क्षितिज न आवे हाथ

संत, योगी यति, संन्यासी, गुरु सभी का एकमात्र प्रयास है कि तुम साधना करो क्योँकि साधना से तुम्हारे जन्म-जन्मान्तर के पाप क्षण मेँ नष्ट हो जाते है । शब्द आया है "क्षण मेँ" ! एक व्यक्ति था । उसने जीवन मेँ कभी भी अच्छा कार्य नहीँ किया ! वो बहुत ही अनैतिक व्यक्ति था, परम हिंसावादी था । वो डाकु बन गया और एक गाँव से दुसरे गाँव जानेवाले राहगीरोँ को लूटा करता था । यही उनकी दिनचर्या थी । ऐसे व्यक्ति के भीतर एक दिन परमात्मा को जानने की ललक किसी संत ने जगा दी । दरसल हुआ योँ कि उसी जंगल के मध्य मेँ से किसी योगी को गुजरना था, तो योगी तो अपनी मस्ती मेँ चलते हैँ । गाँववालोँ ने योगी को खुब समजाया कि, "बाबा ! देखो इधर से मत जाना क्योँकि गलती से तुम उस डाकु के हाथ मेँ पड गये तो तुम्हारे पास तो पहले ही कुछ नहीँ है तो क्रोध मेँ आकर वो तुम्हारा वध अवश्य कर देगा ।" लेकिन योगी भी अपनी मौज के मतवाले होते है । वे तो सृष्टि के प्रपंच को जाननेवाले होते हैँ । भला उनके लिए जीवन-मृत्यु का भय कहाँ अपनी स्थिति रखता है ? ये सब वस्तुएँ तो उसके सामने गौण होती है । वैसे ही वे परम दिव्य योगी ये जानने के बाद कि वो उनका वध कर देगा, वे उसी वन के मार्ग से होते हुए गुजर रहे थे । अचानक उस डाकु नेँ उसे आते देखा तो उसे उसने पकड लिया और कहा कि, "तुम्हारे पास जो कुछ है तुम मुझे दे दो ।" तो जोगी के पास एक कमण्डल था, उन्होने उसे वो पकडाया; कहा, " लो मेरे पास मात्र यही है ।" तो डाकु ने उसे ले लिया तो जोगी नेँ कहा, "देखो सावधान ! इस कमण्डल को रखने के बडे नियम है, बडे प्रपंच है, इसे हर कोई धारण नहीँ कर सकता ।" डाकु ने बडी-बडी मूछोँ को ताव देते हुए पूछा, "तू किसे डराने की चेष्टा कर रहा है ? और मैँ तेरी बातो मेँ नहीँ आनेवाला । तू भाग जा । मुझे तुम पर दया आ गयी है ।" वास्तव मेँ उसे कोई दया नहीँ आयी थी, वो योगी का प्रभाव, उसके भीतर की शक्ति का प्रभाव था कि उसके अंदर का हिंसक जानवर भी अहिंसक हो उठा था । उसके भीतर भी कहीँ प्रेम खडा हो गया था । तो योगी की बात पर उसने योगी को आँखे दिखाई तो योगी निर्भय रहते हुए पुनः बोला, "अगर तुम इसके नियम नहीँ अपनाओगे तो हानि तुम्हेँ अवश्य होगी ।" तो हानि के भय से वह पूछने लगा कि, "अच्छा ! चलो तुम कहते हो तो बता ही दो कि इसके क्या नियम है ?" उसने कहा कि, "जो भी व्यक्ति इस कमण्डल को अपने पास रखता है उसे प्रतिदिन एक ऐसा कार्य करना होता है जिस से वह परमात्मा की ओर थोडा सा बढ जाए ।" अब वो तो डाकु था, उसे परमात्मा से क्या लेना-देना ? लेकिन अब कमण्डल उसने ले लिया था और योगी ने कहा कि, "जो चीज मैँ तुम्हेँ एक बार दे चूका हुँ मैँ उसे वापिस नहीँ लेता ।" और ठाकु को इस बात का पता चला तो वो घबराया, उसने कहा, "मैँ परमात्मा को नहीँ मानता