५१) मैंने न तो स्त्री को श्रेष्ठ बताया न ही पुरुष को। मैंने तुम्हारी पवित्रता और सद्गुणों को श्रेष्ठ कहा है। दोनों बराबर हैं या नहीं ये तुलना न्यून चित्त की है। दोनों ही ईश्वर की कृतियाँ है "सर्वश्रेष्ठ" हैं। दोनों में कोई कम ज्यादा नहीं, ऐसा ही पशु-पक्षियों सहित, जड़ चेतन को भी जान। भीतर प्रेम के निर्झर को प्रस्फुरित होने दे। तो हृदय में उपजते भेद नष्ट होने लगेंगे और सृष्टि का हर कण आनंदित दिखाई देगा।
५२) मैंने तुमको मुझ पर या ईश्वर पर जबरदस्ती विश्वास करने या ईमान लाने को नहीं कहा। ना ही तुमको नर्क या मृत्यु का भय दिखाता हूँ। मैं तो तुमको जीवन का वो दर्शन दे रहा हूँ जहां तुम्हारी परनिर्भरता समाप्त हो जायेगी। तुम अपने को स्वतंत्र, बड़े और खुशहाल बनाने के लिए धन कोष नहीं टटोलोगे। बरन अपने गुणों और विकास पर निर्भर करोगे।
५३) ईश्वर तुमको वैसाखी जैसा सहारा नहीं देता। बल्कि एक माँ की तरह अंगुली पकड़ कर चलना सिखाता है, ताकि जल्द ही तुम स्वयं चलना सीख सको। ईश्वर का भक्त होने का अर्थ कदापि ये नहीं की अब तुम सारे काम-काज छोड़ कर अकर्मण्य हो बैठ जाओ। वो तो समाधी की स्थिती है जो बड़े भाग्यों से आती है। इसके अतिरिक्त तुम कर्म को प्रधान जानों और इस बनाई गई सृष्टि को अपना शुभ योगदान दो व आध्यात्मिक यात्रा जारी रखो।
५४) मुझे (ईश्वर को) वो लोग नहीं भाते जो अकारण मानव या समाज अथवा प्रकृति सेवा के नाम पर व्यर्थ ही मान प्राप्ति की गोपनीय सूक्ष्म चाह लिए कर्म करते हैं और अन्य लोगों को निशाना बनाते हैं। ऐसे लोग ये सोचते हैं की वो तो भला कर रहे हैं किन्तु इससे होने वाली सूक्ष्म हानियों को देखने की उनमें योग्यता नहीं होती। तू ऐसे लोगों को बुरा जान। भले ही उनका बड़ा नाम या सम्मान हो। वो मुझ द्वारा प्रेरित नहीं।
५५) मैंने (ईश्वर नें) तुझे सत्य, अहिंसा और प्रेम का रास्ता दिया है। लेकिन अस्त्र उठाना और वीरता का त्याग मत कर। शरीर को कोमल नहीं बरन कठोर बनाना, जबकि हृदय कोमल रहे। ऐसा इसलिए की मानव जाति अज्ञात और ब्रह्मांडीय योद्धाओं से भी लड़ सके। क्योंकि दूसरा तुम पर वार कर तुमको अवसर दिए बिना निर्मूल कर सकता है। अत: तुमको आत्मरक्षा का अधिकार सर्वप्रथम दिया जाता है। लेकिन हिंसा, शोषण और अत्याचार का नहीं।
५२) मैंने तुमको मुझ पर या ईश्वर पर जबरदस्ती विश्वास करने या ईमान लाने को नहीं कहा। ना ही तुमको नर्क या मृत्यु का भय दिखाता हूँ। मैं तो तुमको जीवन का वो दर्शन दे रहा हूँ जहां तुम्हारी परनिर्भरता समाप्त हो जायेगी। तुम अपने को स्वतंत्र, बड़े और खुशहाल बनाने के लिए धन कोष नहीं टटोलोगे। बरन अपने गुणों और विकास पर निर्भर करोगे।
५३) ईश्वर तुमको वैसाखी जैसा सहारा नहीं देता। बल्कि एक माँ की तरह अंगुली पकड़ कर चलना सिखाता है, ताकि जल्द ही तुम स्वयं चलना सीख सको। ईश्वर का भक्त होने का अर्थ कदापि ये नहीं की अब तुम सारे काम-काज छोड़ कर अकर्मण्य हो बैठ जाओ। वो तो समाधी की स्थिती है जो बड़े भाग्यों से आती है। इसके अतिरिक्त तुम कर्म को प्रधान जानों और इस बनाई गई सृष्टि को अपना शुभ योगदान दो व आध्यात्मिक यात्रा जारी रखो।
५४) मुझे (ईश्वर को) वो लोग नहीं भाते जो अकारण मानव या समाज अथवा प्रकृति सेवा के नाम पर व्यर्थ ही मान प्राप्ति की गोपनीय सूक्ष्म चाह लिए कर्म करते हैं और अन्य लोगों को निशाना बनाते हैं। ऐसे लोग ये सोचते हैं की वो तो भला कर रहे हैं किन्तु इससे होने वाली सूक्ष्म हानियों को देखने की उनमें योग्यता नहीं होती। तू ऐसे लोगों को बुरा जान। भले ही उनका बड़ा नाम या सम्मान हो। वो मुझ द्वारा प्रेरित नहीं।
५५) मैंने (ईश्वर नें) तुझे सत्य, अहिंसा और प्रेम का रास्ता दिया है। लेकिन अस्त्र उठाना और वीरता का त्याग मत कर। शरीर को कोमल नहीं बरन कठोर बनाना, जबकि हृदय कोमल रहे। ऐसा इसलिए की मानव जाति अज्ञात और ब्रह्मांडीय योद्धाओं से भी लड़ सके। क्योंकि दूसरा तुम पर वार कर तुमको अवसर दिए बिना निर्मूल कर सकता है। अत: तुमको आत्मरक्षा का अधिकार सर्वप्रथम दिया जाता है। लेकिन हिंसा, शोषण और अत्याचार का नहीं।
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