सिद्ध धर्म के अनुसार, ‘बृहस्पति कल्प’ यह बृहस्पति जी के द्वारा किया गया सबसे महत्वपूर्ण कार्य है। बृहस्पति कल्प को गहराई से समझने के बाद बृहस्पति जी के सम्पूर्ण कुलों को समझना संभव है।
सिद्ध धर्म के अनुसार, ‘बृहस्पति जी के आस्तिक और नास्तिक दोनों दर्शनों के लिये ‘बृहस्पति कल्प’ सर्वोच्च ग्रंथ है। बृहस्पति कल्प को समझने के लिए एक व्यक्ति को पहले उसके आधार में स्थित लौकिक और अलौकिक कुल और विचारधारा को समझना होगा। प्रमुख कुल और प्राथमिक विचारधाराओं में पारंगत होने पर ही कोई व्यक्ति बृहस्पति कल्प में पारंगत हो सकता है।
बृहस्पति कल्प के पांच खंड है और उन्ही को और अधिक स्पष्ट करने के लिये उपखंड भी है। तथा ‘आंतरराष्ट्रीय कौलान्तक सिद्ध विद्यापीठ’ भी बृहस्पति कल्प पर आधारित सात दिनों का कोर्स आयोजित करता है।
बृहस्पति कल्प के खंड और उसके उपखंडों के बारे में नीचे लिखा गया है
भय को नष्ट करने वाले देवता का नाम है भैरव
भैरव के होते है आठ प्रमुख रूप
किसी भी रूप की साधना बना सकती है महाबलशाली
भैरव की सौम्य रूप में करनी चाहिए साधना पूजा
कुत्ता भैरव जी का वाहन है
कुत्तों को भोजन अवश्य खिलाना चाहिए
पूरे परिवार की रक्षा करते हैं भैरव देवता
काले वस्त्र और नारियल चढाने से होते हैं प्रसन्न
भैरव के भक्त को तीनो लोकों में कोई नहीं हरा पता
जीवन के हर क्षेत्र में सफलता के लिए भैरव को चौमुखा दीपक जला कर चढ़ाएं
भैरव की मूर्ती पर तिल चढाने से बड़ी से बड़ी बाधा भी नष्ट होती है
भैरव के मन्त्रों से होता है सारे दुखों का नाश
भय नाशक मंत्र
ॐ भं भैरवाय आप्द्दुदारानाय भयं हन
उरद की दाल भैरव जी को अर्पित करें
पुष्प,अक्षत,धूप दीप से पूजन करें
रुद्राक्ष की माला से 6 माला का मंत्र जप करें
दक्षिण दिशा की और मुख रखें
शत्रु नाशक मंत्र
ॐ भं भैरवाय आप्द्दुदारानाय शत्रु नाशं कुरु
नारियल काले वस्त्र में लपेट कर भैरव जी को अर्पित करें
गुगुल की धूनी जलाएं
रुद्राक्ष की माला से 5 माला का मंत्र जप करें
पश्चिम कि और मुख रखें
आटे के तीन दिये जलाएं
कपूर से आरती करें
रुद्राक्ष की माला से 7 माला का मंत्र जप करें
दक्षिण की और मुख रखे
प्रतियोगिता इंटरवियु में सफलता का मंत्र
ॐ भं भैरवाय आप्द्दुदारानाय साफल्यं देहि देहि स्वाहा:
बेसन का हलवा प्रसाद रूप में बना कर चढ़ाएं
एक अखंड दीपक जला कर रखें
रुद्राक्ष की मलका से 8 माला का मंत्र जप करें
पूर्व की और मुख रखें
बच्चों की रक्षा का मंत्र
ॐ भं भैरवाय आप्द्दुदारानाय कुमारं रक्ष रक्ष
मीठी रोटी का भोग लगायें
दो नारियल भैरव जी को अर्पित करें
रुद्राक्ष की माला से 6 माला का मंत्र जप करें
पश्चिम की ओर मुख रखें
लम्बी आयु का मंत्र
ॐ भं भैरवाय आप्द्दुदारानाय रुरु स्वरूपाय स्वाहा:
काले कपडे का दान करें
गरीबों को भोजन खिलाये
कुतों को रोटिया खिलाएं
रुद्राक्ष की माला से 5 माला का मंत्र जप करें
पूर्व की ओर मुख रखें
बल प्रदाता मंत्र
ॐ भं भैरवाय आप्द्दुदारानाय शौर्यं प्रयच्छ
काले रंग के कुते को पालने से भैरव प्रसन्न होते हैं
कुमकुम मिला लाल जल बहिरव को अर्पित करना चाहिए
काले कम्बल के आसन पर इस मंत्र को जपें
रुद्राक्ष की माला से 7 माला मंत्र जप करें
उत्तर की ओर मुख रखें
सुरक्षा कवच का मंत्र
ॐ भं भैरवाय आप्द्दुदारानाय बज्र कवचाय हुम
भैरव जी को पञ्च मेवा अर्पित करें
कन्याओं को दक्षिणा दें
रुद्राक्ष की माला से 5 माला का मंत्र जप करें
पूर्व की ओर मुख रखें
आशुतोष भैरव जी - साधक का एक और प्रश्न आया है कि, क्या हनुमान जी, वेद व्यास जी स्थूल शरीर में है या सूक्ष्म शरीर में है जी ?
ईशपुत्र - देखिए, सूक्ष्म शरीर में तो हर व्यक्ति है, सूक्ष्म में भी और स्थूल में भी, सदैव । जब भी कोई चीज दृश्यमान सत्ता से उस पार हो जाए उसको सूक्ष्म कहा जाता है और इस सूक्ष्म में तो ब्रह्मांड में बहुत कुछ घटित हो रहा है जो हमें इन चर्मचक्षुओं से दृष्टिगोचर नहीं होता । आज तो विज्ञान भी जानता है, विज्ञान क्या आपको भी तो मालूम है, कितनी तरह की तरंगे, रेडिएशन, वाइब्रेशन हमारे ब्रह्मांड में घूम रही है, हम उनको देख नहीं पाते बिना यंत्र की सहायता से, तो यह सब चीजें सूक्ष्म है । और कुछ चीजें प्रत्यक्ष में हैं जैसे आप मुझे देख पा रहे हैं । इन महानतम हस्तियों के बारे में यह कहा गया है कि यह 'अवतारी पुरुष' है, सदेह इस पृथ्वी पर रहेंगे । अब कारण यह है कि यदि सदेह है तो यहां सेटेलाइट लगे हुए हैं ऊपर से, सर्च कर रहे हैं पृथ्वी को, एक-एक व्यक्ति का आजकल पासपोर्ट बन रहा है, उसके आईडी प्रूफ बन रहे हैं, सब चीजें बन रही है, किस गांव का है, किस एरिया में रहता है, हिमालय कितना है, तो हर जगह मिलिट्री लगी हुई है, सीमाएं बनी हुई है तो यह लोग कहां है ? अगर यह सशरीर है तो दिखाई क्यों नहीं देते ? ऐसी बातों का, ऐसे प्रश्नों का हम जैसे योगियों के पास या ऐसे योगियों के पास जो वहां जनता के बीच में रहते हैं, जब जनता, साधक या भैरव-भैरवी इस तरह के प्रश्न पूछते हैं तो उत्तर नहीं होता, तो अपने आप को बचाने के लिए यह कहा जाता है कि वह लोग सूक्ष्म शरीर में है । लेकिन आप शास्त्र और पुराणों को पढ़ेंगे उसमें लिखा गया है वह इसी देह में सदेह चिरंजीवी है, ना कि वो सूक्ष्म शरीर में चिरंजीवी है । सूक्ष्म शरीर में तो कोई भी चिरंजीवी हो सकता है इसलिए यह तर्क बिल्कुल गलत है । वह सदेह ही विद्यमान है लेकिन कहां है, कैसे हैं यह बताना अभी मेरा विषय नहीं है लेकिन मैंने आपको इशारा ये जरूर कर दिया है कि सूक्ष्म शरीर से उनका ज्यादा लेना-देना अभी नहीं है ।
दीपावली स्वतः सिद्ध मुहूर्त है. तंत्र पथ अथवा मंत्र साधकों को किसी मुहूर्त विशेष को शोधने की जरूरत नहीं होती. वो केवल साधना करता है. दीपावली धन, यश, मान, स्वास्थ्य, गृहस्थ सुख तो देती ही है लेकिन ये समय आपके जीवन को अनेक लाभ दे सकता है यदि आप जानते हों कि कौन सी साधना अप पर ठीक बैठती है. गुरु से दीक्षा लेने के लिए भी ये मुहूर्त बड़ा ही श्रेष्ठ माना जाता है. लक्ष्मी देवी या कहें माँ श्री विद्या का काल होने से गरीब से गरीब भी साधना कर जीवन में उत्थान को प्राप्त कर सकता है. इस काल में श्री सूक्त का पाठ अथवा श्रवण आम भक्त के लिए वरदान स्वरुप होता है. मंत्र का जाप भी अत्यंत लाभदायक होता है.
मंत्र-ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले जाग्रय-जाग्रय हुं
इस काल में बीसा यन्त्र या श्रीयंत्र घर में स्थापित करना बड़ा ही शुभ प्रभाव देता है. हत्था जोड़ी, श्वेतार्क गणपति, रुद्राक्ष, मानिंक आदि घर में स्थापित करना धनदायक होता है. यदि आप रोजगार प्राप्त नहीं कर पा रहे तो निम्न यन्त्र को बना कर अपने पास रखें व दीवाली की रात ही इसे लिखें और पूजन करें.
यन्त्र-
६६६ ९९९ ६६६
९९९ ३३३ ९९९
३३३ ९९९ ३३३
देवी के मंत्र का जाप करने के लिए रुद्राक्ष या कमलगट्टे की माला का ही प्रयोग करें. उत्तर दिशा की और या पूर्व की और मुख रखना चाहिए. लाल रंग का आसन बिछाना चाहिए. अपनी रक्षा या तंत्र प्रयोगों से बचाव के लिए गुरु मंत्र या हिमालय मंत्र का जाप करें. इससे किसी भी तरह का जादू टोना तंत्र मंत्र प्रभावहीन हो जायेगा.
मंत्र-
ॐ महाकालाय विकर्तनाय मायाधराय नमो नम:
उपरोक्त सभी मन्त्रों की कम से कम पांच माला तो जरूर करें यदि आप साधक है तो ५० माला करने से लाभ मिलता है. देवी को लाल फूल व खीर पंचमेवे का भोग लगायें. यदि आपके पास धन अथवा समय का आभाव है तो एक लाल कपडे का टुकड़ा या चुनरी ले कर पांच दीये देवी के मंदिर ले जा कर चढ़ा दें. देवी अवश्य कृपा करेंगी.
-कौलान्तक पीठाधीश्वर महायोगी सत्येन्द्र नाथ
महायोगी जी ने एक राजस्थान के बाजीगर से बाजीगरी कि परम्परागत कला भी सीखी....बस जंगलों में कभी हवा में उड़ कर दिखते तो कभी कुछ पैदा कर देते......लोग तो लम्बे समय तक ये ही समझाते रहे कि महायोगी जी हवा में आसन लगाते हैं....वो तो भला हो एक बच्चे का जिसने महायोगी जी से एक सार्वजानिक कार्यक्रम में पूछ लिया कि आप हवा में कैसे उड़ाते हैं.....हममेसे तो कभी किसी कि हिम्मत ये पूछने कि हुयी ही नहीं....तब महायोगी जी ने बड़ी शालीनता से बताया कि वो भी हवा में नहीं उड़ सकते ये सब तो केवल भ्रम हैं.....भारत में जादूगरी को कौतुक विद्या कहते हैं...जो एक प्राचीन कला है......जिसे उन्होंने सीखा है.....इसलिए मन बहलाने के लिए वो ऐसा करते हैं....लेकिन शायद बच्चा ये सुन कर संतुष्ट नहीं हुआ.....उससे लगा महायोगी जी सच बोलना नहीं चाहते कि वो सचमुच उड़ते हैं....महायोगी जी ने बहुत समझाया पर वो नहीं माना....इससे महायोगी जी को अपनी भूल का एहसास हुआ कि वो जो कुछ करते हैं लोग सच ही मानते हैं......तबसे वो हर कदम सम्भल कर चलने कि कोशिश करते हैं...और उनहोंने कौतुक विद्या का प्रदर्शन बिलकुल बंद कर दिया....
