शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2019

"ईशपुत्र-कौलान्तक नाथ" के दिव्य "वचन" - 14

६६) ईश्वर नें तुमको संसार में बहुत से तत्व और सामग्रियां दी हैं। भले ही वो सब क्षणिक हों लेकिन तुमको उनका विवेक पूर्वक प्रयोग करना है। इश्वर नें सृष्टि में सबकुछ बनाया है जो अपने-अपने तरीकों में सबसे सुन्दर और सम्मान किये जाने योग्य हैं। यदि तुम इनका सदुपयोग करते हो तो ईश्वर तुमको उससे भी श्रेष्ठ देने की क्षमता रखते हैं। लेकिन तुम्हारे दूर्पयोग से आहात सृष्टि तुम से नाराज हो सकती है ऐसा उसे अधिकार है। तब तुम्हारी प्रार्थनाएं अनसुनी की जाएँगी।
६७) दुःख और परेशानियाँ तुम्हें कहती हैं उठ, जाग और खोज। सभी पीडाओं से बचने का अमृत रखा गया है, बस तुम उसे तलाशने का प्रयत्न भर करो। तुम्हारे मस्तिष्क को उसे खोजने की स्वतन्त्रता दी गयी है। परिश्रम के परिणाम स्वरुप तुमको सुख दिया जाएगा, किन्तु उसकी और ना देख बस प्रयास जारी रख और परिश्रम कर।
६८) कभी-कभी किसी को बहुत समझाने पर भी वो नहीं मानता और देखते ही देखते उसका अंत हो जाता है। इसका दोष तुझ पर नहीं लेकिन हर भाई को अपने साथ ले चलना और संभालना तेरा कर्म है। ईश्वर किसी को गलत मार्ग पर नहीं भेजता, लेकिन व्यक्ति का अपना पाप ही इसके लिए जिम्मेवार होता है।
६९) ईश्वरीय ज्ञान केवल धरती वालों के लिए ही नहीं है वो तो हर नए स्थान पर नए रूप में उपलब्ध होता है। संत उसे कल्याण के लिए प्रेम से अभिभूत हो कर प्रकट करते हैं। जब तू धरती पर रहेगा तब धरती का नियम ही तेरा धर्म होगा लेकिन जब तू आकाशों में होगा तब वहां का नियम ही तेरा धर्म होगा। भले ही तू सितारों के उस पार रह, वहां भी मैं (ईश्वर) तुमको मार्ग और सत्य धर्म प्रदान करता रहूंगा। बस तू अपने कान खुले रखना।
७०) तुम्हारे धर्म और ईश्वर की बड़ाई इसमें नहीं की तुम्हारी संख्या कितनी है बल्कि तुम्हारे उत्तम आचरण, विशाल ह्रदय, प्रेम, सौहार्द्र, विनम्रता और अच्छे संस्कार से ही तुम्हारे धर्म की श्रेष्ठता आंकी जायेगी। सत्यमय, प्रेममय गुणों पर खरा उतरने के बाद ही तुम्हारे हृदय को धर्मनिष्ठ व ईश्वर के योग्य कहा जायेगा। इसी से तुम्हारे धर्म और ईश्वर की महिमा का महाविस्तार होगा।

बुधवार, 23 अक्टूबर 2019

"ईशपुत्र-कौलान्तक नाथ" के दिव्य "वचन" - 13

६१) सत्य का प्रकाश फैलाना आसान नहीं है क्योंकि वो धारा के विपरीत जाने जैसा है। यदि तुम धर्म और अहिंसा के सत्य पथ पर चलने और कल्याण के निमित्त कार्य करने का प्रयास करते हो, तो वो सरलता से संभव नहीं है। वो तुमको ऐसा नहीं करने देंगे। अपितु बुराई में साथ देने के लिए तैयार मिलेंगे। वो तुम्हारा परिहास, ठठा करेंगे। तुमको मूढ़ कहेंगे। लेकिन तब भी तुम्हारा कार्य, निष्ठा से जारी रहना चाहिए। जब तुम संसार को कहोगे की ईश्वर का मार्ग श्रेष्ठ है। तब वो तुम्हारी बातें नहीं सुनेंगे, बरन कहेंगे की हम हमारा काम कर रहे हैं, तुम जा कर अपना करो। लेकिन तब भी तुम प्रकाश फैलाना बंद ना करना। इसे ईश्वर का कार्य मान कर जारी रखना यही अगली पीढ़ियों को तुम्हारा महान योगदान गिना जाएगा।
६२) यदि कोई तुमसे पूछे की ये सब बातें तुम किस अधिकार से कहते हो? तो कहना की ये अधिकार मेरा जन्मजात व ईश्वर की और से है। प्रेम बांटने के लिए सर्वप्रथम तुम्हारा स्वयं का प्रेममय होना आवश्यक है। इसलिए एकांत में जा कर बैठ आँखें बंद कर और बिना गर्दन उठाये नेत्रों से आकाश की और देख। अपनी श्वासों की गति को ठहरने दे, विश्राम में जा। तब मेरा और उस ईश्वर का ज्ञान व प्रेम आनंद सहित तुम्हारे भीतर उतरने लगेगा।
६३) जब एक भाई दूसरे डूबते भाई को बचाने के लिए कूदता है तो वो ईश्वर का प्रेमावतारी कहलाने का अधिकार प्राप्त करता है। जिसके लिए उसे किसी से ये पदवी मांगने की आवश्यकता नहीं होती। पर हित को ध्यान में रख कर जो कोई कार्य करता है मैं उसको ही साधू जनता हूँ। वो मेरा प्रिय व गले लगाने योग्य होता है।
६४) पुराने ग्रंथों (किताबों) में क्या लिखा है वो तो महत्वपूर्ण है ही, लेकिन उससे भी महत्वपूर्ण है की उस लिखे गए या कहे गए ज्ञान को तुम आज की परिस्थिति से कैसे जोड़ कर सही निर्णय लेते हो और जो आज कहा जा रहा है क्या तुम उसको भविष्य के साथ जोड़ कर सही निर्णय ले पाते हो? यदि ये गुण तुमको आ गया तो धर्म के निर्देशों को तुम सदा नया ही पाओगे और पूरी तरह सार्थक भी। अन्यथा तुमको धर्म ही सबसे बड़ा शत्रु लगाने लगेगा क्योंकि वो समकालीन प्रतीत न होगा। जबकि वो तो नित्य,नूतन और नवीन है।
६५) तुमने कृत्रिम धर्म गढ़ लिए है सबसे पहले उनको छोड़। रोगियों का मंत्र से, प्रार्थना से या ईश्वर की दया से ठीक हो जाना, भविष्य के कुछ तत्वों को-घटनाओं को देख अथवा जान जाना, जल और आकाश में चल लेना, दूसरी अज्ञात दुनिया को खोज लेना या फिर मर कर ज़िंदा हो जाना अथवा किया जाना धर्म नहीं है और ना ही ईश्वर नें किसी को ऐसा करने को कहा है। यदि किसी से स्वयं ऐसा हो रहा है तो वो उस रहस्य का अनुचित लाभ न ले बल्कि ईश्वर का उपहार मान कर उसी को निवेदित करे और ईश्वर का आभार करे की उसे ऐसा करने का अवसर दिया गया। तब वो अहंकारी हो स्वयं को ईश्वर ना कहे। वो तो शक्ति है और शक्ति ईश्वर से अभिन्न होते हुए भी भिन्न है।

