शनिवार, 26 अक्टूबर 2024

महादेव हमारे लिए अनुकरणीय है !

 संसार इधर से उधर हो जाए लेकिन मेरी आंखों में वो चिंगारी है, साधना के लिए मैं तत्पर हूं। ऐसा शैवमतीय गुण हमारे भीतर होना चाहिए! शिव की तरह! बैठ गए हैं आसान पे तो बैठ गए हैं आसान पे, पार्वती प्रतीक्षा कर रही है , जगत की जननी उनके चरणों पे विराजमान हैं , देख रही है कि वो जागेंगे और युगों है कि वो जागते नहीं! ऐसे महादेव ही हमारे लक्ष्य हो सकते है ! हमारे लिए अनुकरणीय हो सकते है , क्योंकि उनका अनुसरण करना, उनका अनुकरण करना ही हमारे लिए श्रेष्ठ मार्ग है !


वो जड़वत् है, पत्थर की भांति, उनका जब भी शास्त्रकारों ने जब भी ऋषियों ने विवरण दिया तो कहा कि, "वो तो कैलाश धाम पे , कैलाश शिखर पर विद्यमान हैं!" कहा, "क्या कर रहे हैं?" कहा, "समाधिस्थ है!" तो कहा, "किसकी उपासना कर रहे हैं?" कहा, "नहीं मालूम।" तो कहा, " तो कभी जाके पूछ लो!" तो कहा, "हम तो नहीं पूछ सकते!" कहा, "किसकी योग्यता है?" कहते है, "एक ही है जो पूछ सकती हैं और वो पराडाकिनी हैं , मां पराम्बा हैं !वही पूछ सकती हैं! " उन्होंने पूछा, कि, "हे प्रभु! आप नेत्र मूंद के किसका ध्यान करते हैं? तो उन्होंने कहा, "मैं नेत्र बंद रखकर के केवल ' ॐ' जो नाद है, उसी का ध्यान करता हूं !" पार्वती ने फिर पूछा, " ये नाद कौन हैं ? इस सृष्टि में मैने दो ही तत्त्वों को पाया है , या तो मैं , या तो आप! ये तीसरा कौन पैदा हो गया?" तो शिव ने कहा, "जहां तुम और हम मिलते हैं वही नाद है ! इसलिए मैं तुम्हारे और अपने अतिरिक्त किसी का चिंतन नहीं करता! मेरी समाधि वैसी समाधि नहीं है जैसे जोगी समाधि लगाते हैं, मेरी समाधि कुछ और समाधि है!" इसलिए महादेव हमारे लिए अनुकरणीय है !

ईशपुत्र - कौलान्तक नाथ (लोक लोकांतरगमन साधना शिविर)




सत्य की आनंदमयी दिवाली

 

वर्ष में अनेक सिद्ध मुहूर्त होते है , और उन मुहूर्तों में भी ग्रहण , दीपावली और होली का सबसे ज्यादा महत्त्व होता है. लेकिन दीपावली के बहुत अनेकों अनेक अर्थ है. जैसे जब दीपों की माला जलाई जाए उसे दीपमाला कहा जाता है और उसी को दीपावली अर्थात दियों की पंक्ति कहा जाता है.एक योगी के लिए एक साधक के लिए असली दीपमाला अथवा असली दीपावली तब होती है जब वो भीतर के प्रकाश को जागृत कर सहस्त्र कमलदल पर जाए , हमारा जो मस्तिष्क है इसमें एक हजार छोटे छोटे पर्ण अर्थात दिए जैसे पत्ते बने हुए है जिन्हे बिंदु कहा जाता है; जब वो सभी के सभी जागृत हो जाए तो वो साधक की असली दीपावली है. मस्तिष्क के एक हजार दिव्य पर्णों को यदि जागृत किया जाए, उन्हें यदि जला लिया जाए एक एक दिये की भांति तो वहां सबसे सुन्दर्व बनती है; और योगियों का ऐसा अनुभव भी है... जब वो गहन ध्यान की अवस्था में जाते है तो मस्तिष्क में सुषुम्न मार्ग से होते हुए क्रमशः जब वो ब्रह्मरंध तक पहोंचते है वहां वो अलौकिक छबि देखते हैं। सर्वत्र ब्रह्मांड का दृश्य उन्हें दृष्टिगोचर होता है उसे ही वो दीपमाला कहते है।दीपावाल जैसे हमारे जीवन में आती है ठीक वैसी ही दीपावली इस ब्रह्मांड में भी चल रही है; यदि हम ब्रह्मांड को दूर से देखे तो अनेकों नक्षत्र , ग्रह, तारामंडल बन रहे है, बिगड़ रहे है, अनेकों दियें इस ब्रह्मांड में भी जल रहे है, अनेकों सितारे इस ब्रह्मांड में जगमगा रहे है मानों सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में कोई दीपावली मना रहा हो, उसी दीपावली को योगियों ने अपने निज ब्रह्मांड अर्थात सहस्त्रार कमलदाल में अनुभव किया और आम मनुष्य को भी इसी का संदेश देने के लिए ऋषि मुनियों ने दीपावली का आयोजन किया था . दीपावली वो शुभ मुहूर्त है जिस दिन लक्ष्मी ....लक्ष्मी शब्द छोटा हो जाएगा; महालक्ष्मी .... महालक्ष्मी शब्द भी छोटा हो जाएगा ; "श्री विद्या" अपने समस्त तेज के साथ ब्रह्मांड को संचालित करती हुई नवीन ऊर्जा देती है. ये काल श्री विद्या का काल है, ये काल अत्यंत सिद्ध काल ही, जब ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई थी तब दीपावली का दिन ही था, जब ये सितारे रोशन हुए वो दिन पीपावली का ही दिन था.....और कालांतर में इसके साथ भगवान राम और सीतामाता भी जुड़े, जब मैया सीता वापिस लौटी तो सर्वत्र दिए जलाए गए. देवी लक्ष्मी के आगमन का प्रतीक ये दिवाली होती है. लेकिन याद रहे तुम्हारी दिवाली और वास्तविक दिवाली में जमीन आसमान का अंतर है. दिवाली एक उत्सव है, एक मौका है जब तुम प्रसन्नता व्यक्त कर सकते हो, लेकिन यहां प्रसन्नता कौन व्यक्त करेगा? क्या यदि तुम्हारे पास पैसे , धन, वाहन, भूमि या वैभव अथवा राज्यसत्ता है तो तुम दिवाली मानने के हकदार हो? या तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है न धन, न मान, न सम्मान तुम बस स्वयं हो बस इतना ही तो क्या तुम दिवाली मानने के हकदार हो? दिवाली तो केवल वही माना सकता है जो जीवन और मरण से मुक्त हो चुका हो, जिसके सर पर काल न मंडरा रहा हो, जिसके सर पर मृत्यु नाश की ओर अंत की ओर ले जाने के लिए आतुर न हो; दीपावली तो वो मना सकता है जिसके जीवन में गुरु हो, जिसके जीवन में ब्रह्मप्रज्ञा हो. दीपावली तो उन योगियों के लिए है जिन्होंने अपने आप को जीवन और मरण से मुक्त कर लिया है. जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को देखने की क्षमता रखते है. दसों महाविद्याओं की विशेष अनुकंपा जिन पर है, उनके लिए दीपावली सही मायने में दीपावली है, केवल लालच दीपावली नहीं कि तुम इसलिए दीपावली के दिन साधना और पूजा करो कि तुम्हारे घर धन बरसेगा . अधिकांश लोग विशेषतया ज्योतिषी हर मध्यम से केवल यही बात तुम तक पहुंचाने की कोशिश करेंगे की तुम लक्ष्मी प्राप्ति के लिए ये सब करते चले जाओ, लेकिन वास्तविक साधक को जरा ठहर जाना चाहिए; क्योंकि धन , संपत्ति ये न तो तुम्हारे पहले भी थे, न आज है, न भविष्य में होंगे. केवल तुम्हारी जरूरतें है जिन्हे तुम्हे पूरा करना चाहिए और उसके लिए ईश्वर से इतनी अधिक पुकार लगाने की , इतनी अधिक मांग करने की कोई आवश्यकता नहीं है. लक्ष्मी की लघु साधना अवश्य करनी चाहिए ; गृहस्थ जीवन में और सांसारिक जीवन में धन और संपदा, वैभव, ऐश्वर्य रहे इसके लिए. लेकिन श्री विद्या के आगे ये सब वैसी ही तुच्छ बातें है जैसे किसी बहुत बड़े गणितज्ञ से आप ये पूछ लो कि एक जमा एक कितने होते है? दीपावली एक ऐसा अद्भुत काल है जिस काल को यदि तुमने समझ लिया तो वो तुम्हारे जीवन में उजाला ला सकती है...और वो ये भौतिक जीवन ही नहीं है, मृत्यु से पर्यंत एक अन्य जीवन भी है जिसकी खोज बुद्धिमान लोग ही करते है, मूढ़ व्यक्ति शुतुरमुर्ग की भांति रेत में अपना सर छुपाकर समझता है कि वो बच जाएगा, मूर्ख व्यक्ति की भांति हम कभी ये न सोचे कि अगर हम अपनी जिंदगी जी रहे है तो हमारा अंत नहीं होनेवाला. इस मृत्यु को महात्मा बुद्ध ने समझा, ईसा मसीह ने समझा, जीवन की नश्वरता को सभी पीर पैगंबरों ने समझा, ऋषि मुनियों ने समझा और इसी लिए एक अध्यात्म के पथ की खोज करने को कहा...और दीपावली अपने भीतर के एक एक कमलदल को जगाने का मुहूर्त है. दीपावली गुरु साधना का मुहूर्त है. दीपावली श्री विद्या को साध लेने का मुहूर्त है. जब तक तुम्हारे जीवन में श्री न हो अर्थात ऐसा बुद्धि और विवेक न हो जिसके द्वारा तुम अध्यात्म को और सूक्ष्म सत्ता को समझ सको तब तक सब कुछ व्यर्थ है और श्री ही वो शक्ति है जो अपनी अनुकंपा के द्वारा तुम्हे दिव्य तेज देती है...तब तुम्हारी बुद्धि सूक्ष्म सत्ताओं को जान सकती है, सूक्ष्म तत्त्वों पर विचार कर सकती है और तब अध्यात्म समझ में आने लगता है. जब तक श्री विद्या की अनुकंपा न हो तुम धर्म अध्यात्म को नहीं समझ सकोगे. अकसर स्तोत्र, स्तवन, मंत्र पुस्तक में लिखे गए होते है और हम समझते है कि ये मंत्र अगर पुस्तक में एक हजार बार जाप करने को कहा गया है, मैने जाप कर लिया तो लक्ष्मी की अनुकंपा हो जाएगी किंतु ऐसा नहीं है; वो तो केवल एक साधारण सा विधान है उसके पीछे अनेकों अनेक रहस्य है लेकिन उन रहस्यों को भी तो जानना होगा, जब तक हम वो रहस्य नहीं जानते तब तक हम वास्तविक साधना के धरातल पर खरे नहीं उतर पाते... इसलिए दीपावली न तो उन लोगों के लिए है जो पहले से सुविधा संपन्न है और न ही उन लोगों के लिए जो बहुत ही गरीब है. वास्तविक दीपावली तो योग्य साधक के लिए होती है.


श्री विद्या आध्यात्मिक और भौतिक दोनों जगत को एक साथ संचालित करनेवाली परांबा परानायिका है. उनके बारे में बताना आम ज्योतिषी, आम पंडित, आम साधु सन्यासी के बस की बात नहीं है . बड़े बड़े सिद्ध , बड़े बड़े आचार्य, यहां तक कि गंधर्वो के द्वारा भी देवी की स्तुति बहुत ही जटिल है. वो परम वैभवशालिनी, परम तेजस्विनी , इच्छा मात्र से इस सम्पूर्ण सृष्टि और ब्रह्मांड का संचालन करनेवाली शक्ति है. वो हमारे जीवन में इन कष्टों को तुरंत हर सकती है. यदि तुम साधना करते हो तो कर्म भी करो तब तुम्हारा जीवन निखरकर सुख देने लगेगा. यदि तुम केवल साधना करते हो भौतिक जीवन से तुम दूर होने लगोगे...और यदि तुम केवल भौतिक जीवन में रहते हो तो याद रखना इतने कष्टों और पीड़ाओं में से होकर तुम्हे गुजरना होगा और अंत भी बहुत बुरा होगा और शेष कुछ नहीं बचेगा , मिट्टी का ढेर हो जाएगा. ऐसी अवस्था में दीपावली को शुभ करने के लिए चार चीजों को समझ लीजिए: पहला मन में श्री विद्या के भाव का आविर्भाव होना चाहिए, तुम देवी मां को समझने की चेष्टा करो ; उनको समझना बड़े बड़े ऋषि मुनियों के लिए दुर्लभ है लेकिन जितना भी तुम प्रयास कर सको देवी मां को समझने का प्रयास करो, उसके लिए अपने हृदय में भाव रखो. दूसरा गुरु से संग करो उनसे दीक्षा लो और मंत्र लो, गुरु ये जानते है की तुम्हे कौनसी दीक्षा देनी है और तुम्हारे लायक कौनसा मंत्र है , उस मंत्र का जाप करो. तीसरा यथा संभव कर्मकांड...अपनी भक्ति प्रदर्शित करने के लिए थोड़े से चावल, हल्दी, कुमकुम, पानी के लोटा, गंगाजल और कुछ पुष्प बड़ी सहजता से तुम एकत्रित कर सकते हो... और एक छोटा सा लक्ष्मी का चित्र अथवा श्री विद्या का चित्र उनकी श्रद्धापूर्वक जब आप स्तुति और पूजन करते है तो जीवन में अनुकंपा अवश्य प्राप्त होती है. चौथा स्तुति स्तवन गायन, कीर्तन. यदि तुम्हारे जीवन में सिद्ध आचार्य है, सिद्ध गुरु है तो बस उनके चरणों में बैठकर आशीर्वाद लेने की आवश्यकता है. दीपावली की रात्रि अत्यंत सिद्ध रात्रि होती है , इस दिन रातभर हिमालय के बड़े बड़े परमहंस, योगी, यति, सिद्ध, गंधर्व सभी परम साधनाओं और परम तेजस्वी मंत्र की सिद्धि में लीन रहते है. बड़े बड़े योगी ध्यानस्थ होकर अपने मूलाधार की शक्ति को धीरे धीरे जागृत कर सहस्त्रार कमलदल में ले जाते है. दीपावली बहुत से गुप्त अर्थों को लेकर चलती है. इस दिन यौगिक शक्ति, तंत्र शक्ति, ज्योतिषीय शक्ति यहां तक कि ब्रह्मांड की छोटे से छोटी और बड़े से बड़ी क्षुद्र शक्तियां भी जागृत रहती है...अब ये केवल तुम्हारे गुरु और तुम पर निर्भर करता है की तुम इस सिद्ध काल में किस विशेष शक्ति का चयन कर उसे अपने जीवन में जगह देते हो.याद रहे दीपावली प्रसन्नता का अवसर तो है लेकिन ये जागने का अवसर भी है; ये दीपावली इस बात का सूचक है की मृत्युके समय जब हम आंख मूंदे तो केवल अंधकार न छा जाए, वहां भी प्रकाश हमारी राह देख रहा हो...और इसी के लिए हिमालय में ऋषि मुनि सदैव अपनी साधना करते हुए अपने आप में लीन रहते थे.

