गुरुवार, 21 फ़रवरी 2019

कुण्डलिनी शक्ति का पूरा सच

अधिकांश लोग ये समझते है कि कुण्डलिनी जागरण का तात्पर्य है, आत्मज्ञान प्राप्त हो जाना, परमात्मा में विलीन हो जाना और ध्यान कि गहराई में उतरकर समाधिस्थ हो जाना । अगर आप भी यही समझते है तो आप गलत है । कुण्डलिनी जागरण पूरी तरह से नास्तिक प्रणालि है । जो कुण्डलिनी जागरण करनेवाला साधक है वो ईश्वर को नहीं मानता, वो ईश्वर की सत्ता को चुनौति देता है, कहता है, "परमात्मा मेरे अतिरिक्त कोई नहीं है । मैं स्वयं में ही परमात्मा हूँ इसलिए मैं केवल अपने भीतर निहित शक्ति को जागृत करुंगा ।" और कुण्डलिनी क्या है ? कुण्डलिनी हमारे सात केन्द्र शरीर के भीतर है जिन्हें हमने सप्तचक्र कहा : मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा और सहस्त्रार कमलदल । इनमें से सबसे मूल में अर्थात् सबसे निम्न चक्र में जिसे हम योनि अथवा लिंग कहते है और गुदाप्रदेश के भीतर ये शक्ति विद्यमान रहती है लेकिन इसका मूल केन्द्र मस्तिष्क ही है, मस्तिष्क से वो जुडी रहती है लेकिन उसका स्पंदन केन्द्र (चक्र) मूलाधार है; वही एक शक्ति मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा और सहस्त्रार तक जाती है । लेकिन भगवान ने इस शक्ति को सहस्त्रार कमलदल में क्यों नहीं रखा ! कभी आपने सोचा ? ऐसा भी तो हो सकता था कि परमात्मा पहले ही इस कुण्डलिनी शक्ति को सहस्त्रार कमलदल में रखते लेकिन उन्होनें जब इस देह की रचना कि तो इस शक्ति को मूलाधार में रखा । मूलाधार में क्यों ? इस सृष्टि के लिए, सृष्टि को आगे बढाने के लिए, वासना के लिए और मूलाधार हमारा वासना (इच्छाओं) का केन्द्र है । हम संसार से जुडते है, हम पूरी दुनिया से जुडते है, कैसे ? मनुष्य के भीतर कुण्डलिनी शक्ति को मूलाधार चक्र में इसलिए स्थापित किया गया क्योंकि वो इच्छाएं उत्पन्न करने वाली है, वो वासना उत्पन्न करने वाली है, वो सृष्टि के साथ हमें जोड़ती है मूलाधार चक्र जो है वही प्रमुख चक्र माना गया और किसी प्रमुख चक्र के ऊपर ध्यान लगाकर इस कुंडलिनी शक्ति को ऊर्ध्वमुखी किया जाता है और कुंडलिनी जागरण है क्या ? कुंडलिनी जागरण उस मूलाधार चक्र के लिए जो मस्तिष्क के द्वारा शक्ति रखी गई है उस शक्ति को अपने मौलिक स्थान से, अपनी तो उसकी इंद्री है उस पर से हटा कर उसे धीरे-धीरे ऊपर की इंद्रियों की तरफ गतिशील किया जाता है, ये ठीक वैसे ही है जैसे मान लीजिए कि हिमालय पर्वत के ऊपर कहीं बर्फ का बड़ा हिमनद या ग्लेशियर है, वह अपने आप पिघलता है तो एक नदी बनती है वह नीचे की ओर जाती है लेकिन कुंडलिनी साधना का तात्पर्य है कि उस नदी पर एक बांध बना दिया जाए बड़ा, ताकि वह पानी धीरे-धीरे भरता जाए और उसमें शक्ति पैदा होती जाए और अंततः वह इतना भर जाए कि जहां से वह पानी आ रहा है वहीं तक वह जा कर पहुंच जाए वह पानी वापस । तो यह प्रणाली कुंडलिनी जागरण कहलाती है । वह मस्तिष्क के भीतर निहित हमारी ही शक्ति है कुंडलिनी, वह कोई नई शक्ति नहीं है लेकिन वह मस्तिष्क के भीतर, सहस्त्रार के भीतर जुड़ी होने के बावजूद स्वभावतया आज्ञा चक्र में स्पंदित होती है लेकिन मुख्यतया