ये बात भी लोग अच्छी तरह जानते हैं कि महायोगी जी को केवल बारह वर्ष कि आयु में ही गुरु पदवी पर महागुरु ने बिठा दिया था....और तभी से कुछ साधक महायोगी जी के शिष्य बन गए और उनके साथ रहने लगे....कुछ साधू और सन्यासियों ने तो ये दावा तक किया कि वो महायोगी जी के पूर्व जन्मों के शिष्य हैं....महायोगी जी के घर के सामने जमघट लगा रहता....परिवार को महायोगी जी कि स्कूली शिक्षा कि चिंता होती रहती थी....लेकिन कोई उपाय ही नहीं था...इन साधकों को परिवार वालों ने गाली-गलौच कर भगाया भी लेकिन......दो-तीन दिनों में ही फिर आ जाते...समस्या कम होने का नाम ही नहीं ले रही थी.....एक ओर जहाँ कुल्लू में स्थित देवताओं के सामने होने वाली बलि प्रथा को रोकने के प्रयास के कारण जहाँ सामाजिक रूप से महायोगी के अनेक शत्रु तैयार हो गए थे.....वहीँ क्षेत्र का जातिवाद महायोगी के परिवार पर भारी पड़ने लगा......महायोगी जी के कई शिष्य जाति में बहुत छोटे होने और स्वयं महायोगी जी के उच्च कुल में होने के कारण साथ सहभोज एवं पूजन, यज्ञ, साधना का विरोध होने लगा....महायोगी जी के परिवार को विरादरी कि चुनौतियों का सामना करना पड़ा.....जिस कारण महायोगी जी ने घर छोड़ कर बाहर रहने का निर्णय कर लिया....ताकि परिवार को कोई परेशानी न हो.........यही सोचकर महायोगी शिष्यों सहित "बालीचौकी "नाम कि जगह पर ही माता काली कि प्राचीन गुफा में रह कर तप करने लगे....यहीं महायोगी जी को "माता रानी" ने साधारण स्त्री के रूप दर्शन दिए.....और महायोगी जी से प्रसाद मांग कर ले गयीं.....लेकिन काफी देर तक उनको पता ही नहीं चला....जब तक भान होता देर हो चुकी थी.....अब तो इस घटना ने महायोगी जी पर नया जनून सवार कर दिया कि मुझे मातारानी से मिलना है.....महायोगी जी ने भोजन त्याग कर वहीँ साधना करनी शुरू कर दी......मंत्र जप करते रहते......यज्ञ करते रहते......लेकिन बात न बन सकी.....महायोगी कमजोर होते चले गए....उनका स्वास्थ्य तेजी से गिरने लगा....
कहा जाता है कि यक्षिणियों....की सिद्धि महायोगी को जन्मजात थी....जोगिनियों की कृपा से महायोगी हिमालय के सबसे बड़े योगी बने थे......कौलान्तक पीठ की अधिष्ठात्री देवी माता कुरुकुल्ला की सिद्धि ने महायोगी को मानवीय सीमाओं से परे कर दिया था........पर माया थी कि महायोगी को अस्थिर किये जा रही थी....महायोगी जी कि ऐसी हालत हो गयी कि अब वो बैठ ही नहीं प् रहे थे.....माता-पिता भी बेटे कि ऐसी हालत देख कर गुफा दौड़े चले आये.....महायोगी जी यहीं से पवित्र हंसकुंड तीर्थ की चौदह दिनों की यात्रा पर चले गए....ऐसी हालत में जाना सबको मंजूर नहीं था...पर हठयोगी के सामने किसकी चलती....महायोगी जी यात्रा पर नंगे पवन निकल पड़े....और अनेक कष्टों से भरे मार्ग को पार करते हुए दिव्य हंसकुंड तक पहुंचे....और वहां से भी ऊपर सकती नाम के पर्वत शिखर तक पहुंचे.....जहाँ दो दिन की साधना कर महायोगी जी पुन: घर की और लौटे....लेकिन घर आने के लिए नहीं बल्कि उन दो दिनों की साधना ने महायोगी जी को और भी तंग कर दिया था....महायोगी जी घोर तप का निर्णय मन ही मन कर चुके थे....अपने संकल्प को पूरा करने के लिए....पहले महायोगी जी घर लौटे....यक्शिनियों का आवन कर उनको पूछा की बताओ माता के दर्शन कैसे हो सकते हैं....उनहोंने कहा की इसके लिए तो घोर तप करना होगा....महायोगी जी ने कहा मैं तैयार हूँ....