महायोगी जी का पेड़ के सहारे हवा में उड़ कर दिखाना
हवा में कौतुक विद्या द्वारा काफी ऊँचा उठ जाते हैं महायोगी जी
हालाँकि अभी यहाँ ज्यादा फोटो उपलब्ध नहीं हैं.....लेकिन महायोगी जी के कई चित्र बहुत ही अद्भुत है....इस पेड़ के भी महायोगी जी काफी ऊपर तक गए थे लेकिन जब तक कैमरा निकलता ऑन होता महायोगी जी वापिस उतर कर नीचे पहुँच गए थे......लेकिन आप चिंता मत कीजिये एक और चित्र देख लीजिये......महायोगी जी के तो चित्रों के भी भण्डार भरे पड़े हैं......ये सब आपकी आमानत ही तो है......मेरा प्रयास है कि मैं केवल सच लिखूं.......मैं मनाता हूँ कि
महायोगी जी मेरे प्राणप्रिय गुरु हैं.....लेकिन कहीं भी मैं कोई असा तथ्य नहीं देना चाहता जो...तथाकथित हो....हालाँकि बहुत सी बातें भूल गया हूँ.....पर मुझे संक्षेप में ही बताने को कहा गया है......अन्यथा जी तो चाहता है कि बस महायोगी जी का गुणगान करता ही रहूँ....उनके अज्ञात बिबिध रूपों का वर्णन करूँ.....इस चित्र में महायोगी जी काफी ऊपर उठ गए हैं......यहाँ एक प्रसंग याद आया कि जब महायोगी जी स्कूल में पढ़ते थे तो वहां भी महायोगी जी ने अपने सहपाठियों के मनोरंजन के लिए एक जादू का बड़ा कार्यक्रम किया था....जो बहुत ही रोमांचक रहा..
महायोगी जी का वायु में उठा हुआ दूसरा चित्र जो जंगल में लिया गया
ये कोई महायोगी का चमत्कार नहीं केवल बाजीगरी का करिश्मा है
इस चित्र को देख कर लोगो ने कई तर्क दिए...किसी ने कहा कि लहे कि रद फसा कर फोटो खिचवाई गयी है....किसी ने कहा शयद पेड़ कि टहनी पर ही बैठे हैं.....किसी ने कहा कि कम्प्यूटर कि मदद से बना दिया गया होगा....लेकिन जब महायोगी जी ने कुछ साधकों को समझाने के लिए इसे स्वयं करके दिखाया तो बोलती बंद हो गयी....जबकि वो भी केवल भ्रम ही था....महायोगी जी नें कई साधकों को ये प्रक्रिया सिखाई भी है.....पर अंततः महायोगी जी ने अपने आप को इस क्षेत्र में जाने से रोका.....
जब बक्तों के प्यारे बजरंगबली पैदा हुए थे, शिव ने भक्तों की रक्षा के लिए व भगवान् राम जी की सेवा व राम काज को पूरा करने के लिए मृत्यु लोक अर्थात पृथ्वी पर पवनदेव के तेज से बानर राज केसरी और रानी अंजनी के घर जन्म लिया, अत्यंत बलशाली होने के कारण नाम पड़ा महाबीर बजरंगबळी, बाल्यकाल से अद्भुत सिद्धियाँ होने व पवन पुत्र होने के कारण हवा में उड़ने व किसी भी लोक तक चले जाने की क्षमता उनमें थी, बाल्यकाल से ही उनहोंने कई राक्षसों का बध करना शुरू कर दिया था, सूर्य को आकाश में देख कर उसे निगल लिया तब सभी देववी देवताओं नें प्रार्थना कर उनसे सूर्य को मुक्त करने को कहा तो बजरंगबळी ने सूर्य को बाहर उगला, सूर्य भगवान् नें प्रसन्न हो कर उनको अपना शिष्य बना लिया, भगवान् सूर्य जैसे गुरु से ज्ञान पा कर महाबीर का सामना करने का साहस तीनों लोकों में किसी के पास नहीं रहा, लेकिन महाबीर बालक होने के कारण अक्सर तपस्यारत र्तिशी मुनियों से भी छेड़ छाड़ करते कुपित हो कर ऋषियों ने उनको शक्तियां भूल जाने का शाप दिया, क्षमा याचना पर ऋषियों नें कहा की समय अनुसार आवशयकता पड़ने पर तुम्हारी शक्तियां वापिस आ जाएँगी, जब राम जी को माता सीता का वियोग हुआ तब हनुमान जी से उनका मिलन हुआ, राम लक्ष्मण को कन्धों पर उठा कर वायु मार्र्ग से सुग्रीव तक ले गए,समय आने पर महाबीर ने लंका कूद कर पार कर ली, मार्ग में आने वाली बाधाओं व परीक्षाओं को धैर्य व नीति पूर्वक पूरण किया, अशोक वाटिका उजाड़ कर राक्षस वीरों को स्वर्ग पहुंचाया, मरणासन लक्ष्मण को बचाने के लिए हिमालय पर्वत से एक पहाड़ ही उठा कर ले आये, जब मेघनाद नें भगवान् राम और लक्षमण को नागपाश में बाँध लिया तब वैकुण्ठ जा कर गरुड़ जी को ले कर आये, युद्ध में कई वीरों को यमलोक पहुंचाया, सीता माता की सबसे पहले सुधि लाने वाले हनुमान जी ही थे, अयोध्या वासियों तक सीता राम के आगमन का उनहोंने ही समाचार पहुँचाया, रावण की कैद से शनि को मुक्त करवाया, जब शनि नें पिता से अभद्रता की तो, सूर्य के कहने पर शनि को पीट-पीट कर अधमरा कर दिया और भगवान् सूर्य के सामने उपस्थित कर दिया, सीता माता द्वारा दी गयी मोतियों की माला को तोड़ कर दरवारियों के कहने पर हन्मुमान जी नें सीना चीर दिया और अपने प्रब्न्हू राम सीता की युगल मूर्ती के दर्शन संसार को करवाए, लवकुश से युद्ध के दौरान बुद्धि संयम का अद्भुत परिचय दिया, बालकों के पाश में बांध गए, भगवान् राम जी के सरयू नाड़ी में सनान्न के बाद वैकुण्ठ लौटने पर भी महाबीर भक्तों की रक्षा और धर्म की स्थापना के लिए पृथवी पर ही रहे, रामायणकाल के अतिरिक्त महाभारतकाल में जब भीम को अपने बल का घमंड हो गया तो हनुमान जी नें उनको कहा कि भीम तुम मेरी पूंछ उठा कर एक और कर दो, लेकिन पूरा प्रयास करने पर भी भीम पूंछ को हिला तक नहीं पाए, भगवान् श्रीकृष्ण जी और अर्जुन के रथ पर ध्वजा में स्वयं महाबीर उपस्थित रहे, इसीलिए युद्ध के पश्चात श्रीकृष्ण अर्जुन का रथ धमाके के साथ नष्ट हो गया, क्योंकि हनुमान जी नें रथ को छोड़ दिया था, कलियुग में भी हनुमान जी जीवित ही माने जाते है क्योंकि उनको चिरंजीवी होने का आशीर्वाद मिला है, महाभारत के अनुसार महाबीर हनुमान आज भी गंधमादन नाम के पर्वत पर रहते हैं, कहा जाता है की जहाँ जहाँ रामायण का पाठ होता है हनुमान जी सूक्ष्म रूप या प्रत्यक्ष रूप में जरूर वहां आते हैं, कलियुग में गोस्वामी तुलसीदास जी को राम लक्ष्मण जी के दर्शन भी हनुमान जी ने ही करवाए थे, हनुमान जी का इतना बल है की पातळ में अहिरावन को मार कर महाबीर हनुमान जी नें उसकी भुजाएं ही उखाड़ ली थी, ज्ञानियों में प्रथम रहने वाले, भक्तों को ज्ञान देने वाले, भूत प्तेतों का नाश करने वाली महाबीर का सुमिरन ही सब दुखों का नाश करने वाला है, नीच ग्रह यक्ष, किन्नर,किरात आदि सब इनके भय से थर-थर कांपते हैं, तो मान्गियें शीघ्र प्रसन्न होने वाले हनुमान जी से सकल मनोरथ, मानिये हनुमान जी को और शत्रुओंका रोगों का दुखों का नाश कीजिये, पाइए धन वैभव, नीच ग्रहों से मुक्ति पा कर सुखद जीवन का आशीर्वाद पाइए शत्रु नाश के लिए, रोग मुक्ति के लिए, रोजगार व व्यापार में लाभ के लिए,विद्या व बुद्धि के लिए, बलशाली शरीर के लिए,शनि मंगल राहु केतु जैसे नीच ग्रहों से मुक्ति के लिए, अकाल मृत्यु व दुर्घटना आदि से बचाव, हनुमान जी की कृपा पाने व दर्शन करने के लिए महामंत्र
मातंगी के बिना पूरा जीवन अधूरा है । जिस व्यक्ति को अपने जीवन में प्रेम अनुभव नहीं हुआ हो, जिस व्यक्ति को अपने जीवन में "गुरुत्व" का एहसास नहीं हुआ हो, किस व्यक्ति को अपने होने का अभी तक बोध नहीं हुआ हो उसके लिए मातंगी साधना बड़ी ही अनिवार्य है, क्योंकि हम पैदा तो हो जाते हैं हम ज्ञान विज्ञान सीख लेते हैं, बुद्धि-बल और विवेक भी हमें आ जाता है और हम पूरी जिंदगी जीते चले जाते हैं लेकिन धीरे धीरे धीरे सब नष्ट होता जाता है और जीवन का जो आखिरी भाग हमारे पास आता है वह बहुत ही खराब भाग होता है; तब हमारे पास कुछ नहीं होता जब तक हम सुंदर है, सौंदर्यशाली हैं, सामर्थ्यवान है तब तक ही हमारी जय जयकार होती है, तो मातंगी आपको नित्य बनाती है इसलिए शब्द है नित्य कन्या और नित्य पुरुष; जो पहले भी थे आज भी है और भविष्य में भी रहेंगे ! जिनको "चिरंजीवी" भी कहा जाता है, तो आपकी चेतना भी चिरंजीवी हो जाए, आपके भीतर भी स्थायित्व हो जाए वह सब आपको मातंगी देती है और याद रहे हम पृथ्वी पर कोई भी काम तब तक नहीं कर सकते जब तक उसमें आनंद ना हो, जब तक उसमें रस ना हो, जब तक उसमें दिव्यता ना हो और वह रस जो है वह आपको मातंगी देगी । अब आपको अगर मैं आप लोग कहीं से आ रहे हो और इतना बड़ा फूलों का गुलदस्ता बनाकर आपको समर्पित करुं । अगर आपने फूलों के प्रति उसका सौंदर्य है, मेरे प्रेम को समझने की बुद्धि है तब तो आप उस को संभाल कर रखेंगे लेकिन अगर नहीं है तो सामने भैंस आ रही होंगी उसको खिला देंगे कि, "ले जी तेरे लिए बढ़िया वाला चारा है ।" तो फर्क तो एक ही चीज का है केवल उस स्थिति का है, इसलिए धर्म को भी सभी लोग नहीं समझ सकते । आप कोशिश करके देखिए । किसी नास्तिक को जाकर धर्म समझाइए जरा, मैं मान जाऊंगा यदि आप समझाने में कामयाब हो गए । क्यों ? क्योंकि उसके पास वो तन्तु ही नहीं हैं, उसके पास वह सामर्थ्य ही नहीं है ।जब आप धर्म को समझ सकते हैं तो वह भी तो समझ सकता होगा, दिमाग तो उसके पास भी वही है, मेरे पास भी वही है....अगर मैंने भी विज्ञान की पढ़ाई की है, अगर मेरे भी मस्तिष्क में नास्तिकतावाद है, आस्तिकतावाद है, धर्म है, दर्शन है, तब भी मेरे मन में दृढ़ विश्वास है कि, 'धर्म का यह पक्ष सत्य है', तो मुझे कहीं से तो वह विचार आ रहा है, कोई तो मुझे वह दे रहा है और उसको भी यदि वह नहीं समझ आ रहा है वह नहीं समझ पा रहा है तो उसे भी वह तत्व कोई दे रहा है । तो वो सब संचालित करने वाली शक्ति मातंगी होती है ।मातंगी के कारण ही मुनि मातंग हुए थे उनकी कथा कहीं ढूंढिएगा पढ़िएगा की कितनी अद्भुत कथा उनकी थी । तो मातंगी शक्ति के बिना मैंने कहा कि जीवन अधूरा है ।आपके पास सामर्थ्य होनी चाहिए समझने की, आपके पास सामर्थ्य होनी चाहिए किसी भी चीज को ग्रहण करने की । ये ठीक वैसे ही कि आप संध्या के समय कहीं बैठे हो और कोई व्यक्ति सामने से आए, आने के बाद वह आपकी स्तुति करें, आपकी प्रशंसा करें और बहुत ज्यादा आपकी तारीफ करें इतनी ज्यादा कि इससे पहले पृथ्वी पर किसी की तारीफ ना हुई हो और बाद में उसे पता चले कि आप तो बहरे थे । तो उस प्रशंसा का कोई सार नहीं रह जाएगा । वैसे ही सृष्टि है, ये प्रतिपल आपको आनंद देना चाहती है क्योंकि माया है । योगमाया है वह तो आपकी मां है और अगर वह हमारी मां है तो सागर भी मुझे आनंद देगा, यह लाइट्स भी मुझे आनंद देगी, यह पर्दे भी आनंद देंगे, आप लोग भी मुझे आनंद देंगे क्योंकि सब मेरी मां का ही तो है ! वह मेरे विरुद्ध कैसे जाएगा लेकिन मुझे वह आनंद सुनाई नहीं देगा क्योंकि मैं अभी बहरा हूं । तो वो कान खोलने के लिए, उस आनंद को जानने के लिए मातंगी अपने आप में एक प्रमुख विद्या है ।
