त्रिपुर सुंदरी ललिताम्बा श्री विद्या रहस्य

तुम्हारे जीवन में ये श्री प्रफुल्लित हो सकती है, यह खिल सकती है, श्री विद्या की अनुकंपा तुम्हें प्राप्त हो सकती है... बस केवल "श्रीं" बीज को समझना होगा! यह "श्रीं" शब्द अपने आप में विलक्षण है, अनूठा है और बड़ा ही गहरा है! श्री यंत्र उसका एक बाह्य प्रारूप है ज्यामितीक स्वरूप! जिसमें सकल ब्रह्मांड की विद्याएं छिपी है, "श्रीं" वो बीज है जिसके भीतर समस्त कलाएं छिपी है, षोडश कलाएं की षोडश कलाएं उसके मध्यस्थ उसके मध्य विद्यमान है!


जिसके जीवन में श्री खिल जाए तो सहस्त्रों शत्रु होते हुए भी वो व्यक्ति गुनगुनाता है, लोग आलोचनाएं करते रहते हैं; ऐसा व्यक्ति मुस्कुराता रहता है, लोग उसे जीने नहीं देंगे, उसके पीछे पड़े रहेंगे, उसके जीवन को दुखदाई बनाने की चेष्टा करेंगे... लेकिन वह है कि कभी हारेगा नहीं... भगवान कृष्ण की तरह... जरासंध युद्ध पे युद्ध किए जा रहे हैं और वो बंसी पे बंसी बजाए जा रहे हैं!जीवन में अनेकों परेशानियां है अनेकों असुर पीछे पड़े हुए हैं लेकिन रास रचाने का समय नहीं छोड़ने वाले! यह प्रेरणा देते हैं भगवान श्री कृष्ण स्वयं कि, 'मनुष्य! तुम्हारे जीवन में इस तरह की कलाएं खिल सकती है!' इसलिए भगवान श्री कृष्ण के पास राधा जी के स्वरूप में स्वयं श्री विद्यमान थी! हमारे भीतर कुंडलिनी के रूप में स्वयं श्री विद्यमान है! मनुष्य नर नारी के मध्य में प्रेम श्री के रूप में विद्यमान है, इसलिए तुम इस श्री का वास्तविक प्रयोग जानो! अपने जीवन के कमियों की पूर्ति इस श्री से करो और यदि इस जीवन में कोई अभाव है तो श्रीविद्या को जानकर उस के मार्ग पर आगे बढ़ो, अगर तुम इस के मार्ग पर आगे बढ़ते हो तो तुम वास्तविक सत्य को पाने लगोगे! श्री अलौकिक है, श्री पूर्णता है, श्री आनंद है, श्री चंचलता भी है, श्री ऊर्जा है और श्री ही जीवन का सार है। 


माया को माया की तरह ही जानना है, मायामय होकर ही जानना है तो भी श्री चाहिए और माया को यदि माया से मुक्त होकर जानना है तो भी श्री चाहिए! इन तत्वों से तुम श्री के महत्व को जान गए! तो फिर देरी किस बात की? श्री तत्व को ऐसे जानना है कि तुम उसमें ऐसे रम जाओ, ऐसे घुल जाओ कि तुम्हारा संपूर्ण अस्तित्व ही श्रीमय हो जाए! तुम सौंदर्यवान हो, तुम रूपवान हो, तुम्हारे शब्दों में आकर्षण हो, तुम्हारे रूप में रस हो लावण्या हो, तुम्हारा अंतःकरण प्रेम से उबल रहा हो, प्रेम से परिपूर्ण हो, तुम अपने आप में परिपूर्ण हो, तुम्हारे जीवन में कोई कमी ना हो वही तो श्री तत्व है! और गुरु की अनुकंपा, तुम्हारी स्वयं की साधना, तुम्हारी स्वयं की क्षमता तुम्हें श्री तत्व को उपलब्ध करवा सकती है, श्री विद्या का अनूठा रहस्य है! अभी इस विराट रहस्य में इतना ही! ॐ नमः शिवाय! प्रणाम!

- महासिद्घ ईशपुत्र

1 टिप्पणी:

wishes ने कहा…

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