मंगलवार, 26 अक्टूबर 2021

देवी कुरुकुल्ला आरती

'कौलान्तक पीठ हिमालय' प्रस्तुत करता है 'ईशपुत्र-कौलान्तक नाथ' और 'आनंदा भैरवी' की आवाज में देवी कुरुकुल्ला रक्त तारा' की आरती। इस आरती को पहाड़ी शैली' में ही यथावत रखा गया है। समस्त भूत-प्रेत, ऊपरी बाधाओं की रोक, नकारात्मक शक्ति की रोक, समस्यायों के निवारण, कृत्या परिहार, ग्रह बाधा निवारण सहित देवी की परम कृपा हेतु आरती श्रवण व गायन श्रेष्ठ उपाय है। आपके जीवन में मंगल हो, दिव्य प्रकाश हो और देवी की परम अनुपम कृपा हो इसी इच्छा के साथ, आपकी सेवा में अर्पित है ये आरती कौलान्तक पीठ टीम- हिमालय ।
देवी कुरुकुल्ला की आरती सुनने के लिए क्लिक करे



तू कौलाचारिणी तू समयाचारिणी,
तू कौलाचारिणी तू समयाचारिणी।
जय जय रासरते, जय जय रासरते। 03
तू तारा तू तोतला कुल्ला कुरुकुल्ला, तू तारा तू तोतला कुल्ला कुरुकुल्ला।

तंत्र मंत्र है सारे तुझसे, 
तंत्र मंत्र है सारे तुझसे।
योग जप तप सिद्धि और भक्ति, योग जप तप सिद्धि और भक्ति।
भोग मोक्ष है सूत्र तेरे, 
भोग मोक्ष है सूत्र तेरे । 
तू ही आदिशक्ति !

तू कौलाचारिणी तू समयाचारिणी,
तू कौलाचारिणी तू समयाचारिणी।
जय जय रासरते, जय जय रासरते। 02
तू तारा तू तोतला कुल्ला कुरुकुल्ला, तू तारा तू तोतला कुल्ला कुरुकुल्ला।

वेद पुराण है बालक तेरे, 
वेद पुराण है बालक तेरे।
सहस्त्रभुजा देवी कुरुकुल्ला, 
सहस्त्रभुजा देवी कुरुकुल्ला।
रक्त वर्ण तेरा पीत वर्ण है, 
रक्त वर्ण तेरा पीत वर्ण है।
माया रूप विकुल्ला!

तू कौलाचारिणी तू समयाचारिणी,
तू कौलाचारिणी तू समयाचारिणी।
जय जय रासरते, जय जय रासरते। 02
तू तारा तू तोतला कुल्ला कुरुकुल्ला, तू तारा तू तोतला कुल्ला कुरुकुल्ला।

आगम निगम प्रदात्री तू ही, 
आगम निगम प्रदात्री तू ही।
शिव संग रास रचाती, 
शिव संग रास रचाती।
परम तंत्र स्वतंत्र तू ही, 
परम तंत्र स्वतंत्र तू ही।
वर अभिष्टदात्री !

तू कौलाचारिणी तू समयाचारिणी,
तू कौलाचारिणी तू समयाचारिणी,
जय जय रासरते जय जय रासरते।
तू कौलाचारिणी तू समयाचारिणी,
तू कौलाचारिणी तू समयाचारिणी,
जय जय रासरते जय जय रासरते।

शनिवार, 25 सितंबर 2021

साधना मार्ग : हिमालय में तप - भाग 3


 लेकिन यह कटाव, इस प्रकार की मानसिकता यह तो बस कुछ पल भर के लिए ही है। कुछ समय बीतने के पश्चात साधक अपने पूर्ण अवस्था में आ जाता है; जब उसे जग से पुनः जुड़ाव महसूस होता है। तप की प्रणाली में हमें धीरज पूर्वक अपने भीतर के परिवर्तनों को देखना है, इसी प्रक्रिया का एक दूसरा चरण है साक्षी भाव! कि हम जहां साधना करने के लिए खड़े हुए हैं वहां खड़े होकर नेत्र मूंदकर स्वयं को देखने का प्रयास करें। जब हम बंद नेत्रों से स्वयं को देखते हैं और स्वयं को स्वयं साधना करते हुए जानते हैं तब हम साधना से परे हो जाते हैं। स्वयं के स्वयं साक्षी हो जाते हैं। जब सतत अभ्यास के पश्चात यह धारणा दृढ़ होती चली जाए तो एक ऐसी अद्भुत स्थिति आती है जब साक्षी भाव ध्यान के रूप में घटित हो जाता है। समस्त धर्म की परंपराएं, समस्त अभ्यास के तरीके हमें भीतर उतार देते हैं। भीतर की दुनिया, भीतर का विश्व अनूठा विश्व है। वहां जाने के लिए हमें पूर्ण समर्पण भाव से लगातार अभ्यास करना है, देखते जाना है; किसी भी स्थिति में, किसी भी स्तर पर जाकर हमें न तो रुकना है, ना ही किसी दिव्य अनुभूति से जाकर बंध जाना है। क्योंकि यदि हम मार्ग में कहीं भी रुकते हैं तो साधक वही स्थिर हो जाता है। इन्हीं साधनाओं के चरण में एक और चरण भी है, वो है लगातार स्थान परिवर्तन! योगियों को जो सर्वप्रथम नियम सिखाया जाता है उसके मुताबिक एक ही स्थान पर रहकर अधिक समय तक साधना ना की जाए। क्योंकि जिस भूमि पर साधक बैठता है अथवा जहां साधक साधना करता है वहां एक अलग वातावरण रहता है जो मृदा के कारण, वृक्षों के कारण, वहां की जलवायु के कारण निर्मित होता है। जब मंत्र को हम उस परिवेश में जपते हैं तो वहां के दिव्य अणु साधक के भीतर के अणुओं को प्रभावित करते हैं, जिससे हम कुछ गुण उस धरा के अपने भीतर समाहित कर लेते हैं और कई बार अधिक देर तक रहने के कारण वह स्थान हमारे गुणों को भी ग्रहण करना शुरू कर देता है, जो पारिस्थितिक संतुलन के लिए भी अनुचित है और साथ ही साधना के लिए भी अनुचित है, इसलिए कुछ कुछ समय के पश्चात 1 सप्ताह, एक माह अथवा एक वर्ष के पश्चात उस स्थान का परित्याग कर साधक को दूसरे अभीष्ट स्थान पर जाकर साधना का अभ्यास करना चाहिए; यदि संभव हो सके तो साधक प्रतिदिन एक नए स्थान का चयन करें। इस प्रकार व्यक्ति के भीतर उस दिव्य तेज का प्रादुर्भाव होना निश्चित हो जाता है, साधक विराट होता चला जाता है, तब प्रकृति भी मानो दासी के समान उसका सहयोग करना शुरू कर देती है। बहुत से साधक यह सोचते हैं की साधना करने में बहुत लंबा समय लग जाएगा लेकिन ऐसा नहीं होता। जैसे ही साधक ने अभ्यास शुरू किया वह तुरंत ही अपने भीतर परिवर्तन अनुभव करता है। धीरे-धीरे वह उस परम सत्ता के साथ जुड़ता चला जाता है इसमें कोई संशय नहीं; बस जरूरत है उस अभ्यास की रीति को समझने की, जरूरत है गुरु द्वारा प्रदत मार्ग पर अभ्यास करने की। साधना एक वैज्ञानिक तरीका है, एक अद्भुत सोच है जहां आपको अपने सीमित से दायरे को तोड़कर अनंत में समाहित होना है। सदगुरुओं ने ईश्वर को ब्रह्म कहा, वेदों ने भी ईश्वर को ब्रह्म कहा। ब्रह्म अर्थात सर्वव्यापक! उसकी सर्वव्यापकता तभी अनुभव होती है जब हम स्वयं उसमें विलीन हो जाए! ठीक उसी तरहठीक उसी तरह जैसे सागर में जल की बूंद। यह उदाहरण विलक्षण है! हम बूंद हैं सीमित से है पर हम सागर में खो जाते हैं तो वही बूंद सागर हो जाती है, अनंत हो जाती है, उसका अथाह विस्तार जाना नही जा सकता, ठीक इसी तरह जब हम साधना पथ पर थोड़ा सा अभ्यास शुरू करते हैं तो धीरे-धीरे हम अनंत विस्तार की ओर गति प्राप्त करते हैं। यह ऐसा अथाह विस्तार है की जानो हम संपूर्ण जान गए हो, हमने सब कुछ प्राप्त कर लिया हो । साधना पथ में सर्वप्रथम इसी प्रकार छोटी-छोटी क्रियाएं साधक को तराशती है। यह वह छोटे-छोटे अभ्यास है जो हम स्वयं अपने आप पर लागू कर सकते हैं, जिन्हें हम स्वयं अनुभव कर सकते हैं, जिन पर अमल करके हम आगे बढ़ सकते हैं, बात बस इतनी सी है कि हम भली प्रकार इस साधना मार्ग को समझे।