- महासिद्ध ईशपुत्र
मार्कंडेय पुराण के अनुसार प्रथम नवरात्र की देवी का नाम शैलपुत्री देवी है, इन शैलपुत्री देवी को गिरिराज हिमालय की पुत्री पार्वती के रूप में हम जानते हैं, शैलपुत्री के नाम से माँ पार्वती जी को त्रिलोकी भर में पूजा जाता है, और यही देवी सबकी अधीश्वरी है, एक समय की बात है कि पर्वत राज हिमालय ने कठोर तप कर माँ योगमाया को प्रसन्न किया, जब योगमाया के उनको दिव्य दर्शन हुये तो माता ने हिमालय को वर माँगने को कहा, तब पर्वत राज हिमालय ने योगमाया से कहा कि वे उनके घर पुत्री के रूप में जन्म लेँ, माता ने प्रसन्न हो कर पर्वत राज हिमालय के घर जन्म लिया, हिमालय की पुत्री पार्वती के रूप में हिमाचल के घर पैदा हुई, पर्वत राज की पुत्री होने के कारण व कठोर तपस्वी सवभाव के कारण उनका नाम शैल पुत्री पड़ गया, माता शैल पुत्री का भक्त जीवन में कभी हारता नहीं, दुःख कोसों दूर से भक्त को देख कर भाग जाते हैं, शैल पुत्री के भक्त दृद निश्चयी, विश्वविजेता होते हैं, यदि आप सदा भयभीत रहते हों, जीवन कि सही दिशा नहीं ढून्ढ पा रहे हों, उदास जीवन में कोई सहारा न बचा हो, सब और शत्रु ही शत्रु हो गए हों, तो माता को मनाने का सबसे सही वक्त आ गया है, अब माता की पूजा आपकी सदा रक्षा करेगी,शुम्भ-निशुम्भ जैसे राक्षसों का नाश करने वाली देवी आपके जीवन के सब संकट हर लेगी, नवरात्रों में देवी स्वयं भक्तों के पास चल कर आती हैं, केवल उनको सच्चे मन से पुकारने की जरूरत होती है, आज हम आपको बताएँगे कि कैसे होंगी देवी शैलपुत्री प्रसन्न, वो कौन से मंत्र हैं जो माँ को खींच कर आपकी और ले आयेंगे, वो कौन सा यन्त्र हैं जिसकी सथापना से शैलपुत्री की सथापना हो जायेगी, किस रंग के वस्त्र माता को पहनाएं अथवा माता का श्रृंगार कैसे करें ? यदि आप ब्रत कर रहे हैं तो आज हम आपको बताएँगे सही बिधि-बिधान जो माता कि कृपा ले कर आएगा
हिमालय के घर पैदा होने के करण देवी का नाम पड़ा शैलपुत्री,शैलपुत्री माँ पार्वती जी का ही नाम है , कठोर तपस्वी स्वभाव के कारण भी देवी को शैल पुत्री कहा जाता है , देवी शैलपुत्री का भक्त जीवन में कभी नहीं हारता, देवी का नाम भर लेने से दुःख कोसों दूर से भाग जाते हैं, देवी को प्रसन्न करने के लिए पहले नवरात्र के दिन दुर्गा सप्तशती के पहले अध्याय का पाठ करना चाहिए, जब भी पाठ करें तो पहले कुंजिका स्तोत्र का पाठ करें, फिर कवच का अर्गला स्तोत्र फिर कीलक स्तोत्र का पाठ करना चाहिए, सकाम इच्छा के लिए तो विशुद्ध संस्कृत में ही पाठ होना चाहिए लेकिन निष्काम भक्त हिंदी में व संस्कृत दोनों में पाठ कर सकते हैं, यदि आप किसी मनोकामना की पूर्ती के लिए दुर्गा सप्तशती का पाठ कर रहे हैं तो कीलक स्तोत्र के बाद रात्रिसूक्त का भी पाठ करें, यदि आप ब्रत कर रहे हैं तो देवी के नवारण महामंत्र का जाप पूरे नवरात्र भर करते रहें
महामंत्र-ऐं ह्रीं क्लीं चामुंडायै बिच्चे (शब्द पर दो मात्राएँ लगेंगी काफी प्रयासों के बाबजूद भी नहीं आ रहीं)
देवी शैलपुत्री को प्रसन्न करने के लिए पहले दिन का प्रमुख मंत्र है
मंत्र-ॐ ग्लौम ह्रीं ऐं शैलपुत्री देव्यै नम:
दैनिक रूप से यज्ञ करने वाले इसी मंत्र के पीछे स्वाहा: शब्द का प्रयोग करें
जैसे मंत्र-ॐ ग्लौम ह्रीं ऐं शैलपुत्री देव्यै स्वाहा:
माता के मात्र का जाप करने के लिए स्फटिक या रत्नों से बनी माला स्रेष्ठ होती है, माला न मिलने पर रुद्राक्ष माला या मानसिक मंत्र का जाप भी किया जा सकता है, यदि आप देवी को प्रसन्न करना चाहते हैं तो उनका एक दिव्य यन्त्र कागज़ पर बना लेँ
यन्त्र-
578 098 395
842 576 998
224 862 627
यन्त्र के पूजन के लिए यन्त्र को गुलाबी रंग के वस्त्र पर ही स्थापित करें, पुष्प,धूप,दीप,ऋतू फल व दक्षिणा अर्पित करें, शैलपुत्री देवी का श्रृंगार गुलाबी रंग के वस्त्रों से किया जाता है, इसी रंग के फूल चढ़ाना सरेष्ट माना गया है, माता को लाल चन्दन, सिंगार व नारियल जरूर चढ़ाएं, माता की पूजा सुबह और शाम दोनों समय की जाती है, शाम की पूजा मध्य रात्री तक होती है और रात्री की पूजा का ही सबसे ज्यादा महत्त्व माना गया है
मंत्र जाप के लिए भी रात्री के समय का ही प्रयोग करें, यदि आप पूरे नवरात्रों की पूजा कर रहे हों तो एक अखंड दीपक जला लेना चाहिए, देवी की पूजा में नारियल सहित कलश स्थापन का बड़ा ही महत्त्व है, आप भी एक कलश में गंगाजल भर कर अक्षत (चाबलों) की ढेर पर इसे स्थापित करें, पूजा स्थान पर एक भगवे रंग की ध्वजा जरूर स्थापित करें जो सब बाधाओं का नाश करती है, देवी के एक सौ आठ नामों का पाठ करें
यदि आप किसी ऐसी जगह हों जहाँ पूजा संभव न हो या आप बालक हो रोगी हों तो आपको पहले नवरात्र देवी के बीज मन्त्रों का जाप करना चाहिए,
मंत्र-ॐ ग्लौम ह्रीं ऐं
मंत्र को चलते फिरते काम करते हुये भी बिना माला मन ही मन जपा जा सकता है, देवी को प्रसन्न करने का गुप्त उपाय ये है कि देवी के वाहन बृषभ यानि कि बैल कि पूजा करनी चाहिए तथा बैलों को भोजन घास आदि देना चाहिए, मंदिर में त्रिशूल दान देने से समस्त मनोकामनाएं पूरी होती है व देवी कि कृपा भी प्राप्त होती है, मूलाधार चक्र में देवी का ध्यान करने से प्रथम चक्र जागृत होता है और ध्यान पूरवक मंत्र जाप से भीतर देवी के स्वरुप के दर्शन होते हैं, प्राश्चित व आत्म शोधन के लिए पानी में शहद मिला कर दो माला चंडिका मंत्र पढ़ें व जल पी लेना चाहिए
चंडिका मंत्र-ॐ नमशचंडिकायै
ऐसा करने से अनेक रोग एवं चिंताएं नष्ट होती हैं, पहले दिन की पूजा में देवी को मनाने के लिए गंगा जल और तीन नदियों का जल लाना बहुत बड़ा पुन्य माना जाता है, दुर्गा चालीसा का भी पाठ करना चाहिए
नवरात्रों में तामसिक आहार से बचाना चाहिए, दिन को शयन नहीं करना चाहिए, कम बोलना चाहिए, काम क्रोध जैसे विकारों से बचना चाहिए, सुहागिन स्त्रियों को श्रृंगार करके व मेहंदी आदि लगा कर ही सौभाग्यशालिनी बन ब्रत व पूजा करनी चाहिए, यदि आप सकाम पूजा कर रहे हैं या आप चाहते हैं की देवी आपकी मनोकामना तुरंत पूर्ण करे तो स्तुति मंत्र जपें, स्तुति मंत्र से देवी आपको इच्छित वर देगी, चाहे घर, वाहन, की समस्या हो या कोई गुप्त इच्छा, इस स्तुति मंत्र का आप जाप भी कर सकते हैं और यज्ञ द्वारा आहूत भी कर सकते हैं,
देवी का सहज एवं तेजस्वी स्तुति मंत्र
ॐ ह्रीं रेत: स्वरूपिन्ये मधु कैटभमर्दिन्ये नम:
नम: की जगह यज्ञ में स्वाहा: शब्द का उच्चारण करें
व देवी की पूजा करते हुये ये श्लोक उचारित करें
ॐ ज्ञानिनामपि चेतांसी देवी भगवती ही सा
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति
यदि आप किसी शक्ति पीठ की यात्रा पहले नवरात्र को करना चाहते हैं तो किसी परवत पर स्थित शक्ति पीठ पर जाना चाहिए, देवी की पूजा में यदि आप प्रथम दिवस से ही कन्या पूजन कर रहे हैं तो आज प्रथम नवरात्र को एक कन्या का पूजन करें, कन्या पूजन के लिए आई कन्या को दक्षिणा के साथ पत्थर का एक शिवलिंग देना चाहिए जिससे अपार कृपा प्राप्त होगी, सभी मंत्र साधनाएँ पवित्रता से करनी चाहियें, प्रथम नवरात्र को अपने गुरु से "बज्र दीक्षा"लेनी चाहिए, जिससे आप पूर्व जन्म की स्मृति व भविष्य बोध की स्मृति शक्ति प्राप्त कर देवी को प्रसन्न कर सकते हैं, प्रथम नवरात्र पर होने वाले हवन में गुगुल की मात्रा अधिक रखनी चाहिए व गूगुल जलना चाहिए, ब्रत रखने वाले फलाहार कर सकते हैं, एक समय ब्रत रखने वाले प्रथम नवरात्र का ब्रत सवा आठ बजे खोलेंगे,ब्रत तोड़ने से पहले देवी की पूजा कर बूंदी का प्रसाद बांटना चाहिए, श्रृंगार अवश्य करें,किन्तु अति और अभद्र श्रृंगार से बचाना चाहिए न ही ऐसे वस्त्र धारण करने चाहिए, भजन व संस्कृत के सरल स्त्रोत्र का पाठ और गायन करें या आरती का गायन करना चाहिए
