सोमवार, 9 सितंबर 2019

"ईशपुत्र-कौलान्तक नाथ" के दिव्य "वचन" - 5

२१) माया ईश्वरीय शक्ति का वो स्वरुप है जो असत्य होते हुए भी सत्य प्रतीत होता है। जो इन्द्रियातीत नहीं हो सकते उनके लिए यही संसार सत्य है किन्तु विवेकी पुरुष अपने ज्ञान और सामर्थ्य से इस माया को बेध कर ईश्वर के प्रकाश और असत्य संसार को देख सकता है।
२२) मैंने (ईश्वर नें) पशुओं को, स्त्री-पुरुष को, वनस्पति आदि दृश्य-अदृश्य को समानता से रचा है। कोई ना तो बड़ा है और ना कोई छोटा। समय पर सब बलवान होते हैं और एक समय सब निर्बल। इसलिए तू इस बहस में ना पड़ की कौन बड़ा? माया के भीतर समय बड़ा है और जब तक तू इस समय से उस पार ना हो जाए, तब तक आत्मविकास कर और भीतर की खोज जारी रख।
२३) तुमको लगता है की ईश्वर का कोई राज्य नहीं है क्योंकि तुम भीतर ही भीतर पापों से सड़ रहे हो। ज्यों ही तुममें पात्रता आने लगेगी तुम मेरे (ईश्वर के) नित्य साम्राज्य को देख सकोगे। योगी वहां विचरते हैं, ऋषि-मुनि वहां रहते हैं और तुम भी उसका अधिकार प्राप्त करोगे।
२४) भले ही संसार माया हो किन्तु इसे छोड़ना या आत्महत्या करना तुम्हारे लिए किसी भी तरह श्रेष्ठ नहीं। वरन तुम ईश्वर के भक्त हो जाओ तो मायामय संसार का ये साम्राज्य भी तुमको ही दिया जाएगा। जो दिया ही गया है, उसमें भी तुमको और अधिक मिलेगा। ये इसलिए नहीं की तुम ईश्वर का नाम लेते हो और स्तुति के बदले में दिया जा रहा है। वो तो स्तुति रहित है। इसे तुम्हारा ही सद्गुण समझा जाएगा, जो तुमको ईश्वरीय सामर्थ्य से भर देगा और तुम दुखमय संसार को भी आनंद का भण्डार पाओगे।
२५) यदि तुम मेरी या ईश्वर की (अभेद स्वरुप) सेवा करना चाहते हो, तो देश काल अवस्था के अनुरूप मानव, जीव-जंतुओं, प्रकृति की सेवा के साथ-साथ नैतिकता का बीजारोपण करो, एक आदर्श समाज की स्थापना मुझे प्रिय है। मेरे सन्देश को हर कान तक पहुंचाना ही मेरी सेवा है। जिससे रीझ कर मैं हिरण्यगर्भ के रहस्य प्रकट करता हूँ।

"ईशपुत्र-कौलान्तक नाथ" के दिव्य "वचन" - 4

१६) जिस ईश्वर के सब ओर मुख हैं, जिसके लिए सृजन-पालन और विनाश खेल मात्र हैं उसके लिए साकार होना या निराकार होना कोई महत्त्व नहीं रखता। वो दोनों स्वरूपों में प्रकट होने वाला है उसके प्रकट और अप्रकट स्वरूपों में भेद जानना निश्चित ही धर्म रहित होने जैसा है।
१७) ईश्वर को मानने या न मानने से वो प्रसन्न या अप्रसन्न नहीं होता। वो तो तुम्हारे आचरण और निर्णयों सहित तुम्हारे मन को देखता है। ईश्वर का विधान न तो आस्तिक जानता है और ना ही नास्तिक। आस्तिक होना पुण्य नहीं और नास्तिक होना पाप नहीं।
१८) आस्तिक-नास्तिक, ज्ञानी-अज्ञानी, बुद्धिमान-कुबुद्धिमान अपनी-अपनी शैली और क्षमताओं से ईश्वर के होने न होने पर तर्क देंगे। तुम उनकी ओर देखोगे और नदी जलधारा के समान बहने लगोगे। किन्तु याद रखना उनके जैसे पहले भी हो चुके हैं आगे भी होंगे, पर क्या बदला? कुछ नहीं? इसलिए बदलना तुमको ही होगा।
१९) ईश्वर का रास्ता सुन्दर और सनातन है। तू इस पर चल, तेरे रोग-शोक, दुःख-संताप नष्ट होंगे। तू कभी कहीं अकेला नहीं रहेगा। भीतर की रिक्तता पूर्ण हो जायेगी। भयों का नाश हो, आनंद का उजाला होगा।
२०) ईश्वर के पुत्रों का आगमन और सृष्टि हित के कार्य अविरल होते रहेंगे। संतों का होना, दूतों का होना ही पूरे ब्रहमांड को प्रकाशित करता रहेगा। बस तुमको इस बात की चिंता करनी होगी की तुम कैसे ईश्वर के प्रिय हो सको। वो तुमको अवसर देता है, अब तुम इस अवसर का प्रतिउत्तर देना, तो मैं तुमको गले लगाउंगा।

"ईशपुत्र-कौलान्तक नाथ" के दिव्य "वचन" - 3

११) तुम सहायता के लिए मुझे और ईश्वर को पुकारते हो, हम सदा तैयार है। लेकिन पहले ये बताओ की तुमने हमारी सहायता से पहले अपनी सहायता के लिए क्या किया। सच्चा प्रयास हम कभी निष्फल नहीं होने देते।
१२) मैं सभी धार्मिक ग्रंथों (किताबों) के प्राणों का प्रत्यक्षीकरण हूँ, क्योंकि उनके अक्षरों को तुम देखते हो, मैं उनका प्राण हूँ, ऐसी सामर्थ्य मुझे ईश्वर का पुत्र होने से मिली है। इसलिए तू इसी क्षण स्वयं को ईश्वर का पुत्र स्वीकार कर और अपना प्रेम उस ब्रह्म हिरण्यगर्भ के प्रति प्रकट कर, देख वहां से उत्तर मिल रहा है।
१३) ईश्वर की सामर्थ्य और क्षमता इतने में जान की वो मैं हूँ और मैं वो हूँ। फिर भी अलग अभिनय कर खुद को खुद ही तेरे लिए स्थापित करता हूँ। जिसका प्रयोजन धीरे-धीरे प्रत्यक्ष से सूक्ष्म की ओर ले जाना है। एक पूर्ण ब्रह्म है, एक पूर्ण अवतार।
१४) ईश्वर नहीं कहता की केवल एकमात्र मैं ही पूज्य हूँ, मेरे अतिरिक्त किसी को आराध्य ना मानना। बल्कि ईश्वर कहता है की किसी भी विधि से मानोगे तो वो विधि और आराध्य मुझ तक पहुँचायेगा। इसलिए मेरा कहना है की तू सीधे उसकी ओर देख परम पूज्य के सम्मुख सब धुंधले पूज्य हैं।


१५) अवतार चक्षुगम्य हैं किन्तु ब्रह्म के लिए महाचक्षु की तुमको आवश्यकता होगी और वो केवल समर्पण, साधना और सेवा से ही पाया जा सकता है। तप के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं। तप और भक्ति को अगल जानने वाला अबोध ही होगा।

"ईशपुत्र-कौलान्तक नाथ" के दिव्य "वचन" - 2

६) मेरे वचनों पर श्रद्धा रख, अपने ईश्वर को सदा पुकारते रहना। क्योंकि मैंने उसका स्नेह पुकारने के कारण पाया और अब वो तुम्हारी ओर देखते है।

७) ईश्वर का आभार व्यक्त करने के लिए तुम पत्थरों पर पत्थर रख कर एक ढेर बनाओ या फिर मंदिर, मठ, पूजाघर। ईश्वर तुम्हारे प्रेम के कारण सबको एक सा ही देखता है और तुम्हारे सुन्दर प्रयासों पर मुस्कुराता है।

८) ईश्वरीय अवतार या दूतों का आगमन इसी कारण होता है की तुम उनको छू कर देख सको और विराट, सामर्थ्यवान ईश्वर को छोटी सी इकाई में अनुभव कर सको। ईश्वर का वाक्य है कि उन्हें (अवतारों और दूतों) मुझसे अलग मत पाना क्योंकि उनकी अंगुली मेरी अंगुली है, उनके पास अपनी कोई अंगुली नहीं।

९) मैं (ईश्वर) कौन हूँ, कहाँ हूँ, कैसा हूँ? बुद्धि से विचारते ही रह जाओगे। स्वीकार करो की तुम न्यून हो और प्रेम से प्रार्थना करो। तब मैं अप्रकट होते हुए भी प्रकट होने लगता हूँ।

१०) अवतारों या दूतों के वचन बाँटते नहीं हैं बल्कि तुमको सुख देने वाले और ईश्वर के पथ पर ले जाने वाले होते है। जिनको वचनों में दोष दिखाई नहीं देता वास्तव में उनपर ईश्वरीय अनुकम्पा है।

शुक्रवार, 6 सितंबर 2019

"ईशपुत्र-कौलान्तक नाथ" के दिव्य "वचन" - 1

१) अपने मुख में स्थित जिह्वा को ईश्वर और उसके संतों (दूतों) के यशोगान में लगा दो, तो त्रिलोकी, ब्रह्माण्ड और ईश्वर तुम पर अपना स्नेह बरसाने लगेंगे। जीवन में ईश्वरीय चमत्कार होगा।

२) अपने आप को पवित्र जानो क्योंकि ईश्वर नें तुमको पवित्र ही बनाया है तथापि पापों से मुक्ति के लिए पंच तत्वों का प्रार्थना सहित प्रयोग करो। जल, अग्नि, आकाश, पृथ्वी, वायु सबमें तुम्हारे पापों को सोखने की क्षमता है क्योंकि ईश्वर नें ये कार्य इनको दिया है।

३) ये मत भूलो की जिस तरह संसार में तुम्हें संबंधी दिए गए हैं और तुम उनके और अपने सम्बन्ध को सत्य मानने लगते हो, जो केवल इसका अभ्यास करने के लिए हैं की तुम ईश्वर से अपना सम्बन्ध बना सको।

४) तुमको जीवन में विश्राम हेतु नहीं, काम हेतु भेजा गया है। मृत्यु विश्राम ले कर आ रही है, किन्तु चिंता करना! तुम ईश्वर से क्या कहोगे की तुमने सृष्टि को कैसा पाया और क्या योगदान दिया?

५) ब्रह्माण्ड और संसार को नाश (कयामत) के लिए उत्तपन्न नहीं किया गया है। ये तो ईश्वर नें अपने और तुम्हारे विलास के लिए बनाया है। युक्ति से यहाँ जीना, आदर्श वचनों और जीवन आचरण को ही जीने की रीति जानना। तब तुम्हारे लिए ब्रह्माण्ड के द्वार भी खोल दिए जायेंगे। प्रलय तो केवल एक महाविश्राम है।

कौलाचार

"कौलाचार" कोई भद्दा कामुक परिहास नहीं है। "कौलाचार" है श्रेष्ठता। जो कुल शिव का हो, जो शक्ति का हो वही कुल "कौलों" का कुल है। जो कुल रहस्यों के आवरण को निर्मित करता हो, जो कुल रहस्यों की आवरण पूजा करता हो, वही "कौल" है। "कौल धर्म है" "कौल शिव हैं" और हम उन्हीं को अपना मानते हैं जो शिव के हैं। संसार में बहुत से हैं जो "शिव द्रोही" है। तब भी हम मौन है, क्योंकि उनकी गति भी प्रलय काल में शिव ही है। "कौल" होने के लिए "घंटाकर्ण वीर" होना जरूरी है। "कौल" होने के लिए शिव का गण "महाकाल" और "वीरभद्र" होना जरूरी है। शिव का होने के लिए बस उनका हो जाना जरूरी है। लोग पूछते हैं की देश के लिए वर्तमान परिस्थितियों के लिए, हम क्या कर रहे हैं? हमारा उत्तर है की सदियों से तुम्हारे संसार और इस देश के लिए, इसकी संस्कृति के लिए, कौन कार्य कर रहा है? देश की राजनीति हो या धर्म, नई पीढ़ी की दिशा हो या परिवर्तन का अभियान। हम सर्वत्र उपलब्ध हैं। अभी बताने का समय नहीं आया। लेकिन तुम्हारे साथ झंडे थामने वाला एक हाथ "महाहिन्दू" का है, शिव के "कौल गण" का है। जब तुम पिटते हो, तुम्हारे साथ हम भी पिट रहे हैं। जब तुम भूखे सोते हो, हम भी भूखे सो रहे हैं। देश के लिए, संसार को बदलने के लिए, तुम भी सामने हो और हम भी सामने हैं। बस अंतर ये है की तुम संसार के कार्य दिखा-दिखा कर, बता-बता कर करते हो और धर्म को अध्यात्म को अपने ह्रदय में रखते हो, हम उलट हैं, धर्म को अध्यात्म को बता-बता कर करते हैं, दिखा-दिखा कर करते हैं। लेकिन देश हित और विश्व कल्याण के कार्य गुप्त रीति से करते हैं। हमने तुमसे नहीं पूछा की क्या तुम शिव की पूजा करते हो? तो तुम मत पूछो की हम क्या करते हैं। "महाहिन्दू" को कभी भी मूक बैठा हुआ नहीं मानना चाहिए, वो तो मृत्यु आने के बाद भी बोलता है। क्योंकि वो शिव पर विश्वास रखता है और शत्रुओं से अनुरोद्ध करता है की शांति में सहयोग दें। अन्यथा आखिर में सिंह गरज उठाता है। धर्म सत्संग का विषय नहीं है, कथाओं का विषय नहीं है। वो तो निरंतर जीवन है, योग क्षेम है। एक ऐसी उच्चता है जो विनम्रता देती है। कडवे वचनके साथ ही मीठा ह्रदय देती हैं। लेकिन इन सबके बाबजूद "कौलान्तक संप्रदाय" का गोपनीय ज्ञान एक रहस्य था और रहेगा। बस उजागर होगी तो "महाहिन्दुओं" की सनातन गौरव दास्तान। 

गुरुवार, 5 सितंबर 2019

शिवोऽहम्

To be in the Shiva state for always is called Mahayoga. To recite the name of Shiva,to keep him in one's heart, to surrender ones existence to Shiva and to understand Shiva is the Shiva state. Shiva is beyond the dualities of virtue and sins, high and lows, compliments and condemn. You too accept the form of his and then who is going to be here beside Shiva?-Kaulantak Peeth Team-Himalayad.
नित्य शिव भाव रहना ही महायोग है। मुख से शिव कहना, मन में शिव रखना,स्वयं के अस्तित्व को शिव से और शिव का समझना ही शिव भाव है। शिव पाप-पूण्य, उच्चता-नीचता, प्रशंसा-निंदा से पार हैं। तुम भी उनके स्वरूप को आत्मसात कर लो। फिर शिव के अतिरिक्त यहाँ कोई और है कहाँ?-कौलान्तक पीठ टीम-हिमालय-कौलान्तक पीठ टीम-हिमालय।