मंगलवार, 22 अक्टूबर 2019

"ईशपुत्र-कौलान्तक नाथ" के दिव्य "वचन" - 12

५६) बुद्धि श्रेष्ठ है इसके द्वारा तू कलाओं का संवर्धन कर, सौन्दर्य, संगीत, नृत्य, निर्माण व कलाओं का विकास कर, मनुष्य सहित प्रकृति को आनंद दे। किन्तु इसी बुद्धि को कुपथ पर जाने से रोक। मैंने तेरे लिए बुराइयों को निषिद्ध कहा है। मैं और ईश्वर तुम पर कोई बंधन नहीं डाल रहे। अपितु हम तो वो मार्ग दे रहे हैं जिससे तुम्हारा जीवन ऊँचा हो सकेगा। ठीक वैसे ही जैसे नन्ही चिडिया कुछ नियम अपना कर बहुत दूर तक उड़ते हुए उड़ने में कुशल हो जाती है। ठीक वैसे ही इन नियमों को अपनाना। इस संसार में तुम सबसे सुन्दर और प्रिय बन जाओगे। इतना के मैं खुद तुमको गले लगाने आउंगा।
५७) काम क्रोध बुरे हैं किन्तु ईश्वर नें कारण से इनको रचा है। जब तक ये सीमा में रहें, किसी का अनर्थ ना करें तो कोई बुराई नहीं। तू इनको जड़ से मिटाने की चेष्ठ ना कर। काम सृष्टि हित व वर्धन हेतु है जबकि क्रोद्ध आत्मरक्षा के लिए। इनका सही समय पर, उचित प्रयोग करने वाला ही योगी व धीर भक्त पुरुष है। अनियंत्रित ही पापी और पाप संभवा हैं।
५८) तुमको सब षड्यंत्र पूर्वक व व्यर्थ के नियम बना कर, चार दीवारों व सीमित घेरों में बंदी बनाना चाहेंगे। ऐसा सूक्ष्म कारागार बनायेगे की तुम देख ना सको, छू ना सको। लगे की स्वयं तुमने ही बनाया है। जल्द ही वो कैद तुमको घर या संसार जैसी प्रतीत होने लगेगी, जिसे फिर चाह कर भी न छोड़ पाओगे। उसके मोह में बंधे तुम उसकी रक्षा के लिए सत्य के भी विरुद्ध होने लगोगे। मैं कहता हूँ तोड़ दो ऐसे घेरे को, गिरा दो ऐसी अदृश्य कैद को। तुम जितना ज्यादा देखोगे उतना ही ज्यादा जानोगे। प्रकृति के बीच रहो, प्रकृति के निकट रहो, किसी दूसरे महापुरुष की कहानियाँ सुनने की अपेक्षा अपनी श्रेष्ठ कहानी में जिओ। यही जीवन कहलायेगा जो पूर्णता की ओर ले जाने वाला है।
५९) यदि कभी तुम्हें ये जीवन यातना लगे, तो भी ईश्वर का और मेरा साथ तुम्हारे लिए बना रहता है। बस तुमको याद करना होगा की तुम अकेले नहीं हो। तब तुम्हारी यातना को हम उत्सव में बदल देंगे, हम पर विश्वास कर। हम मार्गदर्शी, जीवन ऊर्जा देने वाले और तेरे जीवन को छोटी-छोटी खुशियों से भरने वाले हैं। लेकिन जब तुम किसी एक अनुचित मांग पर अड़ जाते हो, तो उस स्वार्थ पर हम मुस्कुराते हुए मुख फेर लेते हैं।
६०) धर्म कोई नियमों की किताब नहीं है, बल्कि धर्म तुम हो जो उसको जीता है। धर्म नहीं है तो तुम और तुम्हारा आचरण पशु सामान ही हो जाता है। ये धर्म ही है जो तुमको श्रेष्ठ बनाता है और तुम्हारी श्रेष्ठता अधार्मिकों से सही नहीं जाती। तब वो तुम पर नियम, कानून, दवाब, बल, संख्या, अपमान, अपशब्द, हिंसा व षड्यंत्रों का प्रयोग करते हैं। ऐसे मैं तुमको अधिकार दिया जाता है की सबका उसी प्रकार उत्तर दो जिस प्रकार 'ईट का उत्तर पत्थर' से दिया जाता है। तब वो रण हो जाता है, जिसमें सत्य का पक्षधर मैं उपस्थित रहता हूँ।