-कौलान्तक पीठाधीश्वर
महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी महाराज
रस का अर्थ होता है पारा और पारा शिव का तेजस कहलाता है। शिव अघोर हैं और उनकी प्रिय धातु पारा भी उनसा ही अघोर है। शिव और पारे के अनेकों अनसुलझे रहस्य हैं, जिनकी कोई थाह नहीं। जिस प्रकार ह्रदय के रस भाव होते हैं, उसी प्रकार धातुओं का भाव और रस पारे में हैं। पारा यूँ तो एक तरल धातु है लेकिन ये सिद्धों का बड़ा ही प्रिय है। प्राचीन काल से भारत से ले कर मिस्र, रोम, यूनान, चीन, फारस सहित लगभग सभी स्थानों पर पारे का रहस्यमय प्रयोग किया गया है। जिसे उनहोंने अपने-अपने नाम दिए। हम बात भारत की करते हैं जहाँ पारद विज्ञान रस शास्त्र के अंतर्गत आता है जिसे "रस वेद" भी कहा गया है। हिमालय के सिद्धों नें पारे से भस्म बना कर अनेकों-अनेक जटिल रोगों का उपचार किया है व सिद्ध नाम की चिकित्सा पद्धति संसार को दी, जो आज भी प्रचलित है, अनेकों वृहद् भाग हैं। लेकिन हम आपको वो कारण बताने बताने जा रहे हैं जिस कारण पारद विज्ञान दुनिया भर में फैला।
१) लोहे और ताम्बे जैसी धातुओं को स्वर्ण में बदलना-शिव स्वयम शक्ति को आगम निगमों में ये बताते हैं की "देवी पारद सर्वश्रेष्ठ है और उसमें मेरा निवास है। पारद को कल्पवृक्ष जानना चाहिए। यदि कोई सिद्ध पारे को बाँध कर उसके संस्कार भली प्रकार कर ले तो वो पदार्थ परिवर्तन सहित कई गोपनीय सिद्धियों को प्राप्त कर सकता है। किन्तु रस को बांधना पाप के अंतर्गत आता है। इसलिए मैं ये अधिकार केवल शैव और कौलाचारियों को प्रदान करता हूँ। इस गोपनीय विद्या को पापी, कुकर्मी, व्यसनी, अपराधी, व्यभिचारी, अश्रद्धावान और अदीक्षित को कभी भी प्रदान नहीं करना चाहिए। देवी! इस विद्या द्वारा निश्चित ही धातुओं को स्वर्ण अथवा चंडी में परिवर्तित किया जा सकता है। इसी विधि द्वारा अनेकों गुप्त कामना सिद्धि मणियों का निर्माण किया जा सकता है। चिंतामणि, लालमणि, दिव्यमणि, अमृतमणि, तेजस मणि, पारस मणि आदि का निर्माण इसी पारद क्रिया द्वारा होता है। कायाकल्प , चिरंजीवी व नित्य तरुण आदि क्रियाएं भी इसी विद्या से संभव हैं। रसायन सब पर फलीभूत नहीं होता क्योंकि ये कोई सांसारिक विद्या नहीं है, की जिसका सब पर एक सामान प्रभाव हो। गुरु भक्त, नाथ कुल सेवक, शक्ति संगम मार्गीय, सूर्योपासकों सहित मेरे भक्त ही इस विद्या के रहस्यों को जान पाते हैं।"-रसेश्वर कौतुक तंत्र
यही कारण रहा की विश्व भर से बड़े-बड़े तन्त्रचारी, आयुर्वेदाचारी, चिकित्सक, ज्योतिषी, नक्षत्रवेता, सम्राट व जादूगर-जादुगरनियाँ इस विद्या को सीखने के लिए भारत के दुर्गम हिमालयों तक पहुंचे। कश्मीर, कुलूत, महाचीन, त्रिगर्त , कामख्या, बंगाल, वीरक्षेत्र व नेपाल आदि देशों में इस विद्या का बहुत प्रचार था क्योंकि ये भूमि सिद्धों व नाथो की गोपनीय साधना भूमि थी। पराचीन सिद्ध और नाथ शैव और शाक्त थे व तंत्रमार्गी थे। इन सिद्धों की भैरवियां व स्वयं सिद्ध कभी बूढ़े नहीं होते थे, साथ ही इनकी आयु सैकड़ों वर्ष होती थी। यही सिद्ध भारत के राजाओं व व्यापारियों को अपनी सेवाओं के बदले स्वर्ण व चाँदी दिया करते थे। जिस कारण भारत सबसे ज्यादा सोने-चांदी वाला देश बन गया। इतना सोना-चंडी हुआ की देश को कई-कई बार लूट लेने के बाद भी सोना-चांदी कम नहीं हुआ। बड़े-बड़े जादूगर सिद्ध किये गए पारे को हासिल करने के लिए विश्व भर से भारत आने लगे। वो यहाँ से सिद्ध पारा ले जा कर उससे अपने-अपने देशों में चमत्कार करते और धन व शौहरत कमाते। जादुगरनियाँ और सम्राट लम्बी आयु और खोई जवानी वापिस पाने की चाहत में सिद्ध पारद हासिल करने भारत आते। बड़े-बड़े ज्योतिषी संस्कारित पारद गुट्टीका को हासिल करने के लिए नाथ सिद्धों की सेवा करते और गुट्टीका मिलने पर अपने देश जा कर सटीक भविष्यवाणियाँ करते। सबसे अनोखा विषय तो ये है की सिद्ध पारद को छूने से ही बहुत से असाध्य रोग तीन दिन के भीतर ठीक हो जाते थे। इसलिए मिस्र जैसे क्षेत्रों के लोग भी सिद्ध पारद के लिए कौलदेश यानि भारत आते। सबसे मजेदार बात तो ये है की पारा भारत में तब आसानी से उपलब्ध नहीं था। सारा पारा विदेशों से ही लाया जाता था। जिसे लाना आसान नहीं होता था क्योंकि पारा पृथ्वी की सबसे भारी धातु है। मणियाँ बनाने के लिए विश्व के लगभग हर महाद्वीप के सम्राट या उनके प्रतिनिधि कौलदेश यानि भारत आये और शुभ नक्षत्रों व काल में बनी मणियाँ अपने साथ ले गए।
२)दिव्य आध्यात्मिक और जदुआई शक्तियां-पारे के अनेक शोधन व संस्कार होते हैं, जिससे पारा सिद्ध हो जाता है। पारे के पूर्ण १०८ संस्कार होते है। जिनमेंसे १६ अति प्रमुख हैं व २६ संस्कारों तक का विवरण ग्रंथों में आपको मिल जाएगा। लेकिन मंत्र बद्ध और तांत्रोक्त पारा बेहद चमत्कारी हो जाता है। जिसका मनचाहा प्रयोग हो सकता है। जैसे प्राचीन विमान सिद्ध पारे की ऊर्जा से उड़ान भरते थे, कुण्डलिनी जागरण व शक्तिपात प्राप्त व प्रदान करने के लिए पारद का प्रयोग गुप्त रूप से होता था। सिद्ध पारे के प्रयोग से ही तांत्रिक जलगमन, वायुगमन व अदृश्य होने जैसी क्षमताएं प्राप्त करते थे। चक्रवर्ती सम्राट पारे का सेवन वीर बनने हेतु किया करते थे। साथ ही पारे के सिद्ध शिवलिंग की पूजा कर अजेय व मृत्युजयी हो जाते थे। सिद्ध पारद के आध्यात्म में इतने प्रयोग थे की जिनको बताना यहाँ संभव ही नहीं है। संक्षेप में कहा जाए तो तंत्र के षट्कर्म पारद विज्ञान के लिए खेल ही थे।
ये दो बड़े कारण रहे की विश्व का कोई देश या बुद्धिजीवी रसायन और पारद विज्ञान से अछूता नहीं रहा। यही रसायन और पारद विज्ञान आधुनिक कैमिस्ट्री का जनक है ये बात सभी जानते हैं। हालांकि आधुनिक कैमिस्ट्री तत्व की ठीक-ठीक भौतिक व्याख्या करता है व सभी प्रश्नों का ठीक उत्तर भी देता है। स्वयं "ईशपुत्र कौलान्तक नाथ" आधुनिक कैमिस्ट्री के छात्र रहे हैं। लेकिन आधुनिक कैमिस्ट्री केवल तत्वों के दृश्य विज्ञान को ही आधार मानती है जबकि प्राचीन रसायन शास्त्र का मानना है की धातुओं आदि में अपने कुछ पारलौकिक गुण होते हैं। बस यहीं से आधुनिक और प्राचीन अलग होते हैं अन्यथा दोनों में कोई ज्यादा भेद नहीं है। प्राचीन समय में रसायन को बड़ा ही श्रेष्ठ स्थान प्राप्त था लेकिन भारत को अपनी विद्याओं की अधिक प्रसिद्धि का खामियाजा भुगतना पडा और न विद्यायों को हासिल करने के लिए अनेक देशों के राजाओं और हमलावरों नें ग्रथों को लूट लिया व कई सिद्धों को उठा कर अपने देश ले गए और जो नहीं माने उनका बढ़ कर दिया। जिससे नए विद्यार्थियों नें भय के कारण इसे सीखना कम कर दिया और इसके जानकार एकांत में अपने प्रयोगों के लिए चले गए। आज रसायन यानि रस वेद को आधुनिक विज्ञान केवल एक कल्पना और कैमिस्ट्री का कम ज्ञान मानता है। वर्तमान काल में अब इसके जानकारों का मिलना ही अपने में बड़ी बात हो गई है। तथाकथित बुद्धिजीवियों ने ऐसा वातावरण दुनिया भर में बना दिया है की कोई भी इस पुरानी विद्या पर काम न कर सके, इसलिए इसके विरुद्ध किताबे लिखी गई, सेमीनार किये गए, पर्दाफाश जैसी कार्यशालाएं लगाई गई और इसे अंधविश्वास करार दे दिया गया। अब हालत ये है की न तो कोई इसे सीखेगा और ना ही किसी को सीखने दिया जाएगा। यदि आप और हम प्रयास करते हैं तो कहा जाएगा की ये गुमराह कर रहे हैं और धन हड़पने की साजिश रच रहे हैं साथ ही कानूनी कार्यवाही की धमकियां देंगे। लेकिन हम कहते हैं की पैसा हमारा है, हमने कमाया है और हम अपना प्रयोग करना चाहते हैं और उसमें धन लगायेंगे, क्योंकि ये हमारी स्वतंत्रता है। भले ही कुछ मिले या ना मिले।
चंद शब्दों में इतना बता देने से ही शायद आपको पारे और रसायन का महत्त्व पता चल गया होगा। लेकिन ये सब बताने का अर्थ ये बिलकुल नहीं की आप प्रस्तुत साधन करें ही करें। हम आपको कोई लालच या धोखा नहीं दे रहे व आपको वैधानिक रूप से चेतावनी देते हैं की आप हमारी साधनाओं व प्रयोगों में शामिल ना हों व दक्षिणा आदि ना दें। ये सभी प्रयोग व साधनाएँ केवल "कौलान्तक सम्प्रदाय" को मानने वालों के हैं। यदि इसके बाबजूद भी आप हमें प्रार्थना भेजते हैं तो उसके जिम्मेवार आर्थिक, मानसिक व शारीरिक रूप के साथ साथ समय हानि के आप स्वयं जिम्मेवार होंगे। यदि आपको लगता है की कोई ऐसी विद्या थी और खोजी जानी चाहिए व सीखी जानी चाहिए तो आप तभी अपने बुद्धि विवेक का प्रयोग कर साधना में सम्मिलित हों।
कुछ बातों का विशेष ध्यान रखें-