सबसे ज्यादा सक्रिय वह मूलाधार चक्र में है इसलिए लोग प्रेम करना चाहते हैं क्योंकि प्रेम में भी मूलाधार चक्र से और अनाहत चक्र से जुड़ा हुआ तत्व है, हृदय चक्र से जुड़ा हुआ तत्व है लेकिन उसमें मूलाधार का संपुट है. लोग वासना में अधिक से अधिक खोए और डूबे रहना चाहते हैं उसका केंद्र भी मूलाधार चक्र ही है. हम मन में इच्छा करते है कि अच्छे कपड़े पहने, राजसी दिखें, धन, वाहन, वैभव हमारे पास हो, बहुत सारे दास-दासियां, नौकर-चाकर हमारे पास हो; यह जो भावनाएं पैदा होती है और यह जो विचार पैदा होते हैं इन सबको हमारा मूलाधार प्रेरित करता है हमें, इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने कहा था, कि क्रोध कैसे पैदा होता है ? काम से क्रोध पैदा होता है । तो जो काम अर्थात मूलाधार चक्र अर्थात वासनाएं अर्थात इच्छाएं । जब इच्छाओं की पूर्ति नहीं होती है तो क्रोध पैदा होता है और क्रोध से अनेकों प्रकार के फिर क्रमशः विकार उत्पन्न होते जाते हैं, बढ़ते चले जाते है । ठीक वैसे ही कुंडलिनी शक्ति मस्तिष्क से संचालित होने के बावजूद हमारे मूलाधार चक्र में निवास करती है और अलग अलग कुंडलिनी चक्रों के साथ उसका संबंध है, जब हम उसको मुख्य चक्र से काट डालते हैं तो वह हमें अनेकों तरह के अनुभव देने लगती है, और वह तो देगी ही ! अब आप सोचिए की यह यह जो कुंडलिनी ऊर्जा है यह बनी किस चीज के लिए है ? यह बनी है मूलाधार चक्र के लिए, लेकिन हम उस ऊर्जा का मूलाधार चक्र में प्रयोग नहीं करके मस्तिष्क में भर देते हैं और आप सोच लीजिए हमारा मस्तिष्क पहले ही कितना बड़ा झंझाल हैं ! उसमें कितने तंतु है, उसमें कितनी उर्जा है, उसमें कितने विचार चल रहे हैं, वह सोचता भी है, समझता भी है, सुनता भी है, टेस्ट भी लेता है, रूप, रस, गंध को अनुभव करता है और निरंतर अपने जीवन को सुचारु रखने के लिए हमारा मस्तिष्क सौ तरह के षड्यंत्र तैयार करता है, निरंतर विचारशील है, स्वप्न में भी विचारशील है, निरंतर कार्यवान है, निरंतर कार्य करता रहता है । पहले ही इतने झंझट इस मस्तिष्क में है और ऊपर से हम मूलाधार चक्र को बंद करके उसकी ऊर्जा को ऊर्ध्वमुखी करते हैं इसीलिए आपने सुना होगा प्राचीन काल में बार-बार हिदायत दी जाती थी कि कुंडलिनी जागरण ना करें और करें तो अत्यंत योग्य गुरु के सानिध्य में और योग्य गुरु मिलते कहां है आजकल? और योग्य गुरु का तात्पर्य है जिसने स्वयं अपनी कुंडलिनी शक्ति को जगा लिया हो और आपने कहा कि भारत में तो बहुत सारे गुरु कुंडलिनी जागरण की दीक्षा दे रहे हैं और करवा रहे हैं, तो मेरा प्रश्न है, यदि उनकी स्वयं की कुंडलिनी जागृत हो गई है तो वह क्या कर रहे हैं? इस देश में इतना पाप बढ़ रहा है, इतना अधर्म बढ़ रहा है, देश में इतना संकट है, पूरी दुनिया में त्राहि-त्राहि मची हुई है तो उनको चाहिए ना कि वह अपनी कुंडलिनी शक्ति का प्रयोग करके कुछ तो सार्थक कर्म करें और आप उन गुरुओं को देखिए, उनके जीवन में तो कुछ है ही नहीं, कुंडलिनी ऊर्जा या कुंडलिनी जागृत हुई है ऐसा प्रतीत ही नहीं होता । ना तो उनकी आंखे देखकर आपको लगेगा कि इनमें कोई सिद्धि है, इनमें