मंगलवार, 22 अक्टूबर 2019

"ईशपुत्र-कौलान्तक नाथ" के दिव्य "वचन" - 12

५६) बुद्धि श्रेष्ठ है इसके द्वारा तू कलाओं का संवर्धन कर, सौन्दर्य, संगीत, नृत्य, निर्माण व कलाओं का विकास कर, मनुष्य सहित प्रकृति को आनंद दे। किन्तु इसी बुद्धि को कुपथ पर जाने से रोक। मैंने तेरे लिए बुराइयों को निषिद्ध कहा है। मैं और ईश्वर तुम पर कोई बंधन नहीं डाल रहे। अपितु हम तो वो मार्ग दे रहे हैं जिससे तुम्हारा जीवन ऊँचा हो सकेगा। ठीक वैसे ही जैसे नन्ही चिडिया कुछ नियम अपना कर बहुत दूर तक उड़ते हुए उड़ने में कुशल हो जाती है। ठीक वैसे ही इन नियमों को अपनाना। इस संसार में तुम सबसे सुन्दर और प्रिय बन जाओगे। इतना के मैं खुद तुमको गले लगाने आउंगा।
५७) काम क्रोध बुरे हैं किन्तु ईश्वर नें कारण से इनको रचा है। जब तक ये सीमा में रहें, किसी का अनर्थ ना करें तो कोई बुराई नहीं। तू इनको जड़ से मिटाने की चेष्ठ ना कर। काम सृष्टि हित व वर्धन हेतु है जबकि क्रोद्ध आत्मरक्षा के लिए। इनका सही समय पर, उचित प्रयोग करने वाला ही योगी व धीर भक्त पुरुष है। अनियंत्रित ही पापी और पाप संभवा हैं।
५८) तुमको सब षड्यंत्र पूर्वक व व्यर्थ के नियम बना कर, चार दीवारों व सीमित घेरों में बंदी बनाना चाहेंगे। ऐसा सूक्ष्म कारागार बनायेगे की तुम देख ना सको, छू ना सको। लगे की स्वयं तुमने ही बनाया है। जल्द ही वो कैद तुमको घर या संसार जैसी प्रतीत होने लगेगी, जिसे फिर चाह कर भी न छोड़ पाओगे। उसके मोह में बंधे तुम उसकी रक्षा के लिए सत्य के भी विरुद्ध होने लगोगे। मैं कहता हूँ तोड़ दो ऐसे घेरे को, गिरा दो ऐसी अदृश्य कैद को। तुम जितना ज्यादा देखोगे उतना ही ज्यादा जानोगे। प्रकृति के बीच रहो, प्रकृति के निकट रहो, किसी दूसरे महापुरुष की कहानियाँ सुनने की अपेक्षा अपनी श्रेष्ठ कहानी में जिओ। यही जीवन कहलायेगा जो पूर्णता की ओर ले जाने वाला है।
५९) यदि कभी तुम्हें ये जीवन यातना लगे, तो भी ईश्वर का और मेरा साथ तुम्हारे लिए बना रहता है। बस तुमको याद करना होगा की तुम अकेले नहीं हो। तब तुम्हारी यातना को हम उत्सव में बदल देंगे, हम पर विश्वास कर। हम मार्गदर्शी, जीवन ऊर्जा देने वाले और तेरे जीवन को छोटी-छोटी खुशियों से भरने वाले हैं। लेकिन जब तुम किसी एक अनुचित मांग पर अड़ जाते हो, तो उस स्वार्थ पर हम मुस्कुराते हुए मुख फेर लेते हैं।
६०) धर्म कोई नियमों की किताब नहीं है, बल्कि धर्म तुम हो जो उसको जीता है। धर्म नहीं है तो तुम और तुम्हारा आचरण पशु सामान ही हो जाता है। ये धर्म ही है जो तुमको श्रेष्ठ बनाता है और तुम्हारी श्रेष्ठता अधार्मिकों से सही नहीं जाती। तब वो तुम पर नियम, कानून, दवाब, बल, संख्या, अपमान, अपशब्द, हिंसा व षड्यंत्रों का प्रयोग करते हैं। ऐसे मैं तुमको अधिकार दिया जाता है की सबका उसी प्रकार उत्तर दो जिस प्रकार 'ईट का उत्तर पत्थर' से दिया जाता है। तब वो रण हो जाता है, जिसमें सत्य का पक्षधर मैं उपस्थित रहता हूँ।

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