१) पारद विज्ञान और रसायन विज्ञान को कुशल मार्गदर्शक व कौल गुरु अथवा महाचेतना के सान्निध्य में ही संपन्न करें क्योंकि ये विज्ञान जटिलतम व गोपनीय होने के साथ ही अत्यंत प्राणघातक है। आपकी असावधानियों से व गुरु आज्ञा अह्वेलना से आपकी जान जा सकती है या स्थिति गंभीर हो सकती है। याद रखें की किताबों से देख कर या इंटरनेट देख कर अथवा कहीं पढ़-सुन कर रसायन और पारद के प्रयोग बिलकुल ना करें। अन्यथा स्थिति ऐसी हो सकती है की ना तो प्राण जाएँ और ना ही आप ठीक हों।
२) सिद्ध पंथ और नाथ पंथ में ये ज्ञान परम्परानुगत है। हिमालय के सिद्धों कौलाचारियों और महयोगियों को पारद विज्ञान व रसायन का पूर्ण ज्ञान होता है अत: उनकी कहानियां सुन कर वैसा ही करने का प्रयास ना करें। उनके पास जो पारा होता है वो रासायनिक विधियों व औषधियों द्वारा शोधित व मर्दित किया गया होता है। जिसमें कोई भी हानिकारक तत्व नहीं होते। बल्कि वो पारद अत्यंत बलशाली व चमतकारी होता है।
३) पारे को अभक्ष्य यानि नहीं खाए जाने वाला तत्व कहा गया है।पारा पूरी तरह से जहरीला होता है इसलिए किसी भी कारण इसका सेवन नहीं करना चाहिए। पारद भस्म का सेवन करने से पहले चिकित्सक की राय व पारद भस्म की शुद्धता का आंकलन करना बेहद जरूरी है क्योंकि ये आपकी जिंदगी का प्रश्न है। संस्कार करने के बाद भी पहले पारे का परीक्षण किया जाता है की कहीं ये जहरीला तो नहीं। इसके बाद कुशल गुरु और योग्य चिकित्सक की देख रेख में ही सिद्ध पारद गुट्टीका व भस्म का सेवन आदि किया जाता है। हम एक बार फिर आग्रह करते हैं की आप पारे का सेवन बिलकुल ना करें व इससे दूर ही रहें।
४) पारे को गर्म करने से बचें व पारद प्रयोगों के दौरान उत्पन्न होने वाली अत्यंत विषैली गैसों से विशेष सावधानी रखें। पारद व रसायन प्रयोगों के लिए कहीं दूर एकांत में अपने यंत्र आदि स्थापित कर ही पारद और रसायन प्रयोग करना चाहिए। पारे को मुख बंद पात्र में रखें व बच्चों की पहुँच से दूर रखें। यदि आपका प्रयोग संपन्न नहीं हुआ या किसी कारण पारे का प्रयोग नहीं हो सका तो उसे हर कहीं ना फेकें। क्योंकि पारे को फैकना शिव द्रोह कहलाता है। अत: पारे को किसी कबाड़ी या किसी प्रयोगशाला को दे दें। कसी भी कीमत पर नदी या पानी में पारे को ना फेकें।
५) आयुर्वेदिक जडी-बूटियों व अम्ल, रसायन का प्रयोग सावधानी से करें। अम्ल से अपनी त्वचा, आँखों को बचाए रखें व अम्लीय साँसे ना ले ये फेफड़ों को तुरंत गंभीर हानि पहुंचाता है। कहने तात्पर्य ये है की हर और से आपको पूर्ण सावधानी रखनी होगी। हाथों में आधुनिक चिकित्सीय दस्ताने पहन कर ही पारे को अपने हाथों में लेना चाहिए। हालांकि सावधान साधक सीधे अपने हाथों पर भी इसे ले सकता है। लेकिन थोड़ी सी मात्रा का शरीर में जाना कभी-कभी बड़ी मुसीबत बन सकता है।
६) क्योंकि ये सारी प्रणाली साधनात्मक है ना की कैमिस्ट्री इसलिये आपका सर्वप्रथम रसायन में अधिकार होना चाहिए। जो आपको गुरु दीक्षा यानी की "रसेश्वरी दीक्षा" से प्राप्त होगा। "रसेश्वरी साधना" ही पारद और रसायन की प्रथम साधना है जिससे आपको निश्चित ही अद्भुत सफलताएँ प्राप्त होती हैं। लेकिन "रासेश्वरी साधना" भी अपने आप में एक खतरनाक साधना दीक्षा है अत: किसी प्रकार की हानि ना हो इसलिए साधक को "स्वर्णाकर्षण भैरव" के मन्त्रों का जाप व साधना नित्य करनी चाहिए। जिससे अखंड धन लाभ व स्वर्ण की प्राप्ति होती है।
७) ये समस्त प्रयोग शिव आधीन है व श्रीविद्या के अंतर्गत आते हैं। इसलिए आपको देवक्रम का ध्यान पूजन भी करना होगा जैसे की देवी महालक्ष्मी जी का पूजन, श्री गणेश जी का पूजन, श्री कुबेर जी का पूजन आदि। "कौलान्तक सम्प्रदाय" में शिव के रूद्र स्वरूप की कुल्लुका का कुलाचार विधि से शिरोस्थापन किया जाता है। याद रहे की यदि आपको कभी शैव और शाक्त दो पारद और रसायन सिद्धांत मिलें तो आपको शैव सिद्धांत को ही प्रमुखता देनी चाहिए। क्योंकि शक्त मत में दैत्य मत भी मिश्रित है जो आपको कभी भी हानि पहुंचा सकता है। किन्तु "कौलान्तक संप्रदाय" के साधक दोनों को करने के सर्वथा योग्य है क्योंकि ये ज्ञान "गुरु शुक्राचार्य" द्वारा कौल मत को दिया गया है।
८) जब भी आप पारे को ठोस करें तो सबसे पहले "पारद शिवलिंग" नहीं बनाना चाहिए, क्योंकि पारद शिवलिंग को पूर्ण विधि व समय, काल गणना व शिव वास के अनुसार बनाना चाहिए। अन्यथा कभी भी पारद और रसायन के क्षेत्र में सफलता नहीं मिलेगी। ये अमोघ वचन है।
९ ) पारद विज्ञान और रसायन में "ईशपुत्र-कौलान्तक नाथ" को भैरवी मृगाक्षी जी व उनके दिव्य गुरु "श्री सिद्ध रसेश्वर नाथ जी महाराज" से भी अनन्य ज्ञान प्राप्त हुआ है। स्वयं भैरवी मृगाक्षी नें "गुह्य मुद्रा पारद" बना कर "कौलान्तक पीठाधीश्वर महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी महाराज" को दिया है कहा जाता है की इसका प्रयोग विपत्ति काल में करने पर "ईशपुत्र" संसार की किसी भी स्त्री से मनचाहा कार्य करवा सकते हैं। लेकिन ये सिद्ध पारद "ईशपुत्र" नें हिमालय की गुप्त गुफाओं में योग्य समय के लिए छुपा कर रखा है। ऐसी कथा और मान्यता "कौलान्तक सम्प्रदाय" में प्रसिद्द है
१०) याद रखें की इस विद्या के बहुत से मंत्र है जो की कौलक्रम, चीनक्रम, समयक्रम, संहारक्रम, अघोरक्रम सहित वामक्रम आदि अनेकों क्रमों में विभक्त है। योग्य गुरु ही इसे जानता है व बता सकता है। प्राचीन हस्तलिखित पांडुलिपियों में व भूत लिपि सहित टांकरी लिपि में इसके बहुत से विधान, प्रयोग व मंत्र वर्णित हैं। इस ज्ञान के अभाव में बेचारे दीन-हीन साधक संस्कृत के स्तुति स्त्रोतों से काम चलाते हैं जैसे की श्री सूक्त, सुवर्णधारा, कनक धारा स्तोत्र आदि आदि व ऐसे निम्न याचक मंत्रो से पूजन करते हैं जो की भिखारी वृत्ति के होते हैं अथवा अच्छी भाषा में कहा जाए तो दास भाव के होते हैं जैसे यशम देहि, धनम देहि, सौभाग्यम देहि आदि-आदि। पारद और रसायन याचना का नहीं वीर भाव का विषय है साथ ही इसमें कुबेर, लक्ष्मी की प्रधानता नहीं वरन माँ योगमाया शक्ति के "रसेश्वरी स्वरूप" की ही प्रधानता रहती है और उनकी साधना की जाती है।
११) यदि आपको सौभाग्य से "रसेश्वरी मंडल व आवरण पूजा" का अवसर मिल जाए, तो जानना चाहिए की आप वास्तव में पारद विज्ञानी व रसायनी साधक होने के लायक है व एक दिन अवश्य रसेश्वर बन पायेंगे। आपकी श्रद्धा, भक्ति व ईशपुत्र के प्रति एक अखंड निष्ठा आपको सर्वोच्च बना कर ही रहेगी तो पारद और रसायन एक भाग भर ही हैं।
इस तरह ये तो केवल एक झलक हमने यहाँ प्रस्तुत की है लेकिन ये बहुत गंभीर, बड़ा और रोमांचक है। समझ नहीं आता की इसकी शुरुआत कहाँ से की जाए। लेकिन जब स्वयं "ईशपुत्र" हैं तो इसकी चिंता हमें नहीं करनी चाहिए। भारत की अति दुर्लभ विद्या को सीखना व ऋषियों के अद्भुत ज्ञान से परिचित होना अपने आप में बड़ी संपत्ति है। यहाँ अब हम इससे अधिक नहीं बताने वाले क्योंकि ये वेबसाईट सार्वजनिक मंच है और इस ज्ञान पर केवल सर्वोच्च अवतारी साधकों का ही अधिकार है अन्यों के लिए इसकी कथा सुनना ही पाप नाशक माना गया है। शिव के ज्ञान पर उनके निरंकुश साधकों का अधिकार होता है और मातृभूमि के तेज से ये विद्या सीखने का महाअवसर अब आपके सम्मुख है। तो बोलो "जय भोले नाथ-सदा हमारे साथ"।-कौलान्तक पीठ टीम-हिमालय।
इस साधना में योग्यता व पात्रता हेतु आपको "स्वर्णाकर्षण भैरव" के मन्त्र का रुद्राक्ष की माला पर उन्नीस माला का मंत्र जाप करना होता है।
'कौलान्तक पीठ' प्रस्तुत करता है 'महाविद्या महाकाली' जी का 'कौलक्रमानुसार' दिव्य अति प्रभावशाली मंत्र। समस्त संकटों से मुक्ति, देवी की अनुकम्पा व तेजस्विता के साथ-साथ नकारात्मकता नष्ट करने में प्रस्तुत मंत्र का कोई सानी नहीं है। भक्त देवी को प्रसन्न करने हेतु नि:संकोच प्रस्तुत मंत्र का जाप व गायन कर सकते हैं-कौलान्तक पीठ टीम-हिमालय।
kreem kreem rim reem lrim lreem kreem kreem hum kalike rim reem lrim lreem kreem kreem rim reem lrim lreem swaha
क्रीं क्रीं ऋं ॠं लृं ॡं क्रीं क्रीं हुं कालिके ऋं ॠं लृं ॡं क्रीं क्रीं ऋं ॠं लृं ॡं स्वाहा ॥
'कौलान्तक पीठ' का एक बड़ा दर्द ये है कि हम तो सारे मन्त्रों को प्रकट कर भी दें। लेकिन साधक केवल हमारी ओर ही निहारते हैं, उन्हें भी अपनी पात्रता और अपने अध्ययन को बढ़ाना चाहिए। हम पर उंगली करने से पहले अपनी ओर करें। ब्रह्माण्ड अनंत और अथाह है ज्ञान भी, लेकिन इसे जानने वाले बेहद कम होते हैं। वैसे हमारी सबसे बड़ी गलती ये है कि हम 'हिन्दू धर्म' के एक छोटे से संप्रदाय से हैं। जिसे मिटाने का श्रेय बाहरी तत्वों,षडयंत्रों, धर्मों,सम्प्रदायों के अतिरिक्त कुछ 'हिंदुओं' को भी जाता है। क्योंकि वो 'शिव शक्ति' के ज्ञान से ही विमुख हो गया है। समकालीन गुरुओं और संतों को भेद कर 'ऋषि-मुनियों' तक देखने की क्षमता समाप्त हो रही है। 'कलियुग' के गुरु और संत क्या कहते हैं इसके उदहारण देते हैं………लेकिन ऋषियों नें और 'स्वयं शिव' नें क्या कहा है, उसे कौन जानेगा? खैर!
