मंगलवार, 8 अक्टूबर 2019

"ईशपुत्र-कौलान्तक नाथ" के दिव्य "वचन" - 7

३१) ये संसार विचित्र रचा गया है ताकि इसके गुह्य भेद उपजने न पायें। यहाँ जो जितना छोटा बन कर रहेगा उतना ही सुरक्षित रहेगा और यदि तुम मन से छोटे यानि विनम्र और सहनशील हो जाओ, किसी पर अत्याचार और बल ना दिखाओ तो ये ब्रह्माण्ड तुम्हारा ही है और ईश्वर का महासाम्राज्य भी।
३२) सेवक ही श्रेष्ठ है, श्रद्धावान ही विलक्ष्ण है, परहितैषी ही देवता है। आत्म तृप्त और आत्म संतुष्ट ही महामानव है। इन गुणों के एक साथ मनुष्य में होने पर वही "ईश्वर का पुत्र" कहलाने के योग्य है।
३३) पवित्र ज्ञान और सत्य दर्शन अधिकारीयों को प्रदान करो, अनाधिकारियों को नहीं। क्योंकि साफ जल गंदे घड़े में भर दोगे तो जल भी स्वच्छ न रह सकेगा।
३४) क्षमा ईश्वर की और से उतारी गई है। एक पिता नें एक सुन्दर युवक को देख कर अपनी पुत्री का विवाह उससे कराने का वचन दिया। किन्तु जल्द ही पिता उस युवक की चारित्रिक बुराइयों को जान गया। अब पिता क्या करता विवाह का वचन निभाए या न निभाए। ऐसी स्थिति सहित अपराध होने पर क्षमा मांगना और देना सत्य आचरण के अंतर्गत होगा। ईश्वर की ओर से सच्चे को अपराधमुक्त कहा जायेगा।
३५) ईश्वर नें तुमको कर्म के लिए उत्तपन्न किया है इसलिए अविरल निष्काम कर्म करो, किन्तु तुम्हारे सभी कार्य भक्ति सहित व विवेकपूर्ण होने चाहिए तभी उनकी परम सार्थकता है। कर्मों में ही जीवन मुक्ति का तंतु छिपाया गया है।

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