शनिवार, 30 जून 2018

योग कौशल

अगर आप घेरण्ड द्वारा प्रणीत योग को देखेंगे जिसे लोगोँ ने नकार दिया ! आखिर क्योँ नकारा ? क्या आपको ये मालूम है ? हठयोग को आखिर बल क्योँ मिलता गया ? और दर्शन अर्थात् philosophy मेँ केवल पतञ्जल की philosophy को इतना अधिक महत्व क्योँ दिया गया ? योग तो आपने बहुत लोगोँ से सीखा होगा, बहुत लोगोँ को आप योग करते देखते होंगे तब भी बहुत से लोग कौलान्तक पीठ आकर योग सीखना चाहते है ! क्योँकि हम योग को आपके सम्मुख अपने अंदाज मेँ लेकर आते है...वो अंदाज मेरा नहीँ है ! वो अंदाज है "देवाधिदेव महादेव" का ! वो है महादेव की सनातन परंपरा से आया हुआ योग; जो उन्होनेँ आगम के द्वारा निगम को अर्थात् माँ पार्वती को दिया ! और तभी से अनेकोँ ऋषि-मुनियोँ के द्वारा ये योग की धारा युँ ही बहती हुई इस पीठ मेँ आगे बढती आ रही है । आप कहेंगे, 'योग तो मैने अपने गुरु से भी सीखा है ! योग करते हुए तो हमने अन्य योगियोँ को भी देखा है । योग की बातेँ तो हमने भी हजार सुनी है और योग की कई पुस्तकेँ चाहे घेरण्ड योग हो, चाहे हठयोग प्रदीपिका हो, चाहे पतञ्जल योग हो, चाहे शिवसूत्र हो कोई भी योग से सम्बन्धित पुस्तक हो हमने जरुर पढी है... तो फिर कौलान्तक पीठ मेँ आकर वही पुस्तक और वही योग फिर से सीखने की क्या जरुरत ?
आप कोई भी बडे से बडे योगी हो लेकिन तब तक अधूरे है जब तक आपने कौलान्तक पीठ मेँ योग की उस महादेव के द्वारा प्रदत्त उस परंपरा को देखा न हो जो उनके द्वारा बडी कठोरता से स्थापित की गयी है ! जहाँ संपूर्ण योग और उसके अस्तित्त्व को निचोडकर अर्क बनाकर के रखा गया है ताकि आप उस योग के बने हुए अर्क का सेवन कर योग के परम ज्ञान को उपलब्ध होकर, "महायोगी" बनकर समाधि की ओर जा सके, पूर्ण ज्ञान को प्राप्त कर सके ! - ईशपुत्र

श्री आदि ब्रह्मा कौल मन्त्र

'कौलान्तक पीठ हिमालय' प्रस्तुत करता है 'ईशपुत्र-कौलान्तक नाथ' की आवाज़ में 'आदि ब्रह्मा मंत्र' जो 'कौलान्तक पीठ' में प्रचलित है। वैसे तो श्राप के कारण ब्रह्मा जी की पूजा नहीं की जाती। लेकिन हिमालय में ब्रह्मा जी के नौ मंदिर हैं जिनमें से दो मंदिर तो हिमाचल प्रदेश के जिला कुल्लू में ही हैं। जहाँ विधिवत रूप से उनकी पूजा-साधना की जाती है। एक पुरातन कथा के अनुसार 'कलियुग' के विशेष अवसर से उनकी पूजा साधना फिर शुरू होगी। खैर हम इस विवाद में क्यों पड़ें? ये मंत्र संरक्षित रहे, इसके निमित्त यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है-कौलान्तक पीठ टीम-हिमालय।

शुक्रवार, 29 जून 2018

।। श्री ईशपुत्र हृदय स्तोत्रम् ।।



।। श्री ईशपुत्र हृदय स्तोत्रं।।
विनियोग
ॐ अस्य श्री ईशपुत्र ह्रदय स्तोत्र मन्त्रस्य श्री विकर्तन ऋषि, अनुष्टुप छंद, श्री विष्णु देवता, ह्रौं वीजं, क्रौं शक्ति:,
हुं कीलकं, श्री ईशपुत्र प्रीतये जपे विनियोग:
ऋषियादिन्यास
श्री मार्कंडेय ऋषये नमः शिरसी
अनुष्टुप छन्दसे नमः मुखे
श्री ईशपुत्र देवताय नमः हृदि
ह्रां बीजाय नमः लिङ्गे
ह्रौं शक्तये नमः नाभौ
ह्रुं कीलकाय नमः पादयो
श्री ईशपुत्र प्रीतये जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे
षडंगन्यास
ॐ ह्रां हृदयाय नमः
ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा
ॐ ह्रूं शिखाये वषट
ॐ ह्रैं कवचाय हुं
ॐ ह्रौं नेत्र त्रयाय वौषट
ॐ ह्रः अस्त्राय फट
कर न्यास
ॐ ह्रां अन्गुष्ठाभ्यां नमः
ॐ ह्रीं तर्जनिभ्यां स्वाहा:
ॐ ह्रूं मध्यमाभ्यां वषट
ॐ ह्रैं अनामिकाभ्यां हुं
ॐ ह्रौं कनिष्ठिभ्यां वौषट
ॐ ह्रः करतलकर पृष्ठाभ्यां फट

सर्व ज्ञान सुफल सिद्धि प्रदाय, नीलवर्ण परम पुरुषाय।
सर्वार्थदायक महाअश्वनायकाय, नम: ईशपुत्राय।।
ॐ आं ह्रीं क्रौं ह्रां ह्रीं ह्रूं नमः ईशपुत्राय, कौलाय, महामणि मुकुट कोटीर संघटित चरणारविन्दे
ब्रह्माविष्णुमहेश्वर, महाभैरव तेजसे, क्रोधस्वरूपधारिणे, प्रकटवीराग्नि, घोरघोरानन ज्वलज्वल ज्वालासहस्त्रपरिवृताय, महाअट्टाहास घोषनाद प्रकम्पित दिगंतर समुद्भवाय, दिव्य अमोघ घोरअघोरादि
सर्वायुध परिपूर्णाय, खड़ग कपाल हस्ताय, व्याघ्राम्वृताय, भूतप्रेत वेताल डाकिनीशाकिनी अंतरिक्षचर घोरादि वृन्द परिवृते, प्रकम्पित चराचर कलिकुष्मांडादि दैत्यनिष्कंटकाय, प्रचंडपुरुषाय, मायाधराय, कलिनायकाय,
नित्य स्थिताय, इन्द्राग्नियमनैऋतिवरुणवायुसोमादिप्रपुजिताय, ब्रह्माविष्णुशिवस्तुते,
त्रिभुवन धराधरे, वामाय ज्येष्ठाय वरदाय, रौद्रान्शाय, ब्रह्मान्शाय, विष्ण्वंशाय, शंखहस्ताय,वाराह स्वरूपाय,
अति चंडातिचंड, प्रथम शिवगणाय, सतरजतमस्वरूपाय, नादमध्यस्थिताय, महोग्रविषोरगफनाफणिघटितमुकुटकटकादिरत्नमहातेजोमयपादबाहुकंठोतमांगेहारमालाकुलाय,
महाश्वेतअश्वोपरिस्थिताय, यक्षगन्धर्व विद्याधराराधिताय, नवरत्न निधिकोशाय, तत्वस्वरूपाय,
वाक्पाणिपादयुपस्थातात्मिकाय, शब्दस्पर्शरुपरसगंधादि स्वरूपाय, त्वकचक्षुश्रोत्रजिव्वाघ्राण महाबुद्धि स्थिताय,
ओंकार, हुंकार, क्रींकार, श्रींकारहस्ताय, आं क्रौं आग्नेयनैन पात्रे प्रवेशय-प्रवेशय, द्रां शोषय-शोषय,
द्रीं सुकुमारय-सुकुमारय, श्रीं सर्वं प्रवेशय-प्रवेशय त्रैलोक्यवरसिद्धि प्रदाय समस्त चित्तं वशि कुरु-कुरु
मम शत्रुन् शीघ्रं मारय-मारय, जाग्रतस्वप्नसुषुप्त्यवस्था स्वस्मान राजचौराग्नी, जलवातविषभूतशत्रुमृत्युज्वरादि
स्फोटकादि, नानारोगेभ्यो, नानापवादेभ्य:, परकर्ममंत्रतंत्रयंत्रोषधशल्यशुन्यक्षुद्रेभ्य: सम्यंग मां रक्ष रक्ष ।
ॐ आं ह्रीं क्रौं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रः स्फ्रां स्फ्रीं स्फ्रूं स्फ्रें स्फ्रौं मम सर्वकार्य कर्माणि साधय हुं फट् स्वाहा ।
न्यायालये श्मशाने वा विवादे शत्रु संकटे भूतानि चोर मध्यस्थे मम कार्याणि साधय स्वाहा ।
 ईशपुत्र हृदयं गुह्यं त्रिसंध्यं य पठे नर: ।
सर्व काम प्रदम पुंसां भुक्तिमुक्तिं प्रयच्छते।।
।। इति श्री ईशपुत्र हृदय स्तोत्रं।।

मंगलवार, 26 जून 2018

म्लेच्छ

म्लेच्छ केवल वो लोग है जिनके ह्रदय मेँ बुरी इच्छाएँ छिपी है, पाप छिपा है, जो आततायी है, अत्याचारी, जो भ्रष्टाचारी है; इसलिए हमारे देश मेँ ही नहीँ वरन् अनेकोँ देशोँ मेँ जो भ्रष्टाचारी है, पापाचारी है, रिश्वतखोर है वो सब के सब म्लेच्छ है इसलिए हम नित्य प्रार्थना करते है कि ऐसे म्लेच्छोँ का वध हो क्योँकि हम तो वध नहीँ करेंगे हम तो ऋषि है, हमारा काम मारण नहीँ है लेकिन आवश्यकता पडती है तो मेरे जैसे सरफिरे ऋषि अस्त्र उठाने मेँ देर नहीँ करते लेकिन अभी हमेँ हमारी न्यायव्यवस्था पर, कानून पर, संविधान पर विश्वास है क्योँकि हमारे पूर्वजो नेँ, हमनेँ मिलकर इस संपूर्ण देश को सुखी बनाने के लिए एक व्यवस्था बनाई...पुलिस, प्रशासन, न्यायालय...लेकिन यदि न्यायालय भ्रष्ट हो जाये तो क्या करेँ ? क्या न्यायाधीशोँ की गरदन काटी नहीँ जानी चाहिए ? यदि पुलिस-व्यवस्था भ्रष्ट हो जाए, हमारे घरोँ मेँ आकर वो हमारे उपर अत्याचार करने लगे, सरकारेँ इतना अधिक कर हम पर लाद देँ कि हर बात पे कर, हर बात पे कर । कोई भी देश यदि एक सीमा से उपर Tax तुम पर बढा देँ तो उस सरकार का विरोध करो, गिरा डालो उस सरकार को, पलट दो तख्ते...अरे इतिहास है तख्ता पलट तो होता रहता है, कायर तख्ता पलट थोडी न करते है, वीर लोग करते है और अधिक कर लगानेवाली सरकार भी म्लेच्छ सरकार कहलाती है और अत्यधिक कानून बनानेवाली सरकार भी म्लेच्छ सरकार कहलाती है क्योँकि मनुष्य को स्वतन्त्रता मिलनी चाहिए ।

मेरे नाम पर, धर्म के नाम पर, #कौलान्तक_पीठ के नाम पर और खास #कौलाचार के नाम पर बहुत लोग ढोंग कर रहे है, झूठ बोल रहे है । कोई कहता है कि 'कौलाचार पञ्चमकार है वो भी निकृष्ट पञ्चमकार', कोई कहता है 'नहीँ ये कौलाचार है', कोई कहता है 'नहीँ मेरे पास कौलाचार का प्रमाणपत्र है', कोई कहता है 'नहीँ हम परम्परानुगत कौलाचारी है !'...कहाँ से कौलाचारी हो ? भारत मेँ कितनी कौलाचारी पीठेँ थी ? विश्व मेँ कितनी कौलाचारी पीठेँ बन गयी ? और...व्यापार तुम करो मुझे धर्म के नाम पर व्यापार करने से कोई आपत्ति नहीँ । तुम धर्मगुरु बनोँ मुझे कोई आपत्ति नहीँ मेरा पूरा आशीर्वाद और समर्थन है लेकिन धर्म के नाम पर गलत आचरण और व्यभिचार न करो क्योँकि ऐसा करते हो तो तुम भी #मलेच्छ हो :-) और तुम भी मरोगे :-) प्रणाम ! ॐ नमः शिवाय ! :-) - ईशपुत्र

सोमवार, 25 जून 2018

मीठी सी निदिया-स्वप्नेश्वरी देवी

क्या आप रात भर सोते नहीं ? सुबह जल्दी उठ भी नहीं पाते ? हमेशा उंघते रहते हैं ? क्या हमेशा आलस्य छाया रहता हैं? अनेक रोगों से घिरे हुए हैं? क्या आप अनिद्रा के शिकार हैं ! सोने के लिए दवाओं का सहारा लेते हैं? तो कीजिये स्वप्नेश्वरी देवी को प्रसन्न और खो जाइये मीठे सपनों के संसार में.......हमें नींद के बारे में सोचने की आवश्यकता नहीं होती, ये हमारी दिनचर्या का एक हिस्सा है,लेकिन आधुनिक जीवन शैली के कारण ज्यादातर लोग कभी न कभी नींद न आने की परेशानी से सामना करते है,जिसे आनिद्र भी कहा जाता है(Insomnia), अगर आप कभी बहुत चिन्तित हों या बहुत उत्तेजित हों तो कुछ समय के लिए आप इसके शिकार हो सकते हैं और जब ये उत्तेजना या चिन्ता खत्म हो जाती है तो नींद भी दुबारा सामान्य हो जाती है, अगर आपको अच्छी नींद नही आती है तो ये एक समस्या है क्योंकि नींद आपके शरीर और दिमाग को स्वस्थ एवं चुस्त रखती है| नींद हर 24 घंटे में नियमित रुप से आने वाला वो समय है जब हम अचेतन अवस्था मे होते है, और आस पास की चीजों से अनजान रहते है ,हम सपने देखते है,एक सामान्य रात में आप लगभग हर दो घंटे पर1-2 मिनट के लिये जगते हैं,आप सामान्यतः इस जगने के बारे में नहीं जान पाते,हमें कितनी नींद की आवश्यकता होती है ? यह उम्र पर निर्भर है,बच्चे -17 घन्टे,किशोर - 9 से 10 घन्टे,व्यस्क - 8 घन्टे,वृद्ध - व्यस्क के समान,समान उम्र के लोगों के बीच मे भी अन्तर पाया जाता है,अधिकांश लोग 8 घन्टे सोते हैं जबकि कुछ लोगों के लिये 3 घन्टे की नींद ही पर्याप्त होती है,जब नींद नहीं आती है तो चिन्ता और तनाव बढ़ाने लगता है,अगर आप एकाध रात न सोएं तो अगले दिन आप थका हुआ मह्सूस करेंगे, दिन भर झपकी लेंते रहेंगें, ध्यान नही लगा पायेंगे,निर्णय लेने में दिक्कत होगी,उदासी मह्सूस होगी,गंभीर रूप से बीमार पड़ सकते हैं,आप अगर वाहन चलाते हैं या मशीनों पर काम करते हैं तो यह खतरनाक हो सकता है,अनिद्रा से उच्च रक्तचाप, मधुमेह और मोटापा जैसी बीमारियाँ हो सकती हैं,-कभी कभी आप महसूस करते हैं कि आपने पूरी नींद नहीं ली है या पर्याप्त समय सोने के बाद भी आपको ताजगी महसूस नहीं होती,जिसके कई कारण हो सकते हैं, शयनकक्ष में बहुत शोर हो या बहुत ठंडा या बहुत गर्म हो ,बिस्तर छोटा हो या आरामदायक ना हो ,आपकी सोने की कोई नियमित दिनचर्या न हो ,आपको पर्याप्त थकान न होती हो या आप पर्याप्त परिश्रम न करते हो, आप बहुत देर में खाना खाते हो,आप भूखे पेट ही सोने के लिए चले जाते हों ,सोने से पूर्व चाय, काफी (जिनमे कैफीन नामक रसायन होता है), सिगरेट या शराब का सेवन करते हों, लेकिन इन सभी से बचने का उपाय है, वो है गहरी नींद में सोना,और नींद आने का मंत्र हम आपको बताएँगे,लेकिन मंत्र से पहले ये जान लेते है कि निद्रा कि देवी कौन है,जी हाँ निद्रा कि देवी,निद्रा कि देवी हैं माँ स्वप्नेश्वरी,कैसे उत्पन्न हुयी है सपनों के संसार कि ये देवी आइये जानते हैं मार्कंडेय पुराण कि इस कथा से----------
"सृष्टि के आरम्भ में हर ओर जल ही जल था और उस जल में भगवान् विष्णु शेष नाग की शैय्या पर योगनिद्रा में सोये हुए थे,उनकी नाभि से एक कमल प्रकट हुआ जिस पर ब्रह्मा जी बैठे हुए थे,अचानक भगवान् विष्णु जी के कानों की मैल से दो भयानक राक्षस शुम्भ निशुम्भ पैदा हुए,शुम्भ निशुम्भ ब्रह्मा जी को खाने के लिए दौड़ पड़े,तो ब्रह्मा जी अपने प्राण बचने के लिए विष्णु जी के पास गए,लेकिन विष्णु जी को योग निद्रा में लीन देख कर चिंतित हो गए,तब प्राण संकट में जान ब्रह्मा जी ने योगमाया की स्तुति प्रारम्भ की,ब्रह्मा जी की स्तुति से प्रसन्न हो कर देवी योगमाया भगवान् विष्णु जी के नेत्रों से निकल कर ब्रह्मा जी के सम्मुख उपस्थित हुयी,तब भगवान् विष्णु निद्रा से जागे और उनहोंने शुम्भ निशुम्भ का बध किया,यही योग माया निद्रा के रूप में सभी जीव जंतुओं को हर रोज नयी जीवनी शक्ति देती है,इसी देवी योगमाया को देवी स्वप्नेश्वरी कहा जाता है जो निद्रा की देवी मानी जाती हैं,देवी स्वप्नेश्वरी की यदि प्रसन्न हो जाएँ तो ये मन जाता है की ऐसा व्यक्ति सपनों में भविष्य की घटनाओं को देख सकता है,भक्त के स्वप्न पूर्ण होने लगते हैं,देवी की उपासना करने से लम्बी आयु और स्वास्थ्य तो मिलता ही है,देवी स्वप्नेश्वरी सोते हुए ही अपने भक्त के रोगों को नष्ट कर देती हैं,स्वप्नेश्वरी देवी की भक्ति पूजा करने वालों की स्मरण शक्ति गजब की होती है और ताउम्र बनी रहती है, नींद न आना एक गंभीर समस्या है, अनिद्रा से कई रोग पैदा हो सकते हैं, लम्बे समय तक अनिद्रा रहना बहुत ही घातक सवित हो सकता है, अनिद्रा से दायवितीज, डिप्रेशन, एंग्जाइटी, हाइपर टेंशन, गैस की समस्या, कन्स्तिपेशन, डार्कआई सर्कल्स, बॉडीऐक,भूख की कमी, हार्मोनल इम्बेलेंस, हार्ट डिजिजिस, नार्को लेपसी, के साथ साथ दिमाग की कार्य कशमता प्रभावित हो सकती है, इसके अतिरिक्त अवसाद, मनसताप, अति हर्ष विषाद, उन्माद, सम्भ्रमात्मकता, खिन्नता विक्षिप्तता, चिडचिडापन, क्रोध आदि भी पैदा होते हैं, कई बार गहरी नींद सोने पर भी नींद पूरी नहीं होती जिसके कई कारण हो सकते हैं, सोने का कमरा स्वच्छ हवादार न होना , तकिया बड़ा और असुविधाजनक होना,गलत दिशा में और असुबिधाजनक बिस्तर, अत्यंत तनाव अकेलापन और अज्ञात भय ,कोई शारीरिक बीमारी या अधिनिद्रा नाम का रोग नशे जैसी गलत आदतों के कारण नींद नहीं आती, चाय काफी का अधिक सेवन धूम्रपान आदि भी समस्या पैदा करते हैं, अनिद्रा दूर करने के लिए प्राणायाम करना चाहिए, भ्रामरी प्राणायाम और उद्गीथ प्राणायाम के साथ ही अनुलोम विलोम प्राणायाम करें, आँखों का नियमित व्यायाम करें,साफ पानी के छीटे दें, सूर्य भगवान् को अर्ध्य दें, स्वप्नेश्वरी देवी की पूजा करें व मंत्र जाप करें, इससे बुरे स्वप्न भी नहीं आयेंगे और स्वस्थ नींद का सुख उठा सकेंगे
"स्वप्नेश्वरी देवी का मंत्र"-"शुक्ले महाशुक्ले ह्रीं श्रीं श्रीं अवतर स्वाहा।" मानसिक रूप से मंत्र का जाप करना चाहिए, हल्का व्यायाम करना न भूलें,बिना नींद बिस्तर पर न जाएँ, बिस्तर पर लेट कर टीवी नहीं देखें, नींद के लिए दवाओं का सहारा न लें,अन्यथा आप आदि हो सकते हैं, रात को भी अधिक तला हुआ भोजन न करें, भूख से अधिक कभी न खाएं, खाना खाने के करीब दो घंटे बाद ही सोने जाना चाहिए, भोजन में हरी सब्जियों का भरपूर प्रयोग करें, पानी का भी उचित मात्र में जरूर सेवन करें, नींद सही रीति से आये इसके लिए शय कक्ष में कुछ बदलाव करें, ये सुनिश्चित करें कि सर दक्षिण दिशा कि और न हो, हल्का संगीत धार्मिक संगीत सुनना या बांसुरी आदि बाद्य यंत्रों का संगीत सुनना लाभदायक, सोने के कुछ देर पहले पाँव धोने से भी अछि नींद आती हैं, जिन्हें बुरे सपने आते हों वे बाई करवट न सोयें, शराब, चरस, गुटका, तम्बाकू जैसे तमाम नशीले पदार्थों का परित्याग करें,अनियमित दिनचर्या न रखें ठीक समय पर सोये और उठें, ध्यान कि कुछ क्रियायों का ज्ञान प्राप्त कर ध्यान में उतरें, मोबाईल फ़ोन का प्रयोग कम करें व टीवी देखने का समय भी निश्चित ही रखें, सोने के कमरे में अधेरा होना चाहिए तेज रौशनी न रखें, लाल रंग का प्रयोग सोने के कमरे में कम करें, रात को रूम फ्रेशनर का प्रयोग बिलकुल न करें, देवी स्व्प्नेश्वरी कि मन ही मन पूजा करते हुए सोयें

कौलान्तक पीठाधीश्वर
महायोगी सत्येन्द्र नाथ

रविवार, 24 जून 2018

महाविद्या धूमावती प्रयोग

महाविद्या धूमावती प्रयोग

   धर्म
   अर्थ
   काम
   मोक्ष
तेजस्विता देंगी 
"महाविद्या धूमावती"

एक बार देवी पार्वती भगवान शिव के साथ कैलाश पर विराजमान थीं। उन्हें अकस्मात् बहुत भूख लगी और उन्होंने वृषभ-ध्वज पशुपति से कुछ खाने की इच्छा प्रकट की। शिव के द्वारा खाद्य पदार्थ प्रस्तुत करने में विलम्ब होने के कारण क्षुधापीडितापार्वती ने क्रोध से भर कर भगवान शिव को ही निगल लिया। ऐसा करने के फलस्वरूप पार्वती के शरीर से धूम-राशि निस्सृत होने लगी जिस पर भगवान शिव ने अपनी माया द्वारा देवी पार्वती से कहा, धूम्र से व्याप्त शरीर के कारण तुम्हारा एक नाम धूमावतीपडेगा-
                                             धूमव्याप्तशरीरात्तूततोधूमावतीस्मृता।
शिव ने यह भी कहा कि जब तुमने मेरा ही भक्षण कर लिया तब तुम स्वभावत:विधवा हो गई। तब शिव नें कहा देवी ये आप निराश न हों क्योंकि सृष्टि सञ्चालन के लिए व पापियों को दण्डित करने के लिए एक रहस्य स्वरूप की आवश्यकता थी, जिसे युक्ति पूर्वक आपके द्वारा उत्तपन्न किया गया है, क्योंकि इस महाकार्य को आपके सिवा कोई नहीं कर सकता साथ ही आपके कार्य में अनुक्ष न हो इसलिए में लुप्त हूँ आपके उअदर में हूँ, आप इस महाकार्य को संपन्न करें, अत:स्पष्ट होता है कि धूमावतीऔर पार्वती में अभेद है

दस महाविद्यायों में दारुण विद्या कह कर देवी को पूजा जाता है
शाप देने नष्ट करने व्संहार करने की जितनी भी क्षमताएं है वो देवी के कारण ही है
देवी का प्रमुख नक्षत्र ज्येष्ठा नक्षत्र है साथ ही देवी को भी ज्येष्ठा कहा जाता है
क्रोधमय ऋषियों की मूल शक्ति धूमावती हैं जैसे दुर्वासा, अंगीरा, भृगु, परशुराम आदि
सृष्टि कलह के देवी होने के कारण इनको कलहप्रिय भी कहा जाता है 
चौमासा ही देवी का प्रमुख समय होता है जब इनको प्रसन्न किया जाता है
नरक चतुर्दशी देवी का ही दिन होता है जब वो पापियों को पीड़ित व दण्डित करती हैं
निरंतर इनकी स्तुति करने वाला कभी धन विहीन नहीं होता व उसे दुःख छूते भी नहीं
बड़ी से बड़ी शक्ति भी इनके सामने नहीं टिक पाती इनका तेज सर्वोच्च कहा जाता है
श्वेतरूप व धूम्र अर्थात धुंआ इनको प्रिय है पृथ्वी के आकाश में स्थित बादलों में इनका निवास होता है
शास्त्रों में देवी को ही प्राणसंचालिनी कहा गया है
देवी की स्तुति से देवी की अमोघ कृपा प्राप्त होती है
                 स्तुति
विवर्णा चंचला दुष्टा दीर्घा च मलिनाम्बरा,
विवरणकुण्डला रूक्षा विधवा विरलद्विजा,
काकध्वजरथारूढा विलम्बित पयोधरा,
सूर्यहस्तातिरुक्षाक्षी धृतहस्ता वरान्विता,
प्रवृद्वघोणा तु भृशं कुटिला कुटिलेक्षणा,
क्षुतपिपासार्दिता नित्यं भयदा कलहप्रिया.

देवी की कृपा से साधक धर्म अर्थ काम और मोक्ष प्राप्त कर लेता है
गृहस्थ साधक को सदा ही देवी की सौम्य रूप में साधना पूजा करनी चाहिए
देवी ब्रिद्ध हैं अतः इनको वस्त्र भोजन व प्रसाद से शीग्र प्रसन्न किया जा सकता है
कुण्डलिनी चक्र के मूल में स्थित कूर्म में इनकी शक्ति विद्यमान होती है
देवी साधक के पास बड़े से बड़ी बाधाओं से लड़ने और उनको जीत लेने की क्षमता आ जाती है
देवी की मूर्ती पर भस्म चढाने से बड़ी से बड़ी बाधा भी नष्ट होती है
महाविद्या धूमावती के मन्त्रों से होता है बड़े से बड़े दुखों का नाश
                             देवी माँ का स्वत: सिद्ध महामंत्र है-
                            श्री महाविद्या धूमावती महामंत्र

                               ॐ धूं धूं धूमावती स्वाहा
                                         अथवा
                                ॐ धूं धूं धूमावती ठ: ठ:
इस मंत्र से काम्य प्रयोग भी संपन्न किये जाते हैं व देवी को पुष्प अत्यंत प्रिय हैं इसलिए केवल पुष्पों के होम से ही देवी कृपा कर देती है,आप भी मनोकामना के लिए यज्ञ कर सकते हैं,जैसे-
1. राई में नमक मिला कर होम करने से बड़े से बड़ा शत्रु भी समूल रूप से नष्ट हो जाता है
2.नीम की पत्तियों सहित घी का होम करने से लम्बे समस से चला आ रहा ऋण नष्ट होता है
3.जटामांसी और कालीमिर्च से होम करने पर काल्सर्पादी दोष नष्ट होते हैं व क्रूर ग्रह भी नष्ट होते हैं
4. रक्तचंदन घिस कर शहद में मिला लेँ व जौ से मिश्रित कर होम करें तो दुर्भाग्यशाली मनुष्य का भाग्य भी चमक उठता है
5.गुड व गाने से होम करने पर गरीबी सदा के लिए दूर होती है
6 .केवल काली मिर्च से होम करने पर कारागार में फसा व्यक्ति मुक्त हो जाता है
7 .मीठी रोटी व घी से होम करने पर बड़े से बड़ा संकट व बड़े से बड़ा रोग अति शीग्र नष्ट होता है
महाअंक-देवी द्वारा उतपन्न गणित का अंक जिसे स्वयं दारुणरात्री ही कहा जाता है वो देवी का महाअंक है -"6"
विशेष पूजा सामग्रियां-पूजा में जिन सामग्रियों के प्रयोग से देवी की विशेष कृपा मिलाती है
सफेद रंग के फूल, आक के फूल, सफेद वस्त्र व पुष्पमालाएं चढ़ाएं
केसर, अक्षत, घी, सफेद तिल, धतूरा, आक, जौ, सुपारी व नारियल
पंचमेवा व सूखे फल प्रसाद रूप में अर्पित करें
सूप की आकृति पूजा स्थान पर रखें
भोजपत्र पर ॐ धूं ॐ लिख करा चदएं
दूर्वा, गंगाजल, शहद, कपूर, चन्दन चढ़ाएं, संभव हो तो मिटटी के पात्रों का ही पूजन में प्रयोग करें
सभी चढ़ावे चढाते हुये देवी का ये मंत्र पढ़ें-
ॐ दारुणरात्री स्वरूपिन्ये नम:
सबसे महत्पूरण होता है देवी का महायंत्र जिसके बिना साधना कभी पूरण नहीं होती इसलिए देवी के यन्त्र को जरूर स्थापित करे व पूजन करें
यन्त्र के पूजन की रीति है-
पंचोपचार पूजन करें-धूप,दीप,फल,पुष्प,जल आदि चढ़ाएं
ॐ धूम्र शिवाय नम: मम यंत्रोद्दारय-द्दारय
कहते हुये पानी के 21 बार छीटे दें व पुष्प धूप अर्पित करें
देवी को प्रसन्न करने के लिए सह्त्रनाम त्रिलोक्य कवच आदि का पाठ शुभ माना गया है
यदि आप बिधिवत पूजा पाठ नहीं कर सकते तो मूल मंत्र के साथ साथ नामावली का गायन करें
धूमावती शतनाम का गायन करने से भी देवी की कृपा आप प्राप्त कर सकते हैं
धूमावती शतनाम को इस रीति से गाना चाहिए-
धूमावती धूम्रवर्णा धूम्र पानपरायणा,
धूम्राक्षमथिनी धन्या धन्यस्थाननिवासिनी,
अघोराचारसंतुष्टा अघोराचारमंडिता,
अघोरमंत्रसम्प्रीता अघोरमंत्रसम्पूजिता.     
देवी को अति शीघ्र प्रसन्न करने के लिए अंग न्यास व आवरण हवन तर्पण व मार्जन सहित पूजा करें
अब देवी के कुछ इच्छा पूरक मंत्र
1) देवी धूमावती का शत्रु नाशक मंत्र
ॐ ठ ह्रीं ह्रीं वज्रपातिनिये स्वाहा
सफेद रंग के वस्त्र और पुष्प देवी को अर्पित करें
नवैद्य प्रसाद,पुष्प,धूप दीप आरती आदि से पूजन करें
रुद्राक्ष की माला से 7 माला का मंत्र जप करें
रात्री में बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है
सफेद रंग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें
दक्षिण दिशा की ओर मुख रखें
अखरोट का फल प्रसाद रूप में चढ़ाएं
2) देवी धूमावती का धन प्रदाता मंत्र
ॐ धूं धूं सः ह्रीं धुमावतिये फट
नारियल, कपूर व पान देवी को अर्पित करें
काली मिर्च से हवन करें
रुद्राक्ष की माला से 7 माला का मंत्र जप करें
3) देवी धूमावती का ऋण मोचक मंत्र
ॐ धूं धूं ह्रीं आं हुम
देवी पूजा हेतु भस्म अर्पित करें
देवी को वस्त्र व इलायची समर्पित करें
रुद्राक्ष की माला से 5 माला का मंत्र जप करें
किसी बृक्ष के किनारे बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है
सफेद रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें
उत्तर दिशा की ओर मुख रखें
खीर प्रसाद रूप में चढ़ाएं
4) देवी धूमावती का सौभाग्य बर्धक मंत्र
ॐ ऐं ह्रीं धूं धूं धुमावतिये ह्रीं ह्रीं स्वाहा
देवी को पान अर्पित करना चाहिए
रुद्राक्ष की माला से 5 माला का मंत्र जप करें
एकांत में बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है
सफेद रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें
पूर्व दिशा की ओर मुख रखें
पेठा प्रसाद रूप में चढ़ाएं
5) देवी धूमावती का ग्रहदोष नाशक मंत्र
ॐ ठ: ठ: ठ: ह्रीं हुम स्वाहा 
देवी को पंचामृत अर्पित करें
रुद्राक्ष की माला से 6 माला का मंत्र जप करें
देवी की मूर्ती के निकट बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है
सफेद रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें
उत्तर दिशा की ओर मुख रखें
नारियल प्रसाद रूप में चढ़ाएं
देवी की पूजा में सावधानियां व निषेध-
बिना "धूम्रशिव" की पूजा के महाविद्या धूमावती की साधना न करें
लाल वस्त्र देवी को कभी भी अर्पित न करें
साधना के दौरान अपने भोजन आदि में गुड व गन्ने का प्रयोग न करें
देवी भक्त ध्यान व योग के समय भूमि पर बिना आसन कदापि न बैठें
पूजा में कलश स्थापित न करें 

विशेष गुरु दीक्षा-
महाविद्या धूमावती की अनुकम्पा पाने के लिए अपने गुरु से आप दीक्षा जरूर लें आप कोई एक दीक्षा ले सकते हैं
धूमावती दीक्षा
संकटा दीक्षा
अनादी दीक्षा
गुह्य दीक्षा
सर्वनाडी दीक्षा
भूचरीतेज दीक्षा
रूक्षा दीक्षा
मारण दीक्षा
शून्य दीक्षा
कच्छप दीक्षा.................आदि में से कोई एक

-कौलान्तक पीठाधीश्वर
महायोगी सत्येन्द्र नाथ

शुक्रवार, 22 जून 2018

इस मंत्र से जग जाएगी आपकी कुण्डलिनी शक्ति

कुण्डलिनी शक्ति मनुष्य की सबसे रहस्यमयी और बेहद शक्तिशाली उर्जा है.जिसके जाग जाने से व्यक्ति पुरुष से परम पुरुष हो जाता है.
कुण्डलिनी शक्ति को जगाना कोई आसन काम नहीं. बड़े-बड़े योगियों की भी उम्र बीत जाती है. तब जा कर कहीं कुण्डलिनी को जगा पाते हैं. किन्तु आप के लिए एक सरल उपाय भी है. जो इसको जगा कर आपको महापुरुष बना सकती है. अपने गुरु से शक्तिपात ले कर या आशीर्वाद ले कर मंत्र सहित कुण्डलिनी ध्यान करना शुरू करें. कुछ दिनों के प्रयास से ही कुण्डलिनी उर्जा अनुभव होने लगेगी. किन्तु इसका एक नियम भी है वो ये है की आपको नशों से दूर रहना होगा. मांस मदिरा या किसी तरह का नशा गुटका, खैनी, पान, तम्बाकू, सिगरेट-बीडी, मदिरा सेवन से बचते हुए ही ये प्रयोग करें, तो सफलता जरूर मिलेगी. इस प्रयोग को सुबह और शाम दोनों समय किया जा सकता है. ढीले वस्त्र पहन कर गले में कोई भी माला धारण कर लें और हाथों में मौली बाँध लें जो आपको मनो उर्जा देगी. फिर सुखासन में बैठ जाएँ, पर जमीन पर एक आसन जरूर बिछा लें. यदि संभव हो तो आसन जमीन से ऊंचा रखें. अब आँखें बंद कर तिलत लगाने वाले स्थान पर यानि दोनों भौवों के बीच ध्यान लगाते हुए मंत्र गुनगुनाये.

मंत्र-हुं यं रं लं वं सः हं क्षं ॐ

इस मंत्र में प्रणव यानि की ॐ का उच्चारण मंत्र के अंत में होता है जबकि आमतौर पर ये सबसे पहले लगाया जाने वाला प्रमुख बीज है. अब लगातार लम्बी और गहरी सांसे लेते हुए मंत्र का उच्चारण करते रहें तो आप देखेंगे की तरह-तरह के अनुभव आपको इस कुण्डलिनी मंत्र से होने लगेंगे. धीरे-धीरे स्पन्दन बढ़ने लगेगा. इस अवस्था में फिर गुरु का मार्गदर्शन मिल जाए तो ये उर्जा किसी भी कार्य में लगायी जा सकती है. भौतिक जगत में लगा कर आप अनेक प्रकार के भोग-भोग सकते हैं या चाहें तो योगिओं की भांति अनन्त का ज्ञान प्राप्त कर दुखों से मुक्त हो परम आनदमय मृत्यु रहित जीवन जी सकते है. कुण्डलिनी उर्जा का प्रयोग सदा अच्छे कार्यों में ही करना चाहिए अन्यथा उद्दंडता करने पर ये प्रकृति आपका विनाश भी कर सकती है.

-कौलान्तक पीठाधीश्वर
महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी महाराज

गुरुवार, 21 जून 2018

विक्षिप्त मार्ग

व्यक्ति मूढमति है ! ये तो जानता है कि ये सारा शरीर, ये देह मस्तिष्क से नियंत्रित होती है लेकिन ये मस्तिष्क कैसे कार्य करता है ? हमारे सर पर ब्रह्माण्डरुपी ये जो मस्तिष्क है ये कहीँ हमेँ जीवनी शक्ति प्रदान किये रहता है, अर्थात् जीवन से जोडे रहता है; लगातार कोई ऐसा संबंध है जो हमेँ उलझाए हुए है; और यदि हमने इस मस्तिष्क की कार्यप्रणाली को समज लिया तो हमारे सोचने के ढंग मेँ परिवर्तन तो आएगा ही आएगा; और इस बात को हम भलीभाँति समजते है । जब तक हम विक्षिप्त न हो जाएँ...जब तक हम पागल न हो जाएँ तब तक हम पागलपन के प्रभाव को समज नहीँ सकेंगे । धर्म क्या है ? बडे बखेडे होते है इस प्रश्न को लेकर । परमात्मा क्या है ? इसकी यदि चर्चा भी शुरु की जाए तो कल से ही युद्ध हो सकते है ! अपनी-अपनी परिभाषाएँ...अपने-अपने विचार ! और ये सभी मस्तिष्क से चलते है । मानवजीवन मेँ जो भी हो रहा है, जितने भी ये प्रपञ्च घटित हो रहे है इसके पीछे ये मस्तिष्क ही तो कार्य कर रहा है और मस्तिष्क तो उन्हीँ घटनाओँ के विषय मेँ बता सकता है जिसे इसने सीखा हो, देखा हो और उन्हीँ तत्त्वोँ के मध्य ये कल्पना कर सकता है अर्थात् जो शास्त्र मेँ कहा गया कि ये जो ब्रह्माण्ड मेँ जितना भी कुछ है वो सब हमारे इस पिण्ड मेँ है लेकिन मेँ ठीक उलटी बात कहने जा रहा हुँ...साधना कुछ पागलपन का विषय है... जब तक हम पागल न होँ हम इसे कैसे समज पायेंगे ? जरा गहराई से इस तथ्य को समजिए...शास्त्र ने कहा कि जो भी कुछ ब्रह्माण्ड मेँ है वो सब हमारे इस पिण्ड मेँ है लेकिन मैँ कहता हुँ कि जितना तुम्हारे पिण्ड मेँ हैँ ये ब्रह्माण्ड तुम्हारे लिए उतना ही है ! ठीक चिडिया के अण्डे की बात...बचपन मेँ मैँ अपने गुरुजनोँ से एक कहानी सुनता था कि एक चिडिया ने अण्डा दिया तो जब उस अण्डे से चुजा हुआ तो उसने सोचा कि जितना ये गोँसला है बस ये दुनिया तो शायद उतनी ही होगी । थोडा सा बडा हुआ (कुछ ताँक-झाँक करने के लायक) और अब जब उसने टहेनी से नीचे देखा और वृक्ष की विशालता को देखा तो उसे पता चला कि, अरे ! ये दुनिया तो और भी बडी है ! फिर जब उसने थोडा-थोडा उडना सीखा तो अपने आसपास के पर्वतोँ को देखा और कहा, अरे ! ये दुनिया तो इतनी ज्यादा बडी हैँ ! और जब एक दिन पंख पसार कर ऊँची उडान भरी तो जाना कि इस दुनिया का तो अनंत विस्तार है अर्थात् जितना-जितना हमारा मस्तिष्क विकसित होगा, हमारे लिए उतने ही तत्त्व जानने योग्य है ! इसलिए हम सभी मूढमति है क्योँकि हम गणित नहीँ जानते, विज्ञान नहीँ जानते, भाषा नहीँ जानते, व्याकरण नहीँ जानते, हम योग नहीँ जानते, हम तन्त्र नहीँ जानते, वास्तु, रसायण नहीँ जानते, हम तर्क-कुतर्क नहीँ जानते...हम चातुर्य भी नहीँ जानते अर्थात् जब हम ये सब जानते ही नहीँ तो हम मूढमति ही तो हुए, हम पागल ही तो हुए ! पागल भी दो प्रकार के : एक जिसने कुछ न जाना वो पागल, दुसरा जिसने सब कुछ जाना फिर भी पागल ! व्यक्ति विक्षिप्त ही तो है ! हमारा मन, देह सब कुछ पागलपन सा है और इसे समझने के लिए मस्तिष्क चाहिए और यदि हम मस्तिष्क को समझ जाएँ, इसकी क्रियाओँ का विश्लेषण करेँ तो शायद हमारे सोचने के तौर-तरीकोँ मेँ परिवर्तन आ जाएँ । हम जिन-जिन विषयोँ को फालतु समजते है कहीँ न कहीँ वे ही हम से गहरे तक जुडे हुए है...बहुत गहरे तक ! हम मेहनत से क्योँ कतराते है ? इसीलिए क्योँकि वल लगेगा और हम बल लगाना नहीँ चाहते ! हम स्वभाव से आलसी है. लापरवाह है और यही कारण है कि साधना-जगत मेँ हम आगे बढ़ नहीँ पा रहे ! अपने पागलपन को हम पहचाने भी तो कैसे पहचाने ? कोई उपाय ही नहीँ दिखता । स्वयं को देखने के लिए या तो हम जलाशय के जल मेँ स्वयं को निहारे अथवा कोई उजला दर्पण मिल जाए तो स्पष्टतः स्वयं को देख सके और ऐसी दोनोँ ही स्थितियाँ हमारे पास नहीँ ! हमारे लिए तो अध्यात्म, परमात्मा ये सब धर्म-जगत एक अन्धकार ही तो है ! मानो हम अंधेरे मेँ तीर मारते जा रहे होँ लेकिन क्या होगा ऐसे ? ठीक-ठीक कुछ भी मालूम नहीँ ! हमेँ कुछ ज्ञात है ही नहीँ फिर भी हम चाहते है, फिर भी हम मान बैठे है कि जिस राह पर हम चल रहे है, जो डगर हमने थामे रखी है वो सर्वश्रेष्ठ है ।

मैने सुना है, एक गाँव मेँ कुछ लोगोँ के पास स्फटिक के उजले पाषाण टूकडे थे । वे जो पाषाणखण्ड थे...बिलकुल काँच की भाँति निर्मल और स्वच्छ थे लेकिन थे तो स्फटिक ही; लेकिन किसी मूढमति व्यक्ति ने ये कह दिया कि, "ये स्फटिक नहीँ, ये तो हीरे है; अमूल्य रत्न है ।" और अब उन लोगोँ नेँ उन्हीँ साधारण से टूकडोँ को बहुत संभाल-संभालकर रखना शुरु कर दिया ! ज्युँ ही मनुष्य को ये पता चलेँ कि, फलाँ वस्तु अमूल्य है तो बस...ताले लग जाएँगे, उसकी रखवाली शुरु हो जाएगी; भले ही उसका मूल्य कुछ न हो । ठीक वैसे ही हमारी भी तो दुर्दशा है ! हमने हीरे के स्थान पर स्फटिक के पाषाण को पकडे रखा है और हम कहते है कि, "हम पूजा-पाठ कर रहे है, हम साधना कर रहे है, हम प्राणायाम कर रहे है ।" मात्र श्वास पर श्वास से परमात्मा न पाया जा सकेगा; लेकिन हाँ, इस तथ्य को नकारा भी नहीँ जा सकता कि इसका परमात्मा से कोई संबंध नहीँ; हालाँकि जगत मेँ जितनी भी वस्तुएँ है उसका परमात्मा से कोई संबंध नहीँ और परमात्मा से अलग भी नहीँ । ये ठीक वैसे ही है कि, इस पृथ्वी पर जितना जल है वो कहीँ न कहीँ बर्फ है, लेकिन हम ये नहीँ कह सकते कि, बर्फ ही जल है; लेकिन हम नकार भी नहीँ सकते कि बर्फ जल नहीँ ! बस रुप का अन्तर है । हम साधनाओँ को, हम परमात्मा को क्योँ नहीँ समज पा रहे ? बहुत साधारण सी बात है...ये मस्तिष्क !
चेतना की बात अथवा भीतर के अध्यात्म की बात ये तो बहुत बाद मेँ आनी चाहिए ना ! ये तो थोडी सूक्ष्म घटना है ! पहले स्थूलरुप से तो हम ठीक हो जाए ! भारतीय ऋषि परंपरा नेँ एक बहुत उत्तम बात कही जो मुझे प्रिय लगी...तुम भी करके देखो; उन्होनेँ कहा कि, "मन्त्र के माध्यम से मस्तिष्क अर्थात् सहस्त्रार कमलदल को जागृत किया जा सकता है ।" योग के अनुसार हमारे मस्तिष्क मेँ एक हजार कमल के पत्ते है अर्थात् बिन्दु हमारे मस्तिष्क मेँ एक हजार है और संपूर्ण जीवन मानव चार अथवा पाँच बिन्दुओँ के कारण अपना जीवन जी पाता है ! अर्थात् मात्र पाँच बिन्दू से ही संपूर्ण जीवन और इसकी क्रियाएँ हम करते है । यदि हम में से कोई व्यक्ति विलक्षण हुआ तो 6 अथवा 7 बिन्दू ही जागृत होंगे; लेकिन योग ने कहा कि, "तुम सहस्त्रार का जागरण कर सकते हो, तुम अलौकिक हो सकते हो, तुम दिव्य हो सकते हो, कुण्डलिनी जागरण करना होगा ।" अर्थात् मस्तिष्क में कहीं ये सब रहस्य छीपे पडे है और यही सार है ! हमें अपने ब्रह्माण्ड को समझना पडेगा । फिलहाल तो हम विक्षिप्त है ! फिलहाल तो हम पागलपन में डूबे हुए है ! और कोई पागल अपने आप को पागल नहीं कहता ! हरेक व्यक्ति अपने आप को बुद्धिमान समझता है ! अपने आप को चतुर समजता है ! लेकिन वास्तविकता ये है कि जितना हम अपने आप को चतुर समजते है, हम है नहीं । भौतिक चातुर्य की मैं बात नहीं कर रहा । मैं जीवन की उन समग्र चातुर्य की चर्चा लेकर बैठा हूँ जो वास्तव में हमारे भीतर होनी ही चाहिए, क्योंकि यदि वो है तो जीवन है और यदि वो नहीं है, तो जीवन नहीं है क्योंकि इस जीवन में "जीव जीवस्य भोजनम् ।" के आधार पर ही तो ये जगत चल रहा है; एक जीव दुसरे जीव का भोजन, अर्थात् जितनी जिसमेँ क्षमता हो वो जीतेगा; और क्षमता दैहिक कम आँकी जाती है क्योंकि इस दैहिक क्षमता से अधिक तो इस मस्तिष्क की क्षमता है और यही वो संयंत्र है जिसके माध्यम से अध्यात्म का बीज प्रस्फुरित होता है । एक आदमी दु:खी क्यों है जीवन में ? क्योंकि उसका मस्तिष्क इतना विकसित नहीं कि वो प्रत्येक पहलू को, प्रत्येक आयाम को समज सकें और उसे अपने जीवन में उतार सके । यदि मैं वैज्ञानिक हूँ तो फिर सामाजिकता का ज्ञान थोडा सा कम रह जाएगा और यदि मैं धार्मिक हूँ तो सामाजिक तत्त्वों का ज्ञान कम रह जाएगा और यही कारण है कि हम कभी पूर्ण न हो सकें । समजना तो दोनों को होगा । हालांकि लोग तो ये भी कहते है कि, "दो नावों पर सवारी करनेवाला डूबता है ।" लेकिन ये उदाहरण इस स्थिति के लिए नहीं बना क्योंकि ज्ञान ज्ञान ही है, दो कश्तियाँ नहीं, भले ही वो ज्ञान भौतिक हो अथवा आध्यात्मिक उसका संबंध प्रारंभिक रुप से इस मस्तिष्क के साथ जुडा है । जब तक ये मस्तिष्क प्रखर न हो, जब तक ये दिमाग अपने तीव्रतम सोपान तक ना पहुँचे तब तक क्या होनेवाला ? कुछ भी समज ना आए । और हाँ...ठीक संत कालिदास जैसे, कि जिस पेड की टहनी पर बैठे है उसे ही काटते रहते है । हालाँकि प्रत्येक प्राणी यही कर रहा है, हर व्यक्ति ये जानता है कि मैं सदा-सदा के लिए पृथ्वी पर नहीं आया, तो भी मन तो नहीं मानता ना ! ये सामाजिक आवश्यकताएँ, परिवार, समाज...फसाए ही तो रखता है । माँ पूछेगी तुमने क्या कर लिया जीवनभर, पिता भी पूछेंगे आपने क्या कर लिया ? समाज कहेगा, तुम्हारा मेरे लिए क्या योगदान ? सबकी अपनी-अपनी इच्छाएँ है तुम्हारे से लेकिन तुम अपने लिए ही खरे नहीं उतर पा रहे तो समाज और के लिए क्या उतरोगे ? और इन सबका संबंध तुम्हारे मन और मस्तिष्क से है । तो अध्यात्म की सीडी पर जब कदम रखने की बारी आ गयी हो तो समज लेना कि पहले यात्रा कैसे शुरु की जाए । इस मस्तिष्क को जागृत करने का प्रयास हो...इसके छोटे-छोटे प्रयोग है और वो तुम करो, जैसे त्राटक । योग्य गुरु के सानिध्य में कुछ-कुछ समय तक यदि हम नित्य त्राटक करे तो इससे कुछ अलौकिकता अनुभव अवश्य होगी । दुसरा संगीत, कि हम आलाप सुनें और आलाप में खो जाए. संगीत भोंडा ना हो, उसका विकास से कोई संबंध हो अश्लीलता से नहीं । सबसे श्रेष्ठ प्रकृति, कि तुम प्रकृति में विचरो, हिमालयों को निहारो, वृक्षों को निहारो, वनों को निहारो तृप्ति मिल जाएगी । और इन सबसे भी श्रेष्ठ प्राणायाम, प्राणायाम से भी श्रेष्ठ मन्त्र ।

जैसे लोग माँ सरस्वती के मन्त्रों का जप करते थे : ॐ ऐं ह्रीं ऐं सरस्वत्यै नमः ॥
इस प्रकार से अनेकों मन्त्र है, ये तो एक उदाहरण है । लेकिन जब हम इन मन्त्रों का प्रयोग करते है, जब हम प्राणायाम का अभ्यास करते है, त्राटक का अभ्यास करते है, ध्यान करते है...तो वास्तव में ये सब क्रियाएँ हमें तराशने के लिए है; शायद इस से हमारा मस्तिष्क तीव्र हो सके, शायद हमारा विकास हो सके और विकास तो विकास है; वो दोहरा होता है, एकतरफा नहीं, हमेशा जिसका एकतरफा विकास हुआ है तो वो चातुर्य है, विकास नहीं अर्थात् जब तुम अध्यात्म में विकसित हो, साथ ही साथ भौतिकता में भी विकसित होते जाते हो । जिस ऋषि के पास जितना-जितना तप आता जाता है उसके पास कामधेनु जैसी अनेकों अलौकिक सिद्धियाँ भी तो होती है ! उतना स्वर्ण, धन अथवा रत्न भी तो उसके पास रहता है, उतनी शक्तियाँ भी तो उसके पास रहती है ! तो मूल विषय है कि मस्तिष्क के तन्तुओँ को जरा हिलाना है, झकझोरना है ताकि मस्तिष्क का रोम-रोम, इसके छिद्र-छिद्र चैतन्य हो ताकि हमें गणित भी आए, भाषा का ज्ञान भी हो, हम व्याकरण को भी समज सके, हम धर्म को भी समज सके और भौतिकता को भी ! हर क्षेत्र में हमारा हाथ होना ही चाहिए । ऐसा न हो कि तुम यदि धार्मिक हो तो मात्र मन्त्र, योग अथवा कर्मकाण्ड तक ही सीमित रहो । मैं तो ये कहता हूँ कि यदि एक हाथ में तुम्हारे धर्म है तो उसे मजबूती से थामे रखो और दुसरे हाथ में जगत को भी थामे रखो पर स्वयं दोनों से दूर रहना क्योंकि जो धर्म व्याख्या में आनेवाला है वो फिर दिखावे का होगा, उसका संबंध जगत से है और दोनों बनावटी है और वास्तविक साधना नहीं हो सकेगी । आम तौर पर हम जो प्रवचन देते है अथवा सुनते है वो मात्र या तो देने के लिए होता है अथवा सुनने के लिए ! प्रवचनकर्ता स्वयं ये नहीं जान पाता कि मैने आज क्या-क्या उदाहरण दिये, मैने आज क्या-क्या कहा ! वो तो बस कहता जाएगा और भूलता चला जाएगा क्योंकि उसे तो शब्दों की बनावट से अपना मतलब है और तुम्हें प्रभावित करने से और तुम नयी सामग्री के भूखे हो कि आज क्या नया बताया जाएगा, आज मैँ क्या नया सीख लूँ ! जबकि वास्तविकता से उसका कोई लेनादेना नहीं; इसलिए जब मस्तिष्क प्रखर होगा, इसमें जरा चेतना आएगी तो हम इन छद्म आवरणों से मुक्त हो जाते है और यही तो मैं चाहता हूँ । अब बहूत हो चूके है प्रपंच, तुमने दस साल, पाँच साल, बीस साल, तीस साल तक अपनी साधनाएँ करके देख ली, अपने मन्त्रजप करके देख लिए, अपना योगाभ्यास करके देख लिया; क्या मिला ? सपनें तो तुम्हे बहुत दिखाए थे कि, प्राणायाम कर लो तुम युवा ही रहोगे । तीन साल हो गये, तुम प्राणायाम कर रहे हो लेकिन आज फिर उसी ढर्रे पर लौट आये हो जहाँ पहले थे ! रुपांतरण नहीं हो पा रहा ! देह लगातार क्षय होती जा रही है अब क्या करे ? और जब तक हम इन समस्त बिन्दुओँ पर चर्चा न कर ले...परमात्मा की चर्चा कैसे कर सकते है ! वो परमेश्वर तो परम पुनित है, परम पावन है ! थोडा सा उलटा जरुर सोच लेना क्योंकि तभी तुम सीधे रास्ते पर आओगे । अभी मैं तुम्हे जो बातें बता रहा हूँ इससे तुम्हे थोडा सा विमुख होना है परमात्मा से लेकिन जब तुम थोडा सा विमुख होते हो तभी तुम वास्तविक परमात्मा को जान पाते हो । याद रहे, अभी असली और नकली दो परमात्मा है और अभी तुमने नकली परमात्मा पकड रखा है और उसकी खोज कर रहे हो और खोज का तरीका भी नकली है, तुम्हारा अपना बनाया हुआ है जिसकी कोई वैज्ञानिकता नहीं, जिसकी कोई प्रामाणिकता नहीं । जो बस है...विद्यमान होने के लिए है । लेकिन मैं चाहता हूँ कि तुम्हारा मस्तिष्क इतना विकसित हो जाए जितना योग ने कहा कि, "सहस्त्रों पर्ण जागृत हो जाए !" और ज्युँ ही तुम्हारे सहस्त्रों पर्ण जागृत होंगे...परम प्रज्ञा...परम चेतना तुम्हारे भीतर उतरेगी और अब तुम नकली परमात्मा को पकडे न रखो ! अब शाश्वत यात्रा शुरु होती है । मेरी दृष्टि में तीर्थयात्रा क्या है ? तीर्थ यात्रा है वो यात्रा जिससे सत्य का ज्ञान हो जाए; फिर वो यात्रा चाहे गुरु के घर की हो, गुरु-आश्रम की हो, किस हिमालय के प्रांत की हो, गंगाजी के तट की हो, हरिद्वार, काशी, वृंदावन, मथुरा की हो इससे फर्क नहीं पडता । अगर तुम्हें कसाई के घर जाकर भी ज्ञान मिलता है, तुम सत्य को पा जाते हो तो समजना वो कसाई का घर ही तुम्हारे लिए तीर्थ है और जिस तीर्थ में रहकर भी तुम्हारी चेतना ना जगे तो वो तीर्थ भी तुम्हारे लिए साधारण गाँव है, साधारण स्थलमात्र है और इन सबका संबंध तुम्हारी चेतना, मन और मस्तिष्क से है । इसलिए पागलपन के इस हद को नष्ट करना है; एक पागलपन को खत्म करना है जो जगत का है और दुसरा पागलपन पैदा करना है जो अध्यात्म का है, है तो पागलपन ही...अब परिभाषाएँ अपनी-अपनी हो सकती है । तो छद्म धर्म और वास्तविक धर्म : अंतर तो दोनों में बहुत है लेकिन हम समजने को राजी नहीं, हम सुनने को राजी नहीं । जब कोई सच्चाई कहता है तो हम दोनों उँगलियाँ अपने कानों में रख लेते है, हम सुनना नहीं चाहते । यही वो नकारात्मकताएँ है जिससे हमारा साधनात्मक विकास नहीं हो पा रहा, हम साधना नहीं कर पा रहे और हम अपूर्ण रह जाते है । अतः हमें नये सिरे से खोज करनी होगी । अतः हमें अपने मस्तिष्क को प्रखर करना होगा; इसके लिए जो छोट-छोटे प्रयोग है वे करके देखने होंगे; तभी हम विकसित हो पाएँगे और इन सबका सूत्र ये भौतिक मस्तिष्क है, इसलिए पहले इसकी तरफ ध्यान दो, इस देह को सुदृढ करो, इस देह को मजबूत रखो और इस मस्तिष्क को तीव्र बनाओ, ह्रदय को कुंठाओ से मुक्त बना दो; जैसे ही ये होगा तुम्हारी साधनाएँ तब सफल होंगी, तुम्हारा मार्ग तब प्रशस्त होगा । इसलिए अपनी मूढताओं को समझना, उनका विश्लेषण करना, उनका आँकलन करना अति अनिवार्य है । एकदम तो नहीं हो पाएगा लेकिन प्रयास करोगे तो हो जाएगा, इसलिए नीचली सीडी से ही सही लेकिन तुम प्रयास करने की कोशिश तो करो ! - ईशपुत्र

सोमवार, 18 जून 2018

आयुर्वेद और महायोगी

सृष्टि में स्थित सनातन तत्वों, पदार्थों, बनस्पतियों व पंचतत्वों आदि के गुणों का रोग नाश एवं मानसिक बौधिक वैचारिक स्वास्थ्य लाभ के लिए व आयु बृद्धि के लिए शास्त्र सम्मत विधि का प्रयोग ही किसी को आयुर्वेदाचार्य बना सकता है, कौलान्तक पीठाधीश्वर महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी महाराज ने ग्रन्थत्रयी (चरक संहिता, काश्यप संहिता, सुश्रुत सहित) का अध्ययन कर दो गुरुओं से आयुर्वेद का दिव्य ज्ञान प्राप्त किया, परम पूज्य बेदमुनि जी से औषधि निर्माण की विधि सीखी, श्री वेद मुनि जी को तरह-तरह की औषधि के निर्माण की सैकड़ों विधियाँ आती थीं, औषधियों के निर्माण के लिए उनका रस बनाना, मिश्रित कर चूर्ण बनाना, अवलेह तैयार करना, या फिर तेल आदि बनाने की विधियों को महायोगी जी नें सीखा, महायोगी सुबह ब्रह्ममुहूर्त में ही औषधि निर्माण के लिए लोहे की डंडा-कुण्डी ले कर औषधियों को कूट-पीस कर तैयार करते, धीमी आंच में दावा तैयार करते, इनसे ही नाडी परीक्षण व रोग ज्ञान महायोगी जी नें सीखा, किन्तु वेद मुनि जी बनों में उगी हुयी जड़ी-बूटियों को नहीं पहचान पाते थे, इसलिए महायोगी जी हिमालय के एक वैद्य शिरोमणि शंकर नाथ जी महाराज के पास गए, उनके साथ रहते हुए और हिमालय विचरण करते हुए महायोगी जी नें अनेक दुर्लभ जडी-बूटियों का ज्ञान प्राप्त किया, गुरुवर शंकर नाथ वैद्य बनों में बहुत ज्यादा समय व्यतीत करते थे, उनके पास एक झोली सदा रहती और उसमें तरह-तरह की औषधियां पड़ी रहती थी, शुरूआती दिनों में महायोगी जी को बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, क्योंकि एक जड़ी-बूटी की जैसी शक्ल सूरत होती, उस जैसी ही कई और जड़ी-बूटियाँ भी होती तो बिलकुल मिलती जुलती होने के कारण गलत उखाड़ लाते, उदहारण के लिए गूगल एक साधर जड़ी-बूटी मानी जाती है, किन्तु गूगल की मादा प्रजाति जिसे गूगली कहा जाता है बिलकुल वैसी ही होती है, किन्तु उखाड़ कर जड़ देखने से पता चल जाता है, जब व्यक्ति कुशल हो जाए तो दूर से ही देख कर इनमें अंतर पता कर लेता है, महायोगी जी नें यहीं औषधियों का पूजन उनके मंत्र ज्योतिषानुसार उपाय एवं टोटके और प्रयोग भी सीखे, कुछ अत्यंत दिव्य औषधियों को जाना व देवी-देवताओं की प्रिय औषधियों पर महीनों नजर रखी, उनको छोटे से ले कर उगते हुए और पकते हुए स्वयं देखा, इस दौरान हिमालयों के दिव्य पुशापों से भी महायोगी जी का परिचय हुआ, सीखने की उत्कंठा व छोटी आयु नें जल्द ही इस कार्य में महायोगी जी को माहिर बना दिया, हिमालय के बनों से कई रंग के जहरीले कुकुरमुत्ते ला कर उनका औषधि रूप में प्रयोग करते, इसी दौरान महायोगी जी स्थानीय देवता के गुर यानि माध्यम श्री गिरधारी जी के संपर्क में आये जो कुछ एक औषधियों के चमत्कारी टोटके जानते थे. निरक्षर होने के बाबजूद उनको बहुत सी औषधियों का ज्ञान था. हिमालयों पर औषधियां देवी देवताओं यक्षों और जोगिनियों की संपत्ति होती हैं. उनकी इच्छा के विरुद्ध जडी-बूटी लाना बेहद मूर्खतापूर्ण है क्योंकि उनका प्रभाव केवल दस प्रतिशत ही रह जाता है, उनके सान्निध्य का महायोगी जी को बहुत लाभ मिला. आयुर्वेद से ले कर तंत्र और पूजा क्रम का अभ्यास जारी रहा.
फोटो- यहाँ गिरधारी जी के साथ महायोगी जी का एक पुराना चित्र है...

योग और महायोगी

कौलान्तक पीठाधीश्वर महायोगी सत्येन्द्र नाथ की अद्भुत साधनों को देख कर कोई भी आश्चर्यचकित रह जाएगा, बाल्यकाल से ही हिमालयों के शिखरों पर उनका महासाम्राज्य रहा, किसी हिम तेंदुए की तरह महायोगी किसी भी पर्वत पर आने जाने में बहुत ही सहज थे, बनों बनों घूमना कोई सरल कार्य नहीं, किन्तु महायोगी जंगली जानबरों की परवाह किये बिना शान से विचरण करते हैं, क्योंकि वो हिमालयों व पर्वतीय बनों के हर राज को जानते हैं, योग को सिद्ध करना या साधारणतय: सीखना भी बहुत जटिल होता है, वैराग्य भाव के बीच ही कठोर अभ्यास करते हुए गुरु के दिशा निर्देश में एक-एक आसन, प्राणायाम, आचार-विचार, व्यवहार को समझाना और सीखना पड़ता है, जो सीखा उसे प्रयोग पर उतारना भी होता है, योग भीतर के ऐसे संसार से परिचय करवाता है कि कोई उसकी व्याख्या तक ठीक से नहीं कर पाता, रात ठीक तीन बजे के करीब उठा जाने वाले महायोगी जी के लिए ये सब सहज ही था, इसलिए नहीं कि वो कोई चमत्कारिक पुरुष जन्म-जात थे, बल्कि इसलिए कि एक तो वो हिमालय के निकट पैदा हुए साथ ही दैवयोग से अत्यंत सिद्ध गुरु प्राप्त हुए, फिर उनकी अपनी अगाध गुरु भक्ति, इन सबने मिल कर महायोगी को योग का ऐसा दिव्य पुरुष बना दिया कि छोटी सी अवशता में ही गुरुजनों की देख-रेख में ध्यान लगाते-लगाते आंशिक समाधि तक पहुँचने लग गए, योग में महायोगी जी की कुशलता देखते ही बनती है, हिमालयों पर प्रमुख आसनों के अतिरिक्त भी महायोगी जी नें लगभग तीन हजार से ज्यादा योगासनों को सीखा, प्रकटयोग यानि की ग्रंथों में लिखा गया योग व गुप्तयोग यानि कि केवल गुरु शिष्य परम्परा के अनुसार दिया जाने वाला व सिखाया जाने वाला योग महायोगी जी को पूर्णतया प्राप्त हुआ, शैवकुल व शाक्तकुल का चक्र आधारित योग, 72 प्राणायामों सहित विविध मुद्राओं, बंधों आदि का ज्ञान लिया, महाऋषि पतंजलि सहित, पञ्चशिखाचार्य, जैगीश्व्याचार्य, वार्षगण्याचार्य सहित कई आदि ऋषियों के कुल का योग ज्ञान पाया,
योग सिद्धि सरलता से प्राप्त नहीं होती, ब्रह्मचर्य आदि के कठोर सिद्धांतों की महायोगी जी को इस लिए भी जरूरत नहीं पड़ी क्योंकि वो तो तीन चार वर्ष की आयु से गुरु के पास योग का ज्ञान पा रहे थे, योग के यम नियमों सहित ईश्वर प्रणीधान आदि को सीखते हुए काफी समय लग गया लगभग सात वर्ष की आयु पार हो जाने के बाद महायोगी जी को हिमालय में योग का अभ्यास करने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ, सबसे पहले महायोगी के योग का गवाह बना गरुडासन पर्वत, जहाँ महायोगी जी नें ध्यान की सीमाओं से पार समाधि की और जाना शुरू कर दिया, गरुडासन पर्वत से मीलों-मीलों तक कोई मानव सभ्यता ही नहीं है, शीतल पहाड़ी क्षेत्र और बिलकुल एकांत पवित्र स्थल है ये पर्वत, योग की विविध विधाएं हैं जैसे हठयोग, राजयोग, नादयोग, भक्तियोग,मन्त्रयोग आदि-आदि, महाकाल शिव प्रणीत इस परम विद्या को सीखा तो जा सकता है पर इसका अभ्यास देख कर ही डर लगने लगता है, याज्ञवल्क्य आदि ऋषियों सहित गुरु गोरक्षनाथ प्रणीत योग का सहारा लेते हए ही महायोगी का योग जीवन आगे गति कर पाया है,
हिमालयों के परम शिखरों जैसे कृष पर्वत, वक्र पर्वत, मुखर पर्वत, नाग पर्वत, इन्द्रासन पर्वत, जोगिनी पर्वत, श्रुति पर्वत आदि पर पर योग का अनुसंधान आम व्यक्ति को भी योगी बना सकता है, फिर महायोगी जी जैसे पुरुष को दिव्य होने में भला कितना समय लगता? लगभग 12 वर्ष की लघु आयु में ही गुरु पद प्राप्त करने वाले महायोगी जी का बचपन इतना लुभावन रहा है कि बालक योगी के पास कई बृद्ध सन्यासी शिष्यों का समूह हो गया, सब बस यही चाहते थे कि उनको महायोगी का साथ मिले ताकि वो भी योग की महा साधना को सीख सकें, प्राण ऊर्जा को प्राप्त हो चुके महायोगी, बहुत से सन्यासियों को बाल्यकाल में ही सूर्य योग आदि सिखा चुके हैं, महायोगी जी के साथ बहुत से सन्यासियों को हिमालय पर विचरण करने का सुअवसर भी प्राप्त हुआ, यही अच्छी बात भी रही क्योंकि इन लोगों नें महायोगी जी की तस्वीरों को अपनें कैमरों में कैद किया, जो अब हम ढूंढ-ढूंढ कर आपके सामने लाते रहते हैं, हालाँकि अभी तक बहुत पुराने चित्र नहीं मिल पाए हैं, किन्तु कुछ जो उपलब्ध हुए है हम आपको दिखा रहे है................

शनिवार, 16 जून 2018

शिव की औघड़ साधना

प्रस्तुत चित्र के सम्बन्ध में कौलान्तक पीठ को बहुत से मेल प्राप्त हुए हैं कि क्या ये फोटो असली है या नकली या ग्राफिक्स है या मेकअप ? आदि-आदि........आप सब सुधि साधकों के लिए हम ये बताना चाहेंगे कि कौलान्तक पीठ कोई भी कृत्रिम चित्र आपके समक्ष नहीं रखता और न ही इसमें विश्वास रखता है. क्योंकि कौलान्तक पीठाधीश्वर नहीं चाहते कि लोग उनकी बड़ाई करें या उनके पीछे चलें.ये चित्र एक ही नहीं है बल्कि आठ दस उपलब्ध हैं अलग-अलग स्थानों से खीचे गए हैं. इसमें महायोगी जी शिव की औघड़ साधना साधना कर रहे हैं. इस साधना को बिना किसी इच्छा या कामना के किया जाता है. शरीर पर प्रतिदिन मिटटी मली जाती है व शरीर पर फेंकी जाती हैं. आपको चित्र में ऊपर से गिरी मिटटी साफ नजर आ रही होगी. साथ ही आपको ये बताना चाहेंगे कि ये छोटे-छोटे कीड़े हानि रहित होते हैं व मनुष्य को नहीं काटते, बरसात के दिनों में हर कहीं सरलता से पाए जाते हैं. बस अंतर केवल इतना है कि कुछ लोग बाहर के शरीर को देख कर प्रभावित होते है जबकि हमें और साधकों को भीतर की चिंता होती है.......क्योंकि ये सब जानते हैं कि महायोगी जी लम्बे-लम्बे समय तक बिना भोजन किये रहते हैं जिससे उनकी हालत बहुत खराब हो जाती है.इस स्थान पर महायोगी जी बहुत दिनों तक साधनारत रहे थे. ये चित्र एक साधारण चित्र है जबकि भविष्य में महायोगी जी के इससे भी अद्भुत चित्र हम प्रस्तुत करेंगे. किन्तु आपसे प्रार्थना है कि ऐसा करने का प्रयास बिना योग्य निर्देश के न करें. भविष्य में भी कोई संदेह होने पर केवल ई मेल कर दिया करें.......भारत अफवाहों का देश है. यहाँ लोग वास्तविकता नहीं जानना चाहते. केवल राय प्रस्तुत करते हैं जो सदा स्थिति बिगाड़ देता है. हम केवल भारत के वास्तविक योगियों का एक स्वरुप आपके सामने रखने का प्रयास करते हैं. कौलान्तक पीठाधीश्वर महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी महाराज कहते हैं कि उनको "न तो आपके द्वारा दिए गए पैसे या दान आदि ही चाहिए न ही आपकी प्रशंसा या स्तुति और न ही वो किसी से मिलना चाहते हैं.........वे बनों और हिमालयों में प्रसन्न हैं........बुद्धि जीवियों की दुनियां से दूर.....जैसे धतूरे का फूल बद्वूदार होता है...जहरीला होता है......फिर भी शिव उसे स्वीकारते हैं....वैसे ही मैं अवगुणी हूँ.....बाकि लोगों जैसा गुणवान...विद्वान....सुन्दर.....तपस्वी....तार्किक.....या वैज्ञानिक......नहीं.....न ही कोई बड़ा चिन्तक हूँ........बस मूढ़ शिव भक्त हूँ........धतूरे जैसा......पर शिव का हूँ."
आशा है आप भारतीय सनातन पर चोट करने वालों से सजग रहेंगे. क्योंकि हमें बाहरी तत्वों से कम किन्तु अपने लोगों से सदा खतरा अधिक रहा है-ॐ नम: शिवाय-कौलान्तक पीठ टीम-हिमालय.

श्री बगलामुखी महाविद्या

होगा महाभय का नाश

शत्रु मिटेंगे-मिलेगी सफलता

पुत्र,पत्नी, परिवार और संपत्ति की होगी सुरक्षा

जीवन में हर ओर मिलेगी सफलता ही सफलता

आ गयी है शत्रु बाधा नाशक



"बगलामुखी महाविद्या"



प्राण तोषिनी नामक ग्रन्थ में निहित कथा के अनुसार एक बार सतयुग में विश्व को नष्ट करने वाला ब्रह्मांडीय तूफान उत्तपन्न हुआ, जिससे अनेकों लोक संकट में पड़ गए, विश्व की रक्षा करना लगभग असंभव हो गया, ब्रह्मांडीय तूफान सब कुछ नष्ट भ्रष्ट करता हुआ आगे बढ़ रहा था, जिसे देख कर जगत की रक्षा में लीन भगवान् विष्णु जी को अत्यंत चिंता हुई, कोई हल न पा कर वे शिव को स्मरण करने लगे, तब शिव नें कहा कि शक्ति के सिवा इसे कोई नहीं रोक सकता, आप उनकी शरण में जाएँ, तब भगवान् विष्णु पृथ्वी पर आये, उनहोंने सौराष्ट्र देश में हरिद्रा सरोवर के निकट पहुँच कर घोर तपस्या आरम्भ कर दी, तब देवी शक्ति उनकी साधना से प्रसन्न हुई और उस समय मंगलबार चतुर्दशी की रात्री को देवी भगवान विष्णु की मनशा को जान कर बगलामुखी के रूप में प्रकट हुई, त्र्येलोक्य स्तम्भिनी महाविद्या भगवती बगलामुखी नें प्रसन्न हो कर विष्णु जी को इच्छित वर दिया, तब भगवान् विष्णु जी सृष्टि को विनाश से रोक पाए, देवी को बीर रति भी कहा जाता है क्योंकि देवी स्वम ब्रह्मास्त्र रूपिणी हैं, इनके शिव को एकवक्त्र महारुद्र कहा जाता है इसी लिए देवी सिद्ध विद्या है



शत्रु भय को नष्ट करने वाली देवी का नाम है बगलामुखी, माँ बगलामुखी को पीताम्बरा कहा जाता है क्योंकि वो पीले वस्त्र धारण करने वाली देवी तथा पीत वर्ण प्रिया हैं, देवी माँ की किसी भी रूप की गयी साधना बना सकती है महाबलशाली, जीवन के समस्त क्लेशों का अंत करने की क्षमता वाली देवी ही बगलामुखी हैं, सृष्टि की स्तम्भन शक्ति के रूप में देवी को त्रिलोकी जानती एवं पूजती है, ये सारी सृष्टि देवी की कृपा से ही अपने पथ और परिपाटी पर स्थित हो चल रही है

शास्त्रों में देवी को ही ब्रह्म विद्या कहा गया है, देवी की कृपा से साधक त्रिकालदर्शी होने के साथ-साथ भोग और मोक्ष दोनों प्राप्त करता है, साधक को सदा ही देवी की सौम्य रूप में साधना पूजा करनी चाहिए, देवी रत्नजडित सिहासन पर विराजती हैं और रत्नमय रथ पर आरूढ़ हो शत्रुओं का नाश करती हैं, पीले फूल और नारियल चढाने से देवी होतीं हैं प्रसन्न, देवी के भक्त को तीनो लोकों में कोई नहीं हरा पता, जीवन के हर क्षेत्र में सफलता के लिए देवी को पीली हल्दी के ढेर पर दीपक जला कर चढ़ाएं, देवी की मूर्ती पर पीला गोटेदार वस्त्र चढाने से बड़ी से बड़ी बाधा भी नष्ट होती है, बगलामुखी देवी के मन्त्रों से होता है सारे दुखों का नाश, देवी माँ का स्वत: सिद्ध महामंत्र है-

                       

श्री सिद्ध बगलामुखी देवी महामंत्र

ॐ ह्लीं बगलामुखी देव्यै सर्व दुष्टानाम वाचं मुखं पदम् स्तम्भय जिह्वाम कीलय-कीलय बुद्धिम विनाशाय ह्लीं ॐ नम:



इस मंत्र से काम्य प्रयोग भी संपन्न किये जाते हैं जैसे

1. मधु. शर्करा युक्त तिलों से होम करने पर मनुष्य वश में होते है।

2. मधु. घृत तथा शर्करा युक्त लवण से होम करने पर आकर्षण होता है।

3. तेल युक्त नीम के पत्तों से होम करने पर विद्वेषण होता है।

4. हरिताल, नमक तथा हल्दी से होम करने पर शत्रुओं का स्तम्भन होता है।



1) भय नाशक मंत्र

अगर आप किसी भी व्यक्ति वस्तु परिस्थिति से डरते है और अज्ञात डर सदा आप पर हावी रहता है तो देवी के भय नाशक मंत्र का जाप करना चाहिए

ॐ ह्लीं ह्लीं ह्लीं बगले सर्व भयं हन

पीले रंग के वस्त्र और हल्दी की गांठें देवी को अर्पित करें

पुष्प,अक्षत,धूप दीप से पूजन करें

रुद्राक्ष की माला से 6 माला का मंत्र जप करें

दक्षिण दिशा की और मुख रखें



2) शत्रु नाशक मंत्र

अगर शत्रुओं नें जीना दूभर कर रखा हो, कोर्ट कचहरी पुलिस के चक्करों से तंग हो गए हों, शत्रु चैन से जीने नहीं दे रहे, प्रतिस्पर्धी आपको परेशान कर रहे हैं तो देवी के शत्रु नाशक मंत्र का जाप करना चाहिए

ॐ बगलामुखी देव्यै ह्लीं ह्रीं क्लीं शत्रु नाशं कुरु

नारियल काले वस्त्र में लपेट कर बगलामुखी देवी को अर्पित करें

मूर्ती या चित्र के सम्मुख गुगुल की धूनी जलाये

रुद्राक्ष की माला से 5 माला का मंत्र जप करें

मंत्र जाप के समय पश्चिम कि ओर मुख रखें



3) जादू टोना नाशक मंत्र

यदि आपको लगता है कि आप किसी बुरु शक्ति से पीड़ित हैं, नजर जादू टोना या तंत्र मंत्र आपके जीवन में जहर घोल रहा है, आप उन्नति ही नहीं कर पा रहे अथवा भूत प्रेत की बाधा सता रही हो तो देवी के तंत्र बाधा नाशक मंत्र का जाप करना चाहिए

ॐ ह्लीं श्रीं ह्लीं पीताम्बरे तंत्र बाधाम नाशय नाशय

आटे के तीन दिये बनाये व देसी घी ड़ाल कर जलाएं

कपूर से देवी की आरती करें

रुद्राक्ष की माला से 7 माला का मंत्र जप करें

मंत्र जाप के समय दक्षिण की और मुख रखे



4) प्रतियोगिता इंटरवियु में सफलता का मंत्र

आपने कई बार इंटरवियु या प्रतियोगिताओं को जीतने की कोशिश की होगी और आप सदा पहुँच कर हार जाते हैं, आपको मेहनत के मुताबिक फल नहीं मिलता, किसी क्षेत्र में भी सफल नहीं हो पा रहे, तो देवी के साफल्य मंत्र का जाप करें

ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं बगामुखी देव्यै ह्लीं साफल्यं देहि देहि स्वाहा:

बेसन का हलवा प्रसाद रूप में बना कर चढ़ाएं

देवी की प्रतिमा या चित्र के सम्मुख एक अखंड दीपक जला कर रखें

रुद्राक्ष की माला से 8 माला का मंत्र जप करें

मंत्र जाप के समय पूर्व की और मुख रखें



5) बच्चों की रक्षा का मंत्र

यदि आप बच्चों की सुरक्षा को ले कर सदा चिंतित रहते हैं, बच्चों को रोगों से, दुर्घटनाओं से, ग्रह दशा से और बुरी संगत से बचाना चाहते हैं तो देवी के रक्षा मंत्र का जाप करना चाहिए

ॐ हं ह्लीं बगलामुखी देव्यै कुमारं रक्ष रक्ष

देवी माँ को मीठी रोटी का भोग लगायें

दो नारियल देवी माँ को अर्पित करें

रुद्राक्ष की माला से 6 माला का मंत्र जप करें

मंत्र जाप के समय पश्चिम की ओर मुख रखें



6) लम्बी आयु का मंत्र

यदि आपकी कुंडली कहती है कि अकाल मृत्यु का योग है, या आप सदा बीमार ही रहते हों, अपनी आयु को ले कर परेशान हों तो देवी के ब्रह्म विद्या मंत्र का जाप करना चाहिए

ॐ ह्लीं ह्लीं ह्लीं ब्रह्मविद्या स्वरूपिणी स्वाहा:

पीले कपडे व भोजन सामग्री आता दाल चावल आदि का दान करें

मजदूरों, साधुओं,ब्राह्मणों व गरीबों को भोजन खिलाये

प्रसाद पूरे परिवार में बाँटें

रुद्राक्ष की माला से 5 माला का मंत्र जप करें

मंत्र जाप के समय पूर्व की ओर मुख रखें




7) बल प्रदाता मंत्र

यदि आप बलशाली बनने के इच्छुक हो अर्थात चाहे देहिक रूप से, या सामाजिक या राजनैतिक रूप से या फिर आर्थिक रूप से बल प्राप्त करना चाहते हैं तो देवी के बल प्रदाता मंत्र का जाप करना चाहिए

ॐ हुं हां ह्लीं देव्यै शौर्यं प्रयच्छ

पक्षियों को व मीन अर्थात मछलियों को भोजन देने से देवी प्रसन्न होती है

पुष्प सुगंधी हल्दी केसर चन्दन मिला पीला जल देवी को को अर्पित करना चाहिए

पीले कम्बल के आसन पर इस मंत्र को जपें

रुद्राक्ष की माला से 7 माला मंत्र जप करें

मंत्र जाप के समय उत्तर की ओर मुख रखें



8) सुरक्षा कवच का मंत्र

प्रतिदिन प्रस्तुत मंत्र का जाप करने से आपकी सब ओर रक्षा होती है, त्रिलोकी में कोई आपको हानि नहीं पहुंचा सकता

ॐ हां हां हां ह्लीं बज्र कवचाय हुम

देवी माँ को पान मिठाई फल सहित पञ्च मेवा अर्पित करें

छोटी छोटी कन्याओं को प्रसाद व दक्षिणा दें

रुद्राक्ष की माला से 1 माला का मंत्र जप करें

मंत्र जाप के समय पूर्व की ओर मुख रखें



-कौलान्तक पीठाधीश्वर

महायोगी सत्येन्द्र नाथ

महाविद्या छिन्नमस्ता प्रयोग


शोक ताप संताप होंगे छिन्न-भिन्न

जीवन के परम सत्य की होगी प्राप्ति

संसार का हर्रेक सुख आपकी मुट्ठी में होगा

अपार सफलताओं के शिखर पर जा पहुंचेंगे आप

जीवन मरण दोनों से हो जायेंगे पार

"महाविद्या छिन्नमस्ता"



एक बार देवी पार्वती हिमालय भ्रमण कर रही थी उनके साथ उनकी दो सहचरियां जया और विजया भी थीं, हिमालय पर भ्रमण करते हुये वे हिमालय से दूर आ निकली, मार्ग में सुनदर मन्दाकिनी नदी कल कल करती हुई बह रही थी, जिसका साफ स्वच्छ जल दिखने पर देवी पार्वती के मन में स्नान की इच्छा हुई, उनहोंने जया विजया को अपनी मनशा बताती व उनको भी सनान करने को कहा, किन्तु वे दोनों भूखी थी, बोली देवी हमें भूख लगी है, हम सनान नहीं कर सकती, तो देवी नें कहा ठीक है मैं सनान करती हूँ तुम विश्राम कर लो, किन्तु सनान में देवी को अधिक समय लग गया, जया विजया नें पुनह देवी से कहा कि उनको कुछ खाने को चाहिए, देवी सनान करती हुयी बोली कुच्छ देर में बाहर आ कर तुम्हें कुछ खाने को दूंगी, लेकिन थोड़ी ही देर में जया विजया नें फिर से खाने को कुछ माँगा, इस पर देवी नदी से बाहर आ गयी और अपने हाथों में उनहोंने एक दिव्य खडग प्रकट किया व उस खडग से उनहोंने अपना सर काट लिया, देवी के कटे गले से रुधिर की धारा बहने लगी तीन प्रमुख धाराएँ ऊपर उठती हुयी भूमि की और आई तो देवी नें कहा जया विजया तुम दोनों मेरे रक्त से अपनी भूख मिटा लो, ऐसा कहते ही दोनों देवियाँ पार्वती जी का रुधिर पान करने लगी व एक रक्त की धारा देवी नें स्वयं अपने ही मुख में ड़ाल दी और रुधिर पान करने लगी, देवी के ऐसे रूप को देख कर देवताओं में त्राहि त्राहि मच गयी, देवताओं नें देवी को प्रचंड चंड चंडिका कह कर संबोधित किया, ऋषियों नें कटे हुये सर के कारण देवी को नाम दिया छिन्नमस्ता, तब शिव नें कबंध शिव का रूप बना कर देवी को शांत किया, शिव के आग्रह पर पुनह: देवी ने सौम्य रूप बनाया, नाथ पंथ सहित बौद्ध मताब्लाम्बी भी देवी की उपासना क्जरते हैं, भक्त को इनकी उपासना से भौतिक सुख संपदा बैभव की प्राप्ति, बाद विवाद में विजय, शत्रुओं पर जय, सम्मोहन शक्ति के साथ-साथ अलौकिक सम्पदाएँ प्राप्त होती है, इनकी सिद्धि हो जाने ओपर कुछ पाना शेष नहीं रह जाता,





दस महाविद्यायों में प्रचंड चंड नायिका के नाम से व बीररात्रि कह कर देवी को पूजा जाता है

देवी के शिव को कबंध शिव के नाम से पूजा जाता है

छिन्नमस्ता देवी शत्रु नाश की सबसे बड़ी देवी हैं,भगवान् परशुराम नें इसी विद्या के प्रभाव से अपार बल अर्जित किया था

गुरु गोरक्षनाथ की सभी सिद्धियों का मूल भी देवी छिन्नमस्ता ही है

देवी नें एक हाथ में अपना ही मस्तक पकड़ रखा हैं और दूसरे हाथ में खडग धारण किया है

देवी के गले में मुंडों की माला है व दोनों और सहचरियां हैं

देवी आयु, आकर्षण,धन,बुद्धि,रोगमुक्ति व शत्रुनाश करती है

देवी छिन्नमस्ता मूलतया योग की अधिष्ठात्री देवी हैं जिन्हें ब्ज्रावैरोचिनी के नाम से भी जाना जाता है

सृष्टि में रह कर मोह माया के बीच भी कैसे भोग करते हुये जीवन का पूरण आनन्द लेते हुये योगी हो मुक्त हो सकता है यही सामर्थ्य देवी के आशीर्वाद से मिलती है

सम्पूरण सृष्टि में जो आकर्षण व प्रेम है उसकी मूल विद्या ही छिन्नमस्ता है

शास्त्रों में देवी को ही प्राणतोषिनी कहा गया है

देवी की स्तुति से देवी की अमोघ कृपा प्राप्त होती है


                             स्तुति

छिन्न्मस्ता करे वामे धार्यन्तीं स्व्मास्ताकम,

प्रसारितमुखिम भीमां लेलिहानाग्रजिव्हिकाम,

पिवंतीं रौधिरीं धारां निजकंठविनिर्गाताम,

विकीर्णकेशपाशान्श्च नाना पुष्प समन्विताम,

दक्षिणे च करे कर्त्री मुण्डमालाविभूषिताम,

दिगम्बरीं महाघोरां प्रत्यालीढ़पदे स्थिताम,

अस्थिमालाधरां देवीं नागयज्ञो पवीतिनिम,

डाकिनीवर्णिनीयुक्तां वामदक्षिणयोगत:,



देवी की कृपा से साधक मानवीय सीमाओं को पार कर देवत्व प्राप्त कर लेता है

गृहस्थ साधक को सदा ही देवी की सौम्य रूप में साधना पूजा करनी चाहिए

देवी योगमयी हैं ध्यान समाधी द्वारा भी इनको प्रसन्न किया जा सकता है

इडा पिंगला सहित स्वयं देवी सुषुम्ना नाड़ी हैं जो कुण्डलिनी का स्थान हैं

देवी के भक्त को मृत्यु भय नहीं रहता वो इच्छानुसार जन्म ले सकता है

देवी की मूर्ती पर रुद्राक्षनाग केसर व रक्त चन्दन चढाने से बड़ी से बड़ी बाधा भी नष्ट होती है

महाविद्या छिन्मस्ता के मन्त्रों से होता है आधी व्यादी सहित बड़े से बड़े दुखों का नाश   



                                   देवी माँ का स्वत: सिद्ध महामंत्र है-

                            श्री महाविद्या छिन्नमस्ता महामंत्र

                  ॐ श्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वज्र वैरोचिनिये ह्रीं ह्रीं फट स्वाहा



इस मंत्र से काम्य प्रयोग भी संपन्न किये जाते हैं व देवी को पुष्प अत्यंत प्रिय हैं इसलिए केवल पुष्पों के होम से ही देवी कृपा कर देती है,आप भी मनोकामना के लिए यज्ञ कर सकते हैं,जैसे-

1. मालती के फूलों से होम करने पर बाक सिद्धि होती है व चंपा के फूलों से होम करने पर सुखों में बढ़ोतरी होती है

2.बेलपत्र के फूलों से होम करने पर लक्ष्मी प्राप्त होती है व बेल के फलों से हवन करने पर अभीष्ट सिद्धि होती है

3.सफेद कनेर के फूलों से होम करने पर रोगमुक्ति मिलती है तथा अल्पायु दोष नष्ट हो 100 साल आयु होती है

4. लाल कनेर के पुष्पों से होम करने पर बहुत से लोगों का आकर्षण होता है व बंधूक पुष्पों से होम करने पर भाग्य बृद्धि होती है

5.कमल के पुष्पों का गी के साथ होम करने से बड़ी से बड़ी बाधा भी रुक जाती है

6 .मल्लिका नाम के फूलों के होम से भीड़ को भी बश में किया जा सकता है व अशोक के पुष्पों से होम करने पर पुत्र प्राप्ति होती है

7 .महुए के पुष्पों से होम करने पर सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं व देवी प्रसन्न होती है

महाअंक-देवी द्वारा उतपन्न गणित का अंक जिसे स्वयं छिन्नमस्ता ही कहा जाता है वो देवी का महाअंक है -"4"

विशेष पूजा सामग्रियां-पूजा में जिन सामग्रियों के प्रयोग से देवी की विशेष कृपा मिलाती है

मालती के फूल, सफेद कनेर के फूल, पीले पुष्प व पुष्पमालाएं चढ़ाएं 

केसर, पीले रंग से रंगे हुए अक्षत, देसी घी, सफेद तिल, धतूरा, जौ, सुपारी व पान चढ़ाएं

बादाम व सूखे फल प्रसाद रूप में अर्पित करें

सीपियाँ पूजन स्थान पर रखें

भोजपत्र पर ॐ ह्रीं ॐ लिख करा चदएं

दूर्वा,गंगाजल, शहद, कपूर, रक्त चन्दन चढ़ाएं, संभव हो तो चंडी या ताम्बे के पात्रों का ही पूजन में प्रयोग करें

पूजा के बाद खेचरी मुद्रा लगा कर ध्यान का अभ्यास करना चाहिए

सभी चढ़ावे चढाते हुये देवी का ये मंत्र पढ़ें-ॐ वीररात्रि स्वरूपिन्ये नम:

देवी के दो प्रमुख रूपों के दो महामंत्र

१)देवी प्रचंड चंडिका मंत्र-ऐं श्रीं क्लीं ह्रीं ऐं वज्र वैरोचिनिये ह्रीं ह्रीं फट स्वाहा

२)देवी रेणुका शबरी मंत्र-ॐ श्रीं ह्रीं क्रौं ऐं

सभी मन्त्रों के जाप से पहले कबंध शिव का नाम लेना चाहिए तथा उनका ध्यान करना चाहिए

सबसे महत्पूरण होता है देवी का महायंत्र जिसके बिना साधना कभी पूरण नहीं होती इसलिए देवी के यन्त्र को जरूर स्थापित करे व पूजन करें

यन्त्र के पूजन