबने वो एतिहासिक पल देखा कि कैसे महायोगी समाधी में रहे और उठे......सबकी आँखों में आंसू थे......बेस केम्प तक भाई गुरुदेव महायोगी जी को ले कर आये....साथ थी टीवी चैनल की टीम और मंजुषा जी ने उठते ही महायोगी जी को गुनगुना पानी पिलाया और शहद के तीन चम्मच खाने को दिए.....करीब तीन घंटों के बाद महायोगी जी ने कुछ खाया तब तक सभी भजन गाते रहे...वो भी जोर-जोर से.......आज भी सारा दृश्य आँखों में घूम जाता है......ये क्षण भूले नहीं जा सकते.......बस मुझसे और नहीं बताया जाता.....समाधि के फोटो की गेलरी भी शायद जोड़ी जाएगी.....तो वहां फोटोज देखना न भूलें.....केवल एक या दो विड़ोस ही समाधी की हैं जो यू टयूब में है आप देख सकते हैं......मैं अभी नया साधक हूँ ज्यादा मर्यादाएं नहीं जानता....यदि इस ब्लाग को लिखते समय कोई अभद्रता हो गयी हो.......या फिर कोई गलती हो गयी हो तो कृप्या आप सभी मुझे मूढ़ समझ कर क्षमा कर दें......बहुत बहुत धन्यवाद