जरा सी आंख मूंद कर जब श्वास तुम भीतर खींचते हो और मंत्र बुदबुदाते हो ॐ श्रीं श्रीयै स्वाहा. तो वो अंतः यज्ञ हो जाता है...जैसे बहिर्याग होता है. हम यज्ञ कुंड बनाकर उसमें आहुतियां देते है ठीक उसी प्रकार जब तुम इसी प्रकार स्वाहा शब्द का जाप करते हुए श्वास भीतर ले जाते हो तो मूलाधार में वो मंत्र आहुति बनकर श्री विद्या तक पहुंचता है, तुम्हारे भीतर श्री विद्या नाम का तत्त्व जागृत होता है. अभी जब साधारण जीवन जीते हुए भी तुम श्री विद्या को सुन रहे हो, जब तुम श्री विद्या को जानने का प्रयास कर रहे हो तो ये वो पहला कदम है जो इस बात की सूचना देता है कि तुम्हारी चेतना श्री विद्या की ओर अग्रसर हो रही है, श्री विद्या तुम्हे अपनी ओर बुला रही है. ये केवल भौतिक धन धान्य, स्वर्ण, सोना, चांदी, हीरे, रत्न केवल ये श्री नहीं है; तुम्हारे भीतर एक अनुपम श्री है, वो देवी साक्षात तुम्हारे भीतर विद्यमान है. जिस दिन तुम भीतर से अलौकिक हो जाते हो, जिस दिन तुम भीतर से परिपूर्ण हो जाते हो उस दिन ये जगा तुम्हारा ही है. जब तुम श्री विद्या के साधक ही जाओ तो हर क्षण श्रृष्टि का हर कण बस तुम्हारे लिए ही कार्य करता है, तुम्हे आनंद देने लगता है, तुम्हे सौंदर्य देने लगता है. श्री विद्या का साधक लुंज पुंज नहीं होता, वो गरीब अथवा सदी गली अवस्था में नहीं रहता, वो तो दिव्य होता है, एकदम देवताओं जैसा, चेहरे पर सौंदर्य और तेज, सुंदर वस्त्र और रत्न, धन धान्य, उससे भी उत्तम उसके हृदय में अथाह शांति, करुणा और प्रेम...श्री विद्या के साधक को जो एक बार देख ले बस वो उसी से प्यार कर बैठता है. श्री विद्या चंचला है इसलिए ऐसा व्यक्ति एकायमी नहीं होता, वो बहुआयामी होता है. श्री विद्या संगीतप्रिया है, नृत्यप्रिया है, श्रृंगारप्रिया है तो उनका साधक भी वैसा ही होता है. अपने जीवन में प्रसन्नता को अनुभव हम कैसे करे ये श्री विद्या सिखाती है. तुम यदि अपने जीवन के दुखों को भुलाकर सुखों को याद कर सको तो तुम्हारा जीवन दीपावली जैसा होने लगता है. केवल अपने भीतर झांकने भर की देर है. जिन लोगों के पास अथाह धन, संपत्ति सब कुछ है उन लोगों की दीपावली कैसी होगी? केवल दिये जला देने से नहीं अपितु साधना उनके लिए भी उतनी ही अनुपम और आवश्यक है. मंत्र का जाप कर, गुरु की सेवा कर, साधना कर लक्ष्मी को मनाया जा सकता है. गुरु श्री विद्या के सूत्र जानते है और गुरु चाटुकारिता नहीं करते है और न ही वो तुम्हे उलझाए रखते है; वो कभी तुम्हे ये नहीं कहेंगे कि सात दिये जलाइए, आठ दिये जलाओ, उसे पूर्व दिशा में जला दो, पश्चिम दिशा में जला दो...वो तो केवल ये कहेंगे...अपने हृदय में असली ज्योत जला दो फिर बाहर की ज्योत तुम जहां मर्जी जलाओ, उससे कोई अंतर नहीं पड़नेवाला. दीपावली वो मुहूर्त है जब हमारे मस्तिष्क में श्री विद्या स्वयं बिराजमान हो जाती है. यदि हमारा मस्तिष्क ही श्री विद्या के सौंदर्य से परिपूर्ण हो जाए तो जीवन में आनंद ही आनंद है, हम सुंदर सोचेंगे, सुंदर बोलेंगे, हमारा हृदय सुंदर होगा, हमारा परिवेश सुंदर होगा और श्री विद्या जहां जहां हमें रखेगी वो सारा का सारा स्थान सुंदर होता चला जाएगा. इसीलिए कहते है कि लक्ष्मी देवी के चरण जहां जहां पड़े वहां वहां सब बदलता चला जाता है, सुंदर होता चला जाता है. तो लक्ष्मी तुम्हारे भीतर है, जब तक तुम उसके लिए भीतर का द्वार नहीं खोलोगे तब तक अपने द्वार को खुला रखने से कुछ नहीं होनेवाला...इसलिए वास्तविक साधना स्वयं करना...इसलिए वास्तविक पूजा पाठ स्वयं करना ...इसलिए दीपावली को परिवर्तित करने का काल समझना और अपना रूपांतरण करना...अपने हृदय के कपाट खोल देना ताकि तुम्हारे हृदय में श्री विद्या स्वयं आकर निवास करे . देवी बहुत अलौकिक है ...काश में उन्हें शब्दों में समझा पता...उनकी स्तुति देवताओं के लिए भी दुर्लभ है...उनका अद्भुत रूप, उनकी अद्भुत अनुकंपा तुम्हारे जीवन में यदि हो जाए तो सच मानो एक क्षण का भी विलंब नहीं होनेवाला और तुम्हारे जीवन में अखंड रूप, यौवन, तेजस्विता आ जाएगी, पूर्णता आ जाएगी, ये सम्पूर्ण जगमगाता ब्राह्मण तुम्हारे चारों तरफ घूम रहा है ये तुम्हारे लिए दीपावली ही तो है...जरा आकाश में सितारों को निहारो; दीपावली की रात वहां चंद्रमा नहीं होता क्योंकि चंद्रमा कहीं उन सितारों की जगमगाहट छुपा न ले इसलिए तुम निर्मल होकर सम्पूर्ण सितारों को आकाश में जगमगाता देख सको. वही सितारें तुम्हारे भीतर भ जगमगा रहे है...और वही सितारें जब भीतर टिमटिमाने लग जाए तो तुम्हारी दीपमाला - दीपावली सार्थक होने लग जाती है...जीवन में समय निकालना गुरु की सेवा करने के लिए, उनके दर्शन करने के लिए; वो सहज और सरल नहीं है , बहुत मेहनत करनी पड़ती है, बहुत मुसीबतें आती है लेकिन यदि तुम सभी विघ्न बाधाओं को पार कर श्री विद्या के तत्त्व को गुरु से ग्रहण कर लेते हो तो तुम्हारे जीवन में फिर अवश्य क्रांति आएगी. तुम अपने आप में देवता हो, तुम्हारे भीतर देवत्व है; उसे जागृत करो क्योंकि दीपावली का शुभ काल फिर तुम्हारे द्वार पर है. दीपावली का ये काल तुम्हें वो अवसर देगा जब तुम अपने भीतर की शक्ति को जागृत कर सकते हो तो इस मौके को अबकी बार मत चूकना. तुम्हारे जीवन में वास्तविक दीपावली आए. तुम्हारे जीवन में बाहर की जगमगाहट की भांति ही भीतर भी जगमगाहट हो. तुम्हारे जीवन में जैसे अभी दिये जल रहे है, मृत्यु पर्यंत जीवन में भी वैसे ही दिये जले, तुम अंधकार से प्रकाश की ओर चले जाओ इसी मधुर मनोकामना के साथ दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं . ॐ नमः शिवाय |

- ईशपुत्र 



गुरुवार, 24 अक्टूबर 2024

तारा महाविद्या महात्म्य

 

"अक्षोभ्य पुरुष" की शक्ति है "माँ तारा" ! जिसे माँ तारिणी कहा गया है ! मध्यरात्रि के पश्चात का जो समय है वो माँ तारा का ही है ! ये वही महाविद्या है जिन्हेँ तारिणी का नाम इसलिए प्रदान किया गया क्योँकि यही शक्ति हमेँ इस भवरुपी बन्धन से तारती है ! मानवदेह मेँ जब ये जीवात्मा बन्धनयुक्त पडी रहती है तो उस समय जीवात्मा निरन्तर छटपटाती रहती है ! कभी उसका ह्रदय "भोग" चाहता है तो कभी "योग" ! लेकिन वह दोनोँ को पाने का प्रयत्न तो करता है लेकिन किसी एक को भी ठीक तरह से प्राप्त नहीँ कर पाता ! तो माँ तारा की साधना एवं आराधना ऐसी विलक्षण है कि यदि साधक सब कुछ न्योछावर कर यदि तन्त्रमार्ग से इनकी साधना एवं आराधना करे तो वह "भोग" एवं "मोक्ष" दोनोँ को प्राप्त करता है ! "तारा तन्त्र" यद्यपि वामाचारी क्रिया से सम्पन्न होता है क्योँकि यह चीनाचारा पद्धति के द्वारा चलनेवाला है लेकिन यदि साधक इस सम्पूर्ण रहस्य को अपने श्रीगुरु के चरणोँ मेँ बैठकर समझे तो इस महाविद्या की कृपा वह अवश्य प्राप्त करता है ! तारा भगवती "ब्रह्म" का ज्ञान प्रदान करनेवाली महाशक्ति है ! यह वह शक्ति है जो हमेँ सम्पूर्ण मानसिक पीडाओँ से मुक्ति प्रदान करती है ! भगवती के सम्बन्ध मेँ कुछ भी कहना सूर्य को दीपक दिखाने के सदृश होगा ! अतः साधक को चाहिए की वह दस महाविद्याओँ की साधना एवं आराधना लगातार करता रहे ! माँ भगवती के स्तोत्र एवं मन्त्रोँ को वीरभाव से पढा अथवा उनका उच्चारण किया जाता है ! ये मन्त्र जितने भयानक और जितने गम्भीर कण्ठ स्वर से पढे जाते है उतने ही अधिक फलदायी होते है ! इन मन्त्रोँ की "सामर्थ्य" को एक "योग्य साधक" ही जान सकता है ! लेकिन यदि साधारण मनुष्य भी यदि पद्मासन अथवा सुखासन मेँ बैठकर इन मन्त्रोँ को सुनेँ, इनका श्रवण करे तो वह अपने जीवन की सभी बाधाओँ से मुक्ति प्राप्त कर सकता है ! उसके अनेकोँ रोग नष्ट होते है ! सम्पूर्ण भय नष्ट होता है ! व्यक्ति का मानसिक विकास होता है अथवा आध्यात्मिक विकास प्राप्त करते हुए वह "भोग-मोक्ष" दोनोँ को प्राप्त करता है !