सोमवार, 21 अक्टूबर 2019

ईशपुत्र ने "मृत्यु विचार" ग्रंथ का रहस्य अनावरित किया

१)क्या मौत का कोई स्वाद होता है ?
२)क्या मौत का कोई रंग होता है ?
३)क्या कोई मौत का अनुभव जानता है ?
४)क्या मौत का दिन जाना जा सकता है ?
५)क्या मौत को टाला जा सकता है ?
कौलान्तक पीठ        
हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिला की सबसे बिबादास्पद पाण्डुलिपि को पढ़ने में आखिरकार सफलता मिल गई है....ये दावा हिमालय की सबसे बड़ी पीठ कौलान्तक पीठ के पीठाधीश्वर महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी ने किया है....गौरतलब है की कुल्लू की बंजार घाटी में एक "मौत की मनहूस पाण्डुलिपि"थी जो भोज पत्र पर लिखी गयी थी.....जिसके  रचयिता महर्षि पुण्डरीक को माना जाता है.....इस ग्रन्थ का नाम है...."मृत्यु विचार".....इस ग्रन्थ में मृत्यु को प्रधान विषय रख कर इसकी रचना की गयी थी....ये दुर्लभ पाण्डुलिपि कई तांत्रिको के पास से हो कर गुजरी.....लेकिन दुर्भाग्य ये रहा की ये पाण्डुलिपि जहाँ जहाँ गयी.....वहां वहां उन लोगो की बीमारी अथवा दुर्घटना के कारण मौत होती रही....तो किसी के परिवार ही उजाड़ गए....इस कारण पाण्डुलिपि बदनाम हो गयी...बंजार क्षेत्र के ही एक बुजुर्ग
 मानव की दो मुहीं मृत्यु को दर्शाता चित्र  
 चित्र में अकाल और सकाल मृत्यु सर्प बने हैं  
के पास इस पाण्डुलिपि की एक प्रति प्राप्त हुई है.......माना जाता है की ब्रिटिश काल में कुल्लू क्षेत्र में लोग बहुत कम पढ़े लिखे थे.....लेकिन कुछ एक ब्राह्मण और ठाकुर ही थोडा बहुत अक्षर ज्ञान रखते थे.....सन 1835में इस अनोखी पाण्डुलिपि की 5 प्रतियां बनायीं गई थी....लिकिन वो भी वैसी ही मनहूस निकली....लोगो ने उन पांडुलिपियों को भी तांत्रिको के मरते ही उनके साथ जला डाला......लेकिन किसी तरह बंजार घाटी में एक बृद्ध के पास एक पांडुलिपि बची रह गयी...कुछ समय पूर्व उनका देहाबसान हो गया.....वे निसंतान ही थे व पत्नी काफी पहले ही स्वर्गवासी हो चुकी थी...उनके शरीर छोड़ते ही.....उस पाण्डुलिपि को भी आग में जलाया जा रहा था.....क्योंकि महायोगी जी पहले से जानते थे की उनके पास वो पाण्डुलिपि है...और लोग उस पाण्डुलिपि के साथ क्या करने वाले हैं....इसलिए तुरंत महायोगी कुछ योग्य शिष्यों सहित बंजार पहुंचे लेकिन तब तक पाण्डुलिपि को आग के हवाले कर दिया गया था.....लेकिन सौभाग्य बश पाण्डुलिपि पूरी जलाई न जा सकी....उसका कागज खाफी मोटा होने के कारण
 ज्योतिषीय आधार पर मृत्यु की कुंडली  
 12 घरो में कौन सी मृत्यु होगी ये बताया गया है  
पाण्डुलिपि के कुछ पन्ने काफी हद तक सुरक्षित ही रहे......कौलान्तक पीठ के पीठाधीश्वर महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी महाराज ने वो आधी जली हुई पांडुलिपि अपने अधिकार में ले ली....क्योंकि पाण्डुलिपि को मनहूस माना जाता है इस लिए महायोगी जी ने पांडुलिपि को हिमालय के जंगल में एक गुफा में छुपा कर सुरक्षित रक्ख लिया....और पाण्डुलिपि के कुछ फोटो खींच कर उनपर अनुसंधान शुरू कर दिया.....यहाँ पाण्डुलिपि वाले बुजुर्ग का नाम इस लिए नहीं दिया जा रहा की लोग उनके सम्बन्धियों को बुरी नजर से देखना शुरू कर देंगे....साथ ही हैरान कर देने वाली बात तो ये है की जिस बुजुर्ग के पास ये पांडुलिपि थी वो तो इसे पढ़ना जनता ही नहीं था....उनके सम्बन्धियों के बच्चे पाण्डुलिपि को खेल का सामान समझते थे.....क्योंकि ये लकड़ी  के एक डब्बे में राखी गयी थी...बच्चों नें पाण्डुलिपि पर लगभग मिट चुके पीले रंग पर पेंसिल से पेंटिंग कर डाली.....जिससे पाण्डुलिपि को आंशिक नुक्सान पहुंचा है...मूल स्वरुप ख़राब सा लग रहा है......महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी के अनुसार ये पांडुलिपि बंजार घाटी की स्थानीय बोली में व कुछ संस्कृत शब्दों का मिश्रण कर तान्करी भाषा में लिखी गयी है....महायोगी जी ने बताया की पाण्डुलिपि में मृत्यु को ईश्वर के बराबर का बताया गया है......पाण्डुलिपि कहती है की किसी भी व्यक्ति या पदार्थ की आयु निश्चित तो नहीं है....लेकिन मौत का दिन स्थान बार और मृत्यु का तरीका जाना जा सकता है.....जिसके लिए ज्योतिष और तंत्र  साधना का कुछ योगिक बिधान बताया गया है.....कुंडली के भावों के द्वारा मृत्यु को जानना.....तंत्र साधना द्वारा मौत को देखना.....मौत का पूर्वानुमान की बिधि आदि तत्व इसमें हैं...साथ ही अकाल मृत्यु और सकाळ मृत्यु यानि की पूरण मृत्यु के समय को तलने की बिधि भी इसमें बताई गयी है.....मौत के समय कैसा अनुभव होता है...मौत का स्वाद और सुगंध कैसी होती है ये भी बरणित किया गया है....मौत का अनुभव बच्चा पैदा करने के बाद का अनुभव जैसा और कई दिनों से रुके हुए मल को त्यागने के बाद के अनुभव जैसा...अमावस मैं चमकते दीप जैसा या बादलों से निकलते प्रकाश जैसा और हल्दी और कुमकुम के मिलेजुले रंग जैसा साथ ही बेहोशी जैसी गहरी नींद सा बताया गया है....
 मृत्यु के समय कैसा अनुभव होता है चित्र   
dमृत्यु को बहुत मीठा अनुभव बताया गया है  
अकाल मृत्यु से बचाने के यन्त्र.....मन्त्र पूजा....बताई गयी है....इस संसार की आयु कितनी होगी.....चाँद  तारो की उम्र कितनी है......दुनिया को मृत्यु  ने कितना समाप्त कर दिया है जैसी रोचक तत्वों की जानकारी  इसमें हैं.......कौलान्तक पीठाधीश्वर कहते है की......ये देख कर हैरानी होती है की मृत्यु और संसार के विषय को........मानव की मृत्यु जैसे विषयों को पूर्वजों ने कितनी गूढता से समझा है......इस पुस्तक में जीवन को आसमान में चमकने वाली बिजली जितना छोटा क्षणभंगुर बताया गया है......और इस मृत्यु को जीतने के लिए मनुष्य को उपाय करने की व ईश्वर की उपासना की सलाह दी गयी है......महायोगी इस पाण्डुलिपि को मनहूस नहीं मानते....उनहोंने लोगो से अपील भी की है की कृपया देश की अमूल्य धरोहरों को आग में न जलाया जाए....यदि आपके पास इस तरह के ग्रन्थ हों तो उन्हें कौलान्तक पीठ के हवाले कर दिया जाए......पाण्डुलिपि के अनुसार अभी सृष्टि बहुत ही नयी है....सृष्टि को रहस्यमय काले अदृशय सर्प के मुख से निकलता हुया दिखाया गया है......और वही सर्प अंत में सृष्टि को निगल जाता है.....पाण्डुलिपि के अनुसार सृष्टि में अनेको लोक हैं जिन्हें मृत्यु  की काली अदृश्य सर्पिनी ही उगलती व निगलती है...
 सृष्टि चक्र को दर्शाता चित्र दो आकृतियों सहित  
 ऋषि वशिष्ठ का जिक्र करता पाण्डुलिपि का पृष्ठ  
अभी पृथ्वी को सर्पिनी ने सूर्या चन्द्र सहित 827 सुर्सोत पहले ही उगला है......एक सुर्सोत की आयु लगभग 98हजार वर्ष होती है तो अभी सूर्या चंद्रमा की आयु लगभग 8,10,46,000 वर्ष ही है.......हालाँकि महायोगी इस समय अवधि को अभी सटीक नहीं मान रहे.....क्योंकि कितने वर्षों का एक सुर्सोत होता है ये अभी भी ठीक ठीक मालूम नहीं हो सका है....महायोगी जी की गन्ना के अनुसार एक सुर्सोत की आयु 1 लाख 19 हजार साल ह्जोती है....लेकिन प्राचीन मान्यताएं सुर्सोत की आयु 98 हजार साल ही बताती हैं.....हमारी पृथ्वी के ऊपर 32 पृथ्वी मंडल बताये गए हैं......और नीचे 52 पृथ्वी मंडल बताये गए हैं.....जिन सबको काल की अदृशय सर्पिनी ने एक साथ ही उगला था....और इस पृथ्वी सूर्य चन्द्र को काल की ये अदृशय अनंत सर्पिनी 27291सुर्सोत पूरे होने पर निगल लेगी......लेकिन मानव इस समय अवधि से पहले ही मृत्यु के मुख में चले जायेंगे...सृष्टि की ऐसी गणना अनूठी है.....वहीँ दूसरी और कलियुग में मानव को कृत्रिम भ्रमजाल वाला जीवन जीते हुए दिखया गया है....ऐसा जीवन जो भगवन ने नहीं बनाया.....वो मानव देत्यों द्वारा रचित होगा....जिसकी कैद में मानव स्वयं को भूल जाएगा की वास्तब में जीवन क्या है.....ये मानव के अंत की शुरुआत होगी......इस पाण्डुलिपि को ऋषि पुण्डरीक द्वारा रचा गया है....इसमें ऋषि वशिष्ठ,विशवामित्र,नागो का भी वर्णन है......हालाँकि ये प्रारंभिक जानकारियाँ ही हैं....पर शायद ज्यादा पता भी नहीं चल पायेगा....क्योंकि पाण्डुलिपि पूरी नहीं है....फिलहाल पाण्डुलिपि को खंगाला जा रहा है.......ताकि इसमें छिपे सारे  रहस्य सामने  निकल कर आ सकें.....फिलहाल पाण्डुलिपि सुरक्षित हाथो में पहुँच गयी है.....सनद रहे की महायोगी को पांडुलिपियों से जुड़े शोध कार्यों के कारण जाना जाता है.....देश के प्रमुख समाचार पत्रों में महायोगी जी के अनेक शोधों की जानकारियाँ  छप चुकी हैं...और देश के कई बड़े नामी टीवी चेनलो पर महायोगी जी के कार्यक्रम लगातार प्रसारित होते रहते हैं.....