गुरु की शुद्ध वाणी के फलस्वरूप अंतःकरण पवित्र हो जाता है, साधक को तदनंतर दीक्षा मिलती है, दीक्षा रूपी बीज इसी साधना के माध्यम से वृक्ष बनता है। हम मंत्रों का जप करते हैं, हम प्राणायाम करते हैं, हम यम नियमों का पालन करते हैं, हम अपने आप को भौतिक जगत से कुछ दूर करते हैं, हम एकांत सेवन के उपाय करते हैं, हम प्रकृति के मध्य रहते हैं, हम प्रकृति को प्रेम करते हैं तब हम जानते हैं कि सब कुछ इसी प्रकृति में यही निहित है। बस बात है कि हम उससे जुड़े नहीं थे और धीरे-धीरे जब वह जुड़ाव भीतर महसूस होता है तो आनंद आने लगता है, साधक स्वयं उस में खो सा जाता है। भीतर के लघुतम अनुभव जैसे विद्युत, प्रकाश, बादल, रंग, शोर, ध्वनि इन सब के पश्चात साधक दिव्य ध्वनियां, अनंत ब्रह्मांड से आते नाद को भीतर सुनता चला जाता है, भीतर धारण करता चला जाता है यही वह स्थिति भी है शायद जब कोई योगी, कोई साधक अपने अनुभव को ताड़ पत्रों पर उतार देता है! साधक के यही अनुभव ग्रंथों के रूप में भविष्य साधकों हेतु प्रेरणा के स्त्रोत बनते हैं।

- ईशपुत्र

बुधवार, 12 मई 2021

पिशाची देवी अथवा पिशाचिनी रोगनाशक मंत्र

 