बुधवार, 9 अक्टूबर 2024

'तारा महाविद्या के २१ प्रमुख भैरवों का वाहण मंत्र'



'तारा महाविद्या के २१ प्रमुख भैरवों का वाहण मंत्र' नीचे मंत्र क्रम दिया गया है 'कौलान्तक सिद्धों' का ये मंत्र एक महाकवच व सुरक्षा भी है जो सभी साधनाओं से पहले स्थापित होता है जिसकी विधि 'गुरुगम्य' ही है-

1) ॐ हृौय, हृौय, हृौय हुं अक्षोभ्य भं भैरवाय हुं क्रौं हृौं हुं, जं तं थं नं यं हं फं रं वं ज्रें थ्रें न्रें हुं हुं अक्षोभ्य भैरवाय फट्।
2) ॐ हृौय, हृौय, हृौय हुं काल भं भैरवाय हुं क्रौं हृौं हुं, जं तं थं नं यं हं फं रं वं ज्रें थ्रें न्रें हुं हुं काल भैरवाय फट्।
3) ॐ हृौय, हृौय, हृौय हुं नील भं भैरवाय हुं क्रौं हृौं हुं, जं तं थं नं यं हं फं रं वं ज्रें थ्रें न्रें हुं हुं नील भैरवाय फट्।
4) ॐ हृौय, हृौय, हृौय हुं विकराल भं भैरवाय हुं क्रौं हृौं हुं, जं तं थं नं यं हं फं रं वं ज्रें थ्रें न्रें हुं हुं विकराल भैरवाय फट्।
5) ॐ हृौय, हृौय, हृौय हुं कंकाल भं भैरवाय हुं क्रौं हृौं हुं, जं तं थं नं यं हं फं रं वं ज्रें थ्रें न्रें हुं हुं कंकाल भैरवाय फट्।
6) ॐ हृौय, हृौय, हृौय हुं पाताल भं भैरवाय हुं क्रौं हृौं हुं, जं तं थं नं यं हं फं रं वं ज्रें थ्रें न्रें हुं हुं पाताल भैरवाय फट् ।
7) ॐ हृौय, हृौय, हृौय हुं काम भं भैरवाय हुं क्रौं हृौं हुं, जं तं थं नं यं हं फं रं वं ज्रें थ्रें न्रें हुं हुं काम भैरवाय फट्।
8) ॐ हृौय, हृौय, हृौय हुं जड़ भं भैरवाय हुं क्रौं हृौं हुं, जं तं थं नं यं हं फं रं वं ज्रें थ्रें न्रें हुं हुं जड़ भैरवाय फट्।
9) ॐ हृौय, हृौय, हृौय हुं स्थूल भं भैरवाय हुं क्रौं हृौं हुं, जं तं थं नं यं हं फं रं वं ज्रें थ्रें न्रें हुं हुं स्थूल भैरवाय फट्।
10) ॐ हृौय, हृौय, हृौय हुं नाद भं भैरवाय हुं क्रौं हृौं हुं, जं तं थं नं यं हं फं रं वं ज्रें थ्रें न्रें हुं हुं नाद भैरवाय फट्।
11) ॐ हृौय, हृौय, हृौय हुं वीर भं भैरवाय हुं क्रौं हृौं हुं, जं तं थं नं यं हं फं रं वं ज्रें थ्रें न्रें हुं हुं वीर भैरवाय फट्।
12) ॐ हृौय, हृौय, हृौय हुं प्रलय भं भैरवाय हुं क्रौं हृौं हुं, जं तं थं नं यं हं फं रं वं ज्रें थ्रें न्रें हुं हुं प्रलय भैरवाय फट्।
13) ॐ हृौय, हृौय, हृौय हुं उच्चाट भं भैरवाय हुं क्रौं हृौं हुं, जं तं थं नं यं हं फं रं वं ज्रें थ्रें न्रें हुं हुं उच्चाट भैरवाय फट्।
14) ॐ हृौय, हृौय, हृौय हुं दुर्मुख भं भैरवाय हुं क्रौं हृौं हुं, जं तं थं नं यं हं फं रं वं ज्रें थ्रें न्रें हुं हुं दुर्मुख भैरवाय फट्।
15) ॐ हृौय, हृौय, हृौय हुं पावक भं भैरवाय हुं क्रौं हृौं हुं, जं तं थं नं यं हं फं रं वं ज्रें थ्रें न्रें हुं हुं पावक भैरवाय फट्।
16) ॐ हृौय, हृौय, हृौय हुं प्रेत भं भैरवाय हुं क्रौं हृौं हुं, जं तं थं नं यं हं फं रं वं ज्रें थ्रें न्रें हुं हुं प्रेत भैरवाय फट्।
17) ॐ हृौय, हृौय, हृौय हुं स्तंभ भं भैरवाय हुं क्रौं हृौं हुं, जं तं थं नं यं हं फं रं वं ज्रें थ्रें न्रें हुं हुं स्तंभ भैरवाय फट्।
18) ॐ हृौय, हृौय, हृौय हुं प्रमाद भं भैरवाय हुं क्रौं हृौं हुं, जं तं थं नं यं हं फं रं वं ज्रें थ्रें न्रें हुं हुं प्रमाद भैरवाय फट्।
19) ॐ हृौय, हृौय, हृौय हुं सूचि भं भैरवाय हुं क्रौं हृौं हुं, जं तं थं नं यं हं फं रं वं ज्रें थ्रें न्रें हुं हुं सूचि भैरवाय फट्।
20) ॐ हृौय, हृौय, हृौय हुं मैथून भं भैरवाय हुं क्रौं हृौं हुं, जं तं थं नं यं हं फं रं वं ज्रें थ्रें न्रें हुं हुं मैथुन भैरवाय फट्।
21) ॐ हृौय, हृौय, हृौय हुं चाण्डाल भं भैरवाय हुं क्रौं हृौं हुं, जं तं थं नं यं हं फं रं वं ज्रें थ्रें न्रें हुं हुं चाण्डाल भैरवाय फट्।




श्री तारा महाविद्या प्रयोग

"अक्षोभ्य पुरुष" की शक्ति है "माँ तारा" ! जिसे माँ तारिणी कहा गया है ! मध्यरात्रि के पश्चात का जो समय है वो माँ तारा का ही है ! ये वही महाविद्या है जिन्हेँ तारिणी का नाम इसलिए प्रदान किया गया क्योँकि यही शक्ति हमेँ इस भवरुपी बन्धन से तारती है ! मानवदेह मेँ जब ये जीवात्मा बन्धनयुक्त पडी रहती है तो उस समय जीवात्मा निरन्तर छटपटाती रहती है ! कभी उसका ह्रदय "भोग" चाहता है तो कभी "योग" ! लेकिन वह दोनोँ को पाने का प्रयत्न तो क को भी ठीक तरह से प्राप्त नहीँ कर पाता ! तो माँ तारा की साधना एवं आराधना ऐसी विलक्षण है कि यदि साधक सब कुछ न्योछावर कर यदि तन्त्रमार्ग से इनकी साधना एवं आराधना करे तो वह "भोग" एवं "मोक्ष" दोनोँ को प्राप्त करता है ! "तारा तन्त्र" यद्यपि वामाचारी क्रिया से सम्पन्न होता है क्योँकि यह चीनाचारा पद्धति के द्वारा चलनेवाला है लेकिन यदि साधक इस सम्पूर्ण रहस्य को अपने श्रीगुरु के चरणोँ मेँ बैठकर समझे तो इस महाविद्या की कृपा वह अवश्य प्राप्त करता है ! तारा भगवती "ब्रह्म" का ज्ञान प्रदान करनेवाली महाशक्ति है ! यह वह शक्ति है जो हमेँ सम्पूर्ण मानसिक पीडाओँ से मुक्ति प्रदान करती है ! भगवती के सम्बन्ध मेँ कुछ भी कहना सूर्य को दीपक दिखाने के सदृश होगा ! अतः साधक को चाहिए की वह दस महाविद्याओँ की साधना एवं आराधना लगातार करता रहे ! माँ भगवती के स्तोत्र एवं मन्त्रोँ को वीरभाव से पढा अथवा उनका उच्चारण किया जाता है ! ये मन्त्र जितने भयानक और जितने गम्भीर कण्ठ स्वर से पढे जाते है उतने ही अधिक फलदायी होते है ! इन मन्त्रोँ की "सामर्थ्य" को एक "योग्य साधक" ही जान सकता है ! लेकिन यदि साधारण मनुष्य भी यदि पद्मासन अथवा सुखासन मेँ बैठकर इन मन्त्रोँ को सुनेँ, इनका श्रवण करे तो वह अपने जीवन की सभी बाधाओँ से मुक्ति प्राप्त कर सकता है ! उसके अनेकोँ रोग नष्ट होते है ! सम्पूर्ण भय नष्ट होता है ! व्यक्ति का मानसिक विकास होता है अथवा आध्यात्मिक विकास प्राप्त करते हुए वह "भोग-मोक्ष" दोनोँ को प्राप्त करता है !
भगवती तारा की एक खासियत है, तारा वैराग्य तो देती है लेकिन वो बहुत थोडा वैराग्य देती है ! वो है अधर मेँ लटक जानेवाली बात कि क्या मैँ पूर्ण वैरागी हो जाऊँ या मैँ पूर्ण संसारी रहुँ? ये बीच के द्वन्द्व मेँ जो फसाये रखती है वो तारा है लेकिन ये एकमात्र उनका नकारात्मक प्रभाव है । जो उनका सो प्रतिशत सकारात्मक प्रभाव है वो ये है कि तारा के भीतर तारने की क्षमता है ! एकमात्र महाविद्या...जो साधक उस साधना को सम्पन्न कर लेता है वो व्यक्ति अपने भीतर तो क्षमता प्राप्त करता है वो देने की भी क्षमता प्राप्त करता है इसलिए तारा के पीछे "तारिणी" नाम का शब्द जुडा है । तारा का साधक स्वयं तर जाता है और जो तारा के साधक को समजने की कोशिश करता है वो भी तर जाता है इसलिए तारा साधना के दो फायदे है जिस गृहस्थी मेँ तारा साधना को सम्पन्न किया जाता है सिद्ध परंपरा ये मानती है कि उनके पंथ मेँ या उनके वंश मेँ जितने पाप उनके पूर्वजोँ द्वारा कृत थे वो भी इस साधना से मिटते है ! शास्त्र तो कहते है कि इक्कीस पीढियाँ...शास्त्र का ये प्रमाण है कि इक्कीस पीढियाँ जिस मेँ नाना की पीढी भी आती है और दादा की पीढी भी आती है ये दोनो पीढियाँ उनके पाप जो है कटते है, उऋण होते है और पाप कटने का तात्पर्य क्या है ? पाप कटने का तात्पर्य ये भी है कि आपके जीवन के समस्त संकट उससे नष्ट हो जायेंगे । अगर आपकी संतानेँ विकृत होती है, अगर आपके संतानोँ को रोग होते है, कुछ लोगोँ की संतानेँ अच्छी नहीँ हो पाती तो उसके संबंध मेँ ये देवी तारा है जो उसके लिए आपकी सहायता करती है लेकिन तारा का सबसे अच्छा गुण कि अगर आप तारा की उपासना करते है और खासकर तब जब आपके गर्भ मेँ बालक होँ तो उस स्थिति मेँ ललित कलाओँ की स्वामिनी है तारा...वो गीत, संगीत,नृत्य सीखाती है वो बोलने मेँ व्यक्ति को तीव्र करती है, कुशाग्र बुद्धि व्यक्ति को बनाती है ये तारा का सबसे बडा गुण है इसलिए अपने घर मेँ नित्य तारा की उपासना करनी चाहिए और उनसे प्रार्थना करनी चाहिए (अपने लिए, अपने परिवार के लिए भी) तो आपका परिवार कभी बिखरेगा नहीँ ! परिवार बिखरता किसका है ? जो तारा महाविद्या के रहस्योँ को नहीँ जानता । यदि आप तारा के साधक है तो आपका परिवार टूट ही नहीँ सकता, वो बिखर ही नहीँ सकता, बिखर भी गया होगा तो वो फिर से जुड जायेगा उसकी एक ही साधना है...वो है तारा महाविद्या की साधना । तारा को ज्ञान की भी देवी माना गया है तो एक हजार सरस्वती के बराबर की जो क्षमता देने की जो सामर्थ्य है वो नील तारा मेँ होती है इसलिए नील तारा की साधना हिमालय के योगी, हिमालय के ऋषि अधिकांश समय किया करते है, वो अपने आप मेँ बहुत उच्च कोटि की साधना है । सभी मन्त्रों की रक्षा करने वाली व भोग-मोक्ष दोनों के शिखरों का बोध करवा कर ज्ञान प्रदान करने वाली इस महाशक्ति के शिविर में, बेहद कड़े नियम होते हैं। हर किसी को इनकी साधना शिविर में जाने का स्वप्न नहीं लेना चाहिए।








तारा महाविद्या साधना हेतु कुछ संदर्भ पुस्तकें -



१) नील सरस्वती तंत्र



२) डामर तंत्र



३) नाट्य परम्परा और अभिनय



४) परमानन्दतंत्रम



५) सिद्धविद्या रहस्य



६) उपमहाविद्या रहस्य



७) तारा रहस्यम



८) तारा महाविद्या



९) सांख्यायन तंत्र



१०) प्रत्यंगिरा पुनश्चर्या



११) नव दुर्गा दशमहाविद्या रहस्य



१२) श्री विद्या साधना



१३) वात्स्यायन कामसूत्र



१४) मुण्डमाला तंत्र



१५) गन्धर्व तंत्र



१६) सिद्धसिद्धांत पद्धति:



१७) ज्ञानार्णव तंत्र



१८) श्री दक्षिणामूर्ति संहिता



१९) योगिनी तंत्र



२०) श्री विद्या खडग माला







बड़े से बड़े दुखों का होगा नाश



सृष्टि के सर्वोच्च ज्ञान की होगी प्राप्ति



भोग और मोक्ष होंगे मुट्ठी में



जीवन के हर क्षत्र में मिलेगी अपार सफलता



दैहिक दैविक भौतिक तापों से तारेगी



"सिद्धविद्या महातारा"