बुधवार, 16 अक्टूबर 2019

"ईशपुत्र-कौलान्तक नाथ" के दिव्य "वचन" - 11

५१) मैंने न तो स्त्री को श्रेष्ठ बताया न ही पुरुष को। मैंने तुम्हारी पवित्रता और सद्गुणों को श्रेष्ठ कहा है। दोनों बराबर हैं या नहीं ये तुलना न्यून चित्त की है। दोनों ही ईश्वर की कृतियाँ है "सर्वश्रेष्ठ" हैं। दोनों में कोई कम ज्यादा नहीं, ऐसा ही पशु-पक्षियों सहित, जड़ चेतन को भी जान। भीतर प्रेम के निर्झर को प्रस्फुरित होने दे। तो हृदय में उपजते भेद नष्ट होने लगेंगे और सृष्टि का हर कण आनंदित दिखाई देगा।
५२) मैंने तुमको मुझ पर या ईश्वर पर जबरदस्ती विश्वास करने या ईमान लाने को नहीं कहा। ना ही तुमको नर्क या मृत्यु का भय दिखाता हूँ। मैं तो तुमको जीवन का वो दर्शन दे रहा हूँ जहां तुम्हारी परनिर्भरता समाप्त हो जायेगी। तुम अपने को स्वतंत्र, बड़े और खुशहाल बनाने के लिए धन कोष नहीं टटोलोगे। बरन अपने गुणों और विकास पर निर्भर करोगे।
५३) ईश्वर तुमको वैसाखी जैसा सहारा नहीं देता। बल्कि एक माँ की तरह अंगुली पकड़ कर चलना सिखाता है, ताकि जल्द ही तुम स्वयं चलना सीख सको। ईश्वर का भक्त होने का अर्थ कदापि ये नहीं की अब तुम सारे काम-काज छोड़ कर अकर्मण्य हो बैठ जाओ। वो तो समाधी की स्थिती है जो बड़े भाग्यों से आती है। इसके अतिरिक्त तुम कर्म को प्रधान जानों और इस बनाई गई सृष्टि को अपना शुभ योगदान दो व आध्यात्मिक यात्रा जारी रखो।
५४) मुझे (ईश्वर को) वो लोग नहीं भाते जो अकारण मानव या समाज अथवा प्रकृति सेवा के नाम पर व्यर्थ ही मान प्राप्ति की गोपनीय सूक्ष्म चाह लिए कर्म करते हैं और अन्य लोगों को निशाना बनाते हैं। ऐसे लोग ये सोचते हैं की वो तो भला कर रहे हैं किन्तु इससे होने वाली सूक्ष्म हानियों को देखने की उनमें योग्यता नहीं होती। तू ऐसे लोगों को बुरा जान। भले ही उनका बड़ा नाम या सम्मान हो। वो मुझ द्वारा प्रेरित नहीं।
५५) मैंने (ईश्वर नें) तुझे सत्य, अहिंसा और प्रेम का रास्ता दिया है। लेकिन अस्त्र उठाना और वीरता का त्याग मत कर। शरीर को कोमल नहीं बरन कठोर बनाना, जबकि हृदय कोमल रहे। ऐसा इसलिए की मानव जाति अज्ञात और ब्रह्मांडीय योद्धाओं से भी लड़ सके। क्योंकि दूसरा तुम पर वार कर तुमको अवसर दिए बिना निर्मूल कर सकता है। अत: तुमको आत्मरक्षा का अधिकार सर्वप्रथम दिया जाता है। लेकिन हिंसा, शोषण और अत्याचार का नहीं।

मंगलवार, 15 अक्टूबर 2019

"ईशपुत्र-कौलान्तक नाथ" के दिव्य "वचन" - 10

४६) जो मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं वो अब अवसर की प्रतीक्षा में हैं। तुम्हारे पास समय है इसलिए सो मत, जाग और प्रकाश की ओर, अमृत की ओर कदम बढ़ा। एक अद्भुत आनंदित अग्नि का विशाल पिंड घूमता दिखेगा उसके भीतर मेरा (ईश्वर का) बसेरा जान। वहां समय नहीं, न ही प्रकाश या अन्धकार है। बस मैं हूँ और तुम्हारी प्रतीक्षा है।
४७) शुभ विचार निश्चित ही स्वर्ग से उतर कर आते हैं और ये सभी विचार आनंद देने वाले, निश्चित ही उत्सव मनाने जैसे होते हैं। पृथ्वी पर आकाशों से शरीर उतर कर नहीं आता इसी कारण मूढ़ शरीरों को देखते रहते हैं और शरीरों के भीतर का ईश्वर और ईश्वरीय प्रकाश उनको दिखाई नहीं देता।
४८) याद रखो मनुष्यों का होना जरूरी है, किन्तु प्रकृति की बलि पर नहीं। धर्म के नियम तुम्हारे हित के लिए हैं इनके नाम पर बलि लेना और देना दोनों ही अपराध है। ईश्वर नें तुमको अपना सा ह्रदय और अपने सा प्रेम प्रदान किया है। इसलिए प्रेम को सर्वोच्च जान कर प्रेमपूर्वक रहो।
४९) इस बात से विराट ईश्वर को कोई अंतर नहीं पड़ता की कोई उसे मान कर स्तुति करता है या न मान कर निंदा। क्योंकि ये तो सीमित मनुष्यों के मस्तिष्क मात्र की गतिविधियाँ हैं। उसके समय के आगे तुम्हारी सृष्टि इतनी छोटी है की पलक झपकाने मात्र के बराबर। लेकिन तुम्हारे कर्म और तुम्हारा दिया गया प्रेम ईश्वर को तुम्हारी ओर देखने पर विवश करता है। प्रेम का समय थोड़ा होते हुए भी युगों से बड़ा होता है और ईश्वरीय सृष्टि में गणनीय है।
५०) मनुष्यों को अनंत रचना का अधिकार दिया गया है और अनंत विनाश का भी। वो अपने जैसे सामर्थ्यवान, विचारवान पुतलों को घड सकता है। माया के अनंत रहस्यों को जान सकता है। ऋषियों की भांति नयी सृष्टि और जीवों को रचने का अधिकार रखता है। नक्षत्रों, ब्रह्मांडों पर अधिकार कर सकता है, अज्ञात को खोज सकता है। लेकिन पूर्ण नहीं हो सकता। सभी विद्याओं और ज्ञान के उस पार भी बहुत कुछ है। जो केवल मेरी (ईश्वर की) अनुकम्पा से पाया जा सकता है।