यक्शिनियों ने ही बताया की महायोगी जी आपको इसके लिए "गरुडासन" पर्वत पर जा कर ही साधना करनी होगी ये स्थान तो काफी दूर था....महायोगी ने कहा ये तो जोगनियों का दिव्य स्थान है....महायोगी जी पहले भी वहां जा चुके थे....अब महायोगी जोगिनियों का आवाहन करने लगे.......जोगिनियों ने महायोगी को कहा की तुम निश्चिन्त हो कर आओ हमारे रहते तुम्हारा बाल भी बांका नहीं हो सकता......महायोगी जी ने आपने कुल देवता श्री शेष नाग जी की अनुमति ली....साथ ही माता तोतला जी की भी......अपने सभी पूर्वजों को प्रणाम कर आशीर्वाद माँगा....लेकिन जाने से पहले दो बड़ी अड़चने सामने आ गयी......
पहली अड़चन तो ये थी की महायोगी के पैतृक घर के साथ वाले पर्वत "जोगिनीगंधा"की देवी भ्रामरी इसके लिए मान नहीं रही थी और साथ ही......"सुवर्णकारिणी माता देवी चवाली"भी आज्ञा नहीं दे रही थी महायोगी जी जानते थे कि "सुवर्णकारिणी माता देवी चवाली" को मनाना बहुत ही आसान है......लेकिन "जोगिनीगंधा" पर्वत की देवी भ्रामरी सरलता से नहीं मानने वाली....तो पहले महायोगी जी इसी परवत पर चले गए....इस पर्वत पर साधना के लिए बैठते ही बबाल शुरू हो गया......गांव कि मान्यता के अनुसार यहाँ कोई रात को नहीं रहता सदियों से कोई रहा भी नहीं था...लोग इस स्थान को बहुत ही पवित्र मानते हैं....लेकिन महायोगी जी के दिन-रात वहां रहने के कारण लोग भड़क गए....और समूह बना कर महायोगी जी को धमकाने पहुंचे लेकिन महायोगी जी ने उनको कड़ाई से कह दिया कि वो बिना साधना पूरण किये कदापि नहीं जायेंगे....कहा जाता है कि इस देवी के क्षेत्र कि रक्षा कोई "लंगड़ाबीर"नाम का देवता करता है....जो भालू या शेर जैसा रूप बना कर लोगों को मार देता है....लेकिन जो हिमालयों और बनो का सम्राट हो उसको भला क्या भय.....महायोगी जी करीब सात दिन वहां रहे और अन्तत:,करुणामयी माता प्रसन्न हुई....उनहोंने आकाश मार्ग से महायोगी जी को मौली बस्त्र का टुकड़ा....और कुछ दिव्य पुष्प दिए.......
आप सोच रहे होंगे कि ये तो बिलकुल ही अवैज्ञानिक बात है कि हवा में कोई चीज कैसे आ सकती है....ये वहां के लोगों के लिए चमत्कार नहीं सैंकड़ों लोगो के सामने होने वाली मामूली सी दैविक क्रिया है.....यहाँ का बच्चा-बच्चा इस तथ्य को भली भांति जानता है........सैंकड़ों लोग इसके प्रत्यक्षदर्शी भी है......महायोगी जी इस स्थान से लौटते हुए....ही"सुवर्णकारिणी माता देवी चवाली"के बन में स्थित मंदिर में पहुंचे....इस माता का बन छोटा सा ही है लेकिन वहां के बृक्षों को कोई लोहा नहीं लगता.......जंगल कटा नहीं जाता इसी कारण बचा हुआ है....इसी बन के मध्य से बहुत ही ऊँचाई से पानी का झरना गिरता है....इस झरने कि जहाँ से शुरुआत होती है वहीँ माता जी का छोटा सा मंदिर है.....वहां पहुँच कर महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी ने माता को केवल स्तुति करके ही प्रसन्न कर लिया....माता चवाली ममतामयी कोमल हृद्या हैं.....यही वो देवी हैं जिनके पास मृतसंजीवनी एवं पर्णी नामक बृक्ष भी है.....जिससे सोना बनाया जाता है जैसी दिव्य औषधियां हैं....लेकिन मान्यता के अनुसार इन औषधियों को अदृशय रखा गया है....माता कि कृपा से ही ये प्राप्त हो सकती हैं.....महायोगी जी माता का आशीर्वाद ले......अपनी "गरुडासन पर्वत" कि महासाधना के लिए अब तैयार थे........
