पीठाधीश्वर होने के मायने सबसे अलग
हैं, आमतौर पर पीठ का अर्थ होता है एक
स्थान विशेष जैसे कोई मंदिर आश्रम स्थान विशेष, किन्तु कौलान्तक
पीठ कोई एक घर या मंदिर नहीं है
वरन हिमालय का बहुत बड़ा भू भाग है, जिस पर आज
भारत की सरकार का ही अधिकार है,
इसलिए आध्यात्मिक रूप से हिमालय की धर्म
संस्कृति का प्रमुख होना ही कौलान्तक
पीठाधीश्वर होना है, और ये तो
सबसे जटिल है क्योंकि यदि आपके पास कोई मंदिर हो तो आप
उसे संभालें या कोई स्थान या आश्रम हो तो उसेर संभालें वहां
बैठ कर धर्म कार्य सम्पादित करें, किन्तु जब खुला आकाश
हजारों योजन तक फैला हिमालय हो तो क्या किया जा सकता
है, ये ठीक वैसा ही है,
की आपको कहा जाए की आप अरवों
की संपत्ति के मालिक हैं किन्तु आप
किसी भी कीमत पर एक रूपया
तक नहीं खर्च कर सकते, तो कौलान्तक
पीठाधीश्वर होने का अर्थ है कुछ
भी न होना, क्योंकि संसार तो पूछेगा ही
की आखिर आपका आश्रम कहाँ है, क्योंकि
उनको तो उसकी आदत है और आपके पास कोई
जबाब नहीं, संभवत: आपको समझ पाना उनके लिए
अब बिलकुल असम्भव है, ये तो एक पहलू हुआ, माना कि
भौतिक रूप से आप कोई सम्पदा या स्थान दिखने में असमर्थ हैं
किन्तु दूसरी और उतना ही विराट ज्ञान
प्रवाह है, सभी को ज्ञान ब्राहमण देते हैं
क्योंकि उनहोंने परम्परागत रूप से ज्ञान लिया है हालाँकि ये
कोई अनिवार्य नियम नहीं पर एक सामाजिक व्यवस्था
है और उनको ज्ञान देने वाले सन्यासी हैं जो
सिद्ध गुरुओं से ज्ञान प्राप्त कर समाज के हर वर्ग सहित
विशेषतय: ब्राहमणों तक ज्ञान पहुंचाते हैं, किन्तु
सन्यासियों के ये सिद्ध गुरु ही वो गुरु हैं जो
कौलान्तक पीठ यानि की हिमालय के
परम तेजस्वी ऋषि मुनि योगी परमहंस
होते हैं, जो इतनी कठोर तपस्या करते हैं कि
आम आदमी को बताते हुए भी डर
लगता है क्योंकि अधूरे ज्ञान के कारण उसको ये सब
किसी बड़े अत्याचार से कम नहीं लगता,
तब तक भूखे प्यासे साधना ताप का अभ्यास किया जाता है जब
शरीर की सबसे अंतिम सीमा
समाप्त हो जाये वो लगातार, गर्मी सर्दी,
वर्षा, जंगली जानवर, भोजन पानी का
आभाव, अकेलापन और भी न जाने कितनी
ही दारुण दुःख देने वाली परिस्थितियां का
सामना करते हैं जो सामने सदा ही मुह बाए
खडी रहती है, इस
पीड़ा का अंदाजा केवल पढ़ कर या कल्पना से
नहीं किया जा सकता, हिमालय के
किसी बर्फीले एकांत स्थान पर एक रात
काट कर देख लीजिये, चमड़ी तक फट
जाती है शरीर का रंग इतना कला हो
जाता है कि महीनो ठीक होने को
लग जाएँ, ये सब तो साधारण बाते हुयी, कौलान्तक
पीठाधीश्वर होने के अर्थ है, आप
को 64 कलाओं का ज्ञान होना चाहिए, 33 करोड देवी देवताओं का आवाहन व विसर्जन एवं पूजन
आना चाहिए, योग की सभी विधाओं का
ज्ञान होना चाहिए, तंत्र के मार्ग त्रय का भी
ज्ञान होना चाहिए, अघोर, सत्व, भक्ति, ज्ञान सहित
उपलक्षण विद्याओं का भी समावेश होना चाहिए,
पीठाधीश्वर का कठोर तपस्वी
एवं अभ्यासी होना अति अनिवार्य है,
गीत संगीत, नृत्य, हास्य, रुदन,
चित्रकला, लेखन क्षमता, कवित्व, श्रृंगार, युद्ध विद्या, दर्शन,
भाष्य क्षमता, वाक् शक्ति, कल्पनाशीलता,
परिश्रमी, मंत्र अभ्यासी, आयुर्वेद
ज्ञाता, रसायन विज्ञानी, कर्मकांडी व
योगी होना अति अनिवार्य है, 64 योगिनियों को
प्रसन्न कर व हिमालय के यक्ष एवं यक्षिणियों
की विद्याओं का ज्ञान होना ही
चाहिए, साथ ही लक्षण शास्त्र, सामुद्रिक
शास्त्र, काक भाषा, देश काल सहित विविध
ज्योतिषीय विद्याओं का ज्ञान भी, इन
सबसे ऊपर की चीज तो ये है कि
प्राचीन लिपियों जैसे ब्रम्ह लिपि, देव लिपि, भूत लिपि
व टाँकरी लिपि आदि लिपियों का ज्ञान होना चाहिए,
प्राचीन पांडुलिपियों में निहित ज्ञान का भी
पता होना चाहिए, धर्म की विविध परम्पराओं,
शाखाओं, मतों का भी ज्ञान हो, क्योंकि हिमालय
भूत प्रेत राक्षसों व दैत्यों की भी भूमि
है साथ ही नाग जाती वहां
बसती है तो पीठाधीश्वर को
नाग विद्या, गारुडी विद्या, भूत विद्या, दैत्य संवाद आदि
का परम्परागत ज्ञान होना चाहिए, कौलान्तक पीठ
को महारह्स्य पीठ कहा जाता है क्योंकि
इसकी बहुत सी बाते गुप्त व
रहस्यमयी हैं, जिनको सिद्धौग गुरु व दिव्यौघ गुरु
से प्राप्त करना होता है, बाल्यकाल से ज्ञान और विद्या को
गुप्त रख कर ही ज्ञान ग्रहण करने
की परमपरा है, एक
पीठाधीश्वर जो कि स्वयं
महायोगी होता है के लिए ये बात सबसे जटिल
हो जाती है कि उसे तंत्रमय कर्मकांड व पूजन
वर्षभर करते रहना होता है, जो कि दक्षिण
मार्गी पूजा के अंतर्गत आता है अर्थात बलि व
तामसिक पदार्थों रहित पूजन, जिसे राजसी पूजा
कहा जा सकता है, वेदों, पुराणों, शास्त्रों, तंत्र ग्रंथों यानि
आगम निगम का ज्ञान होना चाहिए, दस महाविद्याओं
सहित शिव शक्ति की प्रधान पूजा व
आवाहनी विद्या का सिद्धहस्त हो साथ
ही हिमालय पर लम्बे समय तक एकांत में
रहने व समाधी लगाने का सिद्धहस्त हो,
हिमालयों की पारिस्थितिकी का
अनुभवी हो, प्रमुखतय: शाक्त पंथी
हो किन्तु मूलतय: शैव पंथी होना चाहिए, सिद्ध
अथवा नाथ परम्परा अनुसार दीक्षित हो, काम्य
प्रयोगों सहित जनहित की विद्याओं का ज्ञाता
हो व अप्सरा साधना, भैरवी साधना,
यक्षिणी व योगिनी साधना संपन्न हो,
हादी कादी, बला अतिबला, सहित
अग्नि विद्या, मधु विद्या का जानकार हो, देशज देवलि
रीति को जनता हो और निडर निर्भय हो, यहाँ
सभी गुणों की व्याख्य करना संभव
नहीं है,
किन्तु बड़े ही गौरव का
विषय है कि चार शिष्यों नें इन विद्याओं का ज्ञान प्राप्त किया
और सफल हुए महायोगी सत्येन्द्र नाथ, जिनको
इस महारहस्य पीठ का
पीठाधीश्वर बना दिया गया|