पिशाची शब्द सुनते ही रोंगटे खड़े होने लगते हैं! ऐसा लगता है कि कोई लंबे दांतों वाली कोई डरावनी सी आकृति, कोई मांसाहारी या भूत प्रेत जैसी ही कोई शक्ति होगी! लेकिन वास्तव में पिशाची शक्ति हमारे भीतर की एक कुंडलिनी नाम की शक्ति की अधिष्ठात्री देवी है! हमारे जो सप्त चक्र शरीर में विद्यमान है; इन्ही सप्त चक्रों में एक हृदय चक्र है! इस हृदय चक्र की स्वामिनी ही पिशाची देवी है! जिसे महापिशाचिनी भी कहा गया है! अधिकांशतया हमारे जितने भी रोग हैं हमारे शरीर में जितने भी दोष है वो सब हमें पिशाचिनी शक्ति की वजह से ही लगते हैं। पिशाची शब्द की साधारण सी परिभाषा ये समझ सकते हैं कि, "किसी एक विषय अथवा वस्तु में हृदय का लगातार लगे रहना पिशाच वृत्ति है।"किसी एक विषय को जब हम इतना अधिक पसंद करने लग जाए कि अपना तन, मन, धन यहां तक कि अपना आत्मोत्सर्ग तक करने के लिए तैयार हो जाए तो ऐसी वृत्ति पैशाचिक वृत्ति कहलाती है! और हमारा मन पिशाच ही तो है! कभी धन के लिए, कभी नाम के लिए, कभी वैभव के लिए और भी न जाने कितने विषय वस्तुओं के लिए हम प्रयासरत रहते हैं और हमारा हृदय इस दुनिया से हटना ही नहीं चाहता! इसलिए इस हृदय को और इसकी स्वामीनि शक्ति को पिशाची कहा गया! क्योंकि इसकी वृत्तियां पिशाचि जैसी है, लेकिन बावजूद इसके देवी पिशाची बहुत ही सुंदर, कमल के आसन पर बैठी हुई है, एक हाथ में दिव्य पुष्प पकड़े हुए और एक हाथ में अग्नि से जलता हुआ एक कटोरा पकड़े हुए बैठी हुई है। दिव्य पिशाची देवी की साधना और आराधना का प्राचीन काल से ही एक परंपरा और प्रथा प्रचलित हुई है और कौलांतक पीठ की यह सदियों पुरानी प्रथा है। यह माना जाता है कि यह जितने भी मानसिक और बौद्धिक रोग है...तनाव, चिंता और मनोजनित जितने भी रोग है उन सबको नष्ट करने में देवी पिशाची के मंत्र सर्वश्रेष्ठ है। उनका ध्यान और स्तुति बहुत लाभदायक है। देवी पिशाची का मंत्र है ।। ॐ पिशाची प्राणेश्वरी सर्वरोग प्रशमनाय सः ।। वास्तव में ये शब्द सः नहीं स्वाहा शब्द था। जैसे ।। ॐ पिशाची प्राणेश्वरी सर्वरोग प्रशमनाय स्वाहा ।। किंतु प्राचीन कथा है कि कहा जाता है कि, मां पार्वती के साथ पिशाची शक्ति का सामना हुआ। तो भगवती ने कहा, "क्योंकि तुम्हारी वृत्तियां संसार में लगाए रखती है, तुम संसार में व्यक्तियों को रोगमुक्ति देती हो, और तुम संसार में व्यक्तियों की इच्छाओं की पूर्ति करनेवाली देवी हो इसलिए स्वर्ग में तुम्हें स्थान नहीं दिया जा सकता!" इसलिए देवी को स्वर्ग में रहने के लिए स्थान नहीं दिया गया! इसलिए यज्ञ में इस देवी के नाम की आहुति नहीं पड़ती! लेकिन बावजूद इसके देवी पिसाची साक्षात देवी स्वरूपा ही है, भौतिक जगत में धन-धान्य, ऐश्वर्य और समृद्धि देने में समर्थ मानी गई है लेकिन सर्वोत्तम गुण तो स्वास्थ्य रूपी धन ही है। और जब हम देवी पिशाची के इस मंत्र काऔर जब हम देवी पिसाची के इस मंत्र का जप करते हैं, उनकी मुद्रा का ध्यान करते हैं, देवी को मन ही मन प्रणाम करते हुए रोग मुक्ति के लिए उनके मंत्र का जप करते है तो समस्त रोगों से मुक्ति मिलती है यह प्राचीन मान्यता है; इसलिए आइए हम ऐसे ही दिव्य मंत्र को अपने जीवन में उतारकर देखते है और देवी पिशाची से प्रार्थना करते है कि वो हमारे हृदय के समस्त रोगों को और समस्त विकारों को दूर करके हमें उत्तम मार्ग पर ले जाए, स्वास्थ्य के मार्ग पर ले जाए; हम मानसिक रूप से, दैहिक रूप से और बौद्धिक रूप से स्वस्थ बने। जय देवी पिशाची!

- ईशपुत्र

रविवार, 9 मई 2021

तोतला माता मन्त्र - औषधियों की देवी

 

हिमालय में सदियों से एक देवी की साधना और आराधना होती रही है, यह देवी है मां तोतला! जिसे औषधियों की देवी माना जाता है! ब्रह्मांड में जितने भी तत्व है उन में जितने भी औषधीय गुण है उन सभी की स्वामिनी है मां तोतला! मां तोतला को भगवती दुर्गा का ही एक परिविग्रह माना जाता है! मां तारा का एक स्वरूप है मां तोतला! मां तोतला का अद्भुत स्वरूप है! उनका स्मरण मात्र से रोग दूर हो जाते हैं! उनके स्मरण मात्र से ही सारी औषधियों अपना प्रभाव देने लगती है; सदियों से वैद्यों ने, चिकित्सकों ने और विविध प्रकार के योगियों, सन्यासियों और साधुओं ने अपनी औषधियों के गुणों का सही प्रयोग हो पाए इसके निमित्त मां तोतला की साधना और आराधना की है! दिव्य ऋषि चरक जैसे और उनसे भी प्रमुख ब्रह्मादि जैसे देवता भी लगातार मां तोतला की स्तुति करते हैं; क्योंकि मां तोतला का स्थान कोई छोटा सा नहीं अनंत है; ब्रह्मांड में एक अभी तक ऐसा नहीं जिसमें औषधीय गुण ना हो! माना जाता है कि केवल मनुष्य ही बीमार नहीं होता! मनुष्य के साथ-साथ ग्रह, नक्षत्र, उल्का पिंड, धूमकेतु, क्षुद्र गणिकाएं ये सब, वृक्ष, जड़-चेतन, पंच तत्व (अग्नि, जल, वायु, आकाश) ये सब भी कभी ना कभी किसी न किसी परिस्थिति में रोग ग्रसित होते हैं! और इन सब को यथारूप वापस लाने मेंऔर इन सब को यथारूप वापस लाने के लिए इस शक्ति का आश्रय लिया जाता है! इसलिए आप जीवन में जब मां भगवती मां तोतला का नाम लेते हो, जब आप उनके मंत्रों का श्रवण करते हो, उनका मनन करते हो तो सारी औषधियां आप पर फलती फूलती है और आप रोगों से दूर रहते हो! त्रिविध प्रकार के रोग: भौतिक रोग दैहिक है, मानसिक है और बौद्धिक है; तथापि सूक्ष्म रोग जो अदृश्य रूप से पनपते हैं; जिनके पीछे पूर्व जन्म के संचित कर्मो को आधार माना जाता है और आध्यात्मिक पाप; उन से भी मुक्ति मिलती है! मां तोतला के श्रवण मात्र से। मां तोतला को चार मुखों वाली देवी भी कहा जाता है! जिसमें से एक मुख मलिन मुख बहुत ही भयंकर और भयानक है! काला चेहरा है! वह मारण की क्षमता लिए हुए हैं! यह माना जाता है की सृष्टि में जो भयंकर रोग पैदा होते हैं वह भगवती के इसी चौथे मुख के कारण पैदा होते हैं! वह ठीक उनके स्वरूप के विपरीत है! जब वह मुख किसी दिशा में घूम जाए वहां मृत्यु का सन्नाटा शुरू हो जाता है! इसलिए हमें भगवती से प्रार्थना करनी चाहिए कि हम मृत्यु से अमृत्यु की ओर जाए, अंधकार से प्रकाश की ओर जाएं, मां तोतला का हम नाम सुमिरन करें। प्रस्तुत मंत्र का जप करने से, इसका श्रवण करने से मां तोतला की कृपा प्राप्त होती है! इस मंत्र को इसी प्रकार सदियों से हिमालय की श्रृंखलाओं में ऋषि-मुनियों ने गाया है, इसका जप भी किया है! तो हमें भी इस मंत्र का यथावत जप करना चाहिए; और हिमालय में जितनी भी औषधियां है उन सभी के भीतर यही मां तोतला गुप्त रूप से निवास करती है इसी कारण उन औषधियों में इतने दिव्य गुण है! जय मां तोतला!