रविवार, 13 अक्टूबर 2019

कर्म और साधना-भक्ति-तपस्या-पूजा

बहुत से लोग सोचते है जो धर्म पर विश्वास करते हैं की अब तो कर्म करने की कोई जरूरत ही नहीं क्योंकि अब तो भगवान् की पूजा कर ही ली है, सब अपने आप हो जायेगा, वैसे भी जो करता है वो तो भगवान् ही हैं। तो "ईशपुत्र" कहते हैं की ऐसा विचार ही पतन का कारण बनता है। अध्यात्म का सत्य निरूपण होना अनिवार्य है। कभी भी इहलौकिक कर्म का त्याग करके दिव्य कर्म तक नहीं पहुंचा जा सकता। क्योंकि वहां का मार्ग यहीं से हो कर गुजरता है। "कौलान्तक नाथ" साधक को समझाते हुए कहते हैं की भौतिक और आध्यात्मिक संसार दो नहीं हैं अपितु एक में ही दो स्थित हैं। इसलिए पूजा-पाठ, मंत्र-जाप, ध्यान-समाधी कर्म का विकल्प नहीं है। अत: चैतन्य सक्रीय साधना के रहस्य को समझना होगा। "कौलान्तक पीठाधीश्वर महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी महाराज" नें विषय को स्पष्ट करते हुए क्या कहा है? प्रस्तुत है विडिओ-कौलान्तक पीठ टीम-हिमालय।

शनिवार, 12 अक्टूबर 2019

"ईशपुत्र-कौलान्तक नाथ" के दिव्य "वचन" - 9

४१) संसार में धर्मों के झगड़े मूढों के द्वारा प्रसारित किये गए हैं। ईश्वर का प्रकाश जिस पर हुआ है वो किताबी वाक्यों में नहीं बल्कि उन वाक्यों की आत्माओं को जीता है। सब मानव रचित धर्मों को तू ढोंग ही जान। जैसे एक विशाल द्वीप में बहुत से धर्मों को मानने वाले रहते थे। परस्पर प्रतिदिन लड़ते एक दूसरे के भगवान् को अपशब्द कहते थे। एक चांदनी रात को समुद्र बहुत ऊँचा उठा और सभी धर्मों के लोगों को बहाने लगा। तब अपने-अपने भगवानों और खुदाओं को बुलाते लेकिन सहायता नहीं मिली। एक ऊँचे टीले पर बेसुध से लोग डूबते हुओं को बचाने में जुट गए, उनहोंने डूबतों का ईमान धर्म नहीं देखा। बचने वाले सभी एक-दूसरे के गले लगे। ईश्वर कहता है की यही गले लगना और लगाना धर्म कहलाता है। केवल मेरा पुत्र इस बात को भली प्रकार जानता है। इस कारण तुम अवतारों के वाक्यों को ध्यान से सुनो। वो धर्म को सही कर तुमको बताएँगे।
४२) संसार तुमको कहेगा ईश्वर का कोई चमत्कार नहीं। लेकिन मेरे वाक्यों पर विश्वास रख। तो समुद्र और हिमालय तुमको रास्ता देंगे। चाँद और सितारे तुमको अपने पास आने देंगे। ये ब्रह्माण्ड तुम्हारे लिए खेल का मैदान हो जायेगा। मैं मृत्यु में से तुमको जीवन दूंगा और दुखों में से से रास्ता।
४३) तुम इस जीवन में यात्री के सामान हो और जल्द ही तुमको यात्रा समाप्त करनी होगी। इसलिए अपनी यात्रा के दौरान मिलने वालों से अच्छा व्यवहार कर, हो सके तो सुख-दुःख के पल काट, किसी का मन न दुखा, सबको सहारा दे, किसी का शोषण न कर, आगे बढ़ कर अपनी सेवाएँ दें, अपने गुणों पर अडिग रह। तब तुम्हारी ये यात्रा यादगार हो जायेगी और ईश्वर की अनुकम्पा से परिपूर्ण भी।
४४) लोग कहते हैं की इन विचारों को स्वयं एक व्यक्ति नें घड लिया है। लेकिन मेरे निर्देशों को घड़ना और उसकी गहराई को नापना हर किसी के लिए तब तक संभव नहीं जब तक वो योग्य न हो। जैसे मैंने चाँद, तारे, सूर्य और ब्रहमांड को रचते हुए, इनमें से किसी की राय नहीं ली, ठीक इसी प्रकार ये विचार प्रकट करते हुए भी मैं किसी की टिपण्णी को अनावश्यक कहता हूँ।
४५) तुमको दिन-रात और मौसम सहित समय का आभास इसी कारण दिया गया है ताकि तुम जान सको के कुछ नष्ट हो रहा है। इस विशाल सृष्टि में तुम नगण्य होते हुए भी बहुत ही महत्वपूर्ण हो। अपने इसी महत्त्व को निश्चित समय में सिद्ध कर दिखाओ।

बुधवार, 9 अक्टूबर 2019

"ईशपुत्र-कौलान्तक नाथ" के दिव्य "वचन" - 8

३६) ईश्वर नें तुमको अपने सा मन दिया है और बल भी, तुम उसमें विश्वास भरो और प्रयास करो। ये विश्व अपरिवर्तनशील नहीं है बस तुम विश्व को इसलिए बदल नहीं पाए क्योंकि तुममें अविश्वास और शिथिलता है।
३७) तुम्हारे जीवन में सर्प्रथम कर्तव्य हैं, फिर अधिकार और फिर स्वतन्त्रता। यदि पहला नहीं है तो अन्यों की चाह मत रखना। छलकपट रहित ही हीरे के सामान बहुमूल्य होता है।
३८) तुम किसी को बुरा न कहो उसे चुभेगा और जब कोई तुमको कहेगा तो तुमको चुभेगा। मौन संयमी होना देवताओं का लक्षण है। इसलिए तुमको ये श्रेष्ठ गुण अपनाने चाहियें।
३९) आनंद भीतर ही स्थापित किया गया है इसे समझना और बाहर वस्तुओं में इसकी खोज मत करना। ईश्वरीय कृपा से मिलने वाला तेज तुमको सदैव आनंदित करेगा।
४०) अपने को तुम ईश्वर का पुत्र जानों और ईश्वर तथा अपने पे इतना विश्वास करो के ईश्वर के ये कहने पर की तुमको नर्क भेजने पर तुम क्या करोगे? तो तुम्हारा उत्तर हो की वहां भी आपके स्वर्ग का निर्माण शुरू कर देंगे, ही तुम्हारी दृडता का परिचय होगा।