महायोगी जी कठिनतम यात्रा कर गरुडासन पर्वत तक पहुंचे....और और शुरू की अपनी सबसे बड़ी साधना......इस साधना के बारे में मैं नहीं बता सकता....जानता तो हूँ पर यही महायोगी जी के जीवन का सबसे अहम् पड़ाव है....इसी पर्वत पर महायोगी जी को माता रानी के न केवल दर्शन हुए बल्कि आज तक जो इतिहास में सुना भी नहीं गया.....मातारानी के साथ लगभग तीन घंटों से अधिक कि अवधि तक महायोगी जी रहे लेकिन महायोगी नहीं जानते थे कि वो किस से धर्म चर्चा कर रहे हैं....अंतिम कुछ क्षणों में माता ने स्वयं ही कह दिया....कि तुम मुझसे मिलने यहाँ आये थे....तो देख लो मैं ऐसी हूँ.....और करीब सात मिनट तक वहां रह कर देवी ने बिदा ली....आप ये कल्पना करने न लग जाएँ की कोई आठ भुजा वाली मुकुट धारण किये शेर पर सवार हो कर प्रकट हुई और अदृशय हो गयीं......ऐसा कुछ नहीं हुआ......महायोगी जी 26 दिनों तक बिलकुल भूखे रहे होंठ और चमड़ी जगह जगह से फट गयी थी बहुत ही तेज बुखार हो रहा था.....दो दिनों से महायोगी हिले तक नहीं थे.....अब महायोगी जीने की उम्मीद छोड़ चुके थे.....ऐसे में उन्हें मूत्र त्याग की इच्छा हुई....घसीटते हुए कुच्छ दूरी तक गए.....कुछ बूँद मूत्र त्याग किया.....वापिस कन्दरा की और लौटने लगे तो बेहोश हो कर गिर गए.....तभी एक गांव की महिला वहां जड़ी बूटियाँ ढूढती हुई पहुंची....उसने महायोगी को उठाया और पानी पिलाया....फिर लताडती हुई पर्वत के ऊपर ले गई क्योंकि ठण्ड के कारण महायोगी जी का शरीर अकड़ गया था....ऊपर धूप थी.....वहां धूप में लिटा कर महायोगी जी से घर का पता पूछने लगी और कहने लगी की तुम यहाँ अकेले क्या कर रहे हो...जानते नहीं की यहाँ खतरा है...इतनी ऊंचाई पर तो जानवर भी जिन्दा नहीं रहते....जब महायोगी जी ने कहा की वो माता भगवती को मनाने के लिए आये हैं...तो वो औरत कहने लगी माता तो दिल में होती है..आत्महत्या करके नहीं मिलेगी अपने घर चले जाओ....लेकिन महायोगी बोले की मैं जानता हूँ कि दिल में प्रेम और भक्ति होनी चाहिए पर शायद इतना काफी नहीं....इसी तरह समय तीन घंटे बीत गए....जब महायोगी जी बातो मैं ही उलझे रहे तर्क पे तर्क देते रहे......तो उस औरत ने अपनी गोद से गर्म तजा प्रसाद निकाल कर महायोगी जी को दिया और बोली देखो लो मैं ऐसी ही हूँ.......महायोगी को उस स्त्री कि बातों मैं सच्चाई नजर आई.....महायोगी जी ने अपनी दादी को बताते हुए कहा था कि दादी जी पता नहीं क्यों मुझमे उस औरत कि बात काटने का सहस ही नहीं रहा...वो जो कहती गई मैंने मन....लगा मानों सचमुच
