सोमवार, 9 सितंबर 2019

"ईशपुत्र-कौलान्तक नाथ" के दिव्य "वचन" - 3

११) तुम सहायता के लिए मुझे और ईश्वर को पुकारते हो, हम सदा तैयार है। लेकिन पहले ये बताओ की तुमने हमारी सहायता से पहले अपनी सहायता के लिए क्या किया। सच्चा प्रयास हम कभी निष्फल नहीं होने देते।
१२) मैं सभी धार्मिक ग्रंथों (किताबों) के प्राणों का प्रत्यक्षीकरण हूँ, क्योंकि उनके अक्षरों को तुम देखते हो, मैं उनका प्राण हूँ, ऐसी सामर्थ्य मुझे ईश्वर का पुत्र होने से मिली है। इसलिए तू इसी क्षण स्वयं को ईश्वर का पुत्र स्वीकार कर और अपना प्रेम उस ब्रह्म हिरण्यगर्भ के प्रति प्रकट कर, देख वहां से उत्तर मिल रहा है।
१३) ईश्वर की सामर्थ्य और क्षमता इतने में जान की वो मैं हूँ और मैं वो हूँ। फिर भी अलग अभिनय कर खुद को खुद ही तेरे लिए स्थापित करता हूँ। जिसका प्रयोजन धीरे-धीरे प्रत्यक्ष से सूक्ष्म की ओर ले जाना है। एक पूर्ण ब्रह्म है, एक पूर्ण अवतार।
१४) ईश्वर नहीं कहता की केवल एकमात्र मैं ही पूज्य हूँ, मेरे अतिरिक्त किसी को आराध्य ना मानना। बल्कि ईश्वर कहता है की किसी भी विधि से मानोगे तो वो विधि और आराध्य मुझ तक पहुँचायेगा। इसलिए मेरा कहना है की तू सीधे उसकी ओर देख परम पूज्य के सम्मुख सब धुंधले पूज्य हैं।


१५) अवतार चक्षुगम्य हैं किन्तु ब्रह्म के लिए महाचक्षु की तुमको आवश्यकता होगी और वो केवल समर्पण, साधना और सेवा से ही पाया जा सकता है। तप के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं। तप और भक्ति को अगल जानने वाला अबोध ही होगा।

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