साधना मार्ग : हिमालय में तप भाग - 1


साधना मार्ग अत्यंत विचित्र मार्ग है। यहाँ जो भी शिक्षा हम गुरु से ग्रहण करते है उसे स्वयं प्रयोगात्मक तौर पर हमें उतारना होता है। इसके लिए ये नितान्त अनिवार्य है कि हम स्वयं को तप की कसौटी पर कसे। साधना मार्ग साधक को निरंतर ऊर्जा एवं चेतना तभी प्रदान कर पाता है जब वो स्वयं इस पथ पर बढ़नेके लिए क़दम बढ़ाता है। तप का स्वरूप क्या है ? साधना का स्वरूप क्या है? ये गुह्य ज्ञान जब हम श्री गुरु से प्राप्त करते है तो उसे एकांत में हम अभ्यास पर लाने की कोशिश करते है। साधक जब सतत अभ्यास की प्रक्रिया जारी रखता है तब जाकर वो कहीं दुर्लभ मौक़े पर उस परम चेतना को अनुभव कर पाता है। प्रकृति में साधना करना ही एक श्रेष्ठतम उपाय है । साधक को अपनी बाह्य वृत्तियों का त्याग करना होता है, वो भोग विलासिता के जीवन को त्याग कर एक खोजी की भाँति निरंतर अपने मंत्र में, अपनी साधना में, अपने तप में जुटा रहे तभी वो भीतर के गहरे तलों से कुछ मोती प्राप्त कर पाता है।



साधक साधना काल में क्या करता है ये गुरु के मार्ग निर्देश पर निर्भर होता है । यदि साधक योगाभ्यास कर रहा हो, प्राणायाम के माध्यम से भीतर उतरने की चेष्ठा कर रहा हो तो ‘प्राण’ ही मंत्र बन जाते है। बस नेत्र बुंद कर पवित्र स्थान में खड़े होकर अपनी दोनों नासिकाओं से भीतर जाते स्वास को, वायु को, प्राण को अनुभव करते जाना है और भीतर जो वायु जाती है उसके साथ दिव्य पवित्रता को भीतर धारण करना है और पुनः श्वास को धीरे धीरे बाहर छोड़ते जाना है । जब हम श्वास पर लगातार नियंत्रण प्राप्त करने की कोशिश करते है तो वही साधना हो जाती है, वही प्राणायाम तप हो जाता है । साधक को निरंतर जिज्ञासु वृत्ति का होना चाहिए। एक जिज्ञासा के पश्चात दूसरी जिज्ञासा उत्पन्न हो जाए, क्रमशः तीसरी, चौथी, पाँचवी….तभी वो अनंत सूर्य के प्रकाश के रहस्यों को जान सकता है। सूर्य योगी सूर्य के प्रकाश को अपनी देह पर अनुभव करते है। एक स्थान पर खड़े होकर अपने शरीर के माध्यम से सौर मंडल से आनेवाली ऊर्जा को अपने भीतर समाहित करते जाते है। ये ठीक उसी प्रकार होता है जैसे स्याहीचूस ज़मीन पर पड़ी स्याही को चूस ले, या एक प्यासा धीरे धीरे जल को पी ले। सूर्य से आनेवाली रश्मियों को अपने देह के ऊपरी तलों (जैसे त्वचा, नेत्र) इनपर अनुभव करना है और उसका भीतर ही भीतर संग्रहण करते चले जाना है और धीरे धीरे हमारी देह इस कार्य में तल्लीन होती चली जाती है और हम सूर्य के प्रकाश के माध्यम से अपने शरीर के भीतर अथाह ऊर्जा का एक भंडार, एक कोष बना सकते है और वही कोष साधना पथ में हमें



वास्तव में तप शब्द योग के समान ही व्यापक शब्द है । अपने नेत्र आधे खोलकर और आधे बंद रखकर अपने हृदय में आनेवाले विचारों को लगातार देखते जाना, अपनी देह पर नियंत्रण प्राप्त करने का प्रयास करना ये भी तप का एक भाग ही है क्योंकि हरेक साधक का स्वभाव भिन्न है, रूप भिन्न है, रंग भिन्न है, गुण भिन्न है, दृश्य शक्ति, श्रवण शक्ति भिन्न है अतः उसके लिए साधना पथ भी भिन्न भिन्न ही होते है। किंतु कौनसा मार्ग श्रेष्ठ है ये जानने के लिए साधक को स्वयं अनेकों प्रकार की प्रणालियों के मध्य से होकर गुझरना होता है, तब जाकर कहीं एक विशेष साधना मार्ग अथवा एक प्रक्रिया विशेष साधक को दिव्य उत्तेजना प्रदान करती है, वही उत्तेजना उसे साधना की सफलता की ओर गति प्रदान करती है। धीरज, संयम, विवेक, शांति और गुरु का आशीर्वाद नितान्त अनिवार्य है ।

महासिद्ध ईशपुत्र