मंगलवार, 8 अक्टूबर 2019

"ईशपुत्र-कौलान्तक नाथ" के दिव्य "वचन" - 7

३१) ये संसार विचित्र रचा गया है ताकि इसके गुह्य भेद उपजने न पायें। यहाँ जो जितना छोटा बन कर रहेगा उतना ही सुरक्षित रहेगा और यदि तुम मन से छोटे यानि विनम्र और सहनशील हो जाओ, किसी पर अत्याचार और बल ना दिखाओ तो ये ब्रह्माण्ड तुम्हारा ही है और ईश्वर का महासाम्राज्य भी।
३२) सेवक ही श्रेष्ठ है, श्रद्धावान ही विलक्ष्ण है, परहितैषी ही देवता है। आत्म तृप्त और आत्म संतुष्ट ही महामानव है। इन गुणों के एक साथ मनुष्य में होने पर वही "ईश्वर का पुत्र" कहलाने के योग्य है।
३३) पवित्र ज्ञान और सत्य दर्शन अधिकारीयों को प्रदान करो, अनाधिकारियों को नहीं। क्योंकि साफ जल गंदे घड़े में भर दोगे तो जल भी स्वच्छ न रह सकेगा।
३४) क्षमा ईश्वर की और से उतारी गई है। एक पिता नें एक सुन्दर युवक को देख कर अपनी पुत्री का विवाह उससे कराने का वचन दिया। किन्तु जल्द ही पिता उस युवक की चारित्रिक बुराइयों को जान गया। अब पिता क्या करता विवाह का वचन निभाए या न निभाए। ऐसी स्थिति सहित अपराध होने पर क्षमा मांगना और देना सत्य आचरण के अंतर्गत होगा। ईश्वर की ओर से सच्चे को अपराधमुक्त कहा जायेगा।
३५) ईश्वर नें तुमको कर्म के लिए उत्तपन्न किया है इसलिए अविरल निष्काम कर्म करो, किन्तु तुम्हारे सभी कार्य भक्ति सहित व विवेकपूर्ण होने चाहिए तभी उनकी परम सार्थकता है। कर्मों में ही जीवन मुक्ति का तंतु छिपाया गया है।

"ईशपुत्र-कौलान्तक नाथ" के दिव्य "वचन" - 6

२६) मैं स्वयं वो ही हूँ, किन्तु लघु होने से मैं उसे अपना पिता, स्वामी, जन्मदाता या ईश्वर कह कर संबोधित करता हूँ। ताकि तुमको समझने में आसानी हो सके। अन्यथा उसमें और मुझमें भेद नहीं। केवल तुमको बताने के लिए वो और मैं दो सत्ताएं हो जाते हैं। मेरा अवतरण व्यर्थ है यदि उस ईश्वर की महिमा का प्रकाश ना कर सकूँ। देख तेरे स्नेह नें मुझको विवश कर दिया है। इसी कारण समस्त ईश्वरीय नियम मैं तुम पर प्रकट कर रहा हूँ।
२७) मैं जानता हूँ की मनुष्य बुद्धि अपने को ही सर्व श्रेष्ठ समझने के भ्रम में रहती है। उंचा-नीचा, गोरा-काला, बड़ा-छोटा अमीर-गरीब सब तुम्हारे ही बनाये भेद हैं। मैं तो इस सबमें भी अभेद ही हूँ। मुझे केवल तुम्हारा ह्रदय और सार्थक प्रयास ही दिखाई देते है। ईश्वर इन्हीं प्रयासों से तुमको प्रेम करने योग्य पाता है और तुमको तुम्हारे प्रेम का प्रतिउत्तर देता है।
२८ ) ईश्वर के लिए तुम्हारा प्रेम ही स्वयं उस तक पहुँचने का मार्ग होगा। ईश्वर का नाम सभी बाधाओं, जो देखी और अनदेखी हैं को नष्ट करने वाला है। ईश्वर से जादू या चमत्कार मत मांगो, आवश्यकता के अनुरूप वो तुम्हारे जीवन में स्वयं चमत्कार करेंगे, जो तुम्हारी सामर्थ्य से बाहर के होंगे।
२९) मेरा और ईश्वर का प्रसन्न होना लघुतम इकाई के तौर पर वहां से शुरू होता है जहाँ तुम अपने साथ के लोगों, जीव-जंतुओं और प्रकृति से व्यवहार शुरू करते हो। तुम उनसे कैसे पेश आते हो यही तो तुम्हारे श्रेष्ठ होने का प्रमाण है। अपने मन को बदल दो। उसे अंधकार से प्रकाश के पथ पर ले चलो, उसे नीच से श्रेष्ठ पथ पर ले चलो। अभ्यास से मन पर नियंत्रण करो और वैराग्य के लिए ज्ञान का आश्रय लो।
३०) देखो तुमको सद्गुण भीतर से निखारने होंगे, तुम सद्गुणी होने का अभिनय करने लगते हो, जो मैं (ईश्वर) कभी स्वीकार नहीं करूंगा। तुम्हारा दोहरा चरित्र संसार को प्रताड़ित किये है और स्वयं को भी। तुम्हारा एक सा हो जाना ईश्वरीय अनुकम्पा से भर जाने जैसा होगा। इसलिए गहरी सांस लो, मन को विश्राम दो और वास्तविक सद्गुण उपजाने दो। ईश्वर की ओर देखो उनको देखते ही सदगुण तुम्हारे चरणों में नृत्य करने लगेंगे। तुमसा ब्रह्माण्ड मैं कोई दूसरा श्रेष्ठ ना होगा।

