आज मै एक "संदेश" देना चाहूंगा । वो संदेश "मेरा" नहीँ है, वो संदेश "सिद्धों का संदेश" है । इस संदेश को "विस्तृत" करके
समझिये । उसके लिए पहले हम "भूमिका" पर जाते हैं । एक समय
था जब मनुष्य अलग -अलग हिस्सों में बटकर मानव के विकास को सुनिश्चित करने के लिए कार्य कर रहा था । तब "सिद्धों" का एक ऐसा
समाज स्थापित हुआ, जिन्होने "योग", "ज्योतिष", "धर्म- आध्यात्म"
सहित "चिकित्सा", "कला", "युद्ध" और भी न जाने "गायन"
सहित कितनी "ललित कलाओं" और "विद्याओं" को
जन्म दिया । उन्होने मानव जीवन को "सुखी"
बनाने के लिए बड़े प्रयास किये । हालाँकि राजशाही के
दौरान इन परंपराओं का बहोत हद तक "निर्वहन" भी
होता रहा । लेकिन धीरे-धीरे राजशाही बहुत
छोटे-छोटे टुकड़ो में बट गई| छोटे-छोटे राजा हो गये । और
छोटी-छोटी उनकी सीमाएं और
उसके भीतर प्रजा । उनको "विकास" का वो समय
नही प्राप्त हो सका, जो उन्हें होना चाहिए था । इस
कारण "महान ज्ञान सम्राज्य" की
"खोज" उन "सिद्धों" ने की, वो सब तक जस का तस
नही पहुच सका । "नव नाथ", "चौरासी सिद्धों"
ने बहुत पूर्व में इन क्षेत्रों में "ज्ञान का प्रादुर्भाव" किया| उसको
जाना, समझा, "ऋषियों की परंपराओं" को अपने
जीवन में उतारा और "अनुभव" करके जब उन्हें "पूर्ण"
पाया, तो "मानवता की सेवा" में उन्हें "समर्पित" कर दिया ।
भारत में "सिद्धों का धर्म" एक ऐसा "धर्म" है, जो किसी
"दूसरे धर्म" की "निन्दा अथवा आलोचना" नहीँ
करता । उसे "किसी धर्म" से "नफरत" ही
नहीँ है । उसे "किसी धर्म" या "धर्म के
व्यक्ति", "उसके शीर्ष पे बैठे व्यक्तियों" से
भी कोई "परेशानी" नहीँ है ।
इस "सिद्धों" की "भूमि", जहाँ हम "समस्त सिद्ध",
"योगी" और "यति" रहते हैं, वो "हिमालय" है । इसके "दो
प्रारूप" हैं, एक तो वो प्रारूप जो नजर आ रहा है, ये स्थूल है ।
जब चेतना जागृत होती है, तो इसके उपर एक
"सूक्ष्म हिमालय" है । जिस पर अन्य "सिद्ध" रहते हैं । जहाँ जाने
के लिए "पात्रता" और "योग्यता" चाहिए । लेकिन सिद्धों की
उस भूमि में किसी "एक जाति", किसी "एक
धर्म", किसी "एक वर्ण" अथवा किसी "एक
लिंग" का "व्यक्ति" अथवा "साधक" नही है । अपितु
सभी धर्म के प्रधान, सभी धर्म के
उच्च कोटि के व्यक्ति वहाँ विद्यमान हैं ।
"सिद्धों" ने "समाज" को बाँटा
नही, नाथों ने समाज को "जातिप्रथा" नही
दी । उन्होंने कभी "वर्ण" और "व्यक्ति" में
"भेद" नहीं किया । उन्होंने "आस्तिक" और "नास्तिकों" में
भी भेद नही किया । लेकिन आज उनका
सन्देश हमारे कानोँ तक नहीँ पहुंच रहा । उन्होंने इस
"दिव्य" सिद्ध पीठ से, इस दिव्य "कौलान्तक
पीठ" से एक संदेश सदा प्रेषित किया है । वो है
"मनुष्य के कल्याण" का संदेश, मनुष्य के मध्य "प्रेम", "भ्रातृत्व",
"स्नेह" और "करूणा" का संदेश । लेकिन शायद "समाज",
हमारी "सभ्यता" इस संदेश को भूल गई है । आज वो
केवल "अपने धर्म" को ही "श्रेष्ठ" मानते हैं । और
दूसरों को "अधूरा और खोखला" । आज वो "अपने गुरू" को
ही "श्रेष्ठ" मानते हैं, दूसरे को "ढोंगी
अथवा कपटी" । आज वो केवल अपने "विचारधारा" को
ही प्रमुख मानते हैं । और दूसरे की
विचारधारा को "शून्य" । ये "सिद्धों का संदेश" शायद कहीं
विखण्डित हो गया है| टूट गया है और वो तुम तक
नही पहुंच पा रहा है । इसलिए तुम अपने "कथित
धर्म" को और "कथित सिद्धांत" को मजबूती से पकड़े
हुए हो । हालाँकि वो गलत हो सकता है । "गलत है", ये मै
नही कह रहा । "गलत हो सकता है" ये मैं कह
रहा हूं । तो सिद्धों ने कहा - "तुम सबको जानोँ, अपने
जीवन को और मनुष्य को सुखी बनाने का
प्रयास करो, लेकिन भातृत्व-स्नेह तो रखोँ !" वो तुम्हारे हृदय में
रहता ही नही है ! उन्होंने कुछ ऐसे
सिद्धांतों की बास कही थी, जो
बिल्कुल अलग और गोपनीय थे ।
"सिद्धों" ने "धर्म" को
"व्यापक" रूप से जाना और "धर्म की व्याख्या"
भी "व्यापक" रूप से की । इसलिए "सिद्ध पंथ"
में उत्पन्न हुए व्यक्ति और साधक किसी "एक विचार" और
"एक धर्म" तक ही "सीमित"
नहीँ रहे ।
केवल हम सिद्धों की एक ऐसी परम्परा
रही कि तुम यदि "अपने या अपने आसपास के"
किसी "धर्म" मे टटोलो, तो सिद्धों का कोई न कोई "एक
व्यक्ति" या "बहोत से व्यक्ति" वहाँ अवश्य मिल जायेंगे । जो कि इस
बात का प्रमाण है कि हमने "धर्मों" के साथ भी "भेदभाव"
नहीँ किया । लेकिन जब ये संसार अपने व्यापक दर्शन
अर्थात "भौतिकता" और उसके उन्नति में "लिप्त" हो गया । तब वो सिद्धों
का "मूल सन्देश" तुम तक नहीँ पहुँच पा रहा । पहले तो सिद्धों
का "स्थूल संदेश" है कि तुम अपने जीवन में एक
बहोत "उच्च कोटि का मस्तिष्क" रखोँ और "हृदय" रखोँ । "सबका
सम्मान करो" और अपनी दिव्य इच्छाओं का पालन करो
और संसार में "सबका सहयोग करते हुए" आगे बढ़ो । और "दूसरा"
उनका "संदेश" है कि सिद्धों की जो "भूमि" है, आपको
"प्रकाश" दे रही है| उसका, उस "स्थान" का आपको पता
करना होगा । उसकी "खोज" करके अपने
भीतर उसके "तत्वों" को स्थापित करना होगा । क्योंकि ये
तत्व सहज नही हैं, ये बड़े ही
"अलौकिक" तत्व हैं । इसलिए सिद्धों के पथ पर आगे आना होगा ।
इसलिए वो सदैव मनुष्य को "निमंत्रण" भेजते हैं ।
लेकिन आज वो निमंत्रण "निरर्थक" प्रतीत होता है ।
मनुष्य आज भी पशुओं की भांति
व्यवहार कर रहा है । छोटे-छोटे गाँव में श्वान अर्थात कुत्ते होते
हैं । लोगों ने अपनी रक्षा के लिए, अपने परिवार
की रक्षा के लिए और गाँव में खेती
बाड़ी की रक्षा के लिए कुत्तों को पाला होता
है । जो गडरिये हैं, भेड़ बकरी चराते हैं, चरवाहे हैं
अथवा जो पशुओं को लेकर वनों में जाते हैं । गल्ला लेकर बनों तक
प्रस्थान करते हैं, वो भी कुत्तों को पालते हैं, इसलिए
ताकि वो अपने मालिक की और अपने स्वामी
सहित उसके अन्य तत्वों की रक्षा कर सकें । ये
व्यक्ति और ये प्राणी दोनो ही एक दूसरे
के पूरक हैं । अर्थात मालिक और श्वान । श्वान अपने मालिक
की वफादारी करता है और मालिक अपने
श्वान को संरक्षण देता है । लेकिन श्वान में एक ऐसी
"वृत्ति" है, जिसके कारण "स्वामी भक्त" होने के बाद
भी उसे बहोत अधिक सम्मान का भाव
नही दिया गया, वो प्राप्त ही
नही हो सका । उसका कारण है उसकी
एक "वृत्ति" ।
वो वृत्ति ये है कि वो जिस छोटे से क्षेत्र में रहता है,
वहाँ किसी दूसरे श्वान को नही आने
देता । जैसे ही एक गांव के कुत्ते उसका एक झुण्ड
कहीं घूम रहा हो अपने गांव और अचानक
कहीं से कोई अपरिचित कुत्ता यदि वहां आ जाये, तो
सब टूटकर नोच-नोचकर उसके चिथड़े-चिथडे कर देंगे । जब तक कि वो
मर ही न जाय, उसे काटते रहेंगे ।
आज सिद्ध यही बात फिर हमें याद दिला रहे हैं कि
कहीं ऐसा तो नही कि इन पशुओं के
संगत में रहते-रहते इनके कुछ विचार हम मनुष्यों में
भी आ गये हों ?! न जाने क्यों जब भी
कोई समाज में अपना संदेश देने आता है । जब भी कोई
"सिद्ध" तुम्हें बताने की चेष्ठा करना चाहता है, तुम
तुरंत गुर्राने लगते हो, तुम तुरंत काट खाने को दौड़ते हो । और
तुम्हारे समाज में इस तरह के अनेक झुण्ड हैं । कोई
मीडिया के नाम पर झुण्ड, कोई शासन व्यव्स्था के नाम
पर झुण्ड और कोई व्यापार के नाम पर झुण्ड । इस तरह से
स्त्रियाँ अब अलग झुण्डों में बट गईं, पुरूष अब अलग झुण्डों में
बट गये, वृद्धों का अलग झुण्ड हो गया, युवाओं का अपना अलग
झुण्ड हो गया । कब तक तुम इन "श्वान वृत्तियों" में फसे रहोगे ?
और क्यों तुम इन श्वान-वृत्तियोंका परित्याग नही
कर पा रहे ?
एक उत्तम कोटि के साधक को और मनुष्य को, सिद्धों ने कहा कि वो "राजहंस"
जैसा हो जाये । राजहंसों के बारे नें कहा जाता है कि केबल राजहंस ऐसा
पक्षी है, कि जब उसके झुण्ड में दूर से उड़कर आया दूसरा झुण्ड मिल जाये
तो बिना किसी लड़ाई झगड़े के सहजता से एक दूसरे को स्वीकारते हैं | यहां
तक कि राजहंस के बारे में कहावत है कि यदि एक राजहंस की टांग टूट जाये,
तो अन्य राजहंस चारों तरफ उसकी रक्षा करते हैं । उसके दुख से दुखी होते
हैं । यदि एक राजहंस के बच्चों पर संकट आए, तो सभी राजहंस उसकी सहायता
करते हैं । इन स्वभावों के कारण कहा गया कि व्यक्ति या साधक "परमहंस" है
। परमहंस का तात्पर्य है जो सभी के दुखों को अपना मानता है । जो सभी धर्म
को लोगों को अपना सहयोगी मानता है । पृथ्वी पर रहने वाले सभी मनुष्यों
को, जीव जंतुओं को, स्थूल और सूक्ष्म तत्वों को अपना मानता है । और उनको
अपने से जुड़ा हुआ प्राप्त करता है, पाता है, वही राजहंस होता है । लेकिन
सिद्धों का ये संदेश कि "तुम परमहंस हो जाओ", वो कहीं न कहीं अब नष्ट
होता जा रहा है । और "श्वान वृत्तियाँ" हमारे भीतर हैं । हम अपने लिए ही
सबकुछ करना चाहते हैं । और ये श्वान वृत्ति? अपने लिए ही सोचते हैं, ये
"श्वान वृत्ति" है । इस श्वान वृत्ति से जब तक मुक्ति नहीँ मिलती, तब तक
साधक साधना के पथ पर आगे नही बढ़ता । और वो सिद्धों के दिये ज्ञान को नही
प्राप्त कर सकता ।
ज्ञान आध्यात्म का बहोत ही गोपनीय और गूढ़ होता है, कभी कभी हमें ये लगता
है कि जो मौलिक कर्तव्य हैं वही धर्म है । जैसे 'कभी झूठ नही बोलना', ये
केवल मौलिक कर्तव्य है । और वो धर्म भी हो सकता है । लेकिन "मूल
अध्यात्म" नही, मूल अध्यात्म उससे प्रेरित होता है । मूल आध्यात्म की वो
"आवश्यकता" है । अगर तुम झूठ बोलते हो, तो आध्यात्म में सफल नही हो
पाओगे, तुम चाहे जितने नाक रगड़ लो । इसलिए मूल आध्यात्म आगे नहीँ बढ़ पा
रहा । क्योंकि अब श्वान-वृत्तियाँ हैं । तुम्हारे अपने- अपने गुरू होंगे,
तुम्हारे अपने- अपने धर्म होंगे, तुम्हारे अपने- अपने जाति और सम्प्रदाय
होंगे । तुम्हारी अपनी- अपनी विचारधारा होगी । तुम उससे बाहर सोच ही नहीँ
सकते ।
शर्म की बात तो ये है कि मौलिक पद्धतियों में और भौतिक व्यवस्थाओं में
अगर ऐसा हो जाए तो वो सहा जा सकता है । लेकिन धर्म और आध्यात्म में भी जब
ऐसी वृत्तियाँ आ जाएं, तो क्या कहा जाए ? आज के समाज में कुछ धर्म पुरोधा
तो ये कहते हैं कि "जो मै कह रहा हूँ वही केवल सत्य है । क्योंकि मेरे
पास वो शक्तियां हैं, मेरे पास वो अनुभव है, वो अनुभूति है । और यदि तुम
मेरी अनुभूतियों को छोड़कर किसी दूसरी अनुभूति के मार्ग पर जाते हो, तो
सबकुछ खत्म हो जायेगा, सबकुछ नष्ट हो जायेगा ।" ये बड़ा भ्रमित करनेवाला
सिद्धांत है । जबकि सिद्धोँ ने सन्देश तुम्हे भेजा है । वो सन्देश ये है
कि "एक मार्ग का ज्ञान मत रखना ।" अगर तुम हिमालय पर घूम रहे हो और
तुम्हे केबल एक ही मार्ग का ज्ञान है, वो मार्ग कभी भी अवरूद्ध हो सकता
है । ये सृष्टि भी तो हिमालय ही है । तुम्हारा जीवन भी तो हिमालय ही है ।
इसलिए ऐसी परिस्थिति मेँ क्या करना चाहिए ? याद रखो उन्होंने कहा "एक
पर्वत में चढ़ने के सौ रास्ते हैं । ये आवश्यक नही कि तुम सौ में से सौ
रास्ते पर से जाओ । एक ही रास्ते से तुम वहाँ तक जा पहुंचोगे, किन्तु
उच्च कोटि का साधक वही है, जिसे उन सौ में से कम से कम आधे पचास मार्गों
का ज्ञान तो हो ।" ठीक वैसे ही आज बहोत से गुरू कहते हैं, बहोत से संत
कहते हैं कि "तुम मंत्र न जपो, मंत्र की जरूरत नहीँ । तंत्र की भी जरूरत
नहीँ । यंत्रों की भी जरूरत नहीँ । योग की जरूरत नहीँ । तुम बस मेरे पास
बैठ जाओ और तुम्हारा कल्याण होने लगेगा ।" ये बड़ी भ्रमित करने वाली बात
और सिद्धान्त है । सिद्धों ने तुम्हे सन्देश दिया था कि "तुम सभी तत्वों
को जानो । 'मंत्र' को, 'ज्योतिष' को, 'तंत्र' को, 'रसायन' को । " एक
व्यक्ति तुम्हे समझा रहा है कि "मै जो कुछ करता हूं, मेरा जो मार्ग है,
वो उत्तम है । " लेकिन उस व्यक्ति से पूछो, जो तुम्हे यह मार्ग दे रहा है
कि "तुम्हे यह मार्ग कैसे मिला?" अपने आप मिल गया ? तो ये मूर्खता है । सहस्त्रों- सहस्त्रों मे से एक व्यक्ति हो सकता है कि जिसे जन्मजात वह
मार्ग स्वतः मिल गया हो । लेकिन पर्दे के पीछे पूर्व जन्मों का सिद्धांत
वहाँ होगा । पूर्व जन्म में उसने भी 'मंत्र', 'योग', 'ज्योतिष', 'तंत्र',
'प्रार्थनाएं' और और भी न जाने कितने प्रकार के अभ्यास किये होंगे, तब
जाके वो इस स्थिति तक पहुंचा है । इस स्थिति पर आने के बाद वो तुम्हें कह
रहा है कि सब चीजें निरर्थक हैं । तो सिद्धों की बात को याद रखना कि "जब
तुम 'गुरूओं' का अनुसरण करते हो और 'ईश्वर के पुत्रों' का अनुसरण करते
हो, तो तुम्हें लगेगा कि कुछ करने की आवश्यकता नहीँ । क्योंकि उन्होंने
बस आशीर्वाद दे दिया, अपने अनुकम्पा से तुम्हे सर्वसमर्थ कर दिया,
तुम्हारे दुःखोँ का...... तो सब कुछ संभव हो गया ।
"
सिद्धों ने कहा, "ये झूठ है ! ये मृगमारीचिका है ! ये छद्मता है ! इससे
बचे रहना ! तुम्हें स्वयं उसी व्यक्ति जैसा हो जाना है, जो सहस्त्रों
लोगों को ये कह सकता है कि ईश्वर की अनुकम्पा मेरे माध्यम से तुम तक
होगी, तो तुम्हारे माध्यम से वो अन्यों तक क्यों नही हो सकती !" और वो
व्यक्ति कहेगा कि "तुम मेरे सिद्धांतों पर चलो ।" वो इसलिए कि कहीं तुम
उस व्यक्ति की जगह न आ जाओ, और बाकी तुम्हारे सिद्धांतो पर चलना न शुरू
कर दें । वो कभी ये नही चाहेगा कि तुम आम व्यक्ति से हटकर विशिष्ट