वो ही आदि जगदम्बा है......जैसे ही हल्का सा बोध हुआ.....आँखों से आंसू बहाने लगे मैं दहाड़ दहाड़ कर रोने लगा....उनके सीने से लग कर रोता रहा....पलट पलट कर उनको देखता.....उनको छू कर देखा....उनहोंने कहा मैं सदा तुम्हारे साथ ही हूँ.....कुरुकुल्ला कि प्रतिमा का निर्माण करो.....रथ बनायो......(पहाड़ी कुल्लवी शैली कि प्रतिमा को रथ कहा जाता है)....फिर माता उठी और कहने लगी ये प्रसाद तुम्हारे लिए...और मैं खड़ा हो गया.....वो उठी हाथ मैं दरात थी...और पहाड़ कि दूसरी और जाने लगी.....दिल तो कर रहा था कि मैं रोकू.....लेकिन हिल ही नहीं पा रहा था....थोड़ी देर मैं ठंडी हवा के झोंके ने अहसास दिलाया तो पहाड़ी कि तरफ भागा....दूर दूर तक कोई नहीं था....यहाँ तक कि जंगल तो बहुत ही दूर थे केवल नग्न रिक्त परवत ही था....महायोगी काफी देर रोते रहे.....अचानक हसने लगे...उनको याद आया कि शायद बुखार दिमाग मैं चढ़ रहा है या इतने दिनों से भूखे होने के कारण मौत से पहले हेल्युसुनेशन हो रहा है....भला ऐसा कैसे हो सकता है कि अभी माता आई थी.....अपने को महायोगी जी ने बहुत समझाया....लेकिन तभी हाथ पर रखे प्रसाद पर नजर गई.....जिसकी गर्मी हाथों को महसूस हो रही थी.....महायोगी जी ने प्रसाद ग्रहण किया.....लेकिन आज तक भी महायोगी इस बात को मान ही नहीं पाए कि सचमुच वो भगवती ही थी....लेकिन महागुर को इस बात का पता चलते ही वो भी गरुडासन पहुंचे......महायोगी इतना होने पर भी भ्रम ही मान रहे थे....तो साधना आगे जारी रखने कि जिद्द पर अड़े थे......महागुरु के समझाने बुझाने पर ही लौटे....हम सब तो यही मानते है कि वो भगवती ही थी......केवल महायोगी जी को छोड़ कर....दादी जी का भी यही माना था.....देवी कुरुकुल्ला कि पहले एक धातु प्रतिमा ही थी.....जो प्राचीन है....लेकिन बड़ी मूर्ति जिसे रथ कहा जाता है...तैयार नहीं किया गया था....घर आने के तकरीबन 6सालों के बाद ही महायोगी ने अपना वादा पूरा कर कुरुकुल्ला देवी का रथ बना कर तैयार करवाया....धन का अत्यंत अभाव होने के कारण महायोगी जी माता की प्रतिमा को मनोवांछित स्वरुप नहीं दे पाए लेकिन भविष्य में धन कि व्यवस्था होने पर ऐसा करेने का मन बना माता कि मूर्ती को तैयार किया गया......आप भी जगतकल्याणी माता कुरुकुल्ला जी के दर्शन कर लीजिये......