सृष्टि की उत्तपत्ति से पहले घोर अन्धकार था, तब न तो कोई तत्व था न ही कोई शक्ति थी, केवल एक अन्धकार का साम्राज्य था, इस परलायकाल के अन्धकार की देवी थी काली, उसी महाअधकार से एक प्रकाश का बिन्दु प्रकट हुआ जिसे तारा कहा गया, यही तारा अक्षोभ्य नाम के ऋषि पुरुष की शक्ति है, ब्रहमांड में जितने धधकते पिंड हैं सभी की स्वामिनी उत्तपत्तिकर्त्री तारा ही हैं, जो सूर्य में प्रखर प्रकाश है उसे नीलग्रीव कहा जाता है, यही नील ग्रीवा माँ तारा हैं, सृष्टि उत्तपत्ति के समय प्रकाश के रूप में प्राकट्य हुआ इस लिए तारा नाम से विख्यात हुई किन्तु देवी तारा को महानीला या नील तारा कहा जाता है क्योंकि उनका रंग नीला है, जिसके सम्बन्ध में कथा आती है कि जब सागर मंथन हुआ तो सागर से हलाहल विष निकला, जो तीनों लोकों को नष्ट करने लगा, तब समस्त राक्षसों देवताओं ऋषि मुनिओं नें भगवान शिव से रक्षा की गुहार लगाई, भूत बावन शिव भोले नें सागर म,अन्थान से निकले कालकूट नामक विष को पी लिया, विष पीते ही विष के प्रभाव से महादेव मूर्छित होने लगे, उनहोंने विष को कंठ में रोक लिया किन्तु विष के प्रभाव से उनका कंठ भी नीला हो गया, जब देवी नें भगवान् को मूर्छित होते देख तो देवी नासिका से भगवान शिव के भीतर चली गयी और विष को अपने दूध से प्रभावहीन कर दिया, किन्तु हलाहल विष से देवी का शरीर नीला पड़ गया, तब भगवान शिव नें देवी को महानीला कह कर संबोधित किया, इस प्रकार सृष्टि उत्तपत्ति के बाद पहली बार देवी साकार रूप में प्रकट हुई, दस्माहविद्याओं में देवी तारा की साधना पूजा ही सबसे जटिल है, देवी के तीन प्रमुख रूप हैं १)उग्रतारा २)एकाजटा और ३)नील सरस्वती..........देवी सकल ब्रह्म अर्थात परमेश्वर की शक्ति है, देवी की प्रमुख सात कलाएं हैं जिनसे देवी ब्रहमांड सहित जीवों तथा देवताओं की रक्षा भी करती है ये सात शक्तियां हैं १)परा २)परात्परा ३)अतीता ४)चित्परा ५)तत्परा ६)तदतीता ७)सर्वातीता, इन कलाओं सहित देवी का धन करने या स्मरण करने से उपासक को अनेकों विद्याओं का ज्ञान सहज ही प्राप्त होने लगता है, देवी तारा के भक्त के बुद्धिबल का मुकाबला तीनों लोकों मन कोई नहीं कर सकता, भोग और मोक्ष एक साथ देने में समर्थ होने के कारण इनको सिद्धविद्या कहा गया है







देवी तारा ही अनेकों सरस्वतियों की जननी है इस लिए उनको नील सरस्वती कहा जाता है



देवी का भक्त प्रखरतम बुद्धिमान हो जाता है जिस कारण वो संसार और सृष्टि को समझ जाता है



अक्षर के भीतर का ज्ञान ही तारा विद्या है



भवसागर से तारने वाली होने के कारण भी देवी को तारा कहा जाता है



देवी बाघम्बर के वस्त्र धारण करती है और नागों का हार एवं कंकन धरे हुये है



देवी का स्वयं का रंग नीला है और नीले रंग को प्रधान रख कर ही देवी की पूजा होती है



देवी तारा के तीन रूपों में से किसी भी रूप की साधना बना सकती है समृद्ध, महाबलशाली और ज्ञानवान



सृष्टि की उतपाती एवं प्रकाशित शक्ति के रूप में देवी को त्रिलोकी पूजती है



ये सारी सृष्टि देवी की कृपा से ही अनेक सूर्यों का प्रकाश प्राप्त कर रही है



शास्त्रों में देवी को ही सवित्राग्नी कहा गया है



देवी की स्तुति से देवी की कृपा प्राप्त होती है



                   







                                   स्तुति

प्रत्यालीढपदार्पिताङ्घ्रिशवहृद्घोराट्टहासा परा ।
खड्गेन्दीवरकर्त्रिखर्परभुजा हुङ्कारबीजोद्भवा ॥

खर्वा नीलविशालपिङ्गलजटाजूटैकनागैर्युता ।
जाड्यं न्यस्य कपालके त्रिजगतां हन्त्युग्रतारा स्वयम् ॥

देवी की कृपा से साधक प्राण ज्ञान प्राप्त करने के साथ-साथ भोग और मोक्ष दोनों प्राप्त करता है

गृहस्थ साधक को सदा ही देवी की सौम्य रूप में साधना पूजा करनी चाहिए

देवी अज्ञान रुपी शव पर विराजती हैं और ज्ञान की खडग से अज्ञान रुपी शत्रुओं का नाश करती हैं

लाल व नीले फूल और नारियल चौमुखा दीपक चढाने से देवी होतीं हैं प्रसन्न



देवी के भक्त को ज्ञान व बुद्धि विवेक में तीनो लोकों में कोई नहीं हरा पता



देवी की मूर्ती पर रुद्राक्ष चढाने से बड़ी से बड़ी बाधा भी नष्ट होती है



महाविद्या तारा के मन्त्रों से होता है बड़े से बड़े दुखों का नाश







                                   देवी माँ का स्वत: सिद्ध महामंत्र है-



                            श्री सिद्ध तारा महाविद्या महामंत्र




                                      ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं फट







इस मंत्र से काम्य प्रयोग भी संपन्न किये जाते हैं जैसे



1. बिल्व पत्र, भोज पत्र और घी से हवन करने पर लक्ष्मी की प्राप्ति होती है



2.मधु. शर्करा और खीर से होम करने पर वशीकरण होता है



3.घृत तथा शर्करा युक्त हवन सामग्री से होम करने पर आकर्षण होता है।



4. काले तिल व खीर से हवन करने पर शत्रुओं का स्तम्भन होता है।



देवी के तीन प्रमुख रूपों के तीन महा मंत्र



महाअंक-देवी द्वारा उतपन्न गणित का अंक जिसे स्वयं तारा ही कहा जाता है वो देवी का महाअंक है -"1"



विशेष पूजा सामग्रियां-पूजा में जिन सामग्रियों के प्रयोग से देवी की विशेष कृपा मिलाती है



सफेद या नीला कमल का फूल चढ़ाना



रुद्राक्ष से बने कानों के कुंडल चढ़ाना



अनार के दाने प्रसाद रूप में चढ़ाना



सूर्य शंख को देवी पूजा में रखना



भोजपत्र पर ह्रीं लिख करा चढ़ाना



दूर्वा,अक्षत,रक्तचंदन,पंचगव्य,पञ्चमेवा व पंचामृत चढ़ाएं



पूजा में उर्द की ड़ाल व लौंग काली मिर्च का चढ़ावे के रूप प्रयोग करें



सभी चढ़ावे चढाते हुये देवी का ये मंत्र पढ़ें-ॐ क्रोद्धरात्री स्वरूपिन्ये नम:







१)देवी तारा मंत्र-ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं फट



२)देवी एक्जता मंत्र-ह्रीं त्री हुं फट



३)नील सरस्वती मंत्र-ह्रीं त्री हुं



सभी मन्त्रों के जाप से पहले अक्षोभ्य ऋषि का नाम लेना चाहिए तथा उनका ध्यान करना चाहिए



सबसे महत्पूरण होता है देवी का महायंत्र जिसके बिना साधना कभी पूरण नहीं होती इसलिए देवी के यन्त्र को जरूर स्थापित करे व पूजन करें



यन्त्र के पूजन की रीति है-



पंचोपचार पूजन करें-धूप,दीप,फल,पुष्प,जल आदि चढ़ाएं



ॐ अक्षोभ्य ऋषये नम: मम यंत्रोद्दारय-द्दारय



कहते हुये पानी के 21 बार छीटे दें व पुष्प धूप अर्पित करें



देवी को प्रसन्न करने के लिए सह्त्रनाम त्रिलोक्य कवच आदि का पाठ शुभ माना गया है



यदि आप बिधिवत पूजा पात नहीं कर सकते तो मूल मंत्र के साथ साथ नामावली का गायन करें



तारा शतनाम का गायन करने से भी देवी की कृपा आप प्राप्त कर सकते हैं



तारा शतनाम को इस रीति से गाना चाहिए-







तारणी तरला तन्वी तारातरुण बल्लरी,



तीररूपातरी श्यामा तनुक्षीन पयोधरा,



तुरीया तरला तीब्रगमना नीलवाहिनी,



उग्रतारा जया चंडी श्रीमदेकजटाशिरा,



देवी को अति शीघ्र प्रसन्न करने के लिए अंग न्यास व आवरण हवन तर्पण व मार्जन सहित पूजा करें



अब देवी के कुछ इच्छा पूरक मंत्र



1) देवी तारा का भय नाशक मंत्र



      ॐ त्रीम ह्रीं हुं



नीले रंग के वस्त्र और पुष्प देवी को अर्पित करें



पुष्पमाला,अक्षत,धूप दीप से पूजन करें



रुद्राक्ष की माला से 6 माला का मंत्र जप करें



मंदिर में बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है



नीले रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें



पूर्व दिशा की ओर मुख रखें



आम का फल प्रसाद रूप में चढ़ाएं



2) शत्रु नाशक मंत्र



ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सौ: हुं उग्रतारे फट



नारियल वस्त्र में लपेट कर देवी को अर्पित करें



गुड से हवन करें



रुद्राक्ष की माला से 5 माला का मंत्र जप करें



एकांत कक्ष में बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है



काले रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें



उत्तर दिशा की ओर मुख रखें



पपीता का फल प्रसाद रूप में चढ़ाएं



3) जादू टोना नाशक मंत्र



ॐ हुं ह्रीं क्लीं सौ: हुं फट



देसी घी ड़ाल कर चौमुखा दीया जलाएं



कपूर से देवी की आरती करें



रुद्राक्ष की माला से 7 माला का मंत्र जप करें



4) लम्बी आयु का मंत्र



ॐ हुं ह्रीं क्लीं हसौ: हुं फट



रोज सुबह पौधों को पानी दें



रुद्राक्ष की माला से 5 माला का मंत्र जप करें



शिवलिंग के निकट बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है



भूरे रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें



पूर्व दिशा की ओर मुख रखें



सेब का फल प्रसाद रूप में चढ़ाएं



5) सुरक्षा कवच का मंत्र



ॐ हुं ह्रीं हुं ह्रीं फट



देवी को पान व पञ्च मेवा अर्पित करें



रुद्राक्ष की माला से 3 माला का मंत्र जप करें



मंत्र जाप के समय उत्तर की ओर मुख रखें



किसी खुले स्थान में बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है



काले रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें



उत्तर दिशा की ओर मुख रखें



केले व अमरुद का फल प्रसाद रूप में चढ़ाएं



देवी की पूजा में सावधानियां व निषेध-



बिना "अक्षोभ ऋषि" की पूजा के तारा महाविद्या की साधना न करें



किसी स्त्री की निंदा किसी सूरत में न करें



साधना के दौरान अपने भोजन आदि में लौंग व इलाइची का प्रयोग नकारें



देवी भक्त किसी भी कीमत पर भांग के पौधे को स्वयं न उखाड़ें



टूटा हुआ आइना पूजा के दौरान आसपास न रखें



विशेष गुरु दीक्षा-



तारा महाविद्या की अनुकम्पा पाने के लिए अपने गुरु से आप दीक्षा जरूर लें आप कोई एक दीक्षा ले सकते हैं



महातारा दीक्षा



नीलतारा दीक्षा



उग्र तारा दीक्षा



एकजटा दीक्षा



ब्रह्माण्ड दीक्षा



सिद्धाश्रम प्राप्ति दीक्षा



हिमालय गमन दीक्षा



महानीला दीक्षा



कोष दीक्षा



अपरा दीक्षा.................आदि में से कोई एक















-कौलान्तक पीठाधीश्वर



महायोगी सत्येन्द्र नाथ





शनिवार, 6 जुलाई 2024

गुप्त नवरात्रि महिमा


The world wide famous "Kaulantak Peeth" known for hidden knowledge and secrets has its own prime festival and its "Gupt Navaratri" and by its name one can known that this navaratri is a secret one. The sadhana procedure of this navaratri is not like the procedure of the main ones. This particular time is taken as very important. The Goddess of miracles "Kurukulla" or "Rakta Tara/Red Tara" with her full power indulges in the recreating this universe. In this time there is a huge karma kanda rituals and through "Kaul tradition", the worship of Goddess is carried out. In this time the worship of 64 yoginis, Ten Mahavidyas , Kritya, Matrika along with various other forms of Goddess is done with sadhana carried out too. The "Gupt Navaratri" is also called as Tantra time too. The "Gupt Navaratri" comes twice in a year and in the midst of playing of drums, tantric musical instrument the chakra puja , mandal pujan and awaran puja is carried out. A chakra puja in this time equals the fruit of worship of all gods and goddess. A mandal puja equals the woship of all universe. An awaran puja in this time takes the sadhak in the world of sadhana to its peak but a thing to be noted is that with whatever intention you do the sadhana it should be kept discrete. In this phase any inauspicious act etc the offence of the planets, intelligible time offence etc does not effect a sadhak. "Ishaputra-Kaulantak Nath" has told so many wish fulfilling mantras in his previous videos. For the sadhanas you can check his videos-Kaulantak Peeth Team-Himalaya.