व्यक्ति हो जाओ । वो स्वयं विशिष्ट रहना चाहेगा । ये छद्मता श्वान वृत्ति
है, कि रोटी के अधिक टुकड़े मेरे पास हों, मै दूसरों को बाटकर नही दे
सकता । ऐसी परिस्थिति में सावधान रहना । याद रखना कि सभी मार्गों का
ज्ञान तुम्हे अवश्य प्राप्त करना है । तुम 'योग' भी सीखो । 'ज्योतिष' भी
सीखो । 'मंत्र' भी सीखो । 'साधनाएं' भी सीखो । सभी 'धर्मोँ और 'पंथों' का
ज्ञान भी प्राप्त करो । और फिर जो अपनी मौलिक साधनाएं हैं, अपना जो मौलिक
विचार है, उसकी तलाश में निकल जाओ । "याद रखना इस 'तत्व' को ।" 'वेद' का
ज्ञान लेने से, 'शास्त्र' का ज्ञान लेने से, 'धर्मों' का ज्ञान लेने से,
'योग', 'ज्योतिष', 'तंत्र', 'वास्तु', 'रसायन', 'पारद' किसी भी विधा का
ज्ञान लेने से, तुम्हारे जीवन में कोई विशेष परिवर्तन नही आयेगा । हां,
ये परिवर्तन जरूर आ सकता है कि समाज में तुम अपनी "विद्वत्ता" दिखा सको ।
कि देखो मै प्रवचन दे सकता हूँ , कि देखो मुझे इतने मंत्र आते हैं, देखो
मै इतने योगासन कर सकता हूं, मै अपनी हड्डी उतनी टेढ़ी कर सकता हूं कि
तुम्हारी तब तक टूट जाये । इससे "आध्यात्म" का कोई लेना देना नहीँ है |
हो सकता है तुम एक ही आसन पर दो- दो, चार- चार वर्ष बिना भोजन के और जल
के रह सको । लेकिन ये भी अध्यात्मिकता नहीँ है ।
सिद्धों ने कहा आध्यात्मिकता बड़ी ही सूक्ष्म और बड़ी ही महीन है । उसके
लिए तो तुम्हे तलाश स्वयं ही करनी होगी । तो गुरु तुम्हारी भाव भूमि
बनायेगा, लेकिन जब तुम कुछ और वृत्ति का परित्याग करते हो । वो वृत्तियां
हैं "वानर वृत्ति" । मनुष्य वानर वृत्ति पर रहना चाहता है । वो अपने
आसपास चीजें लेता है और उनको अपने पास ही रखना चाहता है । हालाँकि उनका
उपयोग नहीँ करता, उनका उपभोग नहीँ करता । उदाहरण... एक व्यक्ति को प्यास
लगी है और उसके पास दो पानी की बोतलें हैं | वो अपनी बोतल से थोड़ा सा
पानी पी लेता है | फिर दूसरी वोतल, वो भी खोलके पी जाता है | ये वानर
वृत्ति है | ऐसा व्यक्ति साधना में सफल नही हो सकता । वो सूक्ष्मता को
नही प्राप्त कर पायेगा | क्योंकि वो जो दूसरी बोतल थी, वो दूसरे व्यक्ति
को मिल सकती थी, दी जा सकती थी ।
आजकल आप किसी भी क्षेत्र में जाइये और मनुष्यों को भोजन करते देखिये ।
भोजन करते- करते आवश्यकता से अधिक भोजन लेगा । तत्पश्चात भोजन पड़ा रह
जायेगा । ऐसा व्यक्ति सूक्ष्म आध्यात्मिकता को प्राप्त कर ही नहीँ सकता ।
ये मै दावे से नहीँ, अपने जन्मों जन्मों के अनुभव से कह सकता हूँ ।
क्योंकि वो सूक्ष्म तत्व तक कभी नही पहुचेगा । पश्चिम में बहोत ऐसे
विद्वान हुए, दक्षिण में बहोत ऐसे विद्वान हुए, यदि अन्न का एक दाना बाहर
गिर जाये, तो सुई से उस दाने को बींधकर, पानी से धोकर उसका सेबन करते थे
। ऐसे व्यक्तियों के भीतर वानर तत्व नही होता । वो ईश्वर तत्व को जानते
हैं और वो सिद्धों की भाषा को समझते हैं ।
सिद्धों ने कहा उतना ही लो जितने की तुम्हे आवश्यकता है । लेकिन इन वानर
वृत्तियों से तुम मुक्त नही हो सकते । यदि तुम्हारे पास एक नौकरी है, तुम
चाहते हो कि तुम्हे दो मिल जाये और तुम दोनो को एक साथ रख सको । तुम्हारे
पास एक वाहन है, तुम चाहते हो कि चार वाहन तुम्हारे पास हों, ताकि तुम
वानर वृत्ति को और अधिक प्रदर्शित कर सको । तुम्हारे पास एक घर है, तुम
चाहते हो कि पचास घर हो जायें ! ये वानर वृत्ति जब तक तुम्हारी नष्ट नही
होगी, सिद्धों नेँ कहा तुम वास्तविक विकास को अनुभव नही कर पाये हो । और
तुम वास्तविक रूप से विकसित नही हो पा रहे ।
इन पशुजन्य वृत्तियों के बाद चीँटी जैसी वृत्तियों से भी तुम्हे मुक्त
होना होगा । और चीटियों को देखिए, वो एक रानी के लिए कार्य करती हैं । वो
सुबह से लेकर शाम तक इतना अधिक कार्य करती हैं कि वो हर क्षण कार्य करने
में लगी रहती हैं । वो सुबह से लेकर शाम तक इतना अधिक काम करती हैं कि हर
क्षण कार्य में लगी रहती हैं । और उनका गुण की, अपनी आवश्यकता से अधिक
उठाकर ले जाती हैं । अपने स्वरूप से भी अधिक उठाकर ले जाती हैं । अपने
स्वभाव से भी अधिक उठाकर ले जाती हैं । हमारा मन भी ऐसा ही है । हम जीवन
में चाहते हैं कि धर्म में भी सबकुछ हमे एक ही साथ मिल जाए, "एक ही क्षण"
। जब तक ये वृत्ति रहेगी, ये पिपिलिका जैसी वृत्तियां अर्थात चीटियों
जैसी वृत्तियां रहेंगी, तब तक कुछ नहीँ मिलेगा ।
लोग चाहते हैं कि मन्दिरों में जाएं तो लड़ते हैं । संतों के पास आते हैं
तो पाँव छूने के लिए एक दूसरे के उपर चढ जाते हैं । किसी इष्ट की प्रतिमा
के दर्शन करने के लिए सौ लोगों को रौदते हुए जा सकते हैं । अरे इससे
तुम्हारा क्या विकास होगा ? मै कहता हूं कि यदि तुम मंदिर के द्वार से
बिना ईष्ट के दर्शन किये ही लौट जाओ, तो तुम्हें पुण्य अवश्य मिलेगा ।
लेकिन यदि एक व्यक्ति को धक्का देकर, एक व्यक्ति के साथ छल करके, यदि
पंक्ति को तोड़कर तुम आगे गये तो तुमसे बड़ा मूर्ख इस पृथ्वी पर कोई नही
हो सकता । तो ये पीपिलिका जैसी वृत्ति कि, अधिक ले जाऊँ, पहले ले जाऊँ,
जब तक ये तुम्हारे भीतर हैं, तुम इस मानव जीवन का आनंद नही उठा पाओगे ।
तुम विकास को अनुभव ही नही कर पाओगे | तब "साधना" तुम्हारे लिए है ही
नहीँ | तब ये संसार, ये पृथ्वी भी तुम्हारे लिए है ही नहीँ ।
पृथ्वी तो उनके लिए है जो "सिद्ध" हो । जगत तो सिद्धों का है | यहां पर
रहने के लिए "सिद्ध वृत्तियाँ" चाहिए । प्रेम वृत्तियाँ चाहिए ।
सहिष्णुता चाहिए । जब ये छोटी-छोटी वृत्तियाँ तुम्हारे भीतर आयेंगी, तभी
तुम कुछ प्राप्त कर पाओगे ।
बहोत से साधक इन वृत्तियों को नहीँ समझ पाते । समझाने के बाद भी नहीँ समझ
पाते । इसलिए उनके लिए अनुशासन नाम का शब्द बना दिया गया । उनको कहा गया
