साधना काल में उत्तम आहार, किस प्रकार के हमारे वस्त्र हो, क्या हमारे विचार हो, किस परिवेश में हम रहे यह छोटे-छोटे बिंदु साधक के अस्तित्व का निर्माण करते हैं! बहुत जरूरी है कि हम गुरु दीक्षा के समय दिए जाने वाले प्रवचन को भली प्रकार सुने! गुरु से जो ज्ञान ग्रहण किया है साधना के समय एकमात्र वही सहारा होता है। साधक के मन में यदि किसी प्रकार का भय है तो वो ऐसे स्थान पर जाकर ही उसे अनुभव कर सकता है! और यदि साधना मार्ग में साधक को किसी प्रकार का भय अनुभव हो तो वह उसे यथाशीघ्र श्रीगुरु के चरणों में निवेदित करें क्योंकि गुरु इसी परंपरा से गुजरे हुए हैं। वो इस मार्ग पर चले हुए हैं, वह जानते हैं कि उस भय से मुक्ति का उपाय क्या है। हमारे मस्तिष्क में अनेकों अनेक तंतु है, अधिकतम तंतु शायद निष्क्रिय से प़डे हैं, वह पूर्णतया सक्रिय नहीं इसलिए हम अपने आसपास होने वाले कार्यों, घटनाओं इन सब के प्रति बेहोश से रहते हैं, हमारी जागृति ही नहीं होती। जब धीरे धीरे हमारे भीतर परिवर्तन आता है तो मस्तिष्क के उन तंतुओं में अद्भुत परिवर्तन देखने को मिलता है! आसपास होने वाली छोटे से छोटी घटना भी हमें प्रभावित करती है, तब हम वास्तव में एक पुरुष से विराट होकर महापुरुष बन जाते हैं, अणु से विराट हो उठते हैं। बात छोटी है लेकिन हम इसकी मात्र कल्पना ना करें, किसी भी साधक की अनुभूति उसकी निजी होती है क्योंकि प्रत्येक साधक का स्तर भिन्न है अतः उसके अनुभव भी भिन्न और निजी होते हैं। साधना उतनी ही कठिन है जितना विराट हिमालय पर चढ़ना और साधना इसलिए जटिल लगती है क्योंकि हमारी वृत्तियां बह्यमुखी है, उन्हें अभ्यंतरी बनाना है, हमारा सारा का सारा ध्यान बाह्य जगत में स्थित है, उसे हम किस प्रकार भीतर ले जाए यही तो साधना पथ है! तप इसीलिए श्रेष्ठ है क्योंकि इस प्रणाली के माध्यम से हम अपने पूरे के पूरे अस्तित्व को झोंक देते हैं सिर्फ इसलिए कि हम उस विराट चेतना को जागृत कर सके! धीरे-धीरे साधना का तेज शरीर पर भी दिखने लगता है; शरीर के रोग, दुःख, शोक नष्ट होने लगते हैं और हम अपने आप को स्वस्थ अनुभव करते हैं; शरीर की समस्त व्याधियां उसी प्रकार दूर हो जाती है जिस प्रकार अंधकार में दीपक जलाने पर रोशनी हो जाती है, अंधकार नष्ट हो जाता है। लगातार प्राणायाम का अभ्यास, मंत्रों का अभ्यास समस्त मानसिक कुंठाओ से साधक को मुक्ति प्रदान करता है। लेकिन इतना होने के बाद भी साधक ये नहीं जानता कि भली प्रकार साधना क्या है, अभी जिन प्रक्रियाओं से हम स्वयं को गुजार रहे हैं अथवा स्वयं जिस मार्ग से हम गुजर रहे हैं वो तो एक प्रक्रिया मात्र है। हम कभी सूर्य का प्रकाश ले रहे हैं, हम कभी वातावरण से जुड़ रहे हैं, हम कभी मन को शांत बनाने का प्रयास कर रहे हैं, तो ये सब परंपराएं मिलकर बस हमें तराश ही रही है। धीरे-धीरे हम विचारों पर नियंत्रण प्राप्त कर लेते हैं, हमारे सहस्त्रों सहस्त्र विचार साधना पथ पर चलते चलते रुकने लगाते हैं और वो अनुभूति गहरी होती चली जाती है, हम एक ऐसे स्थिति को प्राप्त करते हैं जो न तो पूरी तरह जागृत होती है, न ही पूरी तरह से सुषुप्त, अब धीरे-धीरे साधक उस पथ को जानने लगता है, जिस पथ पर वह आगे बढ़ा, अब गुरु का एक-एक शब्द सत्य प्रतीत होता है, हम गुरु के प्रति कृतज्ञता से भर उठते हैं, हम धन्यवाद करते हैं भीतर ही भीतर उस मार्गदर्शक का जिसने हमें इस पथ पर बढ़ने के लिए प्रेरित किया! भीतर का अनंत विकास साधना के प्रथम चरण पर ही हम अनुभव करते हैं। ऐसी अनेकों छोटी-छोटी घटनाएं घटित होती है जिनके बारे में बताना संभव नहीं और साधना में कभी कबार साधक थोड़ी मनमानी भी कर लेता है; वह स्वयं अपने साथ कुछ प्रयोग करता है; वह स्वयं अपनी साधनाओं के साथ भी प्रयोग करता है, इसमें कोई बुराई नहीं, किन्तु ये जानना अनिवार्य है कि हम किस हद तक स्वतः मनमाने प्रयोग कर सकते हैं, क्योंकि सावधानी हमेशा रखनी होगी! कोई भी ऐसी प्रणाली हमारे तप मार्ग में विघ्न पैदा कर सकती है जो तमस प्रधान हो; अतः गुरु से अपने साधना क्षेत्र को भली प्रकार सीख लेना चाहिए। धीरे-धीरे साधक स्थिरधी होता चला जाता है उसके भीतर दिव्य ज्ञान उत्पन्न होता है, वह प्रकृति से सब कुछ प्राप्त कर लेता है, साधक पूर्णतया भीतर से परिवर्तित हो जाता है! एक साधना का ही सूत्र है जो उसे परिवर्तित करने में अपनी अहम भूमिका निभाता है! देह तो साधक की परिवर्तित नहीं हो सकती क्योंकि वो आणविक है, भौतिक है किंतु भीतर के अणु परिवर्तित होते चले जाते हैं, साधक का बाह्य आवरण भी सूक्ष्म तलों पर परिवर्तित होता चला जाता है, ये सूक्ष्म बदलाव गुरु तुरंत भांप सकता है; अथवा कोई सिद्ध योगी, कोई दूसरा साधक इस अनुभव को..इस परिवर्तन को देख सकता है लेकिन जन साधारण के लिए कोई अनुभव..कोई परिवर्तन सुलभ नहीं !
-ईशपुत्र