गुप्त विद्या और रहस्यों के लिए विश्व भर में प्रसिद्द "कौलान्तक पीठ" का पर्मुख पर्व होता है "गुप्त नवरात्र" जैसा की नाम से ही विदित है की ये नवरात्र गोपनीय होते हैं। इसकी साधना आम तरीकों से नहीं होती। जैसा की प्रमुख नवरात्रों में होता है। ये समय अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। चमत्कारों की देवी "कुरुकुल्ला" यानि "रक्त तारा" इस काल में अपनी सम्पूर्ण शक्तियों के साथ ब्रह्माण्ड को नवनिर्मित करती है। इस काल में व्यापक कर्मकाण्ड करते हुए "कौल परम्परा" अनुसार देवी की साधनाएँ होती है। इस काल में चौंसठ योगिनी, दस महाविद्या, कृत्या, मातृका सहित देवी के कई स्वरूपों की स्तुति की जाती है व साधना संपन्न की जाती है। इन गुप्त नवरात्रों को तंत्र काल भी कहा जाता है। ये गुप्त नवरात्र भी वर्ष में दो बार आते हैं। ढोल नगाड़ों व तांत्रिक वाद्य यंत्रों के बीच चक्र पूजन, मंडल पूजन व आवरण पूजन सम्पन्न किया जाता है। एक चक्र पूजा इस काल में, सभी देवी-देवताओं की पूजा के बराबर फलदाई होती है। एक मंडल पूजा समस्त ब्रह्माण्ड की पूजा के बराबर होती है। एक आवरण पूजा, साधक को साधना जगत में बहुत ऊँचा उठा देती है . लेकिन एक समस्या है की इस दौर में आप किस उद्देश्य से साधना कर रहे हैं ये गोपनीय ही रहना चाहिए। इस काल में कोई सूतक-पातक आदि ग्रह दोष, मुहूर्त दोष आदि नहीं लगते। "ईशपुत्र-कौलान्तक नाथ" नें बहुत से इच्छापूरक मंत्रो के बारे में पहले ही विडिओ में बताया है। आप साधना के लिए विडिओ देख सकते हैं-कौलान्तक पीठ टीम-हिमालय।

गुप्त नवरात्रि महिमा

गुप्त विद्या और रहस्यों के लिए विश्व भर में प्रसिद्द "कौलान्तक पीठ" का पर्मुख पर्व होता है "गुप्त नवरात्र" जैसा की नाम से ही विदित है की ये नवरात्र गोपनीय होते हैं। इसकी साधना आम तरीकों से नहीं होती। जैसा की प्रमुख नवरात्रों में होता है। ये समय अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। चमत्कारों की देवी "कुरुकुल्ला" यानि "रक्त तारा" इस काल में अपनी सम्पूर्ण शक्तियों के साथ ब्रह्माण्ड को नवनिर्मित करती है। इस काल में व्यापक कर्मकाण्ड करते हुए "कौल परम्परा" अनुसार देवी की साधनाएँ होती है। इस काल में चौंसठ योगिनी, दस महाविद्या, कृत्या, मातृका सहित देवी के कई स्वरूपों की स्तुति की जाती है व साधना संपन्न की जाती है। इन गुप्त नवरात्रों को तंत्र काल भी कहा जाता है। ये गुप्त नवरात्र भी वर्ष में दो बार आते हैं। ढोल नगाड़ों व तांत्रिक वाद्य यंत्रों के बीच चक्र पूजन, मंडल पूजन व आवरण पूजन सम्पन्न किया जाता है। एक चक्र पूजा इस काल में, सभी देवी-देवताओं की पूजा के बराबर फलदाई होती है। एक मंडल पूजा समस्त ब्रह्माण्ड की पूजा के बराबर होती है। एक आवरण पूजा, साधक को साधना जगत में बहुत ऊँचा उठा देती है . लेकिन एक समस्या है की इस दौर में आप किस उद्देश्य से साधना कर रहे हैं ये गोपनीय ही रहना चाहिए। इस काल में कोई सूतक-पातक आदि ग्रह दोष, मुहूर्त दोष आदि नहीं लगते। "ईशपुत्र-कौलान्तक नाथ" नें बहुत से इच्छापूरक मंत्रो के बारे में पहले ही विडिओ में बताया है। आप साधना के लिए विडिओ देख सकते हैं-कौलान्तक पीठ टीम-हिमालय।



बुधवार, 26 जून 2024

अप्सरा साधना



'अप्सरा' ये शब्द ही सौंदर्य और श्रृंगार से भरा है। साथ ही ये शब्द ललचाता है 'कामी और व्यसनियों' को भी। भारत में तो कोई ही होगा जो की ये ना जानता हो की अप्सरा क्या होती है। किन्तु शास्त्र कहते हैं की जिस प्रकार देव, दानव, मनुष्य, यक्ष, किन्नर आदि प्रजातियां ब्रह्माण्ड में उपस्थित हैं उसी भांति ही अप्सर और अप्सराएं भी एक वर्ग विशेष है। क्योंकि इनका वर्ग देवताओं के समतुल्य होता है इसी कारण तंत्र नें इन्हें साधने और इनकी उपासना करने का अधिकार साधक को प्रदान करते हुए कहा की सौंदर्य और सम्मोहन की अति का अनुभव साधक को अप्सरा व अप्सर साधना द्वारा करना चाहिए। अप्सराएं व अप्सर कितने हैं इसकी कोई ठीक-ठीक गणना उपलब्ध नहीं है। किसी ग्रन्थ में 64 तो किसी में 108 कही गई है। किन्तु 'कौलान्तक सिद्धों' व 'मृकुल सिद्धों' के अनुसार प्रमुख अप्सर व अप्सराओं की संख्या 152 बताई गई है। जिसकी सूची 'कौलान्तक पीठ' के पास उपलब्ध भी है। अप्सर व अप्सराओं में बहुत सी दिव्य शक्तियां होती हैं जिसे उन्होंने जन्मजात योग्यता को तपस्या द्वारा बढ़ा कर प्राप्त किया होता है।
अप्सर व अप्सराओं का कार्य अति प्रमुख देवताओं सहित देवियों व त्रिदेवों की सेवा करना है। आम जानकारी के अनुसार अप्सराएं देवराज इंद्र के दरबार में रहती हैं व अपने गीत-नृत्य द्वारा देवताओं की सेवा करती हैं। किन्तु ये अपूर्ण सत्य है। प्रत्येक देवी-देवताओं के पास सेवा हेतु अप्सर व अप्सराएं होती हैं। भगवान सदाशिव महादेव की सेवा में अनेकों प्रकार की अप्सराएं व अप्सर निरंतर हैं। भगवान विष्णु की सेवा व भगवान ब्रह्मा जी की सेवा में भी बहुत सी अप्सराएं व अप्सर हैं। जो अप्सरा या अप्सर जिस इष्ट देवी-देवता की सेवा में होते हैं उनके गुण भी वैसे ही होते हैं। अप्सर व अप्सराओं में भी तीन प्रकार का सात्विक, राजसी व तामसिक गुण होता है। जब किसी तपस्वी का अखंड ब्रह्मचर्य या घोर तप सृष्टि को परेशान करने लगता है। स्वर्ग आदि लोक काम्पने लगते हैं तो इन्द्र किसी अप्सरा को तपस्वी पुरुष की तपस्या भंग करने को कहता है। ये वो परिस्थिति होती है जब किसी तपस्वी का किसी अप्सरा से आमना-सामना होता है। किन्तु इसके अतिरिक्त भी पुराणों व मौखिक गाथाओं से ये स्पष्ट होता है की कभी-कभी पृथ्वी पर किसी वीर अथवा तपस्वी, सुन्दर पुरुष को देख कर अप्सराओं का मन उन पर आ गया। ऐसी परिस्थिति में वो प्रेम के वशीभूत हो कर उस पुरुष के साथ लम्बे समय तक रही और फिर स्वर्ग वापिस लौट गयी। इस तरह से कथाओं और धर्म प्रसंगों में विविध प्रकार से अप्सराओं का वर्णन हुआ है। किन्तु तंत्र में बात थोड़ी हट कर होती है। तंत्र कहता है की अप्सरा भी देव कुल की ही हैं। उनका मंत्र व साधना द्वारा आवाहन किया जा सकता है। साधना व तप द्वारा किसी भी अप्सर या अप्सरा को प्रसन्न कर मनोवांछित वरदान पाया जा सकता है। तंत्र नें माता, बहन, प्रेमिका आदि के रूप में साधना कर किसी अप्सरा को सिद्ध करने का विधान बताया है। अप्सरा साधना क्यों की जाती है इसके बहुत से कारण है। स्त्रियां इस कारण अप्सरा साधना करती हैं क्योंकि ये कहा गया है की इससे स्त्रियों का सौंदर्य व आकर्षण किसी अप्सरा जैसा ही हो जाता है। साथ ही पुरुष अपने पौरुष के वर्धन हेतु व गोपनीय वर प्राप्ति हेतु अप्सरा साधना करते हैं। मनोवांछित प्रेमी-प्रेमिका की प्राप्ति भी अप्सरा साधना से होती है। लेकिन 'कौलान्तक सिद्धों' नें अप्सरा साधना करने का जो कारण बताया है वो है की अप्सरा साधना इस लिए आवश्यक है क्योंकि मनुष्य के जीवन में यदि विपरीत लिंगी का प्रेम ना हो तो वो अपूर्ण रहता है। अप्सरा साधना से जीवन में प्रेम का बसंत आता है। स्त्री को श्रेष्ठ पुरुष व पुरुष को श्रेष्ठ स्त्री की प्राप्ति होती है व जीवन अति आनंददायक हो जाता है। कभी-कभी अप्सरा स्वयं साधक के पास प्रकट हो कर उसे प्रेम प्रदान करती है ऐसा स्पष्ट शास्त्रीय उल्लेख है। जीवन को प्रेम, उत्साह, आल्हाद, मस्ती से भर देने की सबसे प्रबल साधना है अप्सरा साधना।
जो पुरुष या स्त्री इस साधना से परिपूर्ण होते हैं उनका सम्मोहन व आकर्षण त्रिलोकी को मोहित करने वाला होता है। उनको कलाओं का ज्ञान सहज ही मिलाने लगता है। यहाँ तक की अप्सर व अप्सराएं गुरु का भी आंशिक कार्य करते हैं व साधक को बताते हैं की क्या करना अच्छा है और क्या करना बुरा? भारत के तंत्र क्षेत्र में तो अप्सरा साधना विहीन साधक को अपूर्ण व हीन समझा जाता है। अप्सरा साधना से संपन्न को ही पूर्ण पुरुष के अलंकार से सुशोभित किया जाता है। हालांकि ये सब मान्यताएं भर हैं किन्तु काफी पूर्व काल से प्रचलित हैं। 'कौलान्तक सिद्धों' नें अनेक रूपों में अप्सरा को साध कर ज्ञान व भोग प्राप्त किया है। इसी कारण ये परम्परा 'कौलान्तक पीठ' में भी आज तक अबाध रूप से चल रही है।-कौलान्तक पीठ हिमालय







तारा महाविद्या-बौद्धाचार-कौलाचार-चीनाचार-गोम्पा

''तारा महाविद्या-नील सरस्वती साधना'' एक अत्यंत जटिल और उच्च कोटि की साधना मानी गयी है। लेकिन इस ''दिव्य महाविद्या'' को समझ पाना सरल नहीं है। ''महर्षि विश्वामित्र और वशिष्ठ'' जैसे सर्वोच्च ऋषियों नें भी ''तारा महाविद्या'' को जानना चाहा। लेकिन उनका साहस भी आखिर टूट गया। तब महाचीन जा कर उनहोंने एक ''बुद्ध से चीनाचार'' द्वार तारा को सिद्ध किया। आज चीनाचार बदल गया है। आज काल और काल की गति बदल गयी है। तंत्र का दक्षिण मारग और वाम मारग मानों आखिरी साँसे गिन रहा हो। साहित्यकार और शोधार्थी तो ये तक नहीं ढूंढ पा रहे की भारत का तंत्र प्राचीन है या चीन का? बौद्ध धर्म के बज्रयान नें तारा को प्रमुख आराध्या माना और आज तक वो अपने 'गोम्पा में तारा को स्थान दिए हैं। ''कौलान्तक पीठाधीश्वर महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी महाराज'' नें बाल्यावस्था में हिमाचल प्रदेश के ''लौहुल-स्पीती'' क्षेत्रों में भोटी भाषा और बौद्ध धर्म के तन्त्रयान को लामाओं से निकटता से समझा है। लगभग पांच वर्ष का अभ्यास और कौलमत नें ''कौलान्तक नाथ'' को बहुत कुछ प्रदान किया है। आज भी ''कौलान्तक नाथ'' का ''बौद्ध धर्म'' के प्रति 'मैत्री पूर्ण' प्रेम कम नहीं हुआ है।
जैसे ही गुजरात के अहमदाबाद में 19-20 जनबरी 2013 को ''तारा महाविद्या-नील सरस्वती साधना शिविर'' की घोषणा हुयी। ''कौलान्तक नाथ'' हिमाचल प्रदेश के कुल्लू के निकट स्थित बोद्ध गोम्पा गए। वहां उनहोंने ''चीनाचार और बोद्धाचार'' को याद किया। माँ तारा से पूर्णता व ''हिन्दू और बोद्धों'' के मध्य मैत्री, प्रेम व शांति बनाये रखने की प्रार्थना की। आपकी सेवा में प्रस्तुत है। बोद्ध गोम्पा में ''कौलान्तक नाथ'' की एक छोटी सी दुर्लभ विडिओ-कौलान्तक पीठ टीम-हिमालय

रविवार, 31 मार्च 2024

ईशपुत्र-कौलान्तक नाथ के दिव्य वचन


"ईशपुत्र-कौलान्तक नाथ" के दिव्य "वचन"

१) अपने मुख में स्थित जिह्वा को ईश्वर और उसके संतों (दूतों) के यशोगान में लगा दो, तो त्रिलोकी, ब्रह्माण्ड और ईश्वर तुम पर अपना स्नेह बरसाने लगेंगे। जीवन में ईश्वरीय चमत्कार होगा।

२) अपने आप को पवित्र जानो क्योंकि ईश्वर नें तुमको पवित्र ही बनाया है तथापि पापों से मुक्ति के लिए पंच तत्वों का प्रार्थना सहित प्रयोग करो। जल, अग्नि, आकाश, पृथ्वी, वायु सबमें तुम्हारे पापों को सोखने की क्षमता है क्योंकि ईश्वर नें ये कार्य इनको दिया है।

३) ये मत भूलो की जिस तरह संसार में तुम्हें संबंधी दिए गए हैं और तुम उनके और अपने सम्बन्ध को सत्य मानने लगते हो, जो केवल इसका अभ्यास करने के लिए हैं की तुम ईश्वर से अपना सम्बन्ध बना सको।

४) तुमको जीवन में विश्राम हेतु नहीं, काम हेतु भेजा गया है। मृत्यु विश्राम ले कर आ रही है, किन्तु चिंता करना! तुम ईश्वर से क्या कहोगे की तुमने सृष्टि को कैसा पाया और क्या योगदान दिया?