ये ज्ञान हमारा नहीं 'महादेव' का है। आज प्रस्तुत है 'श्यामा कौलिनी कुरुकुल्ला मन्त्र', ये मंत्र भगवती की कृपा प्रदान करने वाला मंत्र है। तो 'ईशपुत्र-कौलान्तक नाथ' का आशीर्वाद इस मन्त्र के रूप में स्वीकार कीजिये। ये मंत्र देशज मंत्र यानि 'शाबर मंत्र' है।
'कौलान्तक पीठ हिमालय' प्रस्तुत करता है 'कौलक्रमानुसार' 'विश्वकर्मा तंत्रोक्त मंत्र '. ये मंत्र 'विद्या और कलाओं' में निपुणता के साथ-साथ, भवन-वाहन आदि का सुख भी प्रदान करता है। निर्माण कलाओं और आवष्कारों व नए विचारों सहित 'विश्वकर्मा जी' को प्रसन्न करने के लिए इस स्तुति मंत्र को साधा जाता है। बिना 'विश्वकर्मा' के निर्माण सिद्धि अधूरी रहती है। आशा है कि आपको प्रस्तुत मंत्र विशेष लाभ प्रदान करेगा व आपको जीवन में सफलताएं प्राप्त होंगी-कौलान्तक पीठ टीम-हिमालय।
-----------------------------------------------विश्वकर्मा स्तुति मंत्र (कौलक्रम)----------------------------------
ॐ नमस्ते-नमस्ते कंबीघराय ॐ आघ्रात्मने श्री भूकल्पाय श्री विश्वबल्लभे विश्वकर्मणे आगच्छ-आगच्छ कला-कौशलं वरं प्रयच्छ- वरं प्रयच्छ।
om dhum dhum dhum troum dhun gyoum sah Vastoshpate reem rem reem Vishwkarmane Swaha.
ॐ धुं धुं धुं त्रों धुं ज्ञों स: वास्तोष्पतये ऋं रें ऋं विश्वकर्मणे स्वाहा।
आज मै एक "संदेश" देना चाहूंगा । वो संदेश "मेरा" नहीँ है, वो संदेश "सिद्धों का संदेश" है । इस संदेश को "विस्तृत" करके
समझिये । उसके लिए पहले हम "भूमिका" पर जाते हैं । एक समय
था जब मनुष्य अलग -अलग हिस्सों में बटकर मानव के विकास को सुनिश्चित करने के लिए कार्य कर रहा था । तब "सिद्धों" का एक ऐसा
समाज स्थापित हुआ, जिन्होने "योग", "ज्योतिष", "धर्म- आध्यात्म"
सहित "चिकित्सा", "कला", "युद्ध" और भी न जाने "गायन"
सहित कितनी "ललित कलाओं" और "विद्याओं" को
जन्म दिया । उन्होने मानव जीवन को "सुखी"
बनाने के लिए बड़े प्रयास किये । हालाँकि राजशाही के
दौरान इन परंपराओं का बहोत हद तक "निर्वहन" भी
होता रहा । लेकिन धीरे-धीरे राजशाही बहुत
छोटे-छोटे टुकड़ो में बट गई| छोटे-छोटे राजा हो गये । और
छोटी-छोटी उनकी सीमाएं और
उसके भीतर प्रजा । उनको "विकास" का वो समय
नही प्राप्त हो सका, जो उन्हें होना चाहिए था । इस
कारण "महान ज्ञान सम्राज्य" की
"खोज" उन "सिद्धों" ने की, वो सब तक जस का तस
नही पहुच सका । "नव नाथ", "चौरासी सिद्धों"
ने बहुत पूर्व में इन क्षेत्रों में "ज्ञान का प्रादुर्भाव" किया| उसको
जाना, समझा, "ऋषियों की परंपराओं" को अपने
जीवन में उतारा और "अनुभव" करके जब उन्हें "पूर्ण"
पाया, तो "मानवता की सेवा" में उन्हें "समर्पित" कर दिया ।
भारत में "सिद्धों का धर्म" एक ऐसा "धर्म" है, जो किसी
"दूसरे धर्म" की "निन्दा अथवा आलोचना" नहीँ
करता । उसे "किसी धर्म" से "नफरत" ही
नहीँ है । उसे "किसी धर्म" या "धर्म के
व्यक्ति", "उसके शीर्ष पे बैठे व्यक्तियों" से
भी कोई "परेशानी" नहीँ है ।
इस "सिद्धों" की "भूमि", जहाँ हम "समस्त सिद्ध",
"योगी" और "यति" रहते हैं, वो "हिमालय" है । इसके "दो
प्रारूप" हैं, एक तो वो प्रारूप जो नजर आ रहा है, ये स्थूल है ।
जब चेतना जागृत होती है, तो इसके उपर एक
"सूक्ष्म हिमालय" है । जिस पर अन्य "सिद्ध" रहते हैं । जहाँ जाने
के लिए "पात्रता" और "योग्यता" चाहिए । लेकिन सिद्धों की
उस भूमि में किसी "एक जाति", किसी "एक
धर्म", किसी "एक वर्ण" अथवा किसी "एक
लिंग" का "व्यक्ति" अथवा "साधक" नही है । अपितु
सभी धर्म के प्रधान, सभी धर्म के
उच्च कोटि के व्यक्ति वहाँ विद्यमान हैं ।
"सिद्धों" ने "समाज" को बाँटा
नही, नाथों ने समाज को "जातिप्रथा" नही
दी । उन्होंने कभी "वर्ण" और "व्यक्ति" में
"भेद" नहीं किया । उन्होंने "आस्तिक" और "नास्तिकों" में
भी भेद नही किया । लेकिन आज उनका
सन्देश हमारे कानोँ तक नहीँ पहुंच रहा । उन्होंने इस
"दिव्य" सिद्ध पीठ से, इस दिव्य "कौलान्तक
पीठ" से एक संदेश सदा प्रेषित किया है । वो है
"मनुष्य के कल्याण" का संदेश, मनुष्य के मध्य "प्रेम", "भ्रातृत्व",
"स्नेह" और "करूणा" का संदेश । लेकिन शायद "समाज",
हमारी "सभ्यता" इस संदेश को भूल गई है । आज वो
केवल "अपने धर्म" को ही "श्रेष्ठ" मानते हैं । और
दूसरों को "अधूरा और खोखला" । आज वो "अपने गुरू" को
ही "श्रेष्ठ" मानते हैं, दूसरे को "ढोंगी
अथवा कपटी" । आज वो केवल अपने "विचारधारा" को
ही प्रमुख मानते हैं । और दूसरे की
विचारधारा को "शून्य" । ये "सिद्धों का संदेश" शायद कहीं
विखण्डित हो गया है| टूट गया है और वो तुम तक
नही पहुंच पा रहा है । इसलिए तुम अपने "कथित
धर्म" को और "कथित सिद्धांत" को मजबूती से पकड़े
हुए हो । हालाँकि वो गलत हो सकता है । "गलत है", ये मै
नही कह रहा । "गलत हो सकता है" ये मैं कह
रहा हूं । तो सिद्धों ने कहा - "तुम सबको जानोँ, अपने
जीवन को और मनुष्य को सुखी बनाने का
प्रयास करो, लेकिन भातृत्व-स्नेह तो रखोँ !" वो तुम्हारे हृदय में
रहता ही नही है ! उन्होंने कुछ ऐसे
सिद्धांतों की बास कही थी, जो
बिल्कुल अलग और गोपनीय थे ।
"सिद्धों" ने "धर्म" को
"व्यापक" रूप से जाना और "धर्म की व्याख्या"
भी "व्यापक" रूप से की । इसलिए "सिद्ध पंथ"
में उत्पन्न हुए व्यक्ति और साधक किसी "एक विचार" और
"एक धर्म" तक ही "सीमित"
नहीँ रहे ।
केवल हम सिद्धों की एक ऐसी परम्परा
रही कि तुम यदि "अपने या अपने आसपास के"
किसी "धर्म" मे टटोलो, तो सिद्धों का कोई न कोई "एक
व्यक्ति" या "बहोत से व्यक्ति" वहाँ अवश्य मिल जायेंगे । जो कि इस
बात का प्रमाण है कि हमने "धर्मों" के साथ भी "भेदभाव"
नहीँ किया । लेकिन जब ये संसार अपने व्यापक दर्शन
अर्थात "भौतिकता" और उसके उन्नति में "लिप्त" हो गया । तब वो सिद्धों
का "मूल सन्देश" तुम तक नहीँ पहुँच पा रहा । पहले तो सिद्धों
का "स्थूल संदेश" है कि तुम अपने जीवन में एक
बहोत "उच्च कोटि का मस्तिष्क" रखोँ और "हृदय" रखोँ । "सबका
सम्मान करो" और अपनी दिव्य इच्छाओं का पालन करो
और संसार में "सबका सहयोग करते हुए" आगे बढ़ो । और "दूसरा"
उनका "संदेश" है कि सिद्धों की जो "भूमि" है, आपको
"प्रकाश" दे रही है| उसका, उस "स्थान" का आपको पता
करना होगा । उसकी "खोज" करके अपने
भीतर उसके "तत्वों" को स्थापित करना होगा । क्योंकि ये
तत्व सहज नही हैं, ये बड़े ही
"अलौकिक" तत्व हैं । इसलिए सिद्धों के पथ पर आगे आना होगा ।
इसलिए वो सदैव मनुष्य को "निमंत्रण" भेजते हैं ।
लेकिन आज वो निमंत्रण "निरर्थक" प्रतीत होता है ।
मनुष्य आज भी पशुओं की भांति
व्यवहार कर रहा है । छोटे-छोटे गाँव में श्वान अर्थात कुत्ते होते
हैं । लोगों ने अपनी रक्षा के लिए, अपने परिवार
की रक्षा के लिए और गाँव में खेती
बाड़ी की रक्षा के लिए कुत्तों को पाला होता
है । जो गडरिये हैं, भेड़ बकरी चराते हैं, चरवाहे हैं
अथवा जो पशुओं को लेकर वनों में जाते हैं । गल्ला लेकर बनों तक
प्रस्थान करते हैं, वो भी कुत्तों को पालते हैं, इसलिए
ताकि वो अपने मालिक की और अपने स्वामी
सहित उसके अन्य तत्वों की रक्षा कर सकें । ये
व्यक्ति और ये प्राणी दोनो ही एक दूसरे
के पूरक हैं । अर्थात मालिक और श्वान । श्वान अपने मालिक
की वफादारी करता है और मालिक अपने
श्वान को संरक्षण देता है । लेकिन श्वान में एक ऐसी
"वृत्ति" है, जिसके कारण "स्वामी भक्त" होने के बाद
भी उसे बहोत अधिक सम्मान का भाव
नही दिया गया, वो प्राप्त ही
नही हो सका । उसका कारण है उसकी
एक "वृत्ति" ।
वो वृत्ति ये है कि वो जिस छोटे से क्षेत्र में रहता है,
वहाँ किसी दूसरे श्वान को नही आने
देता । जैसे ही एक गांव के कुत्ते उसका एक झुण्ड
कहीं घूम रहा हो अपने गांव और अचानक
कहीं से कोई अपरिचित कुत्ता यदि वहां आ जाये, तो
सब टूटकर नोच-नोचकर उसके चिथड़े-चिथडे कर देंगे । जब तक कि वो
मर ही न जाय, उसे काटते रहेंगे ।
आज सिद्ध यही बात फिर हमें याद दिला रहे हैं कि
कहीं ऐसा तो नही कि इन पशुओं के
संगत में रहते-रहते इनके कुछ विचार हम मनुष्यों में
भी आ गये हों ?! न जाने क्यों जब भी
कोई समाज में अपना संदेश देने आता है । जब भी कोई
"सिद्ध" तुम्हें बताने की चेष्ठा करना चाहता है, तुम
तुरंत गुर्राने लगते हो, तुम तुरंत काट खाने को दौड़ते हो । और
तुम्हारे समाज में इस तरह के अनेक झुण्ड हैं । कोई
मीडिया के नाम पर झुण्ड, कोई शासन व्यव्स्था के नाम
पर झुण्ड और कोई व्यापार के नाम पर झुण्ड । इस तरह से
स्त्रियाँ अब अलग झुण्डों में बट गईं, पुरूष अब अलग झुण्डों में
बट गये, वृद्धों का अलग झुण्ड हो गया, युवाओं का अपना अलग
झुण्ड हो गया । कब तक तुम इन "श्वान वृत्तियों" में फसे रहोगे ?
