भारत की प्राचीन दिव्य संस्कृति के पदचिन्ह आपको कहाँ नजर आते है ? और उस दिव्य पदचिन्होँ के साथ साथ प्रत्येक सूचना धर्म और अध्यात्म की हम तक कैसे पहुँचती है ? और कौनसा वो तत्त्व है जहाँ हम अपनी इस अद्भुत संस्कृति की झलकियाँ देख सकते है ? वो है पुराण ! पुराण वैसे तो बेहद विकट और विराट शब्द है लेकिन एक साधारण से व्यक्ति को जिसे अभी कुछ भी नहीँ मालूम वो उसे कैसे समझ सकता है ? पुराण का अर्थ है : "पुरा" अर्थात् प्राचीन काल मेँ हुयी हुई घटनाओँ का संग्रह और विवरण । जो प्राचीन काल मेँ घटित हुआ है और जो प्राचीन काल का ज्ञान है उसे संकलित कर एक साथ एक स्थान पर उपलब्ध करवा दिया गया है और जिस ग्रंथ मेँ, जिस पुस्तक मेँ, जिस परंपरा मेँ उसे रखा गया उसे पुराण कहा गया । प्राचीन काल से लेकर अभी तक की सभी घटनाओँ का संकलन पुराणोँ मेँ है लेकिन पुराण तो प्रमुख तौर से अठ्ठारह कहे गये जिन्हेँ भगवान वेदव्यास नेँ रचा है और पुराणोँ के भीतर क्या है ? ये अलग अलग पुराण का अपना अलग अलग विषय है । मार्कण्डेय पुराण, अग्नि पुराण, स्कंद पुराण, वराह पुराण, कूर्म पुराण इस प्रकार से भागवत सहित न जानेँ कितने पुराण प्रमुख है ! जिनको अठारह कहा जाता है लेकिन इसके बाद भी उपपुराण है; लेकिन वास्तव मेँ पुराण अलिखित और अदृश्य सत्ता माने जाते है, आप कहेंगे कि ये मैँ क्या कह रहा हुँ ! जब कि स्वयं भगवान वेदव्यास नेँ तो उन्हेँ लिखवा दिया अर्थात् उन्होँनेँ देखकर उच्चरित किया और उस ज्ञान को स्वयं भगवान गजानन गणेश जी महाराज नेँ लिपिबद्ध किया है तो सब के सब पुराण तो लिखित हुए, लेकिन ये बात भी थोडी सी अधूरी है ! हालाँकि वेदव्यास भगवान नेँ जिनको बादरायण भी कहा जाता है उन्होनेँ पुराणोँ की रचना की, पुराणोँ को लिखा और हमारे सम्मुख आज पुराण है; लगभग 35 या 36 से भी अधिक और कुछ "गुप्त कुल" के पुराण है जो प्रकट नहीँ किये गये, अगर सबको मिलाया जाये तो तकरीबन वो 61 के करीब या 66 के करीब पुराण उपलब्ध होते है लेकिन हैरानी की बात ये है कि पुराण वास्तव मेँ अलिखित होते है और ये परंपरानुगत ज्ञान आपको तब मिलता है जब आप सिद्धोँ की कौल परंपरा से जुडते है, प्राचीन परंपराओँ से जुडते है तब आपको इस वास्तविकता का ज्ञान होता है । आखिर ये माजरा क्या है ? आखिर ये रहस्य क्या है ? आखिर इसके पीछे का राज क्या है ? वो ये है कि भगवान वेदव्यास जिन्हेँ "वेद-व्यास" कहा जाता है वो एक व्यक्तिविशेष नहीँ है अपितु अनेक व्यास अनेक मन्वंतरोँ मेँ उत्पन्न होते है जो धर्म को, पुराणोँ को अपने हिसाब से मानवता के लिए और इस सृष्टि के लिए प्रस्तुत करते है तब इन पुराणोँ की रचना होती है लेकिन ये पुराण कहाँ से आते है ? और पुराणोँ का मौलिक ज्ञान क्या है ये जानना और समजना बेहद जटिल है, इसे मैँ थोडा और अधिक खोलकर बताता हुँ कि आखिर इस प्रपञ्च को तुम कैसे समझोगे ! सबसे पहले पुराण की साधारण परिभाषा कि, "पुराण का अर्थ है वो घटनाएँ जो भूतकाल मेँ घटित हो चूकी है और वो सारी विद्याओँ का संकलन जो प्राचीन काल मेँ निहित थी उन्हेँ एक ग्रंथ के रुप मेँ या एक कृति के रुप मेँ या एक संकलन के रुप मेँ सहेजकर रखना पुराण कहलाता है ।" इस बात को तुम समझ गये ! अब इस बात को समझो ये दुसरा पहलू कि वो जो प्राचीन ज्ञान है वो कौनसा ज्ञान है ? क्या वो राजाओँ के वंश की कहानी है ? क्या वो सृष्टि की उत्पत्ति की कहानी है ? क्या वो राजकुमारो का विवरण है ? या फिर वो अवतारोँ के विवरण के लिए पुराणोँ की रचना होती है ? हालाँकि तुम यदि पुराण टटोलोगे तो उसमेँ नैमिषारण्य मेँ बैठे हुए ऋषिओँ का संवाद, सूत जी-शौनक जी का संवाद, अथवा मार्कण्डेय ऋषि के द्वारा कुछ उद्धत किया गया है, अग्नि के द्वारा अग्निदेव स्वयं कुछ कह रहे है, विष्णु भगवान कुछ कह रहे है, देवी माँ कुछ कह रही है, देवता कुछ कह रहे है इस प्रकार के प्रसंगोँ का बृहद् और अद्भुत सा विवरण है लेकिन ये केवल इतना ही पुराण नहीँ है ! पुराण इन रहस्य कथाओँ का संकलन अवश्य है लेकिन उसे समझना बेहद जटिल और दुरुह है इसलिए जहाँ सिद्धोँ की बात हम करते है, जहाँ कौलमत की हम बात करते है, जहाँ भारत की प्राचीनतम परंपराओँ की हम बात करते है वो आज भी कहता है कि, "पुराण अप्राप्य है, पुराण गोपनीय है, पुराण रहस्यमय है इसलिए सभी के सभी पुराण अभी तक अप्राप्य ही कहे जाते है !" हालाँकि ये बहुत ही अद्भुत बात हो जायेगी क्योँकि मैँ स्वयं पुराणोँ का प्रशंशक हुँ और मेरे पास भी पुराणोँ की आधुनिक प्रतिलिपियाँ है और मैँ उन्हेँ सहेजकर रखता हुँ और वास्तव मेँ उन पुराणोँ के भीतर जो ज्ञान है वो वास्तविक पुराणोँ जैसा ही है लेकिन फिर भी यही माना जाता है कि, ये वो पुराण नहीँ जो पुराण वास्तव मेँ हमारी परंपरा के पुराण थे ! तो जो उपलब्ध पुराण है और जो वास्तविक पुराण है उसके भीतर क्या अंतर है ? उन दोनोँ के मध्य क्या अंतर है ? हम उन्हेँ क्या समजेँ ? तो क्या इन पुराणोँ को हम ठुकरा देँ ? और कहेँ ये गलत है ? ऐसा तो नहीँ हो सकता । ऐसा कहना घोर अपराध होगा क्योँकि पुराण जो अभी तुम्हारे पास उपलब्ध है वो स्वयं भगवान वेदव्यास द्वारा रचित है, वो गलत नहीँ है और ना ही मैँ ये कह रहा हुँ कि वो गलत है लेकिन हमेँ उन्हेँ समजना होगा कि मैँ आखिर कहना क्या चाहता हुँ ।
दरसल मैँ ये समजाने की कोशिश कर रहा हुँ कि जो हर युग मेँ, हर कल्प मेँ अलग-अलग मन्वंतर मेँ अलग-अलग वेदव्यास पैदा होते है वो उस युग के अनुरुप उन चीजोँ का संकलन करके हमारे सम्मुख हमेँ प्रस्तुत कर देते है या परोस देते है जो हमारे युग के और हमारे कालखण्ड के अनुरुप होती है और जो हमारे समय मेँ पहले घटनाएँ घट चूकी है उनको और धर्मदर्शन को, नैतिकता को और मन्त्रोँ को, कर्मकाण्ड को, ज्योतीष को, रसायन को, पारद को, साहित्य को, ललितकलाओँ को इन सबको संजोकर के वो एक पुस्तक का, एक लयात्मकता का, एक ग्रंथ का, एक रचना का निर्माण करते है जो एक पुराणविशेष के नाम से प्रकट होते है; फिर उस पुराण की कथा किसी नायक से भी शुरु हो सकती है
My name is Joanne Doe, a lifestyle photographer and blogger currently living in Osaka, Japan. I write my thoughts and travel stories inside this blog..