५) ब्रह्माण्ड और संसार को नाश (कयामत) के लिए उत्तपन्न नहीं किया गया है। ये तो ईश्वर नें अपने और तुम्हारे विलास के लिए बनाया है। युक्ति से यहाँ जीना, आदर्श वचनों और जीवन आचरण को ही जीने की रीति जानना। तब तुम्हारे लिए ब्रह्माण्ड के द्वार भी खोल दिए जायेंगे। प्रलय तो केवल एक महाविश्राम है।

६) मेरे वचनों पर श्रद्धा रख, अपने ईश्वर को सदा पुकारते रहना। क्योंकि मैंने उसका स्नेह पुकारने के कारण पाया और अब वो तुम्हारी ओर देखते है।

७) ईश्वर का आभार व्यक्त करने के लिए तुम पत्थरों पर पत्थर रख कर एक ढेर बनाओ या फिर मंदिर, मठ, पूजाघर। ईश्वर तुम्हारे प्रेम के कारण सबको एक सा ही देखता है और तुम्हारे सुन्दर प्रयासों पर मुस्कुराता है।

८) ईश्वरीय अवतार या दूतों का आगमन इसी कारण होता है की तुम उनको छू कर देख सको और विराट, सामर्थ्यवान ईश्वर को छोटी सी इकाई में अनुभव कर सको। ईश्वर का वाक्य है कि उन्हें (अवतारों और दूतों) मुझसे अलग मत पाना क्योंकि उनकी अंगुली मेरी अंगुली है, उनके पास अपनी कोई अंगुली नहीं।

९) मैं (ईश्वर) कौन हूँ, कहाँ हूँ, कैसा हूँ? बुद्धि से विचारते ही रह जाओगे। स्वीकार करो की तुम न्यून हो और प्रेम से प्रार्थना करो। तब मैं अप्रकट होते हुए भी प्रकट होने लगता हूँ।

१०) अवतारों या दूतों के वचन बाँटते नहीं हैं बल्कि तुमको सुख देने वाले और ईश्वर के पथ पर ले जाने वाले होते है। जिनको वचनों में दोष दिखाई नहीं देता वास्तव में उनपर ईश्वरीय अनुकम्पा है।
११) तुम सहायता के लिए मुझे और ईश्वर को पुकारते हो, हम सदा तैयार है। लेकिन पहले ये बताओ की तुमने हमारी सहायता से पहले अपनी सहायता के लिए क्या किया। सच्चा प्रयास हम कभी निष्फल नहीं होने देते।
१२) मैं सभी धार्मिक ग्रंथों (किताबों) के प्राणों का प्रत्यक्षीकरण हूँ, क्योंकि उनके अक्षरों को तुम देखते हो, मैं उनका प्राण हूँ, ऐसी सामर्थ्य मुझे ईश्वर का पुत्र होने से मिली है। इसलिए तू इसी क्षण स्वयं को ईश्वर का पुत्र स्वीकार कर और अपना प्रेम उस ब्रह्म हिरण्यगर्भ के प्रति प्रकट कर, देख वहां से उत्तर मिल रहा है।
१३) ईश्वर की सामर्थ्य और क्षमता इतने में जान की वो मैं हूँ और मैं वो हूँ। फिर भी अलग अभिनय कर खुद को खुद ही तेरे लिए स्थापित करता हूँ। जिसका प्रयोजन धीरे-धीरे प्रत्यक्ष से सूक्ष्म की ओर ले जाना है। एक पूर्ण ब्रह्म है, एक पूर्ण अवतार।
१४) ईश्वर नहीं कहता की केवल एकमात्र मैं ही पूज्य हूँ, मेरे अतिरिक्त किसी को आराध्य ना मानना। बल्कि ईश्वर कहता है की किसी भी विधि से मानोगे तो वो विधि और आराध्य मुझ तक पहुँचायेगा। इसलिए मेरा कहना है की तू सीधे उसकी ओर देख परम पूज्य के सम्मुख सब धुंधले पूज्य हैं।
१५) अवतार चक्षुगम्य हैं किन्तु ब्रह्म कलिए महाचक्षु की तुमको आवश्यकता होगी और वो केवल समर्पण, साधना और सेवा से ही पाया जा सकता है। ताप के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं। ताप और भक्ति को अगल जानने वाला अबोध ही होगा।
१६) जिस ईश्वर के सब ओर मुख हैं, जिसके लिए सृजन-पालन और विनाश खेल मात्र हैं उसके लिए साकार होना या निराकार होना कोई महत्त्व नहीं रखता। वो दोनों स्वरूपों में प्रकट होने वाला है उसके प्रकट और अप्रकट स्वरूपों में भेद जानना निश्चित ही धर्म रहित होने जैसा है।
१७) ईश्वर को मानने या न मानने से वो प्रसन्न या अप्रसन्न नहीं होता। वो तो तुम्हारे आचरण और निर्णयों सहित तुम्हारे मन को देखता है। ईश्वर का विधान न तो आस्तिक जानता है और ना ही नास्तिक। आस्तिक होना पुण्य नहीं और नास्तिक होना पाप नहीं।
१८) आस्तिक-नास्तिक, ज्ञानी-अज्ञानी, बुद्धिमान-कुबुद्धिमान अपनी-अपनी शैली और क्षमताओं से ईश्वर के होने न होने पर तर्क देंगे। तुम उनकी ओर देखोगे और नदी जलधारा के समान बहने लगोगे। किन्तु याद रखना उनके जैसे पहले भी हो चुके हैं आगे भी होंगे, पर क्या बदला? कुछ नहीं? इसलिए बदलना तुमको ही होगा।
१९) ईश्वर का रास्ता सुन्दर और सनातन है। तू इस पर चल, तेरे रोग-शोक, दुःख-संताप नष्ट होंगे। तू कभी कहीं अकेला नहीं रहेगा। भीतर की रिक्तता पूर्ण हो जायेगी। भयों का नाश हो, आनंद का उजाला होगा।
२०) ईश्वर के पुत्रों का आगमन और सृष्टि हित के कार्य अविरल होते रहेंगे। संतों का होना, दूतों का होना ही पूरे ब्रहमांड को प्रकाशित करता रहेगा। बस तुमको इस बात की चिंता करनी होगी की तुम कैसे ईश्वर के प्रिय हो सको। वो तुमको अवसर देता है, अब तुम इस अवसर का प्रतिउत्तर देना, तो मैं तुमको गले लगाउंगा।
२१) माया ईश्वरीय शक्ति का वो स्वरुप है जो असत्य होते हुए भी सत्य प्रतीत होता है। जो इन्द्रियातीत नहीं हो सकते उनके लिए यही संसार सत्य है किन्तु विवेकी पुरुष अपने ज्ञान और सामर्थ्य से इस माया को बेध कर ईश्वर के प्रकाश और असत्य संसार को देख सकता है।
२२) मैंने (ईश्वर नें) पशुओं को, स्त्री-पुरुष को, वनस्पति आदि दृश्य-अदृश्य को समानता से रचा है। कोई ना तो बड़ा है और ना कोई छोटा। समय पर सब बलवान होते हैं और एक समय सब निर्बल। इसलिए तू इस बहस में ना पड़ की कौन बड़ा? माया के भीतर समय बड़ा है और जब तक तू इस समय से उस पार ना हो जाए, तब तक आत्मविकास कर और भीतर की खोज जारी रख।
२३) तुमको लगता है की ईश्वर का कोई राज्य नहीं है क्योंकि तुम भीतर ही भीतर पापों से सड़ रहे हो। ज्यों ही तुममें पात्रता आने लगेगी तुम मेरे (ईश्वर के) नित्य साम्राज्य को देख सकोगे। योगी वहां विचरते हैं, ऋषि-मुनि वहां रहते हैं और तुम भी उसका अधिकार प्राप्त करोगे।
२४) भले ही संसार माया हो किन्तु इसे छोड़ना या आत्महत्या करना तुम्हारे लिए किसी भी तरह श्रेष्ठ नहीं। वरन तुम ईश्वर के भक्त हो जाओ तो मायामय संसार का ये साम्राज्य भी तुमको ही दिया जाएगा। जो दिया ही गया है, उसमें भी तुमको और अधिक मिलेगा। ये इसलिए नहीं की तुम ईश्वर का नाम लेते हो और स्तुति के बदले में दिया जा रहा है। वो तो स्तुति रहित है। इसे तुम्हारा ही सद्गुण समझा जाएगा, जो तुमको ईश्वरीय सामर्थ्य से भर देगा और तुम दुखमय संसार को भी आनंद का भण्डार पाओगे।
२५) यदि तुम मेरी या ईश्वर की (अभेद स्वरुप) सेवा करना चाहते हो, तो देश काल अवस्था के अनुरूप मानव, जीव-जंतुओं, प्रकृति की सेवा के साथ-साथ नैतिकता का बीजारोपण करो, एक आदर्श समाज की स्थापना मुझे प्रिय है। मेरे सन्देश को हर कान तक पहुंचाना ही मेरी सेवा है। जिससे रीझ कर मैं हिरण्यगर्भ के रहस्य प्रकट करता हूँ।
२६) मैं स्वयं वो ही हूँ, किन्तु लघु होने से मैं उसे अपना पिता, स्वामी, जन्मदाता या ईश्वर कह कर संबोधित करता हूँ। ताकि तुमको समझने में आसानी हो सके। अन्यथा उसमें और मुझमें भेद नहीं। केवल तुमको बताने के लिए वो और मैं दो सत्ताएं हो जाते हैं। मेरा अवतरण व्यर्थ है यदि उस ईश्वर की महिमा का प्रकाश ना कर सकूँ। देख तेरे स्नेह नें मुझको विवश कर दिया है। इसी कारण समस्त ईश्वरीय नियम मैं तुम पर प्रकट कर रहा हूँ।
२७) मैं जानता हूँ की मनुष्य बुद्धि अपने को ही सर्व श्रेष्ठ समझने के भ्रम में रहती है। उंचा-नीचा, गोरा-काला, बड़ा-छोटा अमीर-गरीब सब तुम्हारे ही बनाये भेद हैं। मैं तो इस सबमें भी अभेद ही हूँ। मुझे केवल तुम्हारा ह्रदय और सार्थक प्रयास ही दिखाई देते है। ईश्वर इन्हीं प्रयासों से तुमको प्रेम करने योग्य पाता है और तुमको तुम्हारे प्रेम का प्रतिउत्तर देता है।
२८ ) ईश्वर के लिए तुम्हारा प्रेम ही स्वयं उस तक पहुँचने का मार्ग होगा। ईश्वर का नाम सभी बाधाओं, जो देखी और अनदेखी हैं को नष्ट करने वाला है। ईश्वर से जादू या चमत्कार मत मांगो, आवश्यकता के अनुरूप वो तुम्हारे जीवन में स्वयं चमत्कार करेंगे, जो तुम्हारी सामर्थ्य से बाहर के होंगे।
२९) मेरा और ईश्वर का प्रसन्न होना लघुतम इकाई के तौर पर वहां से शुरू होता है जहाँ तुम अपने साथ के लोगों, जीव-जंतुओं और प्रकृति से व्यवहार शुरू करते हो। तुम उनसे कैसे पेश आते हो यही तो तुम्हारे श्रेष्ठ होने का प्रमाण है। अपने मन को बदल दो। उसे अंधकार से प्रकाश के पथ पर ले चलो, उसे नीच से श्रेष्ठ पथ पर ले चलो। अभ्यास से मन पर नियंत्रण करो और वैराग्य के लिए ज्ञान का आश्रय लो।
३०) देखो तुमको सद्गुण भीतर से निखारने होंगे, तुम सद्गुणी होने का अभिनय करने लगते हो, जो मैं (ईश्वर) कभी स्वीकार नहीं करूंगा। तुम्हारा दोहरा चरित्र संसार को प्रताड़ित किये है और स्वयं को भी। तुम्हारा एक सा हो जाना ईश्वरीय अनुकम्पा से भर जाने जैसा होगा। इसलिए गहरी सांस लो, मन को विश्राम दो और वास्तविक सद्गुण उपजाने दो। ईश्वर की ओर देखो उनको देखते ही सदगुण तुम्हारे चरणों में नृत्य करने लगेंगे। तुमसा ब्रह्माण्ड मैं कोई दूसरा श्रेष्ठ ना होगा।
३१) ये संसार विचित्र रचा गया है ताकि इसके गुह्य भेद उपजने न पायें। यहाँ जो जितना छोटा बन कर रहेगा उतना ही सुरक्षित रहेगा और यदि तुम मन से छोटे यानि विनम्र और सहनशील हो जाओ, किसी पर अत्याचार और बल ना दिखाओ तो ये ब्रह्माण्ड तुम्हारा ही है और ईश्वर का महासाम्राज्य भी।
३२) सेवक ही श्रेष्ठ है, श्रद्धावान ही विलक्ष्ण है, परहितैषी ही देवता है। आत्म तृप्त और आत्म संतुष्ट ही महामानव है। इन गुणों के एक साथ मनुष्य में होने पर वही "ईश्वर का पुत्र" कहलाने के योग्य है।
३३) पवित्र ज्ञान और सत्य दर्शन अधिकारीयों को प्रदान करो, अनाधिकारियों को नहीं। क्योंकि साफ जल गंदे घड़े में भर दोगे तो जल भी स्वच्छ न रह सकेगा।
३४) क्षमा ईश्वर की और से उतारी गई है। एक पिता नें एक सुन्दर युवक को देख कर अपनी पुत्री का विवाह उससे कराने का वचन दिया। किन्तु जल्द ही पिता उस युवक की चारित्रिक बुराइयों को जान गया। अब पिटा क्या करता विवाह का वचन निभाए या न निभाए। ऐसी स्थिति सहित अपराध होने पर क्षमा मांगना और देना सत्य आचरण के अंतर्गत होगा। ईश्वर की ओर से सच्चे को अपराधमुक्त कहा जायेगा।
३५) ईश्वर नें तुमको कर्म के लिए उत्तपन्न किया है इसलिए अविरल निष्काम कर्म करो, किन्तु तुम्हारे सभी कार्य भक्ति सहित व विवेकपूर्ण होने चाहिए तभी उनकी परम सार्थकता है। कर्मों में ही जीवन मुक्ति का तंतु छिपाया गया है।
३६) ईश्वर नें तुमको अपने सा मन दिया है और बल भी, तुम उसमें विश्वास भरो और प्रयास करो। ये विश्व अपरिवर्तनशील नहीं है बस तुम विश्व को इसलिए बदल नहीं पाए क्योंकि तुममें अविश्वास और शिथिलता है।
३७) तुम्हारे जीवन में सर्प्रथम कर्तव्य हैं, फिर अधिकार और फिर स्वतन्त्रता। यदि पहला नहीं है तो अन्यों की चाह मत रखना। छलकपट रहित ही हीरे के सामान बहुमूल्य होता है।
३८) तुम किसी को बुरा न कहो उसे चुभेगा और जब कोई तुमको कहेगा तो तुमको चुभेगा। मौन संयमी होना देवताओं का लक्षण है। इसलिए तुमको ये श्रेष्ठ गुण अपनाने चाहियें।
३९) आनंद भीतर ही स्थापित किया गया है इसे समझना और बाहर वस्तुओं में इसकी खोज मत करना। ईश्वरीय कृपा से मिलने वाला तेज तुमको सदैव आनंदित करेगा।
४०) अपने को तुम ईश्वर का पुत्र जानों और ईश्वर तथा अपने पे इतना विश्वास करो के ईश्वर के ये कहने पर की तुमको नर्क भेजने पर तुम क्या करोगे? तो तुम्हारा उत्तर हो की वहां भी आपके स्वर्ग का निर्माण शुरू कर देंगे, ही तुम्हारी दृडता का परिचय होगा।
४१) संसार में धर्मों के झगड़े मूढों के द्वारा प्रसारित किये गए हैं। ईश्वर का प्रकाश जिस पर हुआ है वो किताबी वाक्यों में नहीं बल्कि उन वाक्यों की आत्माओं को जीता है। सब मानव रचित धर्मों को तू ढोंग ही जान। जैसे एक विशाल द्वीप में बहुत से धर्मों को मानने वाले रहते थे। परस्पर प्रतिदिन लड़ते एक दूसरे के भगवान् को अपशब्द कहते थे। एक चांदनी रात को समुद्र बहुत ऊँचा उठा और सभी धर्मों के लोगों को बहाने लगा। तब अपने-अपने भगवानों और खुदाओं को बुलाते लेकिन सहायता नहीं मिली। एक ऊँचे टीले पर बेसुध से लोग डूबते हुओं को बचाने में जुट गए, उनहोंने डूबतों का ईमान धर्म नहीं देखा। बचने वाले सभी एक-दूसरे के गले लगे। ईश्वर कहता है की यही गले लगना और लगाना धर्म कहलाता है। केवल मेरा पुत्र इस बात को भली प्रकार जानता है। इस कारण तुम अवतारों के वाक्यों को ध्यान से सुनो। वो धर्म को सही कर तुमको बताएँगे।
४२) संसार तुमको कहेगा ईश्वर का कोई चमत्कार नहीं। लेकिन मेरे वाक्यों पर विश्वास रख। तो समुद्र और हिमालय तुमको रास्ता देंगे। चाँद और सितारे तुमको अपने पास आने देंगे। ये ब्रह्माण्ड तुम्हारे लिए खेल का मैदान हो जायेगा। मैं मृत्यु में से तुमको जीवन दूंगा और दुखों में से से रास्ता।
४३) तुम इस जीवन में यात्री के सामान हो और जल्द ही तुमको यात्रा समाप्त करनी होगी। इसलिए अपनी यात्रा के दौरान मिलने वालों से अच्छा व्यवहार कर, हो सके तो सुख-दुःख के पल काट, किसी का मन न दुखा, सबको सहारा दे, किसी का शोषण न कर, आगे बढ़ कर अपनी सेवाएँ दें, अपने गुणों पर अडिग रह। तब तुम्हारी ये यात्रा यादगार हो जायेगी और ईश्वर की अनुकम्पा से परिपूर्ण भी।
४४) लोग कहते हैं की इन विचारों को स्वयं एक व्यक्ति नें घड लिया है। लेकिन मेरे निर्देशों को घड़ना और उसकी गहराई को नापना हर किसी के लिए तब तक संभव नहीं जब तक वो योग्य न हो। जैसे मैंने चाँद, तारे, सूर्य और ब्रहमांड को रचते हुए, इनमें से किसी की राय नहीं ली, ठीक इसी प्रकार ये विचार प्रकट करते हुए भी मैं किसी की टिपण्णी को अनावश्यक कहता हूँ।
४५) तुमको दिन-रात और मौसम सहित समय का आभास इसी कारण दिया गया है ताकि तुम जान सको के कुछ नष्ट हो रहा है। इस विशाल सृष्टि में तुम नगण्य होते हुए भी बहुत ही महत्वपूर्ण हो। अपने इसी महत्त्व को निश्चित समय में सिद्ध कर दिखाओ।
४६) जो मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं वो अब अवसर की प्रतीक्षा में हैं। तुम्हारे पास समय है इसलिए सो मत, जाग और प्रकाश की ओर, अमृत की ओर कदम बढ़ा। एक अद्भुत आनंदित अग्नि का विशाल पिंड घूमता दिखेगा उसके भीतर मेरा (ईश्वर का) बसेरा जान। वहां समय नहीं, न ही प्रकाश या अन्धकार है। बस मैं हूँ और तुम्हारी प्रतीक्षा है।
४७) शुभ विचार निश्चित ही स्वर्ग से उतर कर आते हैं और ये सभी विचार आनंद देने वाले, निश्चित ही उत्सव मनाने जैसे होते हैं। पृथ्वी पर आकाशों से शरीर उतर कर नहीं आता इसी कारण मूढ़ शरीरों को देखते रहते हैं और शरीरों के भीरत का ईश्वर और ईश्वरीय प्रकाश उनको दिखाई नहीं देता।
४८) याद रखो मनुष्यों का होना जरूरी है, किन्तु प्रकृति की बलि पर नहीं। धर्म के नियम तुम्हारे हित के लिए हैं इनके नाम पर बलि लेना और देना दोनों ही अपराध है। ईश्वर नें तुमको अपना सा ह्रदय और अपने सा प्रेम प्रदान किया है। इसलिए प्रेम को सर्वोच्च जान कर प्रेमपूर्वक रहो।
४९) इस बात से विराट ईश्वर को कोई अंतर नहीं पड़ता की कोई उसे मान कर स्तुति करता है या न मान कर निंदा। क्योंकि ये तो सीमित मनुष्यों के मस्तिष्क मात्र की गतिविधियाँ हैं। उसके समय के आगे तुम्हारी सृष्टि इतनी छोटी है की पलक झपकाने मात्र के बराबर। लेकिन तुम्हारे कर्म और तुम्हारा दिया गया प्रेम ईश्वर को तुम्हारी ओर देखने पर विवश करता है। प्रेम का समय थोड़ा होते हुए भी युगों से बड़ा होता है और ईश्वरीय सृष्टि में गणनीय है।
५०) मनुष्यों को अनंत रचना का अधिकार दिया गया है और अनंत विनाश का भी। वो अपने जैसे सामर्थ्यवान, विचारवान पुतलों को घड सकता है। माया के अनंत रहस्यों को जान सकता है। ऋषियों की भांति नयी सृष्टि और जीवों को रचने का अधिकार रखता है। नक्षत्रों, ब्रह्मांडों पर अधिकार कर सकता है, अज्ञात को खोज सकता है। लेकिन पूर्ण नहीं हो सकता। सभी विद्याओं और ज्ञान के उस पार भी बहुत कुछ है। जो केवल मेरी (ईश्वर की) अनुकम्पा से पाया जा सकता है।
५१) मैंने न तो स्त्री को श्रेष्ठ बताया न ही पुरुष को। मैंने तुम्हारी पवित्रता और सद्गुणों को श्रेष्ठ कहा है। दोनों बराबर हैं या नहीं ये तुलना न्यून चित्त की है। दोनों ही ईश्वर की कृतियाँ है "सर्वश्रेष्ठ" हैं। दोनों में कोई कम ज्यादा नहीं, ऐसा ही पशु-पक्षियों सहित, जड़ चेतन को भी जान। भीतर प्रेम के निर्झर को प्रस्फुरित होने दे। तो हृदय में उपजते भेद नष्ट होने लगेंगे और सृष्टि का हर कण आनंदित दिखाई देगा।
५२) मैंने तुमको मुझ पर या ईश्वर पर जबरदस्ती विश्वास करने या ईमान लाने को नहीं कहा। ना ही तुमको नर्क या मृत्यु का भय दिखाता हूँ। मैं तो तुमको जीवन का वो दर्शन दे रहा हूँ जहां तुम्हारी परनिर्भरता समाप्त हो जायेगी। तुम अपने को स्वतंत्र, बड़े और खुशहाल बनाने के लिए धन कोष नहीं टटोलोगे। बरन अपने गुणों और विकास पर निर्भर करोगे।
५३) ईश्वर तुमको वैसाखी जैसा सहारा नहीं देता। बल्कि एक माँ की तरह अंगुली पकड़ कर चलना सिखाता है, ताकि जल्द ही तुम स्वयं चलना सीख सको। ईश्वर का भक्त होने का अर्थ कदापि ये नहीं की अब तुम सारे काम-काज छोड़ कर अकर्मण्य हो बैठ जाओ। वो तो समाधी की स्थिती है जो बड़े भाग्यों से आती है। इसके अतिरिक्त तुम कर्म को प्रधान जानों और इस बनाई गई सृष्टि को अपना शुभ योगदान दो व आध्यात्मिक यात्रा जारी रखो।
५४) मुझे (ईश्वर को) वो लोग नहीं भाते जो अकारण मानव या समाज अथवा प्रकृति सेवा के नाम पर व्यर्थ ही मान प्राप्ति की गोपनीय सूक्ष्म चाह लिए कर्म करते हैं और अन्य लोगों को निशाना बनाते हैं। ऐसे लोग ये सोचते हैं की वो तो भला कर रहे हैं किन्तु इससे होने वाली सूक्ष्म हानियों को देखने की उनमें योग्यता नहीं होती। तू ऐसे लोगों को बुरा जान। भले ही उनका बड़ा नाम या सम्मान हो। वो मुझ द्वारा प्रेरित नहीं।
५५) मैंने (ईश्वर नें) तुझे सत्य, अहिंसा और प्रेम का रास्ता दिया है। लेकिन अस्त्र उठाना और वीरता का त्याग मत कर। शरीर को कोमल नहीं बरन कठोर बनाना, जबकि हृदय कोमल रहे। ऐसा इसलिए की मानव जाति अज्ञात और ब्रह्मांडीय योद्धाओं से भी लड़ सके। क्योंकि दूसरा तुम पर वार कर तुमको अवसर दिए बिना निर्मूल कर सकता है। अत: तुमको आत्मरक्षा का अधिकार सर्वप्रथम दिया जाता है। लेकिन हिंसा, शोषण और अत्याचार का नहीं।
५६) बुद्धि श्रेष्ठ है इसके द्वारा तू कलाओं का संवर्धन कर, सौन्दर्य, संगीत, नृत्य, निर्माण व कलाओं का विकास कर, मनुष्य सहित प्रकृति को आनंद दे। किन्तु इसी बुद्धि को कुपथ पर जाने से रोक। मैंने तेरे लिए बुराइयों को निषिद्ध कहा है। मैं और ईश्वर तुम पर कोई बंधन नहीं डाल रहे। अपितु हम तो वो मार्ग दे रहे हैं जिससे तुम्हारा जीवन ऊँचा हो सकेगा। ठीक वैसे ही जैसे नन्ही चिडिया कुछ नियम अपना कर बहुत दूर तक उड़ते हुए उड़ने में कुशल हो जाती है। ठीक वैसे ही इन नियमों को अपनाना। इस संसार में तुम सबसे सुन्दर और प्रिय बन जाओगे। इतना के मैं खुद तुमको गले लगाने आउंगा।
५७) काम क्रोध बुरे हैं किन्तु ईश्वर नें कारण से इनको रचा है। जब तक ये सीमा में रहें, किसी का अनर्थ ना करें तो कोई बुराई नहीं। तू इनको जड़ से मिटाने की चेष्ठ ना कर। काम सृष्टि हित व वर्धन हेतु है जबकि क्रोद्ध आत्मरक्षा के लिए। इनका सही समय पर, उचित प्रयोग करने वाला ही योगी व धीर भक्त पुरुष है। अनियंत्रित ही पापी और पाप संभवा हैं।
५८) तुमको सब षड्यंत्र पूर्वक व व्यर्थ के नियम बना कर, चार दीवारों व सीमित घेरों में बंदी बनाना चाहेंगे। ऐसा सूक्ष्म कारागार बनायेगे की तुम देख ना सको, छू ना सको। लगे की स्वयं तुमने ही बनाया है। जल्द ही वो कैद तुमको घर या संसार जैसी प्रतीत होने लगेगी, जिसे फिर चाह कर भी न छोड़ पाओगे। उसके मोह में बंधे तुम उसकी रक्षा के लिए सत्य के भी विरुद्ध होने लगोगे। मैं कहता हूँ तोड़ दो ऐसे घेरे को, गिरा दो ऐसी अदृश्य कैद को। तुम जितना ज्यादा देखोगे उतना ही ज्यादा जानोगे। प्रकृति के बीच रहो, प्रकृति के निकट रहो, किसी दूसरे महापुरुष की कहानियाँ सुनने की अपेक्षा अपनी श्रेष्ठ कहानी में जिओ। यही जीवन कहलायेगा जो पूर्णता की ओर ले जाने वाला है।
५९) यदि कभी तुम्हें ये जीवन यातना लगे, तो भी ईश्वर का और मेरा साथ तुम्हारे लिए बना रहता है। बस तुमको याद करना होगा की तुम अकेले नहीं हो। तब तुम्हारी यातना को हम उत्सव में बदल देंगे, हम पर विश्वास कर। हम मार्गदर्शी, जीवन ऊर्जा देने वाले और तेरे जीवन को छोटी-छोटी खुशियों से भरने वाले हैं। लेकिन जब तुम किसी एक अनुचित मांग पर अड़ जाते हो, तो उस स्वार्थ पर हम मुस्कुराते हुए मुख फेर लेते हैं।
६०) धर्म कोई नियमों की किताब नहीं है, बल्कि धर्म तुम हो जो उसको जीता है। धर्म नहीं है तो तुम और तुम्हारा आचरण पशु सामान ही हो जाता है। ये धर्म ही है जो तुमको श्रेष्ठ बनाता है और तुम्हारी श्रेष्ठता अधार्मिकों से सही नहीं जाती। तब वो तुम पर नियम, कानून, दवाब, बल, संख्या, अपमान, अपशब्द, हिंसा व षड्यंत्रों का प्रयोग करते हैं। ऐसे मैं तुमको अधिकार दिया जाता है की सबका उसी प्रकार उत्तर दो जिस प्रकार 'ईट का उत्तर पत्थर' से दिया जाता है। तब वो रण हो जाता है, जिसमें सत्य का पक्षधर मैं उपस्थित रहता हूँ।
६१) सत्य का प्रकाश फैलाना आसान नहीं है क्योंकि वो धारा के विपरीत जाने जैसा है। यदि तुम धर्म और अहिंसा के सत्य पथ पर चलने और कल्याण के निमित्त कार्य करने का प्रयास करते हो, तो वो सरलता से संभव नहीं है। वो तुमको ऐसा नहीं करने देंगे। अपितु बुराई में साथ देने के लिए तैयार मिलेंगे। वो तुम्हारा परिहास, ठठा करेंगे। तुमको मूढ़ कहेंगे। लेकिन तब भी तुम्हारा कार्य, निष्ठा से जारी रहना चाहिए। जब तुम संसार को कहोगे की ईश्वर का मार्ग श्रेष्ठ है। तब वो तुम्हारी बातें नहीं सुनेंगे, बरन कहेंगे की हम हमारा काम कर रहे हैं, तुम जा कर अपना करो। लेकिन तब भी तुम प्रकाश फैलाना बंद ना करना। इसे ईश्वर का कार्य मान कर जारी रखना यही अगली पीढ़ियों को तुम्हारा महान योगदान गिना जाएगा।
६२) यदि कोई तुमसे पूछे की ये सब बातें तुम किस अधिकार से कहते हो? तो कहना की ये अधिकार मेरा जन्मजात व ईश्वर की और से है। प्रेम बांटने के लिए सर्वप्रथम तुम्हारा स्वयं का प्रेममय होना आवश्यक है। इसलिए एकांत में जा कर बैठ आँखें बंद कर और बिना गर्दन उठाये नेत्रों से आकाश की और देख। अपनी श्वासों की गति को ठहरने दे, विश्राम में जा। तब मेरा और उस ईश्वर का ज्ञान व प्रेम आनंद सहित तुम्हारे भीतर उतरने लगेगा।
६३) जब एक भाई दूसरे डूबते भाई को बचाने के लिए कूदता है तो वो ईश्वर का प्रेमावतारी कहलाने का अधिकार प्राप्त करता है। जिसके लिए उसे किसी से ये पदवी मांगने की आवश्यकता नहीं होती। पर हित को ध्यान में रख कर जो कोई कार्य करता है मैं उसको ही साधू जनता हूँ। वो मेरा प्रिय व गले लगाने योग्य होता है।
६४) पुराने ग्रंथों (किताबों) में क्या लिखा है वो तो महत्वपूर्ण है ही, लेकिन उससे भी महत्वपूर्ण है की उस लिखे गए या कहे गए ज्ञान को तुम आज की परिस्थिति से कैसे जोड़ कर सही निर्णय लेते हो और जो आज कहा जा रहा है क्या तुम उसको भविष्य के साथ जोड़ कर सही निर्णय ले पाते हो? यदि ये गुण तुमको आ गया तो धर्म के निर्देशों को तुम सदा नया ही पाओगे और पूरी तरह सार्थक भी। अन्यथा तुमको धर्म ही सबसे बड़ा शत्रु लगाने लगेगा क्योंकि वो समकालीन प्रतीत न होगा। जबकि वो तो नित्य,नूतन और नवीन है।
६५) तुमने कृत्रिम धर्म गढ़ लिए है सबसे पहले उनको छोड़। रोगियों का मंत्र से, प्रार्थना से या ईश्वर की दया से ठीक हो जाना, भविष्य के कुछ तत्वों को-घटनाओं को देख अथवा जान जाना, जल और आकाश में चल लेना, दूसरी अज्ञात दुनिया को खोज लेना या फिर मर कर ज़िंदा हो जाना अथवा किया जाना धर्म नहीं है और ना ही ईश्वर नें किसी को ऐसा करने को कहा है। यदि किसी से स्वयं ऐसा हो रहा है तो वो उस रहस्य का अनुचित लाभ न ले बल्कि ईश्वर का उपहार मान कर उसी को निवेदित करे और ईश्वर का आभार करे की उसे ऐसा करने का अवसर दिया गया। तब वो अहंकारी हो स्वयं को ईश्वर ना कहे। वो तो शक्ति है और शक्ति ईश्वर से अभिन्न होते हुए भी भिन्न है।
६६) ईश्वर नें तुमको संसार में बहुत से तत्व और सामग्रियां दी हैं। भले ही वो सब क्षणिक हों लेकिन तुमको उनका विवेक पूर्वक प्रयोग करना है। इश्वर नें सृष्टि में सबकुछ बनाया है जो अपने-अपने तरीकों में सबसे सुन्दर और सम्मान किये जाने योग्य हैं। यदि तुम इनका सदुपयोग करते हो तो ईश्वर तुमको उससे भी श्रेष्ठ देने की क्षमता रखते हैं। लेकिन तुम्हारे दूर्पयोग से आहात सृष्टि तुम से नाराज हो सकती है ऐसा उसे अधिकार है। तब तुम्हारी प्रार्थनाएं अनसुनी की जाएँगी।
६७) दुःख और परेशानियाँ तुम्हें कहती हैं उठ, जाग और खोज। सभी पीडाओं से बचने का अमृत रखा गया है, बस तुम उसे तलाशने का प्रयत्न भर करो। तुम्हारे मस्तिष्क को उसे खोजने की स्वतन्त्रता दी गयी है। परिश्रम के परिणाम स्वरुप तुमको सुख दिया जाएगा, किन्तु उसकी और ना देख बस प्रयास जारी रख और परिश्रम कर।
६८) कभी-कभी किसी को बहुत समझाने पर भी वो नहीं मानता और देखते ही देखते उसका अंत हो जाता है। इसका दोष तुझ पर नहीं लेकिन हर भाई को अपने साथ ले चलना और संभालना तेरा कर्म है। ईश्वर किसी को गलत मार्ग पर नहीं भेजता, लेकिन व्यक्ति का अपना पाप ही इसके लिए जिम्मेवार होता है।
६९) ईश्वरीय ज्ञान केवल धरती वालों के लिए ही नहीं है वो तो हर नए स्थान पर नए रूप में उपलब्ध होता है। संत उसे कल्याण के लिए प्रेम से अभिभूत हो कर प्रकट करते हैं। जब तू धरती पर रहेगा तब धरती का नियम ही तेरा धर्म होगा लेकिन जब तू आकाशों में होगा तब वहां का नियम ही तेरा धर्म होगा। भले ही तू सितारों के उस पार रह, वहां भी मैं (ईश्वर) तुमको मार्ग और सत्य धर्म प्रदान करता रहूंगा। बस तू अपने कान खुले रखना।
७०) तुम्हारे धर्म और ईश्वर की बड़ाई इसमें नहीं की तुम्हारी संख्या कितनी है बल्कि तुम्हारे उत्तम आचरण, विशाल ह्रदय, प्रेम, सौहार्द्र, विनम्रता और अच्छे संस्कार से ही तुम्हारे धर्म की श्रेष्ठता आंकी जायेगी। सत्यमय, प्रेममय गुणों पर खरा उतरने के बाद ही तुम्हारे हृदय को धर्मनिष्ठ व ईश्वर के योग्य कहा जायेगा। इसी से तुम्हारे धर्म और ईश्वर की महिमा का महाविस्तार होगा।

'कौलान्तक पीठाधीश्वर महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी महाराज' भविष्य के प्रबल 'कलिकाल' के मानव वंशजों को निश्चिन्त रहने को कहते हैं...क्योंकि स्वयं 'कौलान्तक पीठाधीश्वर महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी' नें उनके लिए आध्यात्मिक ज्ञान और प्रेरणा को किसी अति गुप्त तरीके से सहेजना शुरू कर दिया है. सनातन धर्म की 'महान परम्परा' कभी भी, किसी कीमत पर नष्ट नहीं होने वाली. भयंकर 'प्रलयकाल' या 'पापाचार' में भी 'सनातान धर्म' की नौका 'साधकों' को सुरक्षित पार लगाएगी-कौलान्तक पीठ टीम-हिमालय.
"मार्ग तुम्हारे पास ही होता है क्योंकि वो शिव तुम्हारे भीतर से तुमको प्रकाशित कर रहा है, बस जब तुम उनको देखने का प्रयत्न करते हो तो वो हर स्थान में प्रतिबिंबित होता है।"

नित्य शिव भाव रहना ही महायोग है। मुख से शिव कहना, मन में शिव रखना,स्वयं के अस्तित्व को शिव से और शिव का समझना ही शिव भाव है। शिव पाप-पूण्य, उच्चता-नीचता, प्रशंसा-निंदा से पार हैं। तुम भी उनके स्वरूप को आत्मसात कर लो। फिर शिव के अतिरिक्त यहाँ कोई है कहाँ?

"कौलाचार" कोई भद्दा कामुक परिहास नहीं है। "कौलाचार" है श्रेष्ठता। जो कुल शिव का हो, जो शक्ति का हो वही कुल "कौलों" का कुल है। जो कुल रहस्यों के आवरण को निर्मित करता हो, जो कुल रहस्यों की आवरण पूजा करता हो, वही "कौल" है। "कौल धर्म है" "कौल शिव हैं" और हम उन्हीं को अपना मानते हैं जो शिव के हैं। संसार में बहुत से हैं जो "शिव द्रोही" है। तब भी हम मौन है, क्योंकि उनकी गति भी प्रलय काल में शिव ही है। "कौल" होने के लिए "घंटाकर्ण वीर" होना जरूरी है। "कौल" होने के लिए शिव का गण "महाकाल" और "वीरभद्र" होना जरूरी है। शिव का होने के लिए बस उनका हो जाना जरूरी है। लोग पूछते हैं की देश के लिए वर्तमान परिस्थितियों के लिए, हम क्या कर रहे हैं? हमारा उत्तर है की सदियों से तुम्हारे संसार और इस देश के लिए, इसकी संस्कृति के लिए, कौन कार्य कर रहा है? देश की राजनीति हो या धर्म, नई पीढ़ी की दिशा हो या परिवर्तन का अभियान। हम सर्वत्र उपलब्ध हैं। अभी बताने का समय नहीं आया। लेकिन तुम्हारे साथ झंडे थामने वाला एक हाथ "महाहिन्दू" का है, शिव के "कौल गण" का है। जब तुम पिटते हो, तुम्हारे साथ हम भी पिट रहे हैं। जब तुम भूखे सोते हो, हम भी भूखे सो रहे हैं। देश के लिए, संसार को बदलने के लिए, तुम भी सामने हो और हम भी सामने हैं। बस अंतर ये है की तुम संसार के कार्य दिखा-दिखा कर, बता-बता कर करते हो और धर्म को अध्यात्म को अपने ह्रदय में रखते हो, हम उलट हैं, धर्म को अध्यात्म को बता-बता कर करते हैं, दिखा-दिखा कर करते हैं। लेकिन देश हित और विश्व कल्याण के कार्य गुप्त रीति से करते हैं। हमने तुमसे नहीं पूछा की क्या तुम शिव की पूजा करते हो? तो तुम मत पूछो की हम क्या करते हैं। "महाहिन्दू" को कभी भी मूक बैठा हुआ नहीं मानना चाहिए, वो तो मृत्यु आने के बाद भी बोलता है। क्योंकि वो शिव पर विश्वास रखता है और शत्रुओं से अनुरोद्ध करता है की शांति में सहयोग दें। अन्यथा आखिर में सिंह गरज उठाता है। धर्म सत्संग का विषय नहीं है, कथाओं का विषय नहीं है। वो तो निरंतर जीवन है, योग क्षेम है। एक ऐसी उच्चता है जो विनम्रता देती है। कडवे वचनके साथ ही मीठा ह्रदय देती हैं। लेकिन इन सबके बाबजूद "कौलान्तक संप्रदाय" का गोपनीय ज्ञान एक रहस्य था और रहेगा। बस उजागर होगी तो "महाहिन्दुओं" की सनातन गौरव दास्तान। 

"विरह सौभाग्य है, श्रेष्ठता है, पवित्रता है....विरह तो साक्षात् वरदान ही है...........होठों को थरथराहट आँखों को सजलता देता है.........सिसकारियों के बीच कविता उठने लगती हैं......विछोह के बीच मिलन के गीत उठने लगते हैं.....आंसुओं की झिलमिलाहट प्रिय दर्शन में सहयोगी हैं....ये एक ऐसा सौभाग्य है कि तुम्हें........मीरा.......सूर.......कबीर.......की श्रेणी में खड़ा कर पूर्णता प्रदान करेगा, विरह दुःख नहीं है....विरह शत्रु भी नहीं..."-'कौलान्तक पीठाधीश्वर महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी महाराज"-कौलान्तक पीठ टीम-हिमालय.