-कौलान्तक पीठाधीश्वर महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी महाराज (ईशपुत्र)

मंगलवार, 4 मई 2021

महाअभियान - ईशपुत्र-कौलान्तक नाथ

 

तेरी सोई शक्ति के जागरण का यह महा अभियान है,

तेरे रोम रोम...तेरे रोम रोम में भर दिया शिव ने अपूरव ज्ञान है !

शून्य से सम्राट का यह पथ गुरु ने तुम्हे दिया,
यह गुह्य ज्ञान का सार है, मानवता का अभिमान है!
अदृश्य को अब जान ले, दृश्य को पहचान ले!
तेरी सोई शक्ति०

में सुप्त था अब जाग कर, निद्रा व भय को त्याग कर, 
बदलूं धरा की धारा को, निर्भय करूं संसार को!
प्रत्यक्ष को अब जान ले, अंतर को पहचान ले!
तेरी सोई शक्ति०

मैं शक्ति का वो पुंज हूं, बदलूं समय की धार को,
मैं ज्ञान का वो पुंज हूं, पुलकित करूं संसार को!
रहस्य को अब जान ले, प्रकट को भी पहचान ले!
तेरी सोई शक्ति०
- ईशपुत्र-कौलान्तक नाथ

सोमवार, 3 मई 2021

हे शमशान निवासिनी!

ॐ क्रीं क्रीं क्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रूं ह्रूं दक्षिणे कालिके क्रीं क्रीं क्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रूं ह्रूं स्वाहा ।।

हे शमशान निवासिनी! हे शिव शंभू विलासिनी! जागो जागो जागो!

ॐ धां धीं धूं धूर्जटेः पत्नीं, वां वीं वूं वागधिश्वरी, क्रां क्रीं क्रूं कालिके, शां शीं शूं शुभं कुरु, शुभं कुरु, शुभं कुरु। 

त्राहि त्राहि करे जगत सारा, चहुं दिशा घनघोर अंधियारा।
दावानल उठे चहुं दिशा, जागो जागो जागो!
हे शमशान निवासिनी!०

ॐ नमो कुरुकुल्ले, अन्न धन वर्षिणी, सकल कामाकर्षिणी, सिद्ध हो सिद्ध हो सिद्ध हो मां!

अत्याचार से मानव डरता, पापियों में बल जर जर बढ़ता!
हाहाकार है चहुं दिशा, जागो जागो जागो!
हे शमशान निवासिनी!०

ॐ डं डराहा डरा डाकिनी मोक्षं गच्छ प्रयच्छ।

आंखों में भर नीर बहाऊं, मैया मैं तुझे पास बुलाऊं!
आकर तोड़ो महानिशा, जागो जागो जागो!

हे शमशान निवासिनी! हे शिव शंभू विलासिनी! जागो जागो जागो!
- ईशपुत्र

शनिवार, 1 मई 2021

अथ श्री महाकौतुककारिणी भगवती कुरुकुल्ला विविध स्वरूप

 Forms

From the three forms of the Goddess Kurukulla, there are sixteen main forms. Each form, known collectively as “Shodashadal Vaasini Kurukulla” (षोडशदलवासिनीकुरुकुल्ला), or Kurukulla who resides in sixteen petals”. These are the goddess of sixteen petals (forms) whose boon fulfils all desires. Each of her form has her own iconography and tantra rituals and scripture. Her qualities in each of these forms are as per her name.



1) SiddhacittaKurukulla (सिद्धचित्ताकुरुकुल्ला) Kurukulla who is perfect consciousness


2) GandharvaSevitaKurukulla (गन्धर्वसेविताकुरुकुल्ला)Kurukulla who is served by Gandharvas


3) Maha Buddhi Kurukulla (महाबुद्धिकुरुकुल्ला)Kurukulla who is supreme intellect


4) AparajitaKurukulla (अपराजिताकुरुकुल्ला) Kurukulla who is undefeated


5) AkarshiniKurukulla (आकर्षिणिकुरुकुल्ला) Kurukulla who attracts


6) Vajra DhariniKurukulla (वज्रधारिणीकुरुकुल्ला) Kurukulla who holds lightning bolt


7) VanaVasiniKurukulla (वनवासिनीकुरुकुल्ला) Kurukulla who dwells in forests


8) MahaPoshiniKurukulla (महापोषिणिकुरुकुल्ला) Kurukulla who is the greatest nurturer


9) VanshaVardhiniKurukulla (वंशवर्द्धिनीकुरुकुल्ला) Kurukulla who strengthens the lineage


10) SanhariniKurukulla (संहारिणीकुरुकुल्ला) Kurukulla who destroys


11) MrityuMathiniKurukulla (मृत्युमथनीकुरुकुल्ला) Kurukulla who destroys death


12) KaalaatitaKurukulla (कालातीताकुरुकुल्ला)Kurukulla who is beyond time


13) AishwaryapradaKurukulla (ऐश्वर्यप्रदाकुरुकुल्ला) Kurukulla who bestows prosperity


14) DukhsvapnaNashiniKurukulla (दुस्वप्ननाशिनीकुरुकुल्ला) Kurukulla who destroys bad dreams


15) KamavilasiniKurukulla (कामविलासिनीकुरुकुल्ला) Kurukulla who indulges in charming desires


16) MokshamarginiKurukulla (मोक्षमार्गिणीकुरुकुल्ला) Kurukulla who is the way to liberation



Similarly, Sukulla Devi Ji has eight distinct forms who are collectively referred to as Asthadal VasiniSukulla (अष्टदलवासिनीसुकुल्लाor Sukulla who resides in the eight petals).


These are the goddess of eight petals (forms) whose boon fulfils all desires. Each of her form has her own iconography and tantra rituals and scripture. Her qualities in each of these forms are as per her name.