और तुम्हारे इन झंझट मेँ मैँ क्योँ पडुँ ? अपना कमण्डल पकडो और यहाँ से चलते बनो ।" लेकिन योगी ने कहा, "नहीँ ये कमण्डल अब मैँ तुम्हे दे चूका हुँ, अब मैँ किसी भी कीमत पर इसे वापिस नहीँ लुँगा और तुम्हेँ इसका जो नियम है वो मानना ही पडेगा, इसकी मर्यादा रखनी ही पडेगी और योगी की बात मेँ वो सम्मोहन, दिव्यता और गंभीरता थी कि उसे जुकना ही पडा । वो योगी तो चलते बने वहाँ से लेकिन फिर वह डाकु इस बात की चेष्टा मेँ प्रतिदिन रहता कि मैँ एक भला काम कर लुँ ताकि परमात्मा की ओर जा सकुँ और फिर वो इस बात की खोज करने लगा कि कौनसा माध्यम है जिसके द्वारा परमात्मा की ओर जाया जा सकता है और ऐसे पता करते करते एक दिन उसे पता चला कि गाँव मेँ कोई श्रेष्ठ भक्त आ रहा है, कोई भागवत का कार्यक्रम है । जिस समय भागवत हो रहा था तो वो डाकु अपने घोडे पर आया और उसने भागवताचार्य को एक हाथ से उठाया और घोडे पर बिठाकर जंगल मेँ ले गया । जंगल मेँ ले जाकर उसने पूछा कि, "देखो, डरने की कोई जरुरत नहीँ है । मैँ तुम्हेँ मारुँगा नहीँ मैँ तुम्हेँ वहीँ जाकर सुरक्षित छोड दुँगा किन्तु ये बताओ कि परमात्मा को पाया कैसे जा सकता है ?" अब भागवत का जिसने अध्ययन किया है भगवान तो उसके रोम-रोम मेँ बसा है और भागवताचार्य वो जिसने भगवान को भीतर उतार दिया है और उसका वह विवरण दे रहा हो । तो ऐसे दिव्य भागवताचार्य ने उसे बताया कि, "तुम तप करो, तुम ध्यान करो और भीतर उतरो ।" और उन्होनेँ उसे एक प्रणाली दी और एक पद्धति प्रदान कर दी और गुरुमन्त्र दे दिया । उसे परमात्मा के पथ पर दीक्षित कर दिया और एक क्रान्ति घटित हुई । भागवताचार्य को वापिस गाँव मेँ छोड दिया गया और वह डाकु एक सुमसान पर्वत पर चला गया, जहाँ पर मानवोँ का आवागमन बहुत दुर्लभ था । ऐसे पर्वत पर जा कर उसने अपनी साधना, अपना तप प्रारंभ कर दिया और वो अपना आत्मनिरीक्षण करता रहा । उसने देखा कि, आज मुझे दस दिन तप करते-करते हो गये है लेकिन मैँ हुँ अभी भी डाकु ही, आज एक माह हो चूका है लेकिन मै हूं अभी भी डाकू ही और जन्मो जन्म के पाप और इस जन्म के पाप मेरे साथ ही है, आज 4 माह हो चुके हैं लेकिन मैं हूं अभी भी डाकू ही, आज 1 वर्ष, 2 वर्ष, 5 वर्ष बीत चुके हैं लेकिन हूं अभी भी मैं एक डाकू ही लेकिन कितनी महान बात थी कि, 8 वर्ष बीत गए और वह डाकू इसी पर्वत पर उस भागवताचार्य के बताएं तप को लगातार एकजुट भाव से करता रहा और बीच में क्रांति घटित हुई! अचानक उसे समाधि का बोध हुआ! समाधि के कपाट उसके लिए खुल गए! वो उस समाधि के द्वार से भीतर प्रविष्ट हुआ और उस अलौकिक ब्रह्मांड को जानना उसने प्रारंभ कर दिया, वो परम विराट में जाकर खो गया उसके जन्मोजन्म के पाप क्षण मात्र में नष्ट हो गए! अगर किसी कालकोठरी में 25000 वर्षों से लगातार अंधकार है तो क्या जैसे ही उस कालकोठरी का