गुरुवार, 3 अक्टूबर 2019

जब ईशपुत्र को आदि जगदम्बा के साक्षात् दर्शन हुए

ये बात भी लोग अच्छी तरह जानते हैं कि महायोगी जी को केवल बारह वर्ष कि आयु में ही गुरु पदवी पर महागुरु ने बिठा दिया था....और तभी से कुछ साधक महायोगी जी के शिष्य बन गए और उनके साथ रहने लगे....कुछ साधू और सन्यासियों ने तो ये दावा तक किया कि वो महायोगी जी के पूर्व जन्मों के शिष्य हैं....महायोगी जी के घर के सामने जमघट लगा रहता....परिवार को महायोगी जी कि स्कूली शिक्षा कि चिंता होती रहती थी....लेकिन कोई उपाय ही नहीं था...इन साधकों को परिवार वालों ने गाली-गलौच कर भगाया भी लेकिन......दो-तीन दिनों में ही फिर आ जाते...समस्या कम होने का नाम ही नहीं ले रही थी.....एक ओर जहाँ कुल्लू में स्थित देवताओं के सामने होने वाली बलि प्रथा को रोकने के प्रयास के कारण जहाँ सामाजिक रूप से महायोगी के अनेक शत्रु तैयार हो गए थे.....वहीँ क्षेत्र का जातिवाद महायोगी के परिवार पर भारी पड़ने लगा......महायोगी जी के कई शिष्य जाति में बहुत छोटे होने और स्वयं महायोगी जी के उच्च कुल में होने के कारण साथ सहभोज एवं पूजन, यज्ञ, साधना का विरोध होने लगा....महायोगी जी के परिवार को विरादरी कि चुनौतियों का सामना करना पड़ा.....जिस कारण महायोगी जी ने घर छोड़ कर बाहर रहने का निर्णय कर लिया....ताकि परिवार को कोई परेशानी न हो.........यही सोचकर महायोगी शिष्यों सहित "बालीचौकी "नाम कि जगह पर ही माता काली कि प्राचीन गुफा में रह कर तप करने लगे....यहीं महायोगी जी को "माता रानी" ने साधारण स्त्री के रूप दर्शन दिए.....और महायोगी जी से प्रसाद मांग कर ले गयीं.....लेकिन काफी देर तक उनको पता ही नहीं चला....जब तक भान होता देर हो चुकी थी.....अब तो इस घटना ने महायोगी जी पर नया जनून सवार कर दिया कि मुझे मातारानी से मिलना है.....महायोगी जी ने भोजन त्याग कर वहीँ साधना करनी शुरू कर दी......मंत्र जप करते रहते......यज्ञ करते रहते......लेकिन बात न बन सकी.....महायोगी कमजोर होते चले गए....उनका स्वास्थ्य तेजी से गिरने लगा....
कहा जाता है कि यक्षिणियों....की सिद्धि महायोगी को जन्मजात थी....जोगिनियों की कृपा से महायोगी हिमालय के सबसे बड़े योगी बने थे......कौलान्तक पीठ की अधिष्ठात्री देवी माता कुरुकुल्ला की सिद्धि ने महायोगी को मानवीय सीमाओं से परे कर दिया था........पर माया थी कि महायोगी को अस्थिर किये जा रही थी....महायोगी जी कि ऐसी हालत हो गयी कि अब वो बैठ ही नहीं प् रहे थे.....माता-पिता भी बेटे कि ऐसी हालत देख कर गुफा दौड़े चले आये.....महायोगी जी यहीं से पवित्र हंसकुंड तीर्थ की चौदह दिनों की यात्रा पर चले गए....ऐसी हालत में जाना सबको मंजूर नहीं था...पर हठयोगी के सामने किसकी चलती....महायोगी जी यात्रा पर नंगे पवन निकल पड़े....और अनेक कष्टों से भरे मार्ग को पार करते हुए दिव्य हंसकुंड तक पहुंचे....और वहां से भी ऊपर सकती नाम के पर्वत शिखर तक पहुंचे.....जहाँ दो दिन की साधना कर महायोगी जी पुन: घर की और लौटे....लेकिन घर आने के लिए नहीं बल्कि उन दो दिनों की साधना ने महायोगी जी को और भी तंग कर दिया था....महायोगी जी घोर तप का निर्णय मन ही मन कर चुके थे....अपने संकल्प को पूरा करने के लिए....पहले महायोगी जी घर लौटे....यक्शिनियों का आवन कर उनको पूछा की बताओ माता के दर्शन कैसे हो सकते हैं....उनहोंने कहा की इसके लिए तो घोर तप करना होगा....महायोगी जी ने कहा मैं तैयार हूँ....यक्शिनियों ने ही बताया की महायोगी जी आपको इसके लिए "गरुडासन" पर्वत पर जा कर ही साधना करनी होगी ये स्थान तो काफी दूर था....महायोगी ने कहा ये तो जोगनियों का दिव्य स्थान है....महायोगी जी पहले भी वहां जा चुके थे....अब महायोगी जोगिनियों का आवाहन करने लगे.......जोगिनियों ने महायोगी को कहा की तुम निश्चिन्त हो कर आओ हमारे रहते तुम्हारा बाल भी बांका नहीं हो सकता......महायोगी जी ने आपने कुल देवता श्री शेष नाग जी की अनुमति ली....साथ ही माता तोतला जी की भी......अपने सभी पूर्वजों को प्रणाम कर आशीर्वाद माँगा....लेकिन जाने से पहले दो बड़ी अड़चने सामने आ गयी......
पहली अड़चन तो ये थी की महायोगी के पैतृक घर के साथ वाले पर्वत "जोगिनीगंधा"की देवी भ्रामरी इसके लिए मान नहीं रही थी और साथ ही......"सुवर्णकारिणी माता देवी चवाली"भी आज्ञा नहीं दे रही थी महायोगी जी जानते थे कि "सुवर्णकारिणी माता देवी चवाली" को मनाना बहुत ही आसान है......लेकिन "जोगिनीगंधा" पर्वत की देवी भ्रामरी सरलता से नहीं मानने वाली....तो पहले महायोगी जी इसी परवत पर चले गए....इस पर्वत पर साधना के लिए बैठते ही बबाल शुरू हो गया......गांव कि मान्यता के अनुसार यहाँ कोई रात को नहीं रहता सदियों से कोई रहा भी नहीं था...लोग इस स्थान को बहुत ही पवित्र मानते हैं....लेकिन महायोगी जी के दिन-रात वहां रहने के कारण लोग भड़क गए....और समूह बना कर महायोगी जी को धमकाने पहुंचे लेकिन महायोगी जी ने उनको कड़ाई से कह दिया कि वो बिना साधना पूरण किये कदापि नहीं जायेंगे....कहा जाता है कि इस देवी के क्षेत्र कि रक्षा कोई "लंगड़ाबीर"नाम का देवता करता है....जो भालू या शेर जैसा रूप बना कर लोगों को मार देता है....लेकिन जो हिमालयों और बनो का सम्राट हो उसको भला क्या भय.....महायोगी जी करीब सात दिन वहां रहे और अन्तत:,करुणामयी माता प्रसन्न हुई....उनहोंने आकाश मार्ग से महायोगी जी को मौली बस्त्र का टुकड़ा....और कुछ दिव्य पुष्प दिए.......