1) SatvacittaSukulla (सत्वचित्तासुकुल्ला) Sukulla who is the true consciousness


2) MandanadaSukulla (मन्दनादासुकुल्ला) Sukulla who is the quite sound


3) SatyabuddhiSukulla (सत्यबुद्धिसुकुल्ला) Sukulla who is the true intellect


4) PremasrajaSukulla (प्रेमस्रजासुकुल्ला) Sukulla with garland of love


5) BrahamandadhariSukulla (ब्रह्माण्डधरीसुकुल्ला) Sukulla who holds the cosmos


6) NiyamakautukaSukulla (नियमकौतुकासुकुल्ला) Sukulla who eagerly celebrates rules and conventions


7) GuptataraSukulla (गुप्ततरासुकुल्ला) Sukulla who is more concealed


8) MahashunyaSukulla (महाशून्यासुकुल्ला) Sukulla who is the great nothingness



Devi Vikulla Ji has ten distinct forms who are collectively referred to as DashardalVasiniVikulla(दशारदलवासिनीविकुल्लाor Vikulla who resides in the ten petals). These are the goddess of ten petals (forms) whose boon fulfils all desires. Each of her form has her own iconography and tantra rituals and scripture. Her qualities in each of these forms are as per her name.


1) CitavirodhiniVikulla (चित्तविरोधिनीविकुल्ला) Vikulla who obstructs the mind


2) UnmadkariVikulla (उन्मादकरीविकुल्ला) Vikulla who causes madness or intoxication


3) KrurakrityaVikulla (क्रूरकृत्याविकुल्ला) Vikulla who is cruel destructive magic & enchantments


4) MaharatristrajaVikulla (महारात्रिस्रजाविकुल्ला) Vikulla who is wears garland of great darkness or night


5) AmoghadandadhariniVikulla (अमोघदण्डधारिणीविकुल्ला) Vikulla who holds drastic unfailing punishments


6) PralayanadiniVikulla (प्रलयनादिनीविकुल्ला) Vikulla who is resounding destruction


7) BhramavasiniVikulla (भ्रमवासिनीविकुल्ला) Vikulla who dwells in confusion and delusions


8) ManobhavakridangiVikulla (मनोभावक्रीडांगीविकुल्ला) Vikulla whose body is made of diverse plays of emotions


9) RahasyatmeshvariVikulla (रहस्यात्मेश्वरीविकुल्ला) Vikulla whose is the goddess of mystical soul


10) SthoolacitaVikulla (स्थूलचित्ताविकुल्ला) Vikulla who is the gross mind

काली महाविद्या साधना दीक्षा और कोर्स


सबसे पहली महाविद्या काली है जिनके संबंध में विज्ञान कहता है, मतलब यह वाला विज्ञान साइंस नहीं, अध्यात्म विज्ञान कहता है कि जब सृष्टि थी नहीं अब केवल एक पदार्थ था जिसको श्यामवर्णा् बताया गया, काले रंग का बताया गया, उसी तत्व से जो अदृश्य तत्व है, लेकिन दृश्य भी है! क्योंकि अगर वर्ण है तभी तो दृश्य होगा ना वह! काला रंग है वो दृश्य है तभी तो हम उसे जान पा रहा है, हालांकि कहा जाता है कि वह रंगों का नहीं होना है... लेकिन एक तत्व जो काला था उसकी उपस्थिति को ही काली माना गया! उस अदृश्य चेतना ने ही संपूर्ण चेतनाओं को उत्पन्न किया! उससे प्रकाश निकला और उससे यह ब्रह्मांड पैदा हुआ! और यह ब्रह्मांड धीरे-धीरे विस्तृत होता गया और इसी ब्रह्मांड में आज हम लोग विद्यमान है। तो काली मां का एक स्वरूप है हमारे सामने कि वो मुंडो की अस्थि की माला पहनती है, एक हाथ में खप्पर पात्र है, एक हाथ में उन्होंने हथियार पकड़ के रखा है खड़ग और वो पूरा का पूरा उनका जो स्वरूप है वह देखने में बड़ा ही भयानक और बड़ा ही डरावना लगता है उन लोगों को जिन्होंने पहली बार मां कालिका को देखा है! वह तो घबरा जाएंगे देख के कि अरे यह क्या है! और उनके श्री चरणों में नीचे साक्षात शिव है जिन पर वह विद्यमान है, हालांकि बहुत लोग कहते हैं वो शिव नहीं वो शव है लेकिन मैं कहता हूं, वह शव हो ही नहीं सकता! क्योंकि जो भी साधक परमात्मा की साधना करता है, इस पथ पर आगे बढ़ता है वह मरने के बाद भी शव नहीं बनता! महापुरुष यदि समा जाए तो भी उनका शरीर सडता नहीं! आप उनका अंतिम संस्कार नहीं भी करेंगे तो भी कई कई युगों तक उनको कीड़े नहीं लगेंगे वह सड़ेंगे नहीं, वो यथावत रहते हैं। हमारी पृथ्वी पर ऐसे अनेकों उदाहरण है। तो वो शव नहीं बनते । इसलिए जो मां काली के नीचे है वो भी शिव ही है! और शिव का तात्पर्य केवल कैलाश पर बैठे हुए भोलेनाथ से नहीं है, शिव सर्व व्यापक सर्वत्र विद्यमान दिव्य चेतना है! 

