६१) सत्य का प्रकाश फैलाना आसान नहीं है क्योंकि वो धारा के विपरीत जाने जैसा है। यदि तुम धर्म और अहिंसा के सत्य पथ पर चलने और कल्याण के निमित्त कार्य करने का प्रयास करते हो, तो वो सरलता से संभव नहीं है। वो तुमको ऐसा नहीं करने देंगे। अपितु बुराई में साथ देने के लिए तैयार मिलेंगे। वो तुम्हारा परिहास, ठठा करेंगे। तुमको मूढ़ कहेंगे। लेकिन तब भी तुम्हारा कार्य, निष्ठा से जारी रहना चाहिए। जब तुम संसार को कहोगे की ईश्वर का मार्ग श्रेष्ठ है। तब वो तुम्हारी बातें नहीं सुनेंगे, बरन कहेंगे की हम हमारा काम कर रहे हैं, तुम जा कर अपना करो। लेकिन तब भी तुम प्रकाश फैलाना बंद ना करना। इसे ईश्वर का कार्य मान कर जारी रखना यही अगली पीढ़ियों को तुम्हारा महान योगदान गिना जाएगा।
६२) यदि कोई तुमसे पूछे की ये सब बातें तुम किस अधिकार से कहते हो? तो कहना की ये अधिकार मेरा जन्मजात व ईश्वर की और से है। प्रेम बांटने के लिए सर्वप्रथम तुम्हारा स्वयं का प्रेममय होना आवश्यक है। इसलिए एकांत में जा कर बैठ आँखें बंद कर और बिना गर्दन उठाये नेत्रों से आकाश की और देख। अपनी श्वासों की गति को ठहरने दे, विश्राम में जा। तब मेरा और उस ईश्वर का ज्ञान व प्रेम आनंद सहित तुम्हारे भीतर उतरने लगेगा।
६३) जब एक भाई दूसरे डूबते भाई को बचाने के लिए कूदता है तो वो ईश्वर का प्रेमावतारी कहलाने का अधिकार प्राप्त करता है। जिसके लिए उसे किसी से ये पदवी मांगने की आवश्यकता नहीं होती। पर हित को ध्यान में रख कर जो कोई कार्य करता है मैं उसको ही साधू जनता हूँ। वो मेरा प्रिय व गले लगाने योग्य होता है।
६४) पुराने ग्रंथों (किताबों) में क्या लिखा है वो तो महत्वपूर्ण है ही, लेकिन उससे भी महत्वपूर्ण है की उस लिखे गए या कहे गए ज्ञान को तुम आज की परिस्थिति से कैसे जोड़ कर सही निर्णय लेते हो और जो आज कहा जा रहा है क्या तुम उसको भविष्य के साथ जोड़ कर सही निर्णय ले पाते हो? यदि ये गुण तुमको आ गया तो धर्म के निर्देशों को तुम सदा नया ही पाओगे और पूरी तरह सार्थक भी। अन्यथा तुमको धर्म ही सबसे बड़ा शत्रु लगाने लगेगा क्योंकि वो समकालीन प्रतीत न होगा। जबकि वो तो नित्य,नूतन और नवीन है।
६५) तुमने कृत्रिम धर्म गढ़ लिए है सबसे पहले उनको छोड़। रोगियों का मंत्र से, प्रार्थना से या ईश्वर की दया से ठीक हो जाना, भविष्य के कुछ तत्वों को-घटनाओं को देख अथवा जान जाना, जल और आकाश में चल लेना, दूसरी अज्ञात दुनिया को खोज लेना या फिर मर कर ज़िंदा हो जाना अथवा किया जाना धर्म नहीं है और ना ही ईश्वर नें किसी को ऐसा करने को कहा है। यदि किसी से स्वयं ऐसा हो रहा है तो वो उस रहस्य का अनुचित लाभ न ले बल्कि ईश्वर का उपहार मान कर उसी को निवेदित करे और ईश्वर का आभार करे की उसे ऐसा करने का अवसर दिया गया। तब वो अहंकारी हो स्वयं को ईश्वर ना कहे। वो तो शक्ति है और शक्ति ईश्वर से अभिन्न होते हुए भी भिन्न है।
६२) यदि कोई तुमसे पूछे की ये सब बातें तुम किस अधिकार से कहते हो? तो कहना की ये अधिकार मेरा जन्मजात व ईश्वर की और से है। प्रेम बांटने के लिए सर्वप्रथम तुम्हारा स्वयं का प्रेममय होना आवश्यक है। इसलिए एकांत में जा कर बैठ आँखें बंद कर और बिना गर्दन उठाये नेत्रों से आकाश की और देख। अपनी श्वासों की गति को ठहरने दे, विश्राम में जा। तब मेरा और उस ईश्वर का ज्ञान व प्रेम आनंद सहित तुम्हारे भीतर उतरने लगेगा।
६३) जब एक भाई दूसरे डूबते भाई को बचाने के लिए कूदता है तो वो ईश्वर का प्रेमावतारी कहलाने का अधिकार प्राप्त करता है। जिसके लिए उसे किसी से ये पदवी मांगने की आवश्यकता नहीं होती। पर हित को ध्यान में रख कर जो कोई कार्य करता है मैं उसको ही साधू जनता हूँ। वो मेरा प्रिय व गले लगाने योग्य होता है।
६४) पुराने ग्रंथों (किताबों) में क्या लिखा है वो तो महत्वपूर्ण है ही, लेकिन उससे भी महत्वपूर्ण है की उस लिखे गए या कहे गए ज्ञान को तुम आज की परिस्थिति से कैसे जोड़ कर सही निर्णय लेते हो और जो आज कहा जा रहा है क्या तुम उसको भविष्य के साथ जोड़ कर सही निर्णय ले पाते हो? यदि ये गुण तुमको आ गया तो धर्म के निर्देशों को तुम सदा नया ही पाओगे और पूरी तरह सार्थक भी। अन्यथा तुमको धर्म ही सबसे बड़ा शत्रु लगाने लगेगा क्योंकि वो समकालीन प्रतीत न होगा। जबकि वो तो नित्य,नूतन और नवीन है।
६५) तुमने कृत्रिम धर्म गढ़ लिए है सबसे पहले उनको छोड़। रोगियों का मंत्र से, प्रार्थना से या ईश्वर की दया से ठीक हो जाना, भविष्य के कुछ तत्वों को-घटनाओं को देख अथवा जान जाना, जल और आकाश में चल लेना, दूसरी अज्ञात दुनिया को खोज लेना या फिर मर कर ज़िंदा हो जाना अथवा किया जाना धर्म नहीं है और ना ही ईश्वर नें किसी को ऐसा करने को कहा है। यदि किसी से स्वयं ऐसा हो रहा है तो वो उस रहस्य का अनुचित लाभ न ले बल्कि ईश्वर का उपहार मान कर उसी को निवेदित करे और ईश्वर का आभार करे की उसे ऐसा करने का अवसर दिया गया। तब वो अहंकारी हो स्वयं को ईश्वर ना कहे। वो तो शक्ति है और शक्ति ईश्वर से अभिन्न होते हुए भी भिन्न है।
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