साधना मार्ग : हिमालय में तप - भाग 3


 लेकिन यह कटाव, इस प्रकार की मानसिकता यह तो बस कुछ पल भर के लिए ही है। कुछ समय बीतने के पश्चात साधक अपने पूर्ण अवस्था में आ जाता है; जब उसे जग से पुनः जुड़ाव महसूस होता है। तप की प्रणाली में हमें धीरज पूर्वक अपने भीतर के परिवर्तनों को देखना है, इसी प्रक्रिया का एक दूसरा चरण है साक्षी भाव! कि हम जहां साधना करने के लिए खड़े हुए हैं वहां खड़े होकर नेत्र मूंदकर स्वयं को देखने का प्रयास करें। जब हम बंद नेत्रों से स्वयं को देखते हैं और स्वयं को स्वयं साधना करते हुए जानते हैं तब हम साधना से परे हो जाते हैं। स्वयं के स्वयं साक्षी हो जाते हैं। जब सतत अभ्यास के पश्चात यह धारणा दृढ़ होती चली जाए तो एक ऐसी अद्भुत स्थिति आती है जब साक्षी भाव ध्यान के रूप में घटित हो जाता है। समस्त धर्म की परंपराएं, समस्त अभ्यास के तरीके हमें भीतर उतार देते हैं। भीतर की दुनिया, भीतर का विश्व अनूठा विश्व है। वहां जाने के लिए हमें पूर्ण समर्पण भाव से लगातार अभ्यास करना है, देखते जाना है; किसी भी स्थिति में, किसी भी स्तर पर जाकर हमें न तो रुकना है, ना ही किसी दिव्य अनुभूति से जाकर बंध जाना है। क्योंकि यदि हम मार्ग में कहीं भी रुकते हैं तो साधक वही स्थिर हो जाता है। इन्हीं साधनाओं के चरण में एक और चरण भी है, वो है लगातार स्थान परिवर्तन! योगियों को जो सर्वप्रथम नियम सिखाया जाता है उसके मुताबिक एक ही स्थान पर रहकर अधिक समय तक साधना ना की जाए। क्योंकि जिस भूमि पर साधक बैठता है अथवा जहां साधक साधना करता है वहां एक अलग वातावरण रहता है जो मृदा के कारण, वृक्षों के कारण, वहां की जलवायु के कारण निर्मित होता है। जब मंत्र को हम उस परिवेश में जपते हैं तो वहां के दिव्य अणु साधक के भीतर के अणुओं को प्रभावित करते हैं, जिससे हम कुछ गुण उस धरा के अपने भीतर समाहित कर लेते हैं और कई बार अधिक देर तक रहने के कारण वह स्थान हमारे गुणों को भी ग्रहण करना शुरू कर देता है, जो पारिस्थितिक संतुलन के लिए भी अनुचित है और साथ ही साधना के लिए भी अनुचित है, इसलिए कुछ कुछ समय के पश्चात 1 सप्ताह, एक माह अथवा एक वर्ष के पश्चात उस स्थान का परित्याग कर साधक को दूसरे अभीष्ट स्थान पर जाकर साधना का अभ्यास करना चाहिए; यदि संभव हो सके तो साधक प्रतिदिन एक नए स्थान का चयन करें। इस प्रकार व्यक्ति के भीतर उस दिव्य तेज का प्रादुर्भाव होना निश्चित हो जाता है, साधक विराट होता चला जाता है, तब प्रकृति भी मानो दासी के समान उसका सहयोग करना शुरू कर देती है। बहुत से साधक यह सोचते हैं की साधना करने में बहुत लंबा समय लग जाएगा लेकिन ऐसा नहीं होता। जैसे ही साधक ने अभ्यास शुरू किया वह तुरंत ही अपने भीतर परिवर्तन अनुभव करता है। धीरे-धीरे वह उस परम सत्ता के साथ जुड़ता चला जाता है इसमें कोई संशय नहीं; बस जरूरत है उस अभ्यास की रीति को समझने की, जरूरत है गुरु द्वारा प्रदत मार्ग पर अभ्यास करने की। साधना एक वैज्ञानिक तरीका है, एक अद्भुत सोच है जहां आपको अपने सीमित से दायरे को तोड़कर अनंत में समाहित होना है। सदगुरुओं ने ईश्वर को ब्रह्म कहा, वेदों ने भी ईश्वर को ब्रह्म कहा। ब्रह्म अर्थात सर्वव्यापक! उसकी सर्वव्यापकता तभी अनुभव होती है जब हम स्वयं उसमें विलीन हो जाए! ठीक उसी तरहठीक उसी तरह जैसे सागर में जल की बूंद। यह उदाहरण विलक्षण है! हम बूंद हैं सीमित से है पर हम सागर में खो जाते हैं तो वही बूंद सागर हो जाती है, अनंत हो जाती है, उसका अथाह विस्तार जाना नही जा सकता, ठीक इसी तरह जब हम साधना पथ पर थोड़ा सा अभ्यास शुरू करते हैं तो धीरे-धीरे हम अनंत विस्तार की ओर गति प्राप्त करते हैं। यह ऐसा अथाह विस्तार है की जानो हम संपूर्ण जान गए हो, हमने सब कुछ प्राप्त कर लिया हो । साधना पथ में सर्वप्रथम इसी प्रकार छोटी-छोटी क्रियाएं साधक को तराशती है। यह वह छोटे-छोटे अभ्यास है जो हम स्वयं अपने आप पर लागू कर सकते हैं, जिन्हें हम स्वयं अनुभव कर सकते हैं, जिन पर अमल करके हम आगे बढ़ सकते हैं, बात बस इतनी सी है कि हम भली प्रकार इस साधना मार्ग को समझे।


गुरु की शुद्ध वाणी के फलस्वरूप अंतःकरण पवित्र हो जाता है, साधक को तदनंतर दीक्षा मिलती है, दीक्षा रूपी बीज इसी साधना के माध्यम से वृक्ष बनता है। हम मंत्रों का जप करते हैं, हम प्राणायाम करते हैं, हम यम नियमों का पालन करते हैं, हम अपने आप को भौतिक जगत से कुछ दूर करते हैं, हम एकांत सेवन के उपाय करते हैं, हम प्रकृति के मध्य रहते हैं, हम प्रकृति को प्रेम करते हैं तब हम जानते हैं कि सब कुछ इसी प्रकृति में यही निहित है। बस बात है कि हम उससे जुड़े नहीं थे और धीरे-धीरे जब वह जुड़ाव भीतर महसूस होता है तो आनंद आने लगता है, साधक स्वयं उस में खो सा जाता है। भीतर के लघुतम अनुभव जैसे विद्युत, प्रकाश, बादल, रंग, शोर, ध्वनि इन सब के पश्चात साधक दिव्य ध्वनियां, अनंत ब्रह्मांड से आते नाद को भीतर सुनता चला जाता है, भीतर धारण करता चला जाता है यही वह स्थिति भी है शायद जब कोई योगी, कोई साधक अपने अनुभव को ताड़ पत्रों पर उतार देता है! साधक के यही अनुभव ग्रंथों के रूप में भविष्य साधकों हेतु प्रेरणा के स्त्रोत बनते हैं।

- ईशपुत्र

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