-लखन नाथ
कहा जाता है कि यक्षिणियों....की सिद्धि महायोगी को जन्मजात थी....जोगिनियों की कृपा से महायोगी हिमालय के सबसे बड़े योगी बने थे......कौलान्तक पीठ की अधिष्ठात्री देवी माता कुरुकुल्ला की सिद्धि ने महायोगी को मानवीय सीमाओं से परे कर दिया था........पर माया थी कि महायोगी को अस्थिर किये जा रही थी....महायोगी जी कि ऐसी हालत हो गयी कि अब वो बैठ ही नहीं प् रहे थे.....माता-पिता भी बेटे कि ऐसी हालत देख कर गुफा दौड़े चले आये.....महायोगी जी यहीं से पवित्र हंसकुंड तीर्थ की चौदह दिनों की यात्रा पर चले गए....ऐसी हालत में जाना सबको मंजूर नहीं था...पर हठयोगी के सामने किसकी चलती....महायोगी जी यात्रा पर नंगे पवन निकल पड़े....और अनेक कष्टों से भरे मार्ग को पार करते हुए दिव्य हंसकुंड तक पहुंचे....और वहां से भी ऊपर सकती नाम के पर्वत शिखर तक पहुंचे.....जहाँ दो दिन की साधना कर महायोगी जी पुन: घर की और लौटे....लेकिन घर आने के लिए नहीं बल्कि उन दो दिनों की साधना ने महायोगी जी को और भी तंग कर दिया था....महायोगी जी घोर तप का निर्णय मन ही मन कर चुके थे....अपने संकल्प को पूरा करने के लिए....पहले महायोगी जी घर लौटे....यक्शिनियों का आवन कर उनको पूछा की बताओ माता के दर्शन कैसे हो सकते हैं....उनहोंने कहा की इसके लिए तो घोर तप करना होगा....महायोगी जी ने कहा मैं तैयार हूँ....यक्शिनियों ने ही बताया की महायोगी जी आपको इसके लिए "गरुडासन" पर्वत पर जा कर ही साधना करनी होगी ये स्थान तो काफी दूर था....महायोगी ने कहा ये तो जोगनियों का दिव्य स्थान है....महायोगी जी पहले भी वहां जा चुके थे....अब महायोगी जोगिनियों का आवाहन करने लगे.......जोगिनियों ने महायोगी को कहा की तुम निश्चिन्त हो कर आओ हमारे रहते तुम्हारा बाल भी बांका नहीं हो सकता......महायोगी जी ने आपने कुल देवता श्री शेष नाग जी की अनुमति ली....साथ ही माता तोतला जी की भी......अपने सभी पूर्वजों को प्रणाम कर आशीर्वाद माँगा....लेकिन जाने से पहले दो बड़ी अड़चने सामने आ गयी......
पहली अड़चन तो ये थी की महायोगी के पैतृक घर के साथ वाले पर्वत "जोगिनीगंधा"की देवी भ्रामरी इसके लिए मान नहीं रही थी और साथ ही......"सुवर्णकारिणी माता देवी चवाली"भी आज्ञा नहीं दे रही थी महायोगी जी जानते थे कि "सुवर्णकारिणी माता देवी चवाली" को मनाना बहुत ही आसान है......लेकिन "जोगिनीगंधा" पर्वत की देवी भ्रामरी सरलता से नहीं मानने वाली....तो पहले महायोगी जी इसी परवत पर चले गए....इस पर्वत पर साधना के लिए बैठते ही बबाल शुरू हो गया......गांव कि मान्यता के अनुसार यहाँ कोई रात को नहीं रहता सदियों से कोई रहा भी नहीं था...लोग इस स्थान को बहुत ही पवित्र मानते हैं....लेकिन महायोगी जी के दिन-रात वहां रहने के कारण लोग भड़क गए....और समूह बना कर महायोगी जी को धमकाने पहुंचे लेकिन महायोगी जी ने उनको कड़ाई से कह दिया कि वो बिना साधना पूरण किये कदापि नहीं जायेंगे....कहा जाता है कि इस देवी के क्षेत्र कि रक्षा कोई "लंगड़ाबीर"नाम का देवता करता है....जो भालू या शेर जैसा रूप बना कर लोगों को मार देता है....लेकिन जो हिमालयों और बनो का सम्राट हो उसको भला क्या भय.....महायोगी जी करीब सात दिन वहां रहे और अन्तत:,करुणामयी माता प्रसन्न हुई....उनहोंने आकाश मार्ग से महायोगी जी को मौली बस्त्र का टुकड़ा....और कुछ दिव्य पुष्प दिए.......