और क्यों तुम इन श्वान-वृत्तियोंका परित्याग नही
कर पा रहे ?
एक उत्तम कोटि के साधक को और मनुष्य को, सिद्धों ने कहा कि वो "राजहंस"
जैसा हो जाये । राजहंसों के बारे नें कहा जाता है कि केबल राजहंस ऐसा
पक्षी है, कि जब उसके झुण्ड में दूर से उड़कर आया दूसरा झुण्ड मिल जाये
तो बिना किसी लड़ाई झगड़े के सहजता से एक दूसरे को स्वीकारते हैं | यहां
तक कि राजहंस के बारे में कहावत है कि यदि एक राजहंस की टांग टूट जाये,
तो अन्य राजहंस चारों तरफ उसकी रक्षा करते हैं । उसके दुख से दुखी होते
हैं । यदि एक राजहंस के बच्चों पर संकट आए, तो सभी राजहंस उसकी सहायता
करते हैं । इन स्वभावों के कारण कहा गया कि व्यक्ति या साधक "परमहंस" है
। परमहंस का तात्पर्य है जो सभी के दुखों को अपना मानता है । जो सभी धर्म
को लोगों को अपना सहयोगी मानता है । पृथ्वी पर रहने वाले सभी मनुष्यों
को, जीव जंतुओं को, स्थूल और सूक्ष्म तत्वों को अपना मानता है । और उनको
अपने से जुड़ा हुआ प्राप्त करता है, पाता है, वही राजहंस होता है । लेकिन
सिद्धों का ये संदेश कि "तुम परमहंस हो जाओ", वो कहीं न कहीं अब नष्ट
होता जा रहा है । और "श्वान वृत्तियाँ" हमारे भीतर हैं । हम अपने लिए ही
सबकुछ करना चाहते हैं । और ये श्वान वृत्ति? अपने लिए ही सोचते हैं, ये
"श्वान वृत्ति" है । इस श्वान वृत्ति से जब तक मुक्ति नहीँ मिलती, तब तक
साधक साधना के पथ पर आगे नही बढ़ता । और वो सिद्धों के दिये ज्ञान को नही
प्राप्त कर सकता ।
ज्ञान आध्यात्म का बहोत ही गोपनीय और गूढ़ होता है, कभी कभी हमें ये लगता
है कि जो मौलिक कर्तव्य हैं वही धर्म है । जैसे 'कभी झूठ नही बोलना', ये
केवल मौलिक कर्तव्य है । और वो धर्म भी हो सकता है । लेकिन "मूल
अध्यात्म" नही, मूल अध्यात्म उससे प्रेरित होता है । मूल आध्यात्म की वो
"आवश्यकता" है । अगर तुम झूठ बोलते हो, तो आध्यात्म में सफल नही हो
पाओगे, तुम चाहे जितने नाक रगड़ लो । इसलिए मूल आध्यात्म आगे नहीँ बढ़ पा
रहा । क्योंकि अब श्वान-वृत्तियाँ हैं । तुम्हारे अपने- अपने गुरू होंगे,
तुम्हारे अपने- अपने धर्म होंगे, तुम्हारे अपने- अपने जाति और सम्प्रदाय
होंगे । तुम्हारी अपनी- अपनी विचारधारा होगी । तुम उससे बाहर सोच ही नहीँ
सकते ।
शर्म की बात तो ये है कि मौलिक पद्धतियों में और भौतिक व्यवस्थाओं में
अगर ऐसा हो जाए तो वो सहा जा सकता है । लेकिन धर्म और आध्यात्म में भी जब
ऐसी वृत्तियाँ आ जाएं, तो क्या कहा जाए ? आज के समाज में कुछ धर्म पुरोधा
तो ये कहते हैं कि "जो मै कह रहा हूँ वही केवल सत्य है । क्योंकि मेरे
पास वो शक्तियां हैं, मेरे पास वो अनुभव है, वो अनुभूति है । और यदि तुम
मेरी अनुभूतियों को छोड़कर किसी दूसरी अनुभूति के मार्ग पर जाते हो, तो
सबकुछ खत्म हो जायेगा, सबकुछ नष्ट हो जायेगा ।" ये बड़ा भ्रमित करनेवाला
सिद्धांत है । जबकि सिद्धोँ ने सन्देश तुम्हे भेजा है । वो सन्देश ये है
कि "एक मार्ग का ज्ञान मत रखना ।" अगर तुम हिमालय पर घूम रहे हो और
तुम्हे केबल एक ही मार्ग का ज्ञान है, वो मार्ग कभी भी अवरूद्ध हो सकता
है । ये सृष्टि भी तो हिमालय ही है । तुम्हारा जीवन भी तो हिमालय ही है ।
इसलिए ऐसी परिस्थिति मेँ क्या करना चाहिए ? याद रखो उन्होंने कहा "एक
पर्वत में चढ़ने के सौ रास्ते हैं । ये आवश्यक नही कि तुम सौ में से सौ
रास्ते पर से जाओ । एक ही रास्ते से तुम वहाँ तक जा पहुंचोगे, किन्तु
उच्च कोटि का साधक वही है, जिसे उन सौ में से कम से कम आधे पचास मार्गों
का ज्ञान तो हो ।" ठीक वैसे ही आज बहोत से गुरू कहते हैं, बहोत से संत
कहते हैं कि "तुम मंत्र न जपो, मंत्र की जरूरत नहीँ । तंत्र की भी जरूरत
नहीँ । यंत्रों की भी जरूरत नहीँ । योग की जरूरत नहीँ । तुम बस मेरे पास
बैठ जाओ और तुम्हारा कल्याण होने लगेगा ।" ये बड़ी भ्रमित करने वाली बात
और सिद्धान्त है । सिद्धों ने तुम्हे सन्देश दिया था कि "तुम सभी तत्वों
को जानो । 'मंत्र' को, 'ज्योतिष' को, 'तंत्र' को, 'रसायन' को । " एक
व्यक्ति तुम्हे समझा रहा है कि "मै जो कुछ करता हूं, मेरा जो मार्ग है,
वो उत्तम है । " लेकिन उस व्यक्ति से पूछो, जो तुम्हे यह मार्ग दे रहा है
कि "तुम्हे यह मार्ग कैसे मिला?" अपने आप मिल गया ? तो ये मूर्खता है । सहस्त्रों- सहस्त्रों मे से एक व्यक्ति हो सकता है कि जिसे जन्मजात वह
मार्ग स्वतः मिल गया हो । लेकिन पर्दे के पीछे पूर्व जन्मों का सिद्धांत
वहाँ होगा । पूर्व जन्म में उसने भी 'मंत्र', 'योग', 'ज्योतिष', 'तंत्र',
'प्रार्थनाएं' और और भी न जाने कितने प्रकार के अभ्यास किये होंगे, तब
जाके वो इस स्थिति तक पहुंचा है । इस स्थिति पर आने के बाद वो तुम्हें कह
रहा है कि सब चीजें निरर्थक हैं । तो सिद्धों की बात को याद रखना कि "जब
तुम 'गुरूओं' का अनुसरण करते हो और 'ईश्वर के पुत्रों' का अनुसरण करते
हो, तो तुम्हें लगेगा कि कुछ करने की आवश्यकता नहीँ । क्योंकि उन्होंने
बस आशीर्वाद दे दिया, अपने अनुकम्पा से तुम्हे सर्वसमर्थ कर दिया,
तुम्हारे दुःखोँ का...... तो सब कुछ संभव हो गया ।
"
सिद्धों ने कहा, "ये झूठ है ! ये मृगमारीचिका है ! ये छद्मता है ! इससे
बचे रहना ! तुम्हें स्वयं उसी व्यक्ति जैसा हो जाना है, जो सहस्त्रों
लोगों को ये कह सकता है कि ईश्वर की अनुकम्पा मेरे माध्यम से तुम तक
होगी, तो तुम्हारे माध्यम से वो अन्यों तक क्यों नही हो सकती !" और वो
व्यक्ति कहेगा कि "तुम मेरे सिद्धांतों पर चलो ।" वो इसलिए कि कहीं तुम
उस व्यक्ति की जगह न आ जाओ, और बाकी तुम्हारे सिद्धांतो पर चलना न शुरू
कर दें । वो कभी ये नही चाहेगा कि तुम आम व्यक्ति से हटकर विशिष्ट
व्यक्ति हो जाओ । वो स्वयं विशिष्ट रहना चाहेगा । ये छद्मता श्वान वृत्ति
है, कि रोटी के अधिक टुकड़े मेरे पास हों, मै दूसरों को बाटकर नही दे
सकता । ऐसी परिस्थिति में सावधान रहना । याद रखना कि सभी मार्गों का
ज्ञान तुम्हे अवश्य प्राप्त करना है । तुम 'योग' भी सीखो । 'ज्योतिष' भी
सीखो । 'मंत्र' भी सीखो । 'साधनाएं' भी सीखो । सभी 'धर्मोँ और 'पंथों' का
ज्ञान भी प्राप्त करो । और फिर जो अपनी मौलिक साधनाएं हैं, अपना जो मौलिक
विचार है, उसकी तलाश में निकल जाओ । "याद रखना इस 'तत्व' को ।" 'वेद' का
ज्ञान लेने से, 'शास्त्र' का ज्ञान लेने से, 'धर्मों' का ज्ञान लेने से,
'योग', 'ज्योतिष', 'तंत्र', 'वास्तु', 'रसायन', 'पारद' किसी भी विधा का
ज्ञान लेने से, तुम्हारे जीवन में कोई विशेष परिवर्तन नही आयेगा । हां,
ये परिवर्तन जरूर आ सकता है कि समाज में तुम अपनी "विद्वत्ता" दिखा सको ।
कि देखो मै प्रवचन दे सकता हूँ , कि देखो मुझे इतने मंत्र आते हैं, देखो
मै इतने योगासन कर सकता हूं, मै अपनी हड्डी उतनी टेढ़ी कर सकता हूं कि
तुम्हारी तब तक टूट जाये । इससे "आध्यात्म" का कोई लेना देना नहीँ है |
हो सकता है तुम एक ही आसन पर दो- दो, चार- चार वर्ष बिना भोजन के और जल
के रह सको । लेकिन ये भी अध्यात्मिकता नहीँ है ।
सिद्धों ने कहा आध्यात्मिकता बड़ी ही सूक्ष्म और बड़ी ही महीन है । उसके
लिए तो तुम्हे तलाश स्वयं ही करनी होगी । तो गुरु तुम्हारी भाव भूमि
बनायेगा, लेकिन जब तुम कुछ और वृत्ति का परित्याग करते हो । वो वृत्तियां
हैं "वानर वृत्ति" । मनुष्य वानर वृत्ति पर रहना चाहता है । वो अपने
आसपास चीजें लेता है और उनको अपने पास ही रखना चाहता है । हालाँकि उनका
उपयोग नहीँ करता, उनका उपभोग नहीँ करता । उदाहरण... एक व्यक्ति को प्यास
लगी है और उसके पास दो पानी की बोतलें हैं | वो अपनी बोतल से थोड़ा सा
पानी पी लेता है | फिर दूसरी वोतल, वो भी खोलके पी जाता है | ये वानर
वृत्ति है | ऐसा व्यक्ति साधना में सफल नही हो सकता । वो सूक्ष्मता को
नही प्राप्त कर पायेगा | क्योंकि वो जो दूसरी बोतल थी, वो दूसरे व्यक्ति
