मंगलवार, 15 अक्टूबर 2019

"ईशपुत्र-कौलान्तक नाथ" के दिव्य "वचन" - 10

४६) जो मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं वो अब अवसर की प्रतीक्षा में हैं। तुम्हारे पास समय है इसलिए सो मत, जाग और प्रकाश की ओर, अमृत की ओर कदम बढ़ा। एक अद्भुत आनंदित अग्नि का विशाल पिंड घूमता दिखेगा उसके भीतर मेरा (ईश्वर का) बसेरा जान। वहां समय नहीं, न ही प्रकाश या अन्धकार है। बस मैं हूँ और तुम्हारी प्रतीक्षा है।
४७) शुभ विचार निश्चित ही स्वर्ग से उतर कर आते हैं और ये सभी विचार आनंद देने वाले, निश्चित ही उत्सव मनाने जैसे होते हैं। पृथ्वी पर आकाशों से शरीर उतर कर नहीं आता इसी कारण मूढ़ शरीरों को देखते रहते हैं और शरीरों के भीतर का ईश्वर और ईश्वरीय प्रकाश उनको दिखाई नहीं देता।
४८) याद रखो मनुष्यों का होना जरूरी है, किन्तु प्रकृति की बलि पर नहीं। धर्म के नियम तुम्हारे हित के लिए हैं इनके नाम पर बलि लेना और देना दोनों ही अपराध है। ईश्वर नें तुमको अपना सा ह्रदय और अपने सा प्रेम प्रदान किया है। इसलिए प्रेम को सर्वोच्च जान कर प्रेमपूर्वक रहो।
४९) इस बात से विराट ईश्वर को कोई अंतर नहीं पड़ता की कोई उसे मान कर स्तुति करता है या न मान कर निंदा। क्योंकि ये तो सीमित मनुष्यों के मस्तिष्क मात्र की गतिविधियाँ हैं। उसके समय के आगे तुम्हारी सृष्टि इतनी छोटी है की पलक झपकाने मात्र के बराबर। लेकिन तुम्हारे कर्म और तुम्हारा दिया गया प्रेम ईश्वर को तुम्हारी ओर देखने पर विवश करता है। प्रेम का समय थोड़ा होते हुए भी युगों से बड़ा होता है और ईश्वरीय सृष्टि में गणनीय है।
५०) मनुष्यों को अनंत रचना का अधिकार दिया गया है और अनंत विनाश का भी। वो अपने जैसे सामर्थ्यवान, विचारवान पुतलों को घड सकता है। माया के अनंत रहस्यों को जान सकता है। ऋषियों की भांति नयी सृष्टि और जीवों को रचने का अधिकार रखता है। नक्षत्रों, ब्रह्मांडों पर अधिकार कर सकता है, अज्ञात को खोज सकता है। लेकिन पूर्ण नहीं हो सकता। सभी विद्याओं और ज्ञान के उस पार भी बहुत कुछ है। जो केवल मेरी (ईश्वर की) अनुकम्पा से पाया जा सकता है।

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