तो काली की दो क्रम में पूजा होंगी, एक साकर क्रम में पूजा होगी और एक निराकार क्रम में पूजा होगी, सभी महाविद्याओं की इसी क्रम में होगी, तो आपकी स्वेच्छा है कि आप उनको किस क्रम में मानते हैं। अगर आप उनको साकर क्रम में मानते हैं तो तीन बातों का ध्यान रखना होगा! पहले जब भी आप साधना करे आपके पास चित्र होना अनिवार्य है, यदि नही है तो वो आपको निर्मित करना होगा, और यदि आप साकार क्रम में साधना कर रहे है तो आपके पास यंत्र भी होना अनिवार्य है जो उस देवी से जुड़ा हुआ यंत्र होता है... और तीसरी बात... जब आपके पास चित्र हो गया, यंत्र भी हो गया, उस महाविद्या से संबंधित मंत्र भी होना चाहिए। यह तीन क्रम जो है यह स्थूल उपासना के लिए है। जो देवी मां के साकार विग्रह की उपासना करते हैं और वह तो समर्थ शक्ति है सामर्थ्यवान ममतामयी देवी है! यदि आप उनकी सरकार में उपासना करेंगे तो वो साक्षात उपस्थित होगी; साकार में ! लेकिन यदि सौभाग्यवश या दुर्भाग्यवश कुछ लोगों को साकार तत्व समझ ही नहीं आता, तो इसका मतलब यह नहीं कि वह मूढ़ है, भाई भगवान ने उनको वह तत्व समझने के लिए नहीं दिया लेकिन वो दूसरा तत्व तो वह समझ रहे हैं ना उसके बदले में। वह साकार को नहीं समझ पा रहे है वो महाविद्या की निराकार पक्ष को समझेंगे योगियों की भांति! अब योगी भी तो हिमालय में महाविद्याओं की साधना करते हैं लेकिन वह तो कोई यंत्र नहीं लेते, वह तो कोई माला नहीं लेते, वह तो कोई पंचोपचार सहस्त्रोपचार या कर्मकांड नहीं करते, तो वह कैसे करते है? उनके पास दो ही विधि होती है... प्रथम दीक्षा जो वह गुरु से प्राप्त करते हैं और दूसरा उसका ध्यान! केवल मात्र ध्यान करने से ही उनको उस महाविद्या की सिद्धि होने लगती है! काली महाविद्या के बारे में बताने से पहले गृहस्थो के लिए कौन सा मार्ग उत्तम है... मेरा ख्याल है... यह केवल मेरा विचार है.. किसी बड़े गुरु का मार्गदर्शन नहीं... कि व्यक्ति को मिश्राचार साधना ही करनी चाहिए। जिस समय आपके पास सुविधाएं हो तब आप चित्र रखें, यंत्र रखें वह एक सौंदर्य है अपने जीवन का; साधना का आनंद आएगा, एक बड़ा सा चित्र बनाइए और सुंदर सी माला रखिए, उसे प्राण प्रतिष्ठित कीजिए, अच्छा सा आसन बिछाए, अपने सामने धूपबत्ती कीजिए, आरती रखिए और फिर साकार कर्मकांड करते हुए साधना कीजिए, यंत्र रखिए उसकी आवरण पूजा कीजिए। तो योगी लोग ध्यान के माध्यम से साधना को आगे बढ़ाते हैं।



अब प्रथम देवी काली है, जिनको सर्वशक्ति मई माना गया है और इनको शिव तत्व का विरोधी भी माना जाता है क्योंकि यह शिव की विपरीत चलती है। शिव कहते हैं कि तुम विश्राम करो मनुष्य को लेकिन शक्ति कहती है कि तुम कदापि विश्राम न करो तुम्हारे पास एक भी क्षण शेष नहीं है! शक्ति की एक ही कमी है; शक्ति का उपासक चुप नहीं बैठ सकता, शक्ति का उपासक मौन नहीं रह सकता, अगर कहीं कुछ हो रहा हो अत्याचार हो रहा हो अन्याय हो रहा हो तो हो सकता है अगर आप ध्यानी हो शिव के ध्यान में मग्न हो तो आप शांत भी रह लेंगे, लेकिन अगर आप शक्ति के उपासक हो तो यह हो ही नहीं सकता कि आप चुप रह जाए क्योंकि पेट में मरोड़ उठता है शायद समथिंग कुछ ऐसा तो होता ही है लेकिन आखिर होता क्या है यह मुझे भी नहीं मालूम लेकिन शक्ति के उपासक बड़े विद्रोही स्वभाव के होते हैं, वो अन्याय नहीं सह सकते, वो अत्याचार नहीं सह सकते, न अपने साथ, न दूसरों के साथ, न समाज के साथ और वह व्यक्ति लुंजपुंज नहीं होते। कालिका की एक सबसे बड़ी विशेषता यह है कि कालिका का साधक किसी भी परिस्थिति में हारता नहीं! काली महाविद्या... वह कभी आपको हारने नहीं देगी जीवन में, कभी भी नही और ये एक सुनिश्चित तथ्य है कि वही एक मात्र "आदि शक्ति" है, आध्या शक्ति है, वो आपको निहाल कर देती है! उसी में एक ऐसी क्षमता है जो आपको भय रहित कर सकती है, इसीलिए कालिका के पुत्र कौन माने गए? भैरव माने गए! भैरव जो है वह साक्षात भय विमोचक है भय नाशक और मां कालिका को ही जब वो सात्विक स्वरूप में आती है तो "रणचंडी" कहा जाता है! वो रणचंडी भी है। तो मां कालिका की साधना जब भी आप शुरू करें, जब भी आप उनकी साधना करे तो इस बात के लिए उनकी साधना प्रमुख तौर पर करे जब आपके जीवन में इस तरह के शत्रु हो जाए, अत्यंत शत्रु हो जाए, बहुत ज्यादा शत्रु हो जाए... हालांकि उनके लिए पितांबरा भी है; पितांबरा उनका स्तंभन करती है, उनके लिए धूमावती भी है जो उन को जड़ से उखाड़ सकती है लेकिन कालिका एकमात्र "अनियंत्रित शक्ति" है! आप जब कालिका की स्तुति करते है वो आपके जीवन को बिल्कुल नई धारा में ले जाती है... बिल्कुल नई धारा! जब साधक के पास पृथ्वी पर जीवन यापन करने के लिए कुछ ना बचे, कुछ भी ना बचे, कोई भी मार्ग ना बचे तो कालिका की साधना एकमात्र सबल होती है! काली बड़ी ही प्रत्यक्ष साधना है। और इनकी साधना से आपको अपने जीवन की जो छोटी-छोटी समस्याएं हैं उनको तो चुटकियों में दूर कर ही सकते हैं लेकिन सबसे प्रमुख तत्व मैंने आपको बता दिया कि संपूर्ण सृष्टि जब आप के विरुद्ध होने लग जाए तो उनकी साधना की जाए। तो दुख रहित होने की जो साधना है वह महाकाली की साधना है। और महाकाली का क्रीं बीज है, वो क्रीं बीज होने के कारण आकर्षिणी भी है देखना, जिन्हें परमाकर्षिणी कहा गया है इसलिए जो कालिका का साधक होता है वह सम्मोहन सहज ही प्राप्त करता है, वह आकर्षण सहज ही प्राप्त करता है और सबसे बड़ी बात कि वही काली छोटे क्रम में श्रीविद्या होती है! और जो श्रीविद्या है वह धन धान्य की देवी है। और जो धन धान्य की देवी है वही दोनों क्रमों में आपके पास उपलब्ध होगी! इसलिए कालिका की साधना मात्र करने से श्री क्रम भी और काली क्रम भी साधक को दोनों प्राप्त हो सकता है लेकिन इसमें एक नकारात्मक तत्व है! वो ये कि कालिका संसार से वैराग्य देने वाली देवी भी है! इसलिए ज्यादातर लोग श्री विद्या की साधना करते हैं। क्योंकि वह वैराग्य नहीं देती.. वह राग देती है! वो वात्सल्य देती है! वो करुणा देती है! वो श्रृंगार देती है! वो सौंदर्य देती है लेकिन आपको मुक्ति नहीं देती। कालिका संसार में आपको धन भी देगी, आपको ऐश्वर्य भी देगी, शत्रु रहित भी करेगी लेकिन साथ ही साथ आपका मन उन चीजों में नहीं लगेगा! इसलिए कालिका के जो साधक होते है वो साधना करते हुए भी वैरागी रहते है, इसलिए आपने अगर देखा हो ऋषि मुनियों को वो सर्वाधिक प्रचलन हमारे भारत में कालिका की साधना है !श्रीविद्या तो अब इतनी प्रख्यात हुई। अगर आप प्राचीन साहित्य और वाङ्गमय का अध्ययन करेंगे तो श्रीविद्या को पहले इतना ध्यान नहीं दिया गया था उन पर, उसका कारण ही यह था कि श्रीविद्या के साथ साथ आदमी लिप्त हो जाते है संसार में लेकिन यहां कालिका आपको मुक्त रखेगी, इसलिए उनकी साधना आपको तब करनी चाहिए जब आपको समस्त ऐश्वर्यों के साथ वैराग्य की आवश्यकता हो!