कोई तेजस्विता, ओजस्विता है, ना ही वह निर्भय है, ना ही वह निडर है, ना ही उनमें वह फक्कडपना है, बस केवल अभिनय मात्र है । तो जब उनकी स्वयं की ही कुंडलिनी जागृत नहीं हुई तो वह तुम्हारी कुंडलिनी कैसे जागृत करेंगे यह तो सवाल ही पैदा नहीं होता, तो ठीक उसी तरह कुंडलिनी ऊर्जा के संबंध में शास्त्रों ने भी कहा, किसी योग्य गुरु के दिशा-निर्देश मैं करें, इसका कारण यह है कि पहले ही मस्तिष्क इतनी सारी मुसीबतों से भरा पड़ा है और हमारे मूलाधार चक्र की उर्जा भी जब ऊपर आने लगती है तो मस्तिष्क इस उर्जा को संभाल नहीं पाता, मस्तिष्क उसके लिए निर्मित नहीं है, तैयार नहीं है और मस्तिष्क में तो पहले ही बहुत सारे झंझट और बखेडे है, तो मस्तिष्क के तंतु फटने लग जाते हैं, ऊर्जा इतनी प्रवाहित हो जाती है कि व्यक्ति विक्षिप्त हो जाता है, उसके मस्तिष्क के बहुत सारे हिस्सेे काम करना बंद कर देते है और यह एक तरह की आत्महत्या है और आपने देखा होगा कि भारत में तो एक तरीका है कि कोई भी आदमी साधु बन जाता है, पेड़ के नीचे बैठता है, वहां वह गाली भी दे रहा है! " तेरी मां की.... तेरी बहन की....हां तुम्हारे पिता की.... तुम्हारे परदादा की ऐसी की तैसी ।" लेकिन लोग कहते हैं, "अरे! यह तो संत महात्मा है, समाधि की अवस्था में कुछ भी बोलते हैं, यह तो प्रसाद ही होता है ।" अरे वह प्रसाद नहीं है, वह बेवकूफी है, कि अगर उसने हठयोग करके, जटिल योगासन करके, प्राणायाम करके अपनी कुंडलिनी ऊर्जा को ऊर्ध्वमुखी करने की कोशिश की तो उसका मस्तिष्क बावरा हो रहा है, विक्षिप्त अवस्था उसे कहा गया है, की मस्तिष्क कैसे विक्षिप्त अवस्था में है ? कि वह अपने आप को संभाल नहीं पा रहा, वह अपने आप को संभालना चाहता है, अपने आप को स्वस्थ रखना चाहता है पर उर्जा इतनी ज्यादा एकत्रित हो गई है कि बेचारे साधु सन्यासी गालियां देते फिर रहे हैं और लोग उनकी पूजा कर रहे हैं ! वह पूजा के लायक है ही नहीं क्योंकि उन्हें यह ही नहीं मालूम कि ऊर्जा को कैसे निर्मित किया जाता है ।
मैं कुंडलिनी साधना क्यों नहीं करवा रहा एकदम से इसका कारण है कि कोई तैयार ही कहां है ? यदि मैं करवाऊंगा तो मेरी तो रीति बिलकुल वैसी ही होगी जो ऋषि परंपरा की है, उन्होंने कहा कि, "मस्तिष्क में इतने विचार, इतनी चीजें भरी पड़ी है, मस्तिष्क इतने सारे क्रियाओं को एक साथ संपादित करता है कि उसके पास जगह नहीं है कि उसके पास समय नहीं है इस उर्जा को संभालने के लिए और उसमें इतने विचार इस संसार के भरे है कि वासना का जो केंद्र है जो व्यक्ति को भड़काता है., जैसे मान लीजिए एक सुंदर सी लड़की ने किसी सुंदर से लड़के को देखा तो उसके मन में वासना पैदा हुई; अब वह लड़की उस लड़के को जब देखती है तो उसे लगता है कि 'दुनिया का सबसे खूबसूरत पुरुष, सबसे सुंदर! मुझे तो किसी भी तरह इसकी बाहों में समा जाना है, मुझे तो बस इस से लिपट जाना है, इसके अंदर समाहित होकर एक हो जाना है ।' उसे और कुछ नहीं दिखाई देगा, कुछ नहीं सुनाई देगा । यहां तक की उस लड़के में बहुत सी बुराइयां हैं, तब भी वह बुराइयां बिल्कुल नजर नहीं आएगी । बस उसे प्रेम नजर आएगा