को मिल सकती थी, दी जा सकती थी ।
आजकल आप किसी भी क्षेत्र में जाइये और मनुष्यों को भोजन करते देखिये ।
भोजन करते- करते आवश्यकता से अधिक भोजन लेगा । तत्पश्चात भोजन पड़ा रह
जायेगा । ऐसा व्यक्ति सूक्ष्म आध्यात्मिकता को प्राप्त कर ही नहीँ सकता ।
ये मै दावे से नहीँ, अपने जन्मों जन्मों के अनुभव से कह सकता हूँ ।
क्योंकि वो सूक्ष्म तत्व तक कभी नही पहुचेगा । पश्चिम में बहोत ऐसे
विद्वान हुए, दक्षिण में बहोत ऐसे विद्वान हुए, यदि अन्न का एक दाना बाहर
गिर जाये, तो सुई से उस दाने को बींधकर, पानी से धोकर उसका सेबन करते थे
। ऐसे व्यक्तियों के भीतर वानर तत्व नही होता । वो ईश्वर तत्व को जानते
हैं और वो सिद्धों की भाषा को समझते हैं ।
सिद्धों ने कहा उतना ही लो जितने की तुम्हे आवश्यकता है । लेकिन इन वानर
वृत्तियों से तुम मुक्त नही हो सकते । यदि तुम्हारे पास एक नौकरी है, तुम
चाहते हो कि तुम्हे दो मिल जाये और तुम दोनो को एक साथ रख सको । तुम्हारे
पास एक वाहन है, तुम चाहते हो कि चार वाहन तुम्हारे पास हों, ताकि तुम
वानर वृत्ति को और अधिक प्रदर्शित कर सको । तुम्हारे पास एक घर है, तुम
चाहते हो कि पचास घर हो जायें ! ये वानर वृत्ति जब तक तुम्हारी नष्ट नही
होगी, सिद्धों नेँ कहा तुम वास्तविक विकास को अनुभव नही कर पाये हो । और
तुम वास्तविक रूप से विकसित नही हो पा रहे ।
इन पशुजन्य वृत्तियों के बाद चीँटी जैसी वृत्तियों से भी तुम्हे मुक्त
होना होगा । और चीटियों को देखिए, वो एक रानी के लिए कार्य करती हैं । वो
सुबह से लेकर शाम तक इतना अधिक कार्य करती हैं कि वो हर क्षण कार्य करने
में लगी रहती हैं । वो सुबह से लेकर शाम तक इतना अधिक काम करती हैं कि हर
क्षण कार्य में लगी रहती हैं । और उनका गुण की, अपनी आवश्यकता से अधिक
उठाकर ले जाती हैं । अपने स्वरूप से भी अधिक उठाकर ले जाती हैं । अपने
स्वभाव से भी अधिक उठाकर ले जाती हैं । हमारा मन भी ऐसा ही है । हम जीवन
में चाहते हैं कि धर्म में भी सबकुछ हमे एक ही साथ मिल जाए, "एक ही क्षण"
। जब तक ये वृत्ति रहेगी, ये पिपिलिका जैसी वृत्तियां अर्थात चीटियों
जैसी वृत्तियां रहेंगी, तब तक कुछ नहीँ मिलेगा ।
लोग चाहते हैं कि मन्दिरों में जाएं तो लड़ते हैं । संतों के पास आते हैं
तो पाँव छूने के लिए एक दूसरे के उपर चढ जाते हैं । किसी इष्ट की प्रतिमा
के दर्शन करने के लिए सौ लोगों को रौदते हुए जा सकते हैं । अरे इससे
तुम्हारा क्या विकास होगा ? मै कहता हूं कि यदि तुम मंदिर के द्वार से
बिना ईष्ट के दर्शन किये ही लौट जाओ, तो तुम्हें पुण्य अवश्य मिलेगा ।
लेकिन यदि एक व्यक्ति को धक्का देकर, एक व्यक्ति के साथ छल करके, यदि
पंक्ति को तोड़कर तुम आगे गये तो तुमसे बड़ा मूर्ख इस पृथ्वी पर कोई नही
हो सकता । तो ये पीपिलिका जैसी वृत्ति कि, अधिक ले जाऊँ, पहले ले जाऊँ,
जब तक ये तुम्हारे भीतर हैं, तुम इस मानव जीवन का आनंद नही उठा पाओगे ।
तुम विकास को अनुभव ही नही कर पाओगे | तब "साधना" तुम्हारे लिए है ही
नहीँ | तब ये संसार, ये पृथ्वी भी तुम्हारे लिए है ही नहीँ ।
पृथ्वी तो उनके लिए है जो "सिद्ध" हो । जगत तो सिद्धों का है | यहां पर
रहने के लिए "सिद्ध वृत्तियाँ" चाहिए । प्रेम वृत्तियाँ चाहिए ।
सहिष्णुता चाहिए । जब ये छोटी-छोटी वृत्तियाँ तुम्हारे भीतर आयेंगी, तभी
तुम कुछ प्राप्त कर पाओगे ।
बहोत से साधक इन वृत्तियों को नहीँ समझ पाते । समझाने के बाद भी नहीँ समझ
पाते । इसलिए उनके लिए अनुशासन नाम का शब्द बना दिया गया । उनको कहा गया
ये "कर्मठ गुरू" है । कर्मकाण्ड का सिद्धांत है । ये "गुरू गीता" है ।
अर्थात गुरू के साथ कैसे संबंध स्थापित करें, कैसे आचरण करें, कैसे रहें
? ये सब गुरूगीता बताती है । "शिव मार्ग", शिव मार्ग एक ऐसा ग्रन्थ है जो
बताता है कि शिव के साथ कैसे रहना चाहिए । उनकी साधना और आराधना कैसे
होनी चाहिए ? "देव मार्ग" देवी देवताओं के सिद्धांत को बताता है । और
"कल्प मार्ग", वो सृष्टि में कैसे रहना है, समाज में कैसे रहना है ? इसके
बारे में हमे स्पष्ट निर्देश देता है ।
लेकिन हम इन सिद्धांतों, इन तत्वों को भूल गये हैं । इस कारण हमारा जीवन
बड़ा ही जटिल, बड़ा ही क्लिष्ट हो चुका है । हम प्रयास तो करते हैं,
लेकिन वो निरर्थक हो जाता है ।
इसलिए सिद्धों ने कहा कि इससे पहले कि तुम आध्यात्म में कदम रखोँ, तुम
हमारी ओर आना चाहो, तो तुम इन सिद्धांतो को, हमारे इन सन्देशों को जरा
सुन लेना । उनपर पहले अभ्यास कर लेना । फिर हम तुमसे कोई "भेद" नहीँ
रखेंगे । न जाति, न लिंग, न वर्ण, न धर्म, कुछ भी नहीँ । हम तो तुम्हारा स्वागत
करते हैं । क्योंकि जो अत्यंत सूक्ष्म विधाएं और ज्ञान है, जो तुम्हे
"ईश्वर का पुत्र" बना सकते हैं, वैसी "अनुभूति" तुम्हें दे सकते हैं । और
तुम इस छोटी सी पृथ्वी ही नहीँ, बरन इसके बाहर के ब्रह्माण्ड में स्थित
अन्य पृथ्वियों को भी देख सकते हो, ऐसी ऊर्जा और शक्ति हम देने को तैयार
हैं, लेकिन वो तब जब तुम साधक बन जाओ । जब तुम इन पशु वृत्तियों से मुक्त
होने लगो । जब गिद्ध जैसी वृत्तियाँ न रहे ।
गिद्ध का स्वभाव है और उस पक्षी की विशेषता है या उसकी आवश्यकता है कि वो
मरे हुए जीव पर निर्भर रहता है । हम भी वैसे ही हैं । हमारे ही साथ के
लोग मर रहे हैं । उन्हें दुःख उठाना पड़ रहा है । वो रो रहे हैं, चिल्ला
रहे हैं । दुःख से वेदनाओं से ग्रसित हैं, तड़प रहे हैं और हम सो रहे हैं
। वो परेशान हैं, भोजन नही है, वस्त्र नही है और हम शांत बैठे हैं । यदि
तुम ऐसी परिस्थिति में शांत रह सकते हो । तुम्हारे आसपास कोई व्यक्ति मर
गया है और तुम बिलकुल शांत बैठे हो, तो तुम "गिद्ध" जरूर बन सकते हो,
"सिद्ध" नहीँ बन सकते । तुम्हें ऐसी गिद्ध वृत्तियों से मुक्त होना होगा
।
गरीब व्यक्ति यदि व्यवसाय कर रहा हो, तो मैने देखा, उसका सहयोग करना तो
दूर उसे ये समाज आगे बढ़ने का एक अवसर तक नहीँ देता । ये गिद्ध वृत्ति
है, तुम नोच रहे हो उस व्यक्ति को । यदि तुम्हारी कोई स्थिति है, तो तुम
"किसी को नोचना मत" । "किसी को वेदना मत देना" । किसी की सहायता कर सको
तो ये तुम्हारी "सिद्ध वृत्ति" है । तुम "सिद्ध" हो और जिस क्षण तुम किसी
को दे न सको, केवल ले सको, अपने पास अपने लिए स्थापित करो, तो तुम
"गिद्ध" ही हो ।
छोटे छोटे बच्चे जब किसी ये प्रेम करते हैं, तो अपना खिलौना सबसे पहले उस
व्यक्ति को ले जाकर दिखाते हैं, देखो ये मेरा खिलौना है । और यदि उनका
प्रेम और घनीभूत होता है, तो वो अपना खिलौना उठाकर दूसरे व्यक्ति को दे
देता हैं । और उसको खेलते देखकर खुद ताली बजाते हुए वो बच्चा खुश होता है
। उस बालक के भीतर सहज सिद्धोँ की वृत्ति है । सिद्धों ने कहा तुम इस
वृत्ति को सीख लेना, तो हम तुमसे प्रेम करने लगेंगे ।
और यदि तुमने इन छोटी छोटी बातों को सीख लिया, तो उस "सूक्ष्म हिमालय" से
जो इस दृश्य हिमालय से भी बहोत पीछे है । वहाँ से कोई न कोई सिद्ध आकर
जरूर तुम्हारा हाथ थाम लेगा ।
और वो हाथ इतना मजबूत हाथ होता है कि भले
ही "विज्ञान", "तर्क", "शास्त्र", "ज्योतिष", "धर्म" और "संपूर्ण समाज"
ये कहे कि ये हाथ तुम्हारी रक्षा नहीँ कर पायेगा । केवल वही "सच्चा हाथ"
है जो तुम्हें अपने साथ ले जा सकता है । तुम्हें उच्च धरातल का बना सकता
है । और तुम्हें "पूर्णता" के मार्ग में ले जाकर "पूर्ण पुरूष" बना सकता
है । तुम सिद्धों के बहोत छोटे-छोटे ये दो- चार सन्देशों को यदि समझ जाते
हो तो ये "सिद्ध" फिर तुम्हारे लिए शुभकामनाएँ करते हैं । मंगल कामनाएँ
करते हैं । और तुम्हारी "प्रतीक्षा" करते हैं । सिद्धोँ के सूक्ष्म संदेश
में आज अभी इतना ही । ॐ नमः शिवाय ! प्रणाम ! -
…………………………कौलान्तक पीठाधीश्वर महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी महाराज (ईशपुत्र)