- महासिद्ध ईशपुत्र 

गुरुवार, 18 मार्च 2021

त्रिपुर सुंदरी ललिताम्बा श्री विद्या रहस्य

तुम्हारे जीवन में ये श्री प्रफुल्लित हो सकती है, यह खिल सकती है, श्री विद्या की अनुकंपा तुम्हें प्राप्त हो सकती है... बस केवल "श्रीं" बीज को समझना होगा! यह "श्रीं" शब्द अपने आप में विलक्षण है, अनूठा है और बड़ा ही गहरा है! श्री यंत्र उसका एक बाह्य प्रारूप है ज्यामितीक स्वरूप! जिसमें सकल ब्रह्मांड की विद्याएं छिपी है, "श्रीं" वो बीज है जिसके भीतर समस्त कलाएं छिपी है, षोडश कलाएं की षोडश कलाएं उसके मध्यस्थ उसके मध्य विद्यमान है!


जिसके जीवन में श्री खिल जाए तो सहस्त्रों शत्रु होते हुए भी वो व्यक्ति गुनगुनाता है, लोग आलोचनाएं करते रहते हैं; ऐसा व्यक्ति मुस्कुराता रहता है, लोग उसे जीने नहीं देंगे, उसके पीछे पड़े रहेंगे, उसके जीवन को दुखदाई बनाने की चेष्टा करेंगे... लेकिन वह है कि कभी हारेगा नहीं... भगवान कृष्ण की तरह... जरासंध युद्ध पे युद्ध किए जा रहे हैं और वो बंसी पे बंसी बजाए जा रहे हैं!जीवन में अनेकों परेशानियां है अनेकों असुर पीछे पड़े हुए हैं लेकिन रास रचाने का समय नहीं छोड़ने वाले! यह प्रेरणा देते हैं भगवान श्री कृष्ण स्वयं कि, 'मनुष्य! तुम्हारे जीवन में इस तरह की कलाएं खिल सकती है!' इसलिए भगवान श्री कृष्ण के पास राधा जी के स्वरूप में स्वयं श्री विद्यमान थी! हमारे भीतर कुंडलिनी के रूप में स्वयं श्री विद्यमान है! मनुष्य नर नारी के मध्य में प्रेम श्री के रूप में विद्यमान है, इसलिए तुम इस श्री का वास्तविक प्रयोग जानो! अपने जीवन के कमियों की पूर्ति इस श्री से करो और यदि इस जीवन में कोई अभाव है तो श्रीविद्या को जानकर उस के मार्ग पर आगे बढ़ो, अगर तुम इस के मार्ग पर आगे बढ़ते हो तो तुम वास्तविक सत्य को पाने लगोगे! श्री अलौकिक है, श्री पूर्णता है, श्री आनंद है, श्री चंचलता भी है, श्री ऊर्जा है और श्री ही जीवन का सार है। 


माया को माया की तरह ही जानना है, मायामय होकर ही जानना है तो भी श्री चाहिए और माया को यदि माया से मुक्त होकर जानना है तो भी श्री चाहिए! इन तत्वों से तुम श्री के महत्व को जान गए! तो फिर देरी किस बात की? श्री तत्व को ऐसे जानना है कि तुम उसमें ऐसे रम जाओ, ऐसे घुल जाओ कि तुम्हारा संपूर्ण अस्तित्व ही श्रीमय हो जाए! तुम सौंदर्यवान हो, तुम रूपवान हो, तुम्हारे शब्दों में आकर्षण हो, तुम्हारे रूप में रस हो लावण्या हो, तुम्हारा अंतःकरण प्रेम से उबल रहा हो, प्रेम से परिपूर्ण हो, तुम अपने आप में परिपूर्ण हो, तुम्हारे जीवन में कोई कमी ना हो वही तो श्री तत्व है! और गुरु की अनुकंपा, तुम्हारी स्वयं की साधना, तुम्हारी स्वयं की क्षमता तुम्हें श्री तत्व को उपलब्ध करवा सकती है, श्री विद्या का अनूठा रहस्य है! अभी इस विराट रहस्य में इतना ही! ॐ नमः शिवाय! प्रणाम!