किवाड़ खोला जाएगा तो प्रकाश को भीतर आने के लिए भी 25000 वर्ष लगेंगे? बिल्कुल नहीं। जैसे ही किवाड़ खुलेगा तुरंत अंधकार गायब और प्रकाश हो जाएगा। अमावस्या की रात्रि में जब कहीं कोई प्रकाश नहीं है, सर्वत्र अंधकार है, आकाश भी बादलों से आच्छादित है; ऐसे वातावरण में जब प्रकाश का कहीं नामोनिशान नहीं है; आप एक दिए को जलाते हैं तो क्या दिए को जलाते ही अंधकार नष्ट ना होगा? जैसे ही दिया जलेगा अंधकार तो उसी समय नष्ट हो गया! वैसे ही आपको तथ्य समझना होगा! उसी प्रकार जैसे ही परमात्मा का तुम्हें बोध होगा, तुम्हें ज्ञान मिलेगा तुम्हारे जन्म जन्मांतर के पाप तो स्वतः क्षणमात्र में नष्ट हो जाएंगे, देरी कहां है? तुम क्यों अपने आप को अंधकार में रख रहे हो? तुम क्यों इस तरह की मनघड़ंत बातें घड लेते हो?और ध्यान रहे, ये करना भी तुम्हारा खुद का है, तुम ही घड़ रहे हो; इसका भी कारण है, वो है तुम्हारा आलस्य, तुम्हारा जगत के प्रति खिंचाव । इस जगत ने तुम्हें अपनी और इतना खींच कर रखा है, इतना आकृष्ट कर के रखा है कि तुम इस जगत को त्यागना ही नहीं चाहते। जो चीज तुम्हें पसंद ना हो उसे ना करने के लिए तुम बहुत से बहाने खोज लेते हो। विद्यार्थियों में एक आदत होती है कि वह सुबह जल्दी नहीं उठ पाते। तो ऐसे विद्यार्थियों को यदि आप पूछेंगे कि, "तुम सुबह जल्दी क्यों नहीं उठते? क्योंकि ब्रह्म मुहूर्त में उठने से तो स्मरण शक्ति बढ़ती है, तुम्हें आसानी से याद हो जाएगा।" तो वो कहेंगे, "नहीं, मुझे सुबह याद नहीं होता! मुझे रात को याद होता है इसलिए मैं रात के 11-12 1:00 बजे तक बैठ सकता हूं लेकिन प्रभात में नहीं उठ पाऊंगा।"
वास्तव में ऐसी कोई भी बात नहीं है कि रात्रि में उससे अधिक याद होने वाला है। प्रभात में उससे दुगना होगा और होगा ही यह सत्यता है। लेकिन वह सुबह उठना नहीं चाहता इसलिए उसने बहाना बना लिया है।
बस उसी प्रकार यह सब बहाने तुमने बना रखे हैं परमात्मा की ओर नहीं जाने के। कि मैंने जन्मो जन्म से पाप किए हैं तो जन्मो जन्म अब इन पापों को नष्ट करने में लग जाएंगे तो परमात्मा को प्राप्त करते-करते बहुत देर लग जाएगी। और तुम बहाना निकालते हो कि यह मेरे बस की नहीं है और अब यह मुझसे नहीं होने वाला इसलिए मैं साधना क्यों करूं? मैं तप क्यों करूं? मैं भक्ति क्यों करूं?
तुमने अपने आप को बचाने के बहुत से बहाने ढूंढ रखे हैं। लेकिन गलत गलत ही होता है। असत्य असत्य ही होता है। उसका आधार नहीं होता, वह निराधार होता है। उसी प्रकार आप का प्रश्न निराधार है।
मन की मूढ़ताओं से सावधान रहना, ये मन बहुत चालाक है!साधना से, तप से तुम्हे विमुख करने के लिए कोई ना कोई माध्यम, कोई ना कोई बहाना ढूंढ लेगा।
- महासिद्ध ईशपुत्र

1 टिप्पणी:

Unknown ने कहा…

बहुत ही सुंदर उदाहरण प्रस्तुत किया है गुरुवार...