गुरुवार, 12 दिसंबर 2019

योगी जीवन - 7



देश, काल, स्थान और स्वभाव के अनुरूप मंत्र, औषधि और तप भी भिन्न भिन्न परिणाम उत्पन्न करते हैं! इसी प्रकृति में रहकर संपूर्ण ज्ञान प्राप्त किया जाता है! तथा उसे भोजपत्र और ताड़ पत्रों पर अंकित कर सभ्यता को दिया जाता है! और सभ्यता उन्हीं पन्नों के माध्यम से अलौकिक ज्ञान को समझने की चेष्टा करती है! हिमालय पर इनके अनेकों गुप्त स्थान होते हैं, जहां आम मानव न पहुंच सके! ऋतु परिवर्तन होने के साथ-साथ साधना का तरीका भी परिवर्तित होता चला जाता है! अक्सर योगी अपनी साधनाओं के लिए ऐसे ऐसे स्थान चुनते हैं जहां जाना बड़ा विकट हो! शीत ऋतु में योगी अपनी देह पर भस्म मल लेते हैं! हिमालयों की सीधी पगडंडियों पर चलकर यह अक्सर दरों के आर पार गुजर जाया करते हैं और कभी पतझड़ जैसी ऋतु आने पर यही जोगी शरीर पर मृदा का लेप कर अपने देह को विशेष प्रकार के वृक्षों के सूखे पत्तों में स्थिर कर समाधि लगाने का प्रयत्न करते हैं! जिसे देखते ही अपने आप में एक विचित्र अनुभूति होती है! संपूर्ण मानवीय धारणाओं को दरकिनार कर अपने मस्तिष्क के विभिन्न तंतुओं को जागृत कर ये अतीन्द्रिय हो जाते हैं! सदा अपनी क्रियाओं में एकाग्रता और एक निष्ठा रखना ही इनकी सफलता का परम रहस्य है! प्रकृति में जहां भी इन्हें सुंदर स्थान मिल जाए बस वही समाधि लगाने के लिए बैठ जाते हैं! फिर वह चाहे नदी हो, नाला हो, पर्वत हो, कंदरा हो या फिर घना वनप्रदेश! यहां तक कि वृक्षों के ऊपर, किसी विशाल चट्टान के नीचे, झाड़ियों के अंदर अथवा किसी भी शुद्ध स्थान में इन्हें समाधि लगाए देखा जा सकता है! क्यों क्या हम इस ऋषि परंपरा को भूल गए? शायद यही वह परंपरा है जिस पर चलकर सभी ऋषि-मुनियों ने ज्ञान प्राप्त किया था! किंतु अब शायद बहुत कम लोग शेष रह गए हैं जो इस विधा को जानने वाले हैं! आज सभ्यता प्रकृति से दूर होती जा रही है! कृत्रिम ता में लीन होती जा रही है! यही कारण है कि वे निरोगी नहीं है! वह स्वस्थ नहीं है! वह आत्म सत्ता से जुड़े नहीं है! अब वह जमाने शायद बीत गए जब एकांत में साधक आत्मचिंतन में तल्लीन नजर आता था! आज नदी, नाले, कंदराएं, गुफाएं, पठार और वृक्षों के कोटर रिक्त हो गए हैं क्योंकि आज वहां कोई आत्मा तितिक्षु नहीं है! ऐसा श्रेष्ठ ऋषि जीवन आखिर क्यों छूट गया? आखिर मानव के मन में मलिनता क्यों आ गई? मानव परमात्मा से, प्रकृति से और अपने आप से दूर क्यों हो गया?
क्योंकि वह योगी बनना ही भूल गया! वह साधना की विलक्षणताओं को ही भूल गया! आइए हम भी योगी बनने का प्रयास करें, हम भी ऐसा जीवन जीने का प्रयास करें ताकि हम विराट बन सके, हम उस शाश्वत सत्य को जान सके जिससे यह सृष्टि उत्पन्न होती है और अंततः जिसमें यह सृष्टि पूर्ववत समा जाती है! हम जान सके अध्यात्म के शीर्षतम सोपानों को! हम जीवन के उस पार देख सके! हम अथाह ज्ञान को प्राप्त कर अमृत मार्ग की ओर बढ़ सके! - महासिद्ध ईशपुत्र

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