आप सोच रहे होंगे कि ये तो बिलकुल ही अवैज्ञानिक बात है कि हवा में कोई चीज कैसे आ सकती है....ये वहां के लोगों के लिए चमत्कार नहीं सैंकड़ों लोगो के सामने होने वाली मामूली सी दैविक क्रिया है.....यहाँ का बच्चा-बच्चा इस तथ्य को भली भांति जानता है........सैंकड़ों लोग इसके प्रत्यक्षदर्शी भी है......महायोगी जी इस स्थान से लौटते हुए....ही"सुवर्णकारिणी माता देवी चवाली"के बन में स्थित मंदिर में पहुंचे....इस माता का बन छोटा सा ही है लेकिन वहां के बृक्षों को कोई लोहा नहीं लगता.......जंगल कटा नहीं जाता इसी कारण बचा हुआ है....इसी बन के मध्य से बहुत ही ऊँचाई से पानी का झरना गिरता है....इस झरने कि जहाँ से शुरुआत होती है वहीँ माता जी का छोटा सा मंदिर है.....वहां पहुँच कर महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी ने माता को केवल स्तुति करके ही प्रसन्न कर लिया....माता चवाली ममतामयी कोमल हृद्या हैं.....यही वो देवी हैं जिनके पास मृतसंजीवनी एवं पर्णी नामक बृक्ष भी है.....जिससे सोना बनाया जाता है जैसी दिव्य औषधियां हैं....लेकिन मान्यता के अनुसार इन औषधियों को अदृशय रखा गया है....माता कि कृपा से ही ये प्राप्त हो सकती हैं.....महायोगी जी माता का आशीर्वाद ले......अपनी "गरुडासन पर्वत" कि महासाधना के लिए अब तैयार थे........
महायोगी जी कठिनतम यात्रा कर गरुडासन पर्वत तक पहुंचे....और और शुरू की अपनी सबसे बड़ी साधना......इस साधना के बारे में मैं नहीं बता सकता....जानता तो हूँ पर यही महायोगी जी के जीवन का सबसे अहम् पड़ाव है....इसी पर्वत पर महायोगी जी को माता रानी के न केवल दर्शन हुए बल्कि आज तक जो इतिहास में सुना भी नहीं गया.....मातारानी के साथ लगभग तीन घंटों से अधिक कि अवधि तक महायोगी जी रहे लेकिन महायोगी नहीं जानते थे कि वो किस से धर्म चर्चा कर रहे हैं....अंतिम कुछ क्षणों में माता ने स्वयं ही कह दिया....कि तुम मुझसे मिलने यहाँ आये थे....तो देख लो मैं ऐसी हूँ.....और करीब सात मिनट तक वहां रह कर देवी ने बिदा ली....आप ये कल्पना करने न लग जाएँ की कोई आठ भुजा वाली मुकुट धारण किये शेर पर सवार हो कर प्रकट हुई और अदृशय हो गयीं......ऐसा कुछ नहीं हुआ......महायोगी जी 26 दिनों तक बिलकुल भूखे रहे होंठ और चमड़ी जगह जगह से फट गयी थी बहुत ही तेज बुखार हो रहा था.....दो दिनों से महायोगी हिले तक नहीं थे.....अब महायोगी जीने की उम्मीद छोड़ चुके थे.....ऐसे में उन्हें मूत्र त्याग की इच्छा हुई....घसीटते हुए कुच्छ दूरी तक गए.....कुछ बूँद मूत्र त्याग किया.....वापिस कन्दरा की और लौटने लगे तो बेहोश हो कर गिर गए.....तभी एक गांव की महिला वहां जड़ी बूटियाँ ढूढती हुई पहुंची....उसने महायोगी को उठाया और पानी पिलाया....फिर लताडती हुई पर्वत के ऊपर ले गई क्योंकि ठण्ड के कारण महायोगी जी का शरीर अकड़ गया था....ऊपर धूप थी.....वहां धूप में लिटा कर महायोगी जी से घर का पता पूछने लगी और कहने लगी की तुम यहाँ अकेले क्या कर रहे हो...जानते नहीं की यहाँ खतरा है...इतनी ऊंचाई पर तो जानवर भी जिन्दा नहीं रहते....जब महायोगी जी ने कहा की वो माता भगवती को मनाने के लिए आये हैं...तो वो औरत कहने लगी माता तो दिल में होती है..