- महासिद्घ ईशपुत्र

सोमवार, 22 फ़रवरी 2021

साधना मार्ग : हिमालय में तप भाग - 2

हम लगातार साधना करते जाए और उससे प्राप्त होने वाले अनुभवों को भीतर संजोते चले जाएं। तप में एक और प्रणाली भी है, कि हम जिस स्थान पर खड़े हो जाए वही नेत्र मूंदकर अपने आसपास के वातावरण को अनुभव करने का प्रयास करें, शरीर पर आने वाली ठंडी हवा को हम अनुभव करें, वातावरण में होने वाले शोर को हम मौन होकर सुनते चले जाएं, हम अपने मन को विश्राम दे दे, एक निर्जीव प्राणी की भांति अथवा एक पाषाण की भांति हम बस मौन होकर खड़े रहे और जो भी आसपास घटित हो रहा है उसे सुनते चले जाए।
जब हम इस प्रक्रिया के माध्यम से वातावरण को भीतर उतरने का अवसर देते हैं तो प्रकृति का संदेश धीरे-धीरे भीतर उतरता चला जाता है, साधक मानों इस संपूर्ण परिवेश से इस प्रकृति से संवाद स्थापित कर पाता है और उसी के माध्यम से वह अलौकिक तत्व की प्राप्ति कर पाता है। प्रकृति भिन्न है, कभी उष्णता तो कभी अति शीतलता होती है, साधक अपने आप को इतना दृढ़ बनाए कि उसे ना तो शीतलता नाही उष्णता व्यग्र कर सके, वह धीरज बांधकर अपने मन पर नियंत्रण करने का प्रयास करें।

मंत्र मन को बांधने का सर्वोत्तम माध्यम है। यदि हम सर्वप्रथम साधना में सीधे खरे न उतर पाए तो किसी एक मंत्र को गुरु से प्राप्त कर उसका मानसिक जप करना चाहिए, किसी एक स्थान पर खड़े होकर लगातार मंत्र का जप करना अथवा गुरु मंत्र का जप करना अपने आप में तप का एक श्रेष्ठ प्रकार है। मंत्र लगातार आपके मन की वृत्तियों को स्तंभित करता चला जाता है, आप धीरे-धीरे मंत्र के तेजपुंज में समाहित होते चले जाते हैं फिर आप मात्र मंत्र और उसकी दिव्य संरचना के भीतर अपने आप को समाहित पाते हैं! धीरे-धीरे स्वयं को विलीन हुआ पाते हैं और शेष रह जाता है बस मंत्र! लगातार मंत्र की लय दिव्य ऊर्जा पुंज का निर्माण करती है, वही ऊर्जा महासमाधि की ओर साधक को प्रेरित करती है! अतः गुरु प्रदत मंत्रों के माध्यम से निरंतर साधना में डूबते चले जाना यह तप की ही एक विधा कहलाती है। साधक को चाहिए कि वह मंत्र के माध्यम से भी अपने मन को स्तंभित करने का प्रयत्न करें और साधना मार्ग पर आगे बढ़े।

साधक बहुत जल्दी साधना मार्ग से पलायन करने की सोचता है क्योंकि जब तक हम गुरु के पास बैठकर मात्र प्रवचन सुन रहे हो तब तक यह मार्ग अत्यंत रम्य और सुंदर प्रतीत होता है लेकिन ज्यों ही हम अभ्यास पर उतरते हैं तो यह जटिल मार्ग कठोर अवश्य लगता है लेकिन बात कुछ दिनों की होती है, जब साधक प्रकृति के मध्य रहकर उसके साथ संबंध स्थापित करता है तो उसे अत्यंत प्रसन्नता होती है फिर मानों प्रकृति उसका साथ देने के लिए आतुर लगती हो, मानों प्रकृति का रोम-रोम सार्थक को उर्जा देना चाहता है साधक उसे अनुभव करता है। गुफाओं के भीतर किसी विशेष आश्रय स्थल में बैठकर श्वास लेने के पश्चात कुंभक कर श्वास पर नियंत्रण करते जाना...उसे रोककर रखना साधक को समाधि मार्ग में ले जाता है! यह भी प्राणायाम का ही एक प्रकार है गुफाओं, पर्वतों, कंदराओं ऐसे स्थानों पर साधना करना साधक को उच्चता प्रदान करता है, सनातन परंपरा ने अनुभव से यह जाना की दिव्य कुंडलिनी शक्ति ऐसे स्थानों पर शीघ्र जागृत होती है, व्यक्ति सत्व गुण को शीघ्र प्राप्त कर पाता है! तब उसके भीतर दिव्यता स्वयं हिंडोले लेने लगती है! साधना काल में बाहर से तो साधक बिल्कुल शांत और स्थिर नजर आता है... भीतर हो रहे अनेकों अनेक परिवर्तनों का वह स्वयं साक्षी होता है। अपने अनुभव को साधक यथासंभव गौण रखें, यदि कोई विचलित करने वाला अनुभव हो तो उसे श्री गुरु के चरणों में निवेदित कर देना चाहिए। हम साधना के नाम पर मात्र विश्राम की मुद्रा ही धारण करते हैं लेकिन विश्राम की मुद्रा के भीतर होने वाली क्रिया बहुत उत्तेजित करने वाली होती है! साधनाएं भीतर द्वंद्व पैदा करती है, तीतर ऊर्जा का विस्फोट करती है; तब साधक का मन कहता है कि वह पलायन कर जाए! वह इस वातावरण में स्वयं को जोड़ नहीं पाता लेकिन धीरे-धीरे सतत अभ्यास करने के परिणाम स्वरुप वह ब्राह्मी प्रज्ञा को जागृत करने में सफल हो सकता है!

प्रतीक्षा करते रहना, फल की चिंता ना करना साधना पथ के सूत्र है और साधक को चाहिए कि जब वह इस क्लिष्ट मार्ग में थक जाए तो वह पुनः श्री गुरु के चरणों में जाएं; गुरु की दिव्य वाणी... दिव्य प्रेरणा उसे पुनः साधना करने के लिए प्रेरित करती है! साधना का ऐसा सोपान जीवन की श्रेष्ठता है जहां हमें प्रकृति का अनूठा साथ मिलता है! जहां हम अपने वास्तविक स्वरूप में लौट आते हैं! वहां दिव्या ब्रह्मांडीय रश्मियां स्वयं हमारे कानों में गूंजने लगती है! साधना पथ पर धीरे-धीरे आगे बढ़ते रहने से अनुभूतियों के पश्चात व्यक्ति दिव्य शक्तियों की ओर अग्रसर होता है, उसके भीतर कवित्व की शक्ति जागती है, उसके भीतर दिव्यतेज का प्रादुर्भाव होता है! वह गीत, संगीत, नृत्य जैसी विधाओं को भीतर ही भीतर जन्म देने लगता है! साधक की सोच में क्रांतिकारी परिवर्तन आता है! कुछ समय के लिए वह इस जग से कट जाना चाहता है!
- महासिद्ध ईशपुत्र