ये "कर्मठ गुरू" है । कर्मकाण्ड का सिद्धांत है । ये "गुरू गीता" है ।
अर्थात गुरू के साथ कैसे संबंध स्थापित करें, कैसे आचरण करें, कैसे रहें
? ये सब गुरूगीता बताती है । "शिव मार्ग", शिव मार्ग एक ऐसा ग्रन्थ है जो
बताता है कि शिव के साथ कैसे रहना चाहिए । उनकी साधना और आराधना कैसे
होनी चाहिए ? "देव मार्ग" देवी देवताओं के सिद्धांत को बताता है । और
"कल्प मार्ग", वो सृष्टि में कैसे रहना है, समाज में कैसे रहना है ? इसके
बारे में हमे स्पष्ट निर्देश देता है ।
लेकिन हम इन सिद्धांतों, इन तत्वों को भूल गये हैं । इस कारण हमारा जीवन
बड़ा ही जटिल, बड़ा ही क्लिष्ट हो चुका है । हम प्रयास तो करते हैं,
लेकिन वो निरर्थक हो जाता है ।
इसलिए सिद्धों ने कहा कि इससे पहले कि तुम आध्यात्म में कदम रखोँ, तुम
हमारी ओर आना चाहो, तो तुम इन सिद्धांतो को, हमारे इन सन्देशों को जरा
सुन लेना । उनपर पहले अभ्यास कर लेना । फिर हम तुमसे कोई "भेद" नहीँ
रखेंगे । न जाति, न लिंग, न वर्ण, न धर्म, कुछ भी नहीँ । हम तो तुम्हारा स्वागत
करते हैं । क्योंकि जो अत्यंत सूक्ष्म विधाएं और ज्ञान है, जो तुम्हे
"ईश्वर का पुत्र" बना सकते हैं, वैसी "अनुभूति" तुम्हें दे सकते हैं । और
तुम इस छोटी सी पृथ्वी ही नहीँ, बरन इसके बाहर के ब्रह्माण्ड में स्थित
अन्य पृथ्वियों को भी देख सकते हो, ऐसी ऊर्जा और शक्ति हम देने को तैयार
हैं, लेकिन वो तब जब तुम साधक बन जाओ । जब तुम इन पशु वृत्तियों से मुक्त
होने लगो । जब गिद्ध जैसी वृत्तियाँ न रहे ।
गिद्ध का स्वभाव है और उस पक्षी की विशेषता है या उसकी आवश्यकता है कि वो
मरे हुए जीव पर निर्भर रहता है । हम भी वैसे ही हैं । हमारे ही साथ के
लोग मर रहे हैं । उन्हें दुःख उठाना पड़ रहा है । वो रो रहे हैं, चिल्ला
रहे हैं । दुःख से वेदनाओं से ग्रसित हैं, तड़प रहे हैं और हम सो रहे हैं
। वो परेशान हैं, भोजन नही है, वस्त्र नही है और हम शांत बैठे हैं । यदि
तुम ऐसी परिस्थिति में शांत रह सकते हो । तुम्हारे आसपास कोई व्यक्ति मर
गया है और तुम बिलकुल शांत बैठे हो, तो तुम "गिद्ध" जरूर बन सकते हो,
"सिद्ध" नहीँ बन सकते । तुम्हें ऐसी गिद्ध वृत्तियों से मुक्त होना होगा
।
गरीब व्यक्ति यदि व्यवसाय कर रहा हो, तो मैने देखा, उसका सहयोग करना तो
दूर उसे ये समाज आगे बढ़ने का एक अवसर तक नहीँ देता । ये गिद्ध वृत्ति
है, तुम नोच रहे हो उस व्यक्ति को । यदि तुम्हारी कोई स्थिति है, तो तुम
"किसी को नोचना मत" । "किसी को वेदना मत देना" । किसी की सहायता कर सको
तो ये तुम्हारी "सिद्ध वृत्ति" है । तुम "सिद्ध" हो और जिस क्षण तुम किसी
को दे न सको, केवल ले सको, अपने पास अपने लिए स्थापित करो, तो तुम
"गिद्ध" ही हो ।
छोटे छोटे बच्चे जब किसी ये प्रेम करते हैं, तो अपना खिलौना सबसे पहले उस
व्यक्ति को ले जाकर दिखाते हैं, देखो ये मेरा खिलौना है । और यदि उनका
प्रेम और घनीभूत होता है, तो वो अपना खिलौना उठाकर दूसरे व्यक्ति को दे
देता हैं । और उसको खेलते देखकर खुद ताली बजाते हुए वो बच्चा खुश होता है
। उस बालक के भीतर सहज सिद्धोँ की वृत्ति है । सिद्धों ने कहा तुम इस
वृत्ति को सीख लेना, तो हम तुमसे प्रेम करने लगेंगे ।
और यदि तुमने इन छोटी छोटी बातों को सीख लिया, तो उस "सूक्ष्म हिमालय" से
जो इस दृश्य हिमालय से भी बहोत पीछे है । वहाँ से कोई न कोई सिद्ध आकर
जरूर तुम्हारा हाथ थाम लेगा ।
और वो हाथ इतना मजबूत हाथ होता है कि भले
ही "विज्ञान", "तर्क", "शास्त्र", "ज्योतिष", "धर्म" और "संपूर्ण समाज"
ये कहे कि ये हाथ तुम्हारी रक्षा नहीँ कर पायेगा । केवल वही "सच्चा हाथ"
है जो तुम्हें अपने साथ ले जा सकता है । तुम्हें उच्च धरातल का बना सकता
है । और तुम्हें "पूर्णता" के मार्ग में ले जाकर "पूर्ण पुरूष" बना सकता
है । तुम सिद्धों के बहोत छोटे-छोटे ये दो- चार सन्देशों को यदि समझ जाते
हो तो ये "सिद्ध" फिर तुम्हारे लिए शुभकामनाएँ करते हैं । मंगल कामनाएँ
करते हैं । और तुम्हारी "प्रतीक्षा" करते हैं । सिद्धोँ के सूक्ष्म संदेश
में आज अभी इतना ही । ॐ नमः शिवाय ! प्रणाम ! -
…………………………कौलान्तक पीठाधीश्वर महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी महाराज (ईशपुत्र)
समझिये । उसके लिए पहले हम "भूमिका" पर जाते हैं । एक समय
था जब मनुष्य अलग -अलग हिस्सों में बटकर मानव के विकास को सुनिश्चित करने के लिए कार्य कर रहा था । तब "सिद्धों" का एक ऐसा
समाज स्थापित हुआ, जिन्होने "योग", "ज्योतिष", "धर्म- आध्यात्म"
सहित "चिकित्सा", "कला", "युद्ध" और भी न जाने "गायन"
सहित कितनी "ललित कलाओं" और "विद्याओं" को
जन्म दिया । उन्होने मानव जीवन को "सुखी"
बनाने के लिए बड़े प्रयास किये । हालाँकि राजशाही के
दौरान इन परंपराओं का बहोत हद तक "निर्वहन" भी
होता रहा । लेकिन धीरे-धीरे राजशाही बहुत
छोटे-छोटे टुकड़ो में बट गई| छोटे-छोटे राजा हो गये । और
छोटी-छोटी उनकी सीमाएं और
उसके भीतर प्रजा । उनको "विकास" का वो समय
नही प्राप्त हो सका, जो उन्हें होना चाहिए था । इस
कारण "महान ज्ञान सम्राज्य" की
"खोज" उन "सिद्धों" ने की, वो सब तक जस का तस
नही पहुच सका । "नव नाथ", "चौरासी सिद्धों"
ने बहुत पूर्व में इन क्षेत्रों में "ज्ञान का प्रादुर्भाव" किया| उसको
जाना, समझा, "ऋषियों की परंपराओं" को अपने
जीवन में उतारा और "अनुभव" करके जब उन्हें "पूर्ण"
पाया, तो "मानवता की सेवा" में उन्हें "समर्पित" कर दिया ।
भारत में "सिद्धों का धर्म" एक ऐसा "धर्म" है, जो किसी
"दूसरे धर्म" की "निन्दा अथवा आलोचना" नहीँ
करता । उसे "किसी धर्म" से "नफरत" ही
नहीँ है । उसे "किसी धर्म" या "धर्म के
व्यक्ति", "उसके शीर्ष पे बैठे व्यक्तियों" से