आत्महत्या करके नहीं मिलेगी अपने घर चले जाओ....लेकिन महायोगी बोले की मैं जानता हूँ कि दिल में प्रेम और भक्ति होनी चाहिए पर शायद इतना काफी नहीं....इसी तरह समय तीन घंटे बीत गए....जब महायोगी जी बातो मैं ही उलझे रहे तर्क पे तर्क देते रहे......तो उस औरत ने अपनी गोद से गर्म तजा प्रसाद निकाल कर महायोगी जी को दिया और बोली देखो लो मैं ऐसी ही हूँ.......महायोगी को उस स्त्री कि बातों मैं सच्चाई नजर आई.....महायोगी जी ने अपनी दादी को बताते हुए कहा था कि दादी जी पता नहीं क्यों मुझमे उस औरत कि बात काटने का सहस ही नहीं रहा...वो जो कहती गई मैंने मन....लगा मानों सचमुच
वो ही आदि जगदम्बा है......जैसे ही हल्का सा बोध हुआ.....आँखों से आंसू बहाने लगे मैं दहाड़ दहाड़ कर रोने लगा....उनके सीने से लग कर रोता रहा....पलट पलट कर उनको देखता.....उनको छू कर देखा....उनहोंने कहा मैं सदा तुम्हारे साथ ही हूँ.....कुरुकुल्ला कि प्रतिमा का निर्माण करो.....रथ बनायो......(पहाड़ी कुल्लवी शैली कि प्रतिमा को रथ कहा जाता है)....फिर माता उठी और कहने लगी ये प्रसाद तुम्हारे लिए...और मैं खड़ा हो गया.....वो उठी हाथ मैं दरात थी...और पहाड़ कि दूसरी और जाने लगी.....दिल तो कर रहा था कि मैं रोकू.....लेकिन हिल ही नहीं पा रहा था....थोड़ी देर मैं ठंडी हवा के झोंके ने अहसास दिलाया तो पहाड़ी कि तरफ भागा....दूर दूर तक कोई नहीं था....यहाँ तक कि जंगल तो बहुत ही दूर थे केवल नग्न रिक्त परवत ही था....महायोगी काफी देर रोते रहे.....अचानक हसने लगे...उनको याद आया कि शायद बुखार दिमाग मैं चढ़ रहा है या इतने दिनों से भूखे होने के कारण मौत से पहले हेल्युसुनेशन हो रहा है....भला ऐसा कैसे हो सकता है कि अभी माता आई थी.....अपने को महायोगी जी ने बहुत समझाया....लेकिन तभी हाथ पर रखे प्रसाद पर नजर गई.....जिसकी गर्मी हाथों को महसूस हो रही थी.....महायोगी जी ने प्रसाद ग्रहण किया.....लेकिन आज तक भी महायोगी इस बात को मान ही नहीं पाए कि सचमुच वो भगवती ही थी....लेकिन महागुर को इस बात का पता चलते ही वो भी गरुडासन पहुंचे......महायोगी इतना होने पर भी भ्रम ही मान रहे थे....तो साधना आगे जारी रखने कि जिद्द पर अड़े थे......महागुरु के समझाने बुझाने पर ही लौटे....हम सब तो यही मानते है कि वो भगवती ही थी......केवल महायोगी जी को छोड़ कर....दादी जी का भी यही माना था.....देवी कुरुकुल्ला कि पहले एक धातु प्रतिमा ही थी.....जो प्राचीन है....लेकिन बड़ी मूर्ति जिसे रथ कहा जाता है...तैयार नहीं किया गया था....घर आने के तकरीबन 6सालों के बाद ही महायोगी ने अपना वादा पूरा कर कुरुकुल्ला देवी का रथ बना कर तैयार करवाया....धन का अत्यंत अभाव होने के कारण महायोगी जी माता की प्रतिमा को मनोवांछित स्वरुप नहीं दे पाए लेकिन भविष्य में धन कि व्यवस्था होने पर ऐसा करेने का मन बना माता कि मूर्ती को तैयार किया गया......आप भी जगतकल्याणी माता कुरुकुल्ला जी के दर्शन कर लीजिये......
-लखन नाथ
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कौलान्तक पीठ में स्थित माता कुरुकुल्ला कि अस्थाई प्रतिमा इसी प्रतिमा को माँ भगवती का दिव्य देवी रथ भी कहा जाता है |
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