आप सोच रहे होंगे कि ये तो बिलकुल ही अवैज्ञानिक बात है कि हवा में कोई चीज कैसे आ सकती है....ये वहां के लोगों के लिए चमत्कार नहीं सैंकड़ों लोगो के सामने होने वाली मामूली सी दैविक क्रिया है.....यहाँ का बच्चा-बच्चा इस तथ्य को भली भांति जानता है........सैंकड़ों लोग इसके प्रत्यक्षदर्शी भी है......महायोगी जी इस स्थान से लौटते हुए....ही"सुवर्णकारिणी माता देवी चवाली"के बन में स्थित मंदिर में पहुंचे....इस माता का बन छोटा सा ही है लेकिन वहां के बृक्षों को कोई लोहा नहीं लगता.......जंगल कटा नहीं जाता इसी कारण बचा हुआ है....इसी बन के मध्य से बहुत ही ऊँचाई से पानी का झरना गिरता है....इस झरने कि जहाँ से शुरुआत होती है वहीँ माता जी का छोटा सा मंदिर है.....वहां पहुँच कर महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी ने माता को केवल स्तुति करके ही प्रसन्न कर लिया....माता चवाली ममतामयी कोमल हृद्या हैं.....यही वो देवी हैं जिनके पास मृतसंजीवनी एवं पर्णी नामक बृक्ष भी है.....जिससे सोना बनाया जाता है जैसी दिव्य औषधियां हैं....लेकिन मान्यता के अनुसार इन औषधियों को अदृशय रखा गया है....माता कि कृपा से ही ये प्राप्त हो सकती हैं.....महायोगी जी माता का आशीर्वाद ले......अपनी "गरुडासन पर्वत" कि महासाधना के लिए अब तैयार थे........
 महायोगी जी कठिनतम यात्रा कर गरुडासन पर्वत तक पहुंचे....और और शुरू की अपनी सबसे बड़ी साधना......इस साधना के बारे में मैं नहीं बता सकता....जानता तो हूँ पर यही महायोगी जी के जीवन का सबसे अहम् पड़ाव है....इसी पर्वत पर महायोगी जी को माता रानी के न केवल दर्शन हुए बल्कि आज तक जो इतिहास में सुना भी नहीं गया.....मातारानी के साथ लगभग तीन घंटों से अधिक कि अवधि तक महायोगी जी रहे लेकिन महायोगी नहीं जानते थे कि वो किस से धर्म चर्चा कर रहे हैं....अंतिम कुछ क्षणों में माता ने स्वयं ही कह दिया....कि तुम मुझसे मिलने यहाँ आये थे....तो देख लो मैं ऐसी हूँ.....और करीब सात मिनट तक वहां रह कर देवी ने बिदा ली....आप ये कल्पना करने न लग जाएँ की कोई आठ भुजा वाली मुकुट धारण किये शेर पर सवार हो कर प्रकट हुई और अदृशय हो गयीं......ऐसा कुछ नहीं हुआ......महायोगी जी 26 दिनों तक बिलकुल भूखे रहे होंठ और चमड़ी जगह जगह से फट गयी थी बहुत ही तेज बुखार हो रहा था.....दो दिनों से महायोगी हिले तक नहीं थे.....अब महायोगी जीने की उम्मीद छोड़ चुके थे.....ऐसे में उन्हें मूत्र त्याग की इच्छा हुई....घसीटते हुए कुच्छ दूरी तक गए.....कुछ बूँद मूत्र त्याग किया.....वापिस कन्दरा की और लौटने लगे तो बेहोश हो कर गिर गए.....तभी एक गांव की महिला वहां जड़ी बूटियाँ ढूढती हुई पहुंची....उसने महायोगी को उठाया और पानी पिलाया....फिर लताडती हुई पर्वत के ऊपर ले गई क्योंकि ठण्ड के कारण महायोगी जी का शरीर अकड़ गया था....ऊपर धूप थी.....वहां धूप में लिटा कर महायोगी जी से घर का पता पूछने लगी और कहने लगी की तुम यहाँ अकेले क्या कर रहे हो...जानते नहीं की यहाँ खतरा है...इतनी ऊंचाई पर तो जानवर भी जिन्दा नहीं रहते....जब महायोगी जी ने कहा की वो माता भगवती को मनाने के लिए आये हैं...तो वो औरत कहने लगी माता तो दिल में होती है..आत्महत्या करके नहीं मिलेगी अपने घर चले जाओ....लेकिन महायोगी बोले की मैं जानता हूँ कि दिल में प्रेम और भक्ति होनी चाहिए पर शायद इतना काफी नहीं....इसी तरह समय तीन घंटे बीत गए....जब महायोगी जी बातो मैं ही उलझे रहे तर्क पे तर्क देते रहे......तो उस औरत ने अपनी गोद से गर्म तजा प्रसाद निकाल कर महायोगी जी को दिया और बोली देखो लो मैं ऐसी ही हूँ.......महायोगी को उस स्त्री कि बातों मैं सच्चाई नजर आई.....महायोगी जी ने अपनी दादी को बताते हुए कहा था कि दादी जी पता नहीं क्यों मुझमे उस औरत कि बात काटने का सहस ही नहीं रहा...वो जो कहती गई मैंने मन....लगा मानों सचमुच
वो ही आदि जगदम्बा है......जैसे ही हल्का सा बोध हुआ.....आँखों से आंसू बहाने लगे मैं दहाड़ दहाड़ कर रोने लगा....उनके सीने से लग कर रोता रहा....पलट पलट कर उनको देखता.....उनको छू कर देखा....उनहोंने कहा मैं सदा तुम्हारे साथ ही हूँ.....कुरुकुल्ला कि प्रतिमा का निर्माण करो.....रथ बनायो......(पहाड़ी कुल्लवी शैली कि प्रतिमा को रथ कहा जाता है)....फिर माता उठी और कहने लगी ये प्रसाद तुम्हारे लिए...और मैं खड़ा हो गया.....वो उठी हाथ मैं दरात थी...और पहाड़ कि दूसरी और जाने लगी.....दिल तो कर रहा था कि मैं रोकू.....लेकिन हिल ही नहीं पा रहा था....थोड़ी देर मैं ठंडी हवा के झोंके ने अहसास दिलाया तो पहाड़ी कि तरफ भागा....दूर दूर तक कोई नहीं था....यहाँ तक कि जंगल तो बहुत ही दूर थे केवल नग्न रिक्त परवत ही था....महायोगी काफी देर रोते रहे.....अचानक हसने लगे...उनको याद आया कि शायद बुखार दिमाग मैं चढ़ रहा है या इतने दिनों से भूखे होने के कारण मौत से पहले हेल्युसुनेशन हो रहा है....भला ऐसा कैसे हो सकता है कि अभी माता आई थी.....अपने को महायोगी जी ने बहुत समझाया....लेकिन तभी हाथ पर रखे प्रसाद पर नजर गई.....जिसकी गर्मी हाथों को महसूस हो रही थी.....महायोगी जी ने प्रसाद ग्रहण किया.....लेकिन आज तक भी महायोगी इस बात को मान ही नहीं पाए कि सचमुच वो भगवती ही थी....लेकिन महागुर को इस बात का पता चलते ही वो भी गरुडासन पहुंचे......महायोगी इतना होने पर भी भ्रम ही मान रहे थे....तो साधना आगे जारी रखने कि जिद्द पर अड़े थे......महागुरु के समझाने बुझाने पर ही लौटे....हम सब तो यही मानते है कि वो भगवती ही थी......केवल महायोगी जी को छोड़ कर....दादी जी का भी यही माना था.....देवी कुरुकुल्ला कि पहले एक धातु प्रतिमा ही थी.....जो प्राचीन है....लेकिन बड़ी मूर्ति जिसे रथ कहा जाता है...तैयार नहीं किया गया था....घर आने के तकरीबन 6सालों के बाद ही महायोगी ने अपना वादा पूरा कर कुरुकुल्ला देवी का रथ बना कर तैयार करवाया....धन का अत्यंत अभाव होने के कारण महायोगी जी माता की प्रतिमा को मनोवांछित स्वरुप नहीं दे पाए लेकिन भविष्य में धन कि व्यवस्था होने पर ऐसा करेने का मन बना माता कि मूर्ती को तैयार किया गया......आप भी जगतकल्याणी माता कुरुकुल्ला जी के दर्शन कर लीजिये......
-लखन नाथ
कौलान्तक पीठ में स्थित माता कुरुकुल्ला कि अस्थाई प्रतिमा
इसी प्रतिमा को माँ भगवती का दिव्य देवी रथ भी कहा जाता है