प्रेम, आकर्षण, प्यार । वह बस उसके प्यार के लिए मर जाना चाहेगी, लेकिन जैसे ही उनके बीच दैहिक संबंध बनेंगे और शीर्ष पर जाने के बाद जो कुछ देर के लिए ढलान आएगा तब उस लड़की को एहसास होगा कि, हां मेरा प्यार बहुत अच्छा तो है लेकिन तब ढलान की प्यार का वह आकर्षण नहीं होगा, तब एकदम से परिस्थिति बदलेगी, फिर उसे तैयार होना पड़ेगा धीरे-धीरे उस ऊर्जा को संचित करना पड़ेगा ताकि पुनः वह युवक उसे उतना ही खूबसूरत लगे लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता । शादियां लंबे समय क्यों नहीं चलती ? चार-पांच सालों में वह ऊर्जा का जो ढलान है, ऊर्जा का ऊपर चढ़ना, नीचे आना वह असंतुलित हो जाता है, फिर पति पत्नी का संबंध सामाजिक संबंध रह जाता है, कि 'चलो ठीक है मेरी पत्नी है, मुझे जेलना होगा, मेरे पति है, जैसा भी है अब रहना तो साथ है, समाज जानता है इस बात को, कहीं और जाऊंगा तो गाली पड़ेगी इत्यादि इत्यादि लेकिन मन में वह आकर्षण नहीं रहा, वह संबंध नहीं रहा, क्यों? क्योंकि मूलाधार की ऊर्जा को व्यवस्थित करके चलाना उसे नहीं आया । सोचिए कि वह मूलाधार की ऊर्जा हमें इतना भड़काती है, तो जब वह मूलाधार की ऊर्जा पूरी तरह आपके मस्तिष्क पर छा जाएगी तो आपको कैसा बना देगी ? आपको ऐसी-ऐसी कल्पनाओं के उड़ानों में ले जाएगी कि आपको अनेकों चांद, सितारे, ब्रह्म लोक, देवलोक, ईश्वर के लोक, अप्सराओं का नाचना, गंधर्वों का गायन सुनाई देने लगेगा । मुझे हर रोज पता नहीं कैसे-कैसे लोग पत्र लिखते हैं या ईमेल करते हैं या बहुत सारे लोग मेरे पास आते हैं कि, "जी मैं ध्यान कर रहा था, मेरी पीठ में से कुछ उठा ऊपर, रीड की हड्डी में फस गया, अब तब से वह फंसा हुआ ही है, मुझे ना नींद आती है, ना मैं जागता हूं, न सो पाता हूं, मेरे लिए प्लीज कुछ कर दीजिए ।" तो मैं कहता हूं ठीक है, अब उसी व्यक्ति के पास जाओ जिसने तुम्हें यह ध्यान करने की विधि सिखाई थी कि कुंडलिनी ऊपर चढेगी, उसे कहो ना कि अब नीचे उतार क्योंकि जब तक वह उतरेगा नहीं तुम्हारी तो यही दुर्दशा रहेगी । कुछ कहते हैं कि मुझे 24 घंटे सिर में दर्द है, कुछ कहते हैं मुझे ढोल-नगाड़े, चिमटे, शंख, नाद, भूतों की आवाज, चिल्लाने की आवाज सुनाई देती है दिन रात, मैं पागल हो रहा हूं । पागल तो होंगे ही तुम क्योंकि कुंडलिनी उर्जा का मतलब ही है कि जो तुम हो मनुष्यत्व उससे अलग हो जाना, मनुष्य तत्व से अलग हो जाना । मनुष्य समय पर सोता है, समय पर जागता है, समय पर खाता है, समय पर सब कार्य करता है । अब जब कुंडलिनी जागरण हो जाएगा तो तुम मनुष्य नहीं रहोगे ना फिर ! तब तुम सो नहीं सकते? तो फिर अब मेरे पास आ कर क्यों कहते हो कि हम सोना चाहते हैं लेकिन नींद नहीं आती । अब जब कुंडलिनी जागृत हो गई है प्रभु जी ! तो फिर निद्रा कहां से आएगी ? नींद आने के लिए मनुष्य होना जरूरी है और उर्जा का सही केंद्रों में शीत होना जरूरी है । अब तुम्हारी कुंडलिनी तो मस्तिष्क पर आ गई, मस्तिष्क के तंतु अब भिनभिना रहे हैं, झानझना आ रहे हैं तो निद्रा कहां से आएगी ? तो शरीर का संतुलन तो खराब होगा ही ना ? और तुम कहते हो कि कुंडलिनी जागरण से मुझे यह