भी कोई "परेशानी" नहीँ है ।
इस "सिद्धों" की "भूमि", जहाँ हम "समस्त सिद्ध",
"योगी" और "यति" रहते हैं, वो "हिमालय" है । इसके "दो
प्रारूप" हैं, एक तो वो प्रारूप जो नजर आ रहा है, ये स्थूल है ।
जब चेतना जागृत होती है, तो इसके उपर एक
"सूक्ष्म हिमालय" है । जिस पर अन्य "सिद्ध" रहते हैं । जहाँ जाने
के लिए "पात्रता" और "योग्यता" चाहिए । लेकिन सिद्धों की
उस भूमि में किसी "एक जाति", किसी "एक
धर्म", किसी "एक वर्ण" अथवा किसी "एक
लिंग" का "व्यक्ति" अथवा "साधक" नही है । अपितु
सभी धर्म के प्रधान, सभी धर्म के
उच्च कोटि के व्यक्ति वहाँ विद्यमान हैं ।
"सिद्धों" ने "समाज" को बाँटा
नही, नाथों ने समाज को "जातिप्रथा" नही
दी । उन्होंने कभी "वर्ण" और "व्यक्ति" में
"भेद" नहीं किया । उन्होंने "आस्तिक" और "नास्तिकों" में
भी भेद नही किया । लेकिन आज उनका
सन्देश हमारे कानोँ तक नहीँ पहुंच रहा । उन्होंने इस
"दिव्य" सिद्ध पीठ से, इस दिव्य "कौलान्तक
पीठ" से एक संदेश सदा प्रेषित किया है । वो है
"मनुष्य के कल्याण" का संदेश, मनुष्य के मध्य "प्रेम", "भ्रातृत्व",
"स्नेह" और "करूणा" का संदेश । लेकिन शायद "समाज",
हमारी "सभ्यता" इस संदेश को भूल गई है । आज वो
केवल "अपने धर्म" को ही "श्रेष्ठ" मानते हैं । और
दूसरों को "अधूरा और खोखला" । आज वो "अपने गुरू" को
ही "श्रेष्ठ" मानते हैं, दूसरे को "ढोंगी
अथवा कपटी" । आज वो केवल अपने "विचारधारा" को
ही प्रमुख मानते हैं । और दूसरे की
विचारधारा को "शून्य" । ये "सिद्धों का संदेश" शायद कहीं
विखण्डित हो गया है| टूट गया है और वो तुम तक
नही पहुंच पा रहा है । इसलिए तुम अपने "कथित
धर्म" को और "कथित सिद्धांत" को मजबूती से पकड़े
हुए हो । हालाँकि वो गलत हो सकता है । "गलत है", ये मै
नही कह रहा । "गलत हो सकता है" ये मैं कह
रहा हूं । तो सिद्धों ने कहा - "तुम सबको जानोँ, अपने
जीवन को और मनुष्य को सुखी बनाने का
प्रयास करो, लेकिन भातृत्व-स्नेह तो रखोँ !" वो तुम्हारे हृदय में
रहता ही नही है ! उन्होंने कुछ ऐसे
सिद्धांतों की बास कही थी, जो
बिल्कुल अलग और गोपनीय थे ।
"सिद्धों" ने "धर्म" को
"व्यापक" रूप से जाना और "धर्म की व्याख्या"
भी "व्यापक" रूप से की । इसलिए "सिद्ध पंथ"
में उत्पन्न हुए व्यक्ति और साधक किसी "एक विचार" और
"एक धर्म" तक ही "सीमित"
नहीँ रहे ।
केवल हम सिद्धों की एक ऐसी परम्परा
रही कि तुम यदि "अपने या अपने आसपास के"
किसी "धर्म" मे टटोलो, तो सिद्धों का कोई न कोई "एक
व्यक्ति" या "बहोत से व्यक्ति" वहाँ अवश्य मिल जायेंगे । जो कि इस
बात का प्रमाण है कि हमने "धर्मों" के साथ भी "भेदभाव"
नहीँ किया । लेकिन जब ये संसार अपने व्यापक दर्शन
अर्थात "भौतिकता" और उसके उन्नति में "लिप्त" हो गया । तब वो सिद्धों
का "मूल सन्देश" तुम तक नहीँ पहुँच पा रहा । पहले तो सिद्धों
का "स्थूल संदेश" है कि तुम अपने जीवन में एक
बहोत "उच्च कोटि का मस्तिष्क" रखोँ और "हृदय" रखोँ । "सबका
सम्मान करो" और अपनी दिव्य इच्छाओं का पालन करो
और संसार में "सबका सहयोग करते हुए" आगे बढ़ो । और "दूसरा"
उनका "संदेश" है कि सिद्धों की जो "भूमि" है, आपको
"प्रकाश" दे रही है| उसका, उस "स्थान" का आपको पता
करना होगा । उसकी "खोज" करके अपने
भीतर उसके "तत्वों" को स्थापित करना होगा । क्योंकि ये
तत्व सहज नही हैं, ये बड़े ही
"अलौकिक" तत्व हैं । इसलिए सिद्धों के पथ पर आगे आना होगा ।
इसलिए वो सदैव मनुष्य को "निमंत्रण" भेजते हैं ।
लेकिन आज वो निमंत्रण "निरर्थक" प्रतीत होता है ।
मनुष्य आज भी पशुओं की भांति
व्यवहार कर रहा है । छोटे-छोटे गाँव में श्वान अर्थात कुत्ते होते
हैं । लोगों ने अपनी रक्षा के लिए, अपने परिवार
की रक्षा के लिए और गाँव में खेती
बाड़ी की रक्षा के लिए कुत्तों को पाला होता
है । जो गडरिये हैं, भेड़ बकरी चराते हैं, चरवाहे हैं
अथवा जो पशुओं को लेकर वनों में जाते हैं । गल्ला लेकर बनों तक
प्रस्थान करते हैं, वो भी कुत्तों को पालते हैं, इसलिए
ताकि वो अपने मालिक की और अपने स्वामी
सहित उसके अन्य तत्वों की रक्षा कर सकें । ये
व्यक्ति और ये प्राणी दोनो ही एक दूसरे
के पूरक हैं । अर्थात मालिक और श्वान । श्वान अपने मालिक
की वफादारी करता है और मालिक अपने
श्वान को संरक्षण देता है । लेकिन श्वान में एक ऐसी
"वृत्ति" है, जिसके कारण "स्वामी भक्त" होने के बाद
भी उसे बहोत अधिक सम्मान का भाव
नही दिया गया, वो प्राप्त ही
नही हो सका । उसका कारण है उसकी
एक "वृत्ति" ।
वो वृत्ति ये है कि वो जिस छोटे से क्षेत्र में रहता है,
वहाँ किसी दूसरे श्वान को नही आने
देता । जैसे ही एक गांव के कुत्ते उसका एक झुण्ड
कहीं घूम रहा हो अपने गांव और अचानक
कहीं से कोई अपरिचित कुत्ता यदि वहां आ जाये, तो
सब टूटकर नोच-नोचकर उसके चिथड़े-चिथडे कर देंगे । जब तक कि वो
मर ही न जाय, उसे काटते रहेंगे ।
आज सिद्ध यही बात फिर हमें याद दिला रहे हैं कि
कहीं ऐसा तो नही कि इन पशुओं के
संगत में रहते-रहते इनके कुछ विचार हम मनुष्यों में
भी आ गये हों ?! न जाने क्यों जब भी
कोई समाज में अपना संदेश देने आता है । जब भी कोई
"सिद्ध" तुम्हें बताने की चेष्ठा करना चाहता है, तुम
तुरंत गुर्राने लगते हो, तुम तुरंत काट खाने को दौड़ते हो । और
तुम्हारे समाज में इस तरह के अनेक झुण्ड हैं । कोई
मीडिया के नाम पर झुण्ड, कोई शासन व्यव्स्था के नाम
पर झुण्ड और कोई व्यापार के नाम पर झुण्ड । इस तरह से
स्त्रियाँ अब अलग झुण्डों में बट गईं, पुरूष अब अलग झुण्डों में
बट गये, वृद्धों का अलग झुण्ड हो गया, युवाओं का अपना अलग
झुण्ड हो गया । कब तक तुम इन "श्वान वृत्तियों" में फसे रहोगे ?
और क्यों तुम इन श्वान-वृत्तियोंका परित्याग नही
कर पा रहे ?
एक उत्तम कोटि के साधक को और मनुष्य को, सिद्धों ने कहा कि वो "राजहंस"
जैसा हो जाये । राजहंसों के बारे नें कहा जाता है कि केबल राजहंस ऐसा
पक्षी है, कि जब उसके झुण्ड में दूर से उड़कर आया दूसरा झुण्ड मिल जाये
तो बिना किसी लड़ाई झगड़े के सहजता से एक दूसरे को स्वीकारते हैं | यहां
तक कि राजहंस के बारे में कहावत है कि यदि एक राजहंस की टांग टूट जाये,
तो अन्य राजहंस चारों तरफ उसकी रक्षा करते हैं । उसके दुख से दुखी होते
हैं । यदि एक राजहंस के बच्चों पर संकट आए, तो सभी राजहंस उसकी सहायता
करते हैं । इन स्वभावों के कारण कहा गया कि व्यक्ति या साधक "परमहंस" है
। परमहंस का तात्पर्य है जो सभी के दुखों को अपना मानता है । जो सभी धर्म
को लोगों को अपना सहयोगी मानता है । पृथ्वी पर रहने वाले सभी मनुष्यों
को, जीव जंतुओं को, स्थूल और सूक्ष्म तत्वों को अपना मानता है । और उनको
अपने से जुड़ा हुआ प्राप्त करता है, पाता है, वही राजहंस होता है । लेकिन
सिद्धों का ये संदेश कि "तुम परमहंस हो जाओ", वो कहीं न कहीं अब नष्ट
होता जा रहा है । और "श्वान वृत्तियाँ" हमारे भीतर हैं । हम अपने लिए ही
सबकुछ करना चाहते हैं । और ये श्वान वृत्ति? अपने लिए ही सोचते हैं, ये
"श्वान वृत्ति" है । इस श्वान वृत्ति से जब तक मुक्ति नहीँ मिलती, तब तक
साधक साधना के पथ पर आगे नही बढ़ता । और वो सिद्धों के दिये ज्ञान को नही
प्राप्त कर सकता ।
ज्ञान आध्यात्म का बहोत ही गोपनीय और गूढ़ होता है, कभी कभी हमें ये लगता
है कि जो मौलिक कर्तव्य हैं वही धर्म है । जैसे 'कभी झूठ नही बोलना', ये
केवल मौलिक कर्तव्य है । और वो धर्म भी हो सकता है । लेकिन "मूल
अध्यात्म" नही, मूल अध्यात्म उससे प्रेरित होता है । मूल आध्यात्म की वो
"आवश्यकता" है । अगर तुम झूठ बोलते हो, तो आध्यात्म में सफल नही हो
पाओगे, तुम चाहे जितने नाक रगड़ लो । इसलिए मूल आध्यात्म आगे नहीँ बढ़ पा
रहा । क्योंकि अब श्वान-वृत्तियाँ हैं । तुम्हारे अपने- अपने गुरू होंगे,
तुम्हारे अपने- अपने धर्म होंगे, तुम्हारे अपने- अपने जाति और सम्प्रदाय
होंगे । तुम्हारी अपनी- अपनी विचारधारा होगी । तुम उससे बाहर सोच ही नहीँ
सकते ।
शर्म की बात तो ये है कि मौलिक पद्धतियों में और भौतिक व्यवस्थाओं में
अगर ऐसा हो जाए तो वो सहा जा सकता है । लेकिन धर्म और आध्यात्म में भी जब
ऐसी वृत्तियाँ आ जाएं, तो क्या कहा जाए ? आज के समाज में कुछ धर्म पुरोधा
तो ये कहते हैं कि "जो मै कह रहा हूँ वही केवल सत्य है । क्योंकि मेरे
पास वो शक्तियां हैं, मेरे पास वो अनुभव है, वो अनुभूति है । और यदि तुम
मेरी अनुभूतियों को छोड़कर किसी दूसरी अनुभूति के मार्ग पर जाते हो, तो
सबकुछ खत्म हो जायेगा, सबकुछ नष्ट हो जायेगा ।" ये बड़ा भ्रमित करनेवाला
सिद्धांत है । जबकि सिद्धोँ ने सन्देश तुम्हे भेजा है । वो सन्देश ये है
कि "एक मार्ग का ज्ञान मत रखना ।" अगर तुम हिमालय पर घूम रहे हो और
तुम्हे केबल एक ही मार्ग का ज्ञान है, वो मार्ग कभी भी अवरूद्ध हो सकता
है । ये सृष्टि भी तो हिमालय ही है । तुम्हारा जीवन भी तो हिमालय ही है ।
इसलिए ऐसी परिस्थिति मेँ क्या करना चाहिए ? याद रखो उन्होंने कहा "एक
पर्वत में चढ़ने के सौ रास्ते हैं । ये आवश्यक नही कि तुम सौ में से सौ
रास्ते पर से जाओ । एक ही रास्ते से तुम वहाँ तक जा पहुंचोगे, किन्तु
उच्च कोटि का साधक वही है, जिसे उन सौ में से कम से कम आधे पचास मार्गों
का ज्ञान तो हो ।" ठीक वैसे ही आज बहोत से गुरू कहते हैं, बहोत से संत
कहते हैं कि "तुम मंत्र न जपो, मंत्र की जरूरत नहीँ । तंत्र की भी जरूरत
नहीँ । यंत्रों की भी जरूरत नहीँ । योग की जरूरत नहीँ । तुम बस मेरे पास
बैठ जाओ और तुम्हारा कल्याण होने लगेगा ।" ये बड़ी भ्रमित करने वाली बात
और सिद्धान्त है । सिद्धों ने तुम्हे सन्देश दिया था कि "तुम सभी तत्वों
को जानो । 'मंत्र' को, 'ज्योतिष' को, 'तंत्र' को, 'रसायन' को । " एक
व्यक्ति तुम्हे समझा रहा है कि "मै जो कुछ करता हूं, मेरा जो मार्ग है,
वो उत्तम है । " लेकिन उस व्यक्ति से पूछो, जो तुम्हे यह मार्ग दे रहा है
कि "तुम्हे यह मार्ग कैसे मिला?" अपने आप मिल गया ? तो ये मूर्खता है । सहस्त्रों- सहस्त्रों मे से एक व्यक्ति हो सकता है कि जिसे जन्मजात वह
मार्ग स्वतः मिल गया हो । लेकिन पर्दे के पीछे पूर्व जन्मों का सिद्धांत
वहाँ होगा । पूर्व जन्म में उसने भी 'मंत्र', 'योग', 'ज्योतिष', 'तंत्र',
'प्रार्थनाएं' और और भी न जाने कितने प्रकार के अभ्यास किये होंगे, तब
जाके वो इस स्थिति तक पहुंचा है । इस स्थिति पर आने के बाद वो तुम्हें कह
रहा है कि सब चीजें निरर्थक हैं । तो सिद्धों की बात को याद रखना कि "जब
तुम 'गुरूओं' का अनुसरण करते हो और 'ईश्वर के पुत्रों' का अनुसरण करते
हो, तो तुम्हें लगेगा कि कुछ करने की आवश्यकता नहीँ । क्योंकि उन्होंने
बस आशीर्वाद दे दिया, अपने अनुकम्पा से तुम्हे सर्वसमर्थ कर दिया,
तुम्हारे दुःखोँ का...... तो सब कुछ संभव हो गया ।
"
सिद्धों ने कहा, "ये झूठ है ! ये मृगमारीचिका है ! ये छद्मता है ! इससे
बचे रहना ! तुम्हें स्वयं उसी व्यक्ति जैसा हो जाना है, जो सहस्त्रों
लोगों को ये कह सकता है कि ईश्वर की अनुकम्पा मेरे माध्यम से तुम तक
होगी, तो तुम्हारे माध्यम से वो अन्यों तक क्यों नही हो सकती !" और वो
व्यक्ति कहेगा कि "तुम मेरे सिद्धांतों पर चलो ।" वो इसलिए कि कहीं तुम
उस व्यक्ति की जगह न आ जाओ, और बाकी तुम्हारे सिद्धांतो पर चलना न शुरू
कर दें । वो कभी ये नही चाहेगा कि तुम आम व्यक्ति से हटकर विशिष्ट
व्यक्ति हो जाओ । वो स्वयं विशिष्ट रहना चाहेगा । ये छद्मता श्वान वृत्ति
है, कि रोटी के अधिक टुकड़े मेरे पास हों, मै दूसरों को बाटकर नही दे
सकता । ऐसी परिस्थिति में सावधान रहना । याद रखना कि सभी मार्गों का
ज्ञान तुम्हे अवश्य प्राप्त करना है । तुम 'योग' भी सीखो । 'ज्योतिष' भी
सीखो । 'मंत्र' भी सीखो । 'साधनाएं' भी सीखो । सभी 'धर्मोँ और 'पंथों' का
ज्ञान भी प्राप्त करो । और फिर जो अपनी मौलिक साधनाएं हैं, अपना जो मौलिक
विचार है, उसकी तलाश में निकल जाओ । "याद रखना इस 'तत्व' को ।" 'वेद' का
ज्ञान लेने से, 'शास्त्र' का ज्ञान लेने से, 'धर्मों' का ज्ञान लेने से,
'योग', 'ज्योतिष', 'तंत्र', 'वास्तु', 'रसायन', 'पारद' किसी भी विधा का
ज्ञान लेने से, तुम्हारे जीवन में कोई विशेष परिवर्तन नही आयेगा । हां,
ये परिवर्तन जरूर आ सकता है कि समाज में तुम अपनी "विद्वत्ता" दिखा सको ।
कि देखो मै प्रवचन दे सकता हूँ , कि देखो मुझे इतने मंत्र आते हैं, देखो
मै इतने योगासन कर सकता हूं, मै अपनी हड्डी उतनी टेढ़ी कर सकता हूं कि
तुम्हारी तब तक टूट जाये । इससे "आध्यात्म" का कोई लेना देना नहीँ है |
हो सकता है तुम एक ही आसन पर दो- दो, चार- चार वर्ष बिना भोजन के और जल
के रह सको । लेकिन ये भी अध्यात्मिकता नहीँ है ।
सिद्धों ने कहा आध्यात्मिकता बड़ी ही सूक्ष्म और बड़ी ही महीन है । उसके
लिए तो तुम्हे तलाश स्वयं ही करनी होगी । तो गुरु तुम्हारी भाव भूमि
बनायेगा, लेकिन जब तुम कुछ और वृत्ति का परित्याग करते हो । वो वृत्तियां
हैं "वानर वृत्ति" । मनुष्य वानर वृत्ति पर रहना चाहता है । वो अपने
आसपास चीजें लेता है और उनको अपने पास ही रखना चाहता है । हालाँकि उनका
उपयोग नहीँ करता, उनका उपभोग नहीँ करता । उदाहरण... एक व्यक्ति को प्यास
लगी है और उसके पास दो पानी की बोतलें हैं | वो अपनी बोतल से थोड़ा सा
पानी पी लेता है | फिर दूसरी वोतल, वो भी खोलके पी जाता है | ये वानर
वृत्ति है | ऐसा व्यक्ति साधना में सफल नही हो सकता । वो सूक्ष्मता को
नही प्राप्त कर पायेगा | क्योंकि वो जो दूसरी बोतल थी, वो दूसरे व्यक्ति
को मिल सकती थी, दी जा सकती थी ।
आजकल आप किसी भी क्षेत्र में जाइये और मनुष्यों को भोजन करते देखिये ।
भोजन करते- करते आवश्यकता से अधिक भोजन लेगा । तत्पश्चात भोजन पड़ा रह
जायेगा । ऐसा व्यक्ति सूक्ष्म आध्यात्मिकता को प्राप्त कर ही नहीँ सकता ।
ये मै दावे से नहीँ, अपने जन्मों जन्मों के अनुभव से कह सकता हूँ ।
क्योंकि वो सूक्ष्म तत्व तक कभी नही पहुचेगा । पश्चिम में बहोत ऐसे
विद्वान हुए, दक्षिण में बहोत ऐसे विद्वान हुए, यदि अन्न का एक दाना बाहर
गिर जाये, तो सुई से उस दाने को बींधकर, पानी से धोकर उसका सेबन करते थे
। ऐसे व्यक्तियों के भीतर वानर तत्व नही होता । वो ईश्वर तत्व को जानते
हैं और वो सिद्धों की भाषा को समझते हैं ।
सिद्धों ने कहा उतना ही लो जितने की तुम्हे आवश्यकता है । लेकिन इन वानर
वृत्तियों से तुम मुक्त नही हो सकते । यदि तुम्हारे पास एक नौकरी है, तुम
चाहते हो कि तुम्हे दो मिल जाये और तुम दोनो को एक साथ रख सको । तुम्हारे
पास एक वाहन है, तुम चाहते हो कि चार वाहन तुम्हारे पास हों, ताकि तुम
वानर वृत्ति को और अधिक प्रदर्शित कर सको । तुम्हारे पास एक घर है, तुम
चाहते हो कि पचास घर हो जायें ! ये वानर वृत्ति जब तक तुम्हारी नष्ट नही
होगी, सिद्धों नेँ कहा तुम वास्तविक विकास को अनुभव नही कर पाये हो । और
तुम वास्तविक रूप से विकसित नही हो पा रहे ।
इन पशुजन्य वृत्तियों के बाद चीँटी जैसी वृत्तियों से भी तुम्हे मुक्त
होना होगा । और चीटियों को देखिए, वो एक रानी के लिए कार्य करती हैं । वो
सुबह से लेकर शाम तक इतना अधिक कार्य करती हैं कि वो हर क्षण कार्य करने
में लगी रहती हैं । वो सुबह से लेकर शाम तक इतना अधिक काम करती हैं कि हर
क्षण कार्य में लगी रहती हैं । और उनका गुण की, अपनी आवश्यकता से अधिक
उठाकर ले जाती हैं । अपने स्वरूप से भी अधिक उठाकर ले जाती हैं । अपने
स्वभाव से भी अधिक उठाकर ले जाती हैं । हमारा मन भी ऐसा ही है । हम जीवन
में चाहते हैं कि धर्म में भी सबकुछ हमे एक ही साथ मिल जाए, "एक ही क्षण"
। जब तक ये वृत्ति रहेगी, ये पिपिलिका जैसी वृत्तियां अर्थात चीटियों
जैसी वृत्तियां रहेंगी, तब तक कुछ नहीँ मिलेगा ।
लोग चाहते हैं कि मन्दिरों में जाएं तो लड़ते हैं । संतों के पास आते हैं
तो पाँव छूने के लिए एक दूसरे के उपर चढ जाते हैं । किसी इष्ट की प्रतिमा
के दर्शन करने के लिए सौ लोगों को रौदते हुए जा सकते हैं । अरे इससे
तुम्हारा क्या विकास होगा ? मै कहता हूं कि यदि तुम मंदिर के द्वार से
बिना ईष्ट के दर्शन किये ही लौट जाओ, तो तुम्हें पुण्य अवश्य मिलेगा ।
लेकिन यदि एक व्यक्ति को धक्का देकर, एक व्यक्ति के साथ छल करके, यदि
पंक्ति को तोड़कर तुम आगे गये तो तुमसे बड़ा मूर्ख इस पृथ्वी पर कोई नही
हो सकता । तो ये पीपिलिका जैसी वृत्ति कि, अधिक ले जाऊँ, पहले ले जाऊँ,
जब तक ये तुम्हारे भीतर हैं, तुम इस मानव जीवन का आनंद नही उठा पाओगे ।
तुम विकास को अनुभव ही नही कर पाओगे | तब "साधना" तुम्हारे लिए है ही
नहीँ | तब ये संसार, ये पृथ्वी भी तुम्हारे लिए है ही नहीँ ।
पृथ्वी तो उनके लिए है जो "सिद्ध" हो । जगत तो सिद्धों का है | यहां पर
रहने के लिए "सिद्ध वृत्तियाँ" चाहिए । प्रेम वृत्तियाँ चाहिए ।
सहिष्णुता चाहिए । जब ये छोटी-छोटी वृत्तियाँ तुम्हारे भीतर आयेंगी, तभी
तुम कुछ प्राप्त कर पाओगे ।
बहोत से साधक इन वृत्तियों को नहीँ समझ पाते । समझाने के बाद भी नहीँ समझ
पाते । इसलिए उनके लिए अनुशासन नाम का शब्द बना दिया गया । उनको कहा गया
ये "कर्मठ गुरू" है । कर्मकाण्ड का सिद्धांत है । ये "गुरू गीता" है ।
अर्थात गुरू के साथ कैसे संबंध स्थापित करें, कैसे आचरण करें, कैसे रहें
? ये सब गुरूगीता बताती है । "शिव मार्ग", शिव मार्ग एक ऐसा ग्रन्थ है जो
बताता है कि शिव के साथ कैसे रहना चाहिए । उनकी साधना और आराधना कैसे
होनी चाहिए ? "देव मार्ग" देवी देवताओं के सिद्धांत को बताता है । और
"कल्प मार्ग", वो सृष्टि में कैसे रहना है, समाज में कैसे रहना है ? इसके
बारे में हमे स्पष्ट निर्देश देता है ।
लेकिन हम इन सिद्धांतों, इन तत्वों को भूल गये हैं । इस कारण हमारा जीवन
बड़ा ही जटिल, बड़ा ही क्लिष्ट हो चुका है । हम प्रयास तो करते हैं,
लेकिन वो निरर्थक हो जाता है ।
इसलिए सिद्धों ने कहा कि इससे पहले कि तुम आध्यात्म में कदम रखोँ, तुम
हमारी ओर आना चाहो, तो तुम इन सिद्धांतो को, हमारे इन सन्देशों को जरा
सुन लेना । उनपर पहले अभ्यास कर लेना । फिर हम तुमसे कोई "भेद" नहीँ
रखेंगे । न जाति, न लिंग, न वर्ण, न धर्म, कुछ भी नहीँ । हम तो तुम्हारा स्वागत
करते हैं । क्योंकि जो अत्यंत सूक्ष्म विधाएं और ज्ञान है, जो तुम्हे
"ईश्वर का पुत्र" बना सकते हैं, वैसी "अनुभूति" तुम्हें दे सकते हैं । और
तुम इस छोटी सी पृथ्वी ही नहीँ, बरन इसके बाहर के ब्रह्माण्ड में स्थित
अन्य पृथ्वियों को भी देख सकते हो, ऐसी ऊर्जा और शक्ति हम देने को तैयार
हैं, लेकिन वो तब जब तुम साधक बन जाओ । जब तुम इन पशु वृत्तियों से मुक्त
होने लगो । जब गिद्ध जैसी वृत्तियाँ न रहे ।
गिद्ध का स्वभाव है और उस पक्षी की विशेषता है या उसकी आवश्यकता है कि वो
मरे हुए जीव पर निर्भर रहता है । हम भी वैसे ही हैं । हमारे ही साथ के
लोग मर रहे हैं । उन्हें दुःख उठाना पड़ रहा है । वो रो रहे हैं, चिल्ला
रहे हैं । दुःख से वेदनाओं से ग्रसित हैं, तड़प रहे हैं और हम सो रहे हैं
। वो परेशान हैं, भोजन नही है, वस्त्र नही है और हम शांत बैठे हैं । यदि
तुम ऐसी परिस्थिति में शांत रह सकते हो । तुम्हारे आसपास कोई व्यक्ति मर
गया है और तुम बिलकुल शांत बैठे हो, तो तुम "गिद्ध" जरूर बन सकते हो,
"सिद्ध" नहीँ बन सकते । तुम्हें ऐसी गिद्ध वृत्तियों से मुक्त होना होगा
।
गरीब व्यक्ति यदि व्यवसाय कर रहा हो, तो मैने देखा, उसका सहयोग करना तो
दूर उसे ये समाज आगे बढ़ने का एक अवसर तक नहीँ देता । ये गिद्ध वृत्ति
है, तुम नोच रहे हो उस व्यक्ति को । यदि तुम्हारी कोई स्थिति है, तो तुम
"किसी को नोचना मत" । "किसी को वेदना मत देना" । किसी की सहायता कर सको
तो ये तुम्हारी "सिद्ध वृत्ति" है । तुम "सिद्ध" हो और जिस क्षण तुम किसी
को दे न सको, केवल ले सको, अपने पास अपने लिए स्थापित करो, तो तुम
"गिद्ध" ही हो ।
छोटे छोटे बच्चे जब किसी ये प्रेम करते हैं, तो अपना खिलौना सबसे पहले उस
व्यक्ति को ले जाकर दिखाते हैं, देखो ये मेरा खिलौना है । और यदि उनका
प्रेम और घनीभूत होता है, तो वो अपना खिलौना उठाकर दूसरे व्यक्ति को दे
देता हैं । और उसको खेलते देखकर खुद ताली बजाते हुए वो बच्चा खुश होता है
। उस बालक के भीतर सहज सिद्धोँ की वृत्ति है । सिद्धों ने कहा तुम इस
वृत्ति को सीख लेना, तो हम तुमसे प्रेम करने लगेंगे ।
और यदि तुमने इन छोटी छोटी बातों को सीख लिया, तो उस "सूक्ष्म हिमालय" से
जो इस दृश्य हिमालय से भी बहोत पीछे है । वहाँ से कोई न कोई सिद्ध आकर
जरूर तुम्हारा हाथ थाम लेगा ।
और वो हाथ इतना मजबूत हाथ होता है कि भले
ही "विज्ञान", "तर्क", "शास्त्र", "ज्योतिष", "धर्म" और "संपूर्ण समाज"
ये कहे कि ये हाथ तुम्हारी रक्षा नहीँ कर पायेगा । केवल वही "सच्चा हाथ"
है जो तुम्हें अपने साथ ले जा सकता है । तुम्हें उच्च धरातल का बना सकता
है । और तुम्हें "पूर्णता" के मार्ग में ले जाकर "पूर्ण पुरूष" बना सकता
है । तुम सिद्धों के बहोत छोटे-छोटे ये दो- चार सन्देशों को यदि समझ जाते
हो तो ये "सिद्ध" फिर तुम्हारे लिए शुभकामनाएँ करते हैं । मंगल कामनाएँ
करते हैं । और तुम्हारी "प्रतीक्षा" करते हैं । सिद्धोँ के सूक्ष्म संदेश
में आज अभी इतना ही । ॐ नमः शिवाय ! प्रणाम ! -
…………………………कौलान्तक पीठाधीश्वर महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी महाराज (ईशपुत्र)