बुधवार, 9 अक्टूबर 2019

"ईशपुत्र-कौलान्तक नाथ" के दिव्य "वचन" - 8

३६) ईश्वर नें तुमको अपने सा मन दिया है और बल भी, तुम उसमें विश्वास भरो और प्रयास करो। ये विश्व अपरिवर्तनशील नहीं है बस तुम विश्व को इसलिए बदल नहीं पाए क्योंकि तुममें अविश्वास और शिथिलता है।
३७) तुम्हारे जीवन में सर्प्रथम कर्तव्य हैं, फिर अधिकार और फिर स्वतन्त्रता। यदि पहला नहीं है तो अन्यों की चाह मत रखना। छलकपट रहित ही हीरे के सामान बहुमूल्य होता है।
३८) तुम किसी को बुरा न कहो उसे चुभेगा और जब कोई तुमको कहेगा तो तुमको चुभेगा। मौन संयमी होना देवताओं का लक्षण है। इसलिए तुमको ये श्रेष्ठ गुण अपनाने चाहियें।
३९) आनंद भीतर ही स्थापित किया गया है इसे समझना और बाहर वस्तुओं में इसकी खोज मत करना। ईश्वरीय कृपा से मिलने वाला तेज तुमको सदैव आनंदित करेगा।
४०) अपने को तुम ईश्वर का पुत्र जानों और ईश्वर तथा अपने पे इतना विश्वास करो के ईश्वर के ये कहने पर की तुमको नर्क भेजने पर तुम क्या करोगे? तो तुम्हारा उत्तर हो की वहां भी आपके स्वर्ग का निर्माण शुरू कर देंगे, ही तुम्हारी दृडता का परिचय होगा।

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