शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2019

"ईशपुत्र-कौलान्तक नाथ" के दिव्य "वचन" - 14

६६) ईश्वर नें तुमको संसार में बहुत से तत्व और सामग्रियां दी हैं। भले ही वो सब क्षणिक हों लेकिन तुमको उनका विवेक पूर्वक प्रयोग करना है। इश्वर नें सृष्टि में सबकुछ बनाया है जो अपने-अपने तरीकों में सबसे सुन्दर और सम्मान किये जाने योग्य हैं। यदि तुम इनका सदुपयोग करते हो तो ईश्वर तुमको उससे भी श्रेष्ठ देने की क्षमता रखते हैं। लेकिन तुम्हारे दूर्पयोग से आहात सृष्टि तुम से नाराज हो सकती है ऐसा उसे अधिकार है। तब तुम्हारी प्रार्थनाएं अनसुनी की जाएँगी।
६७) दुःख और परेशानियाँ तुम्हें कहती हैं उठ, जाग और खोज। सभी पीडाओं से बचने का अमृत रखा गया है, बस तुम उसे तलाशने का प्रयत्न भर करो। तुम्हारे मस्तिष्क को उसे खोजने की स्वतन्त्रता दी गयी है। परिश्रम के परिणाम स्वरुप तुमको सुख दिया जाएगा, किन्तु उसकी और ना देख बस प्रयास जारी रख और परिश्रम कर।
६८) कभी-कभी किसी को बहुत समझाने पर भी वो नहीं मानता और देखते ही देखते उसका अंत हो जाता है। इसका दोष तुझ पर नहीं लेकिन हर भाई को अपने साथ ले चलना और संभालना तेरा कर्म है। ईश्वर किसी को गलत मार्ग पर नहीं भेजता, लेकिन व्यक्ति का अपना पाप ही इसके लिए जिम्मेवार होता है।
६९) ईश्वरीय ज्ञान केवल धरती वालों के लिए ही नहीं है वो तो हर नए स्थान पर नए रूप में उपलब्ध होता है। संत उसे कल्याण के लिए प्रेम से अभिभूत हो कर प्रकट करते हैं। जब तू धरती पर रहेगा तब धरती का नियम ही तेरा धर्म होगा लेकिन जब तू आकाशों में होगा तब वहां का नियम ही तेरा धर्म होगा। भले ही तू सितारों के उस पार रह, वहां भी मैं (ईश्वर) तुमको मार्ग और सत्य धर्म प्रदान करता रहूंगा। बस तू अपने कान खुले रखना।
७०) तुम्हारे धर्म और ईश्वर की बड़ाई इसमें नहीं की तुम्हारी संख्या कितनी है बल्कि तुम्हारे उत्तम आचरण, विशाल ह्रदय, प्रेम, सौहार्द्र, विनम्रता और अच्छे संस्कार से ही तुम्हारे धर्म की श्रेष्ठता आंकी जायेगी। सत्यमय, प्रेममय गुणों पर खरा उतरने के बाद ही तुम्हारे हृदय को धर्मनिष्ठ व ईश्वर के योग्य कहा जायेगा। इसी से तुम्हारे धर्म और ईश्वर की महिमा का महाविस्तार होगा।

कोई टिप्पणी नहीं: