गुरुवार, 3 दिसंबर 2020

महायोगी जी जगत कल्याण के लिए भी हिमालय छोड़ कर नहीं आना चाहते थे

 महायोगी जी को इक्कीसवें वर्ष में "कौलान्तक पीठाधीश्वर"बनाया गया......वो भी साधना और ज्ञान में सबसे श्रेष्ट होने के कारण व अनेकों विद्याओं के जानकार होने के कारण....हालाँकि महायोगी जी जगत कल्याण के लिए भी हिमालय छोड़ कर नहीं आना चाहते थे.....वो अपने महागुरु जी सेवा में ही रहना चाहते थे लेकिन.....एक दीं महागुरु ने उनको अपने पास बुलाया और कहा कि अब तो तुम कौलान्तक पीठ के पीठाधीश्वर हो गए हो सारे हिमालय के मालिक भी.....अब क्या इच्छा है?महायोगी जी ने कहा कि माता पिता के लिए कुछ करना चाहता हूँ.....और परिवार के साथ रहूँगा....विवाह करूँगा....और आपकी सेवा.....में हमेशा गुप्त ही रहना चाहूँगा......में नहीं चाहता कि कोई मुझे जाने.......आज जब लोग मुझे जानते तक नहीं तो भी न जाने क्या-क्या कहते रहते हैं....अगर समाज में गया तो दुष्ट आत्माओं को सहन नहीं हो पायेगा.....महागुरु ने कहा.....तुम्हें कैसे पता कि समाज में दुष्ट आत्माएं हैं......महायोगी जी ने कहा मेरा अनुमान और अभी तक का साथ......गलत महागुरु ने कहा इसी भारतीय समाज में कभी में पैदा हुया था......आज तुम पैदा हुए हो......कल हिमालय किसी और को भेजेगा.....समाज दुष्ट नहीं अबोध है....जिसे हांकते हैं कुच्छ गलत हाथ.....ये हाथ हर क्षेत्र में हैं.....और अगर तुम जा कर सुधरने का प्रयास नहीं करोगे तो तुम्हारा क्या लाभ.....महायोगी जी ने कहा....गुरुदेव मैं ये सब नहीं जानता....बस मैंने जो फिसला किया है वो आपको बता दिया.....महागुरु ने महायोगी जी को समझाने कि हर संभव कोशिश कि कि तुम्हें समाज मैं जाना ही होगा...लेकिन महायोगी जी ने भी कह दिया चाहे जो भी हो जाए.......मैं नहीं जाऊंगा.....ये मेरा काम नहीं......जब बात नहीं बनी तो महागुरु ने कहा ठीक है......तुम्हारी शिक्षा दीक्षा पूर्ण हुई.....तुम आज से मुक्त हो....लेकिन एक नियम हैं....जो तुमको पूरा करना है......महायोगी जी ने पूछा क्या......तो महागुरु ने कहा कि मेरी गुरु दक्षिणा.....महायोगी हाथ जोड़ कर खड़े हो गए कहने लगे गुरुदेव मेरे पास कुछ भी नहीं है......मैंने तो सब कुछ

 महायोगी जी किसी भी कीमत पर समाज में जाने को तैयार नहीं थे  
 अंततः उनको वही करना पड़ा जिसे वो नहीं करना चाहते थे  
आपसे ही पाया है...मैं भला क्या दे पाउँगा.....महागुरु बोले ये तो नियम है देना ही पड़ेगा....अंततः महायोगी को मानना ही पड़ा....महागुरु ने कहा हिमालय का सन्देश ले कर जगत में जाओ.......जिस कौलान्तक पीठ को लोग भूल चुके हैं उसकी गरिमा याद दिलाओ.....जब तुम्हे लगे कि ये काम पूरा हो गया तो लौट आना.....लेकिन कम से कम पंद्रह वर्षों तक मत लौटना.....यही गुरु दक्षिणा है......हट फिर कर वही हुआ जो महागुरु चाहते थे......चरण स्पर्श कर महायोगी अपने घर लौटे.......अपना सामान उठाया.....अपने एक मित्र से 300रुपये उधर ले कर निकल पड़े अपने "कौलान्तक पीठ" के महा अभियान में.......यहाँ महायोगी जी के बारे में केवल इतना बता सकता हूँ....वे अलौकिक है ......कहते हैं कि महायोगी जी को  पूर्व जन्म का कोई  एक अधूरा  काम भी  पूरा करना है.....जिसकी हमे कोई जानकारी नहीं कि वो क्या है....यहाँ ये बताना बहुत ही जरूरी है कि  महायोगी जी.....सामाजिकता नहीं जानते....इसलिए दुनियादारी में उलझ जाते हैं....उनको कोई भी बातों में फाँस सकता है बड़े ही सरल ह्रदय के हैं...और खुद पर खूब हँसते भी हैं...लेकिन ऐसे में ये बात हम सबको परेशां किये है कि दुष्ट लोगों से हम उनकी रक्षा कैसे कर सकते है......यहाँ ये भी बता दूँ कि सन 2008में महायोगी जी को ट्रक के नीचे कुचलने का प्रयास हो चूका है....2008 में ही उनके भोजन में फिर से विषाक्त तत्व मिला कर उनको मारने का प्रयास किया गया....लम्बे समय तक बिस्तर पर रहने के बाद ही महा योगी जी टीक हो पाए.....फिर 2009में उनको जान से मारे जाने कि धमकियाँ मिलने लगी.....2009में ही उनके वहां पर पत्थरों से हमला किया गया जिसमे महायोगी जी बाल बाल बच गए.......हिमाचल के समाचार पत्रों ने ये खबर बड़ी प्रमुखता से छापीं.....पुलिस में भी मामला दर्ज किया गया है......अब आप ही बताइए ऐसे में महायोगी जी कि रक्षा कैसे हो पाएगी.....लेकिन महायोगी निश्चिन्त हैं....उनको इन सब घटनाओं से जरा भी अंतर नहीं पड़ा.....अपने कार्यों में लगातार जुटे हैं.....सचमुच सिद्ध योगी है इसमें लेशमात्र संदेह नहीं.....आपके मन में ये प्रश्न जरूर उठ रहा होगा कि उन पर हमले होने का कारण क्या है.....वो है समाज के कुछ अराजक तत्वों को बुराई फैलाने से रोकना....इन बातों को आप इसी साईट के नए लिंक में पढ़ सकेंगे......लेकिन अभी तो शुरुआत है.....अभी आगे क्या होगा ये देखना है?ये उन लोगो का सौभाग्य  है जो महायोगी जी के पास रहते हैं......कि वे एक महापुरुष के साथ जी रहे हैं.......समाज के भी कुछ और लोग उनके साथ रहते तो हैं पर माया का पर्दा जो माता भ्रामरी ने ड़ाल रख्खा है उन्हें उनसे दूर रखता है....पर शिव और माता
  श्रद्धेय महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी के दिव्य चरण कमलों के दर्शन
 जिन्होंने नदी नालो वृक्षों सहित हिमालय के दिव्य तीर्थों को छूआ है  
के भक्तों से महायोगी नहीं छुप पाते वे उनकी माया तोड़ कर उनको पहचान ही लेते हैं.....कौलान्तक पीठाधीश्वर के रूप में जबसे वे प्रतिष्ठित हुए है.......कौलान्तक पीठ गुप्त  रहस्यों के आवरण से निकल आया है.....आज विश्व इनके कारण ही कौलान्तक पीठ को जान रहा है......वो दिन दूर नहीं जब हिमाचल का कुल्लू क्षेत्र करोडो लोगो के आकर्षण का केंद्र हो जायेगा.....आज ही विश्व के कोने कोने तक ये सन्देश पहुंचना शुरू हो गया है.....हिमाचल के साथ साथ भारत के नाम की धर्म पाताका फिर लहरा रही है......शायद यही महायोगी जी का अति संक्षिप्त परिचय है.....मेरी आप सबसे पुनः प्रार्थना है कि.....यदि कहीं कोई गलती जाने अनजाने हो गयी हो तो आप सब मुझे करबद्ध क्षमा कर देंगे.....हिमालय के ऐसे दिव्य योगी का वृत्तांत लिख पाना या कह पाना सरल नहीं है......पर मैंने चेष्ठ कि है......में कौलान्तक पीठ कि टीम का धन्यवादी भी हूँ कि उन्होंने मुझे इस काबिल समझा कि में श्रद्देय महायोगी जी कि महिमा को चंद शब्द दे सकूँ.........ॐ नम: शिवाय.......
 -योगी लखन नाथ

सोमवार, 13 जुलाई 2020

साधना मार्ग : हिमालय में तप भाग - 1


साधना मार्ग अत्यंत विचित्र मार्ग है। यहाँ जो भी शिक्षा हम गुरु से ग्रहण करते है उसे स्वयं प्रयोगात्मक तौर पर हमें उतारना होता है। इसके लिए ये नितान्त अनिवार्य है कि हम स्वयं को तप की कसौटी पर कसे। साधना मार्ग साधक को निरंतर ऊर्जा एवं चेतना तभी प्रदान कर पाता है जब वो स्वयं इस पथ पर बढ़नेके लिए क़दम बढ़ाता है। तप का स्वरूप क्या है ? साधना का स्वरूप क्या है? ये गुह्य ज्ञान जब हम श्री गुरु से प्राप्त करते है तो उसे एकांत में हम अभ्यास पर लाने की कोशिश करते है। साधक जब सतत अभ्यास की प्रक्रिया जारी रखता है तब जाकर वो कहीं दुर्लभ मौक़े पर उस परम चेतना को अनुभव कर पाता है। प्रकृति में साधना करना ही एक श्रेष्ठतम उपाय है । साधक को अपनी बाह्य वृत्तियों का त्याग करना होता है, वो भोग विलासिता के जीवन को त्याग कर एक खोजी की भाँति निरंतर अपने मंत्र में, अपनी साधना में, अपने तप में जुटा रहे तभी वो भीतर के गहरे तलों से कुछ मोती प्राप्त कर पाता है।



साधक साधना काल में क्या करता है ये गुरु के मार्ग निर्देश पर निर्भर होता है । यदि साधक योगाभ्यास कर रहा हो, प्राणायाम के माध्यम से भीतर उतरने की चेष्ठा कर रहा हो तो ‘प्राण’ ही मंत्र बन जाते है। बस नेत्र बुंद कर पवित्र स्थान में खड़े होकर अपनी दोनों नासिकाओं से भीतर जाते स्वास को, वायु को, प्राण को अनुभव करते जाना है और भीतर जो वायु जाती है उसके साथ दिव्य पवित्रता को भीतर धारण करना है और पुनः श्वास को धीरे धीरे बाहर छोड़ते जाना है । जब हम श्वास पर लगातार नियंत्रण प्राप्त करने की कोशिश करते है तो वही साधना हो जाती है, वही प्राणायाम तप हो जाता है । साधक को निरंतर जिज्ञासु वृत्ति का होना चाहिए। एक जिज्ञासा के पश्चात दूसरी जिज्ञासा उत्पन्न हो जाए, क्रमशः तीसरी, चौथी, पाँचवी….तभी वो अनंत सूर्य के प्रकाश के रहस्यों को जान सकता है। सूर्य योगी सूर्य के प्रकाश को अपनी देह पर अनुभव करते है। एक स्थान पर खड़े होकर अपने शरीर के माध्यम से सौर मंडल से आनेवाली ऊर्जा को अपने भीतर समाहित करते जाते है। ये ठीक उसी प्रकार होता है जैसे स्याहीचूस ज़मीन पर पड़ी स्याही को चूस ले, या एक प्यासा धीरे धीरे जल को पी ले। सूर्य से आनेवाली रश्मियों को अपने देह के ऊपरी तलों (जैसे त्वचा, नेत्र) इनपर अनुभव करना है और उसका भीतर ही भीतर संग्रहण करते चले जाना है और धीरे धीरे हमारी देह इस कार्य में तल्लीन होती चली जाती है और हम सूर्य के प्रकाश के माध्यम से अपने शरीर के भीतर अथाह ऊर्जा का एक भंडार, एक कोष बना सकते है और वही कोष साधना पथ में हमें



वास्तव में तप शब्द योग के समान ही व्यापक शब्द है । अपने नेत्र आधे खोलकर और आधे बंद रखकर अपने हृदय में आनेवाले विचारों को लगातार देखते जाना, अपनी देह पर नियंत्रण प्राप्त करने का प्रयास करना ये भी तप का एक भाग ही है क्योंकि हरेक साधक का स्वभाव भिन्न है, रूप भिन्न है, रंग भिन्न है, गुण भिन्न है, दृश्य शक्ति, श्रवण शक्ति भिन्न है अतः उसके लिए साधना पथ भी भिन्न भिन्न ही होते है। किंतु कौनसा मार्ग श्रेष्ठ है ये जानने के लिए साधक को स्वयं अनेकों प्रकार की प्रणालियों के मध्य से होकर गुझरना होता है, तब जाकर कहीं एक विशेष साधना मार्ग अथवा एक प्रक्रिया विशेष साधक को दिव्य उत्तेजना प्रदान करती है, वही उत्तेजना उसे साधना की सफलता की ओर गति प्रदान करती है। धीरज, संयम, विवेक, शांति और गुरु का आशीर्वाद नितान्त अनिवार्य है ।

महासिद्ध ईशपुत्र


बुधवार, 5 फ़रवरी 2020

या श्री: स्वयं सुकृतिनां

या श्री: स्वयं सुकृतिनां भवनेष्वलक्ष्मी:
पापात्मनां कृतधियां हृदयेषु बुद्धि:।
श्रद्धा सतां कुलजनप्रभवस्य लज्जा
तां त्वां नता: स्म परिपालय देवि विश्वम्॥

अर्थ :- जो पुण्यात्माओं के घरों में स्वयं ही लक्ष्मीरूप से, पापियों के यहाँ दरिद्रतारूप से, शुद्ध अन्त:करणवाले पुरुषों के हृदय में बुद्धिरूप से, सत्पुरुषों में श्रद्धारूप से तथा कुलीन मनुष्य में लज्जारूप से निवास करती हैं, उन आप भगवती दुर्गा को हम नमस्कार करते हैं। देवि! आप सम्पूर्ण विश्व का पालन कीजिये।

शुक्रवार, 10 जनवरी 2020

महेंदी बदलेगी आपका भाग्य

आकर्षण, सौन्दर्य और आपका चहुँमुखी विकास हो सके इसके लिए शनिवार की सुबह मेँहदी का विधिवत् पूजन करके ही उसे हाथोँ मे धारण करना चाहिए । यदि आप नक्षत्र का चयन करना चाहते है तो पुनर्वसु नाम का नक्षत्र अत्यंत फलदायी, शीघ्र लाभ देनेवाला और उन्नति देनेवाला कहा गया है । तो पहले पंचोपचार पूजन संपन्न कीजिए धूप, दीप, अक्षत, नैवेद्य से; फिर मेंहदी को भस्म और कुमकुम को शहद मेँ मिश्रित करने के पश्चात जो तिलक बनता है वो पात्र मेँ चारोँ दिशाओँ मेँ तिलक लगाइए और हाथोँ और पाँव मेँ गोलाकार आकृतियाँ बनानी चाहिए अर्थात् बीच मेँ बिलकुल गोल आकृति वृत्त की वृताकार निर्मित करेँ और गोले को बीच मेँ खाली नहीँ रखना है अर्थात् जो वृत्त बनायेंगे उसे भी भीतर से मेंहदी के लाल रंग से रंग देना है । मेंहदी लगाते समय मन ही मन गणेश जी के एकदन्त स्वरुप का ध्यान करना चाहिए कि एक हाथ मेँ उन्होनेँ दाँत पकडा है और एक दाँत ही उनका है और साथ ही मानसिक रुप से लघुमन्त्र का आप जाप कीजिए, आपका लघुमन्त्र है : ॐ क्रीं भं हुं क्रौं नमो सुर सुन्दरी दैव्यै ॥ इस प्रकार से जब आप मन्त्र का जाप करेंगे तो आपकी ये मनोकामना भी मातारानी अवश्य पूर्ण करेंगी । - महासिद्ध ईशपुत्र

बुधवार, 1 जनवरी 2020

तीन वर्ष की आयु में ही महायोगी जी हिमालय की सिद्ध परम्परा में दीक्षित हो गए

जब महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी महाराज तीन बर्ष कुछ माह के हुए ही थे कि एक दिन उनके पिता जी के पास एक लम्बे कद का लम्बी दाढ़ी मूछों वाला साधू आया....और कहने लगा कि तुम्हारे घर पर एक बालक पैदा हुआ है.....जिसके बांये  पांव के अंगूठे के नीचे रेखाओं का गोल चक्र है....वो मेरा पिछले जन्म का शिष्य है....मुझे उसे देखना है......तब तक महायोगी जी के माता पिता ने भी बालक के पाँव के नीचे के चक्र को नहीं देखा था.....जब देखा तो बहुत ही हैरान हुए.....और वो साधू कहने लगा कि यह बालक उनको सौंप दिया जाये.....भला कोई माता पिता किसी के केवल इतना कहने से अपना बालक सौंप देंगे क्या?उनहोंने साधू को समझाया......लेकिन साधू नहीं माना....जिस कारण दोनों पक्षों में तनातनी हो गयी.....अंततः इस बात पर निर्णय हुआ कि बालक साधू को नहीं दिया जायेगा.......लेकिन बालक को दीक्षा दे कर साधू का शिष्य बनाया जायेगा.....ये साधू कोई और नहीं स्वयं "महागुरु कौलान्तक पीठ शिरोमणि प्रातः स्मरणीय सिद्ध सिद्धांत नाथ जी महाराज"थे.....इस तरह तीन वर्ष कि आयु में ही महायोगी जी हिमालय कि सिद्ध परम्परा में दीक्षित हो गए....महागुरु का कोई चित्र नहीं है.....केवल एक मात्र रेखाचित्र ही है जिसकी महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी महाराज पूजा करते हैं.....यहाँ मैं वो चित्र दे रहा हूँ ताकि दादागुरु जी कि छवि का कुछ अनुमान आपको भी हो सके.....
 कौलान्तक पीठ शिरोमणि प्रातः स्मरणीय श्री सिद्ध सिद्धांत नाथ जी महाराज
  कौलान्तक पीठाधीश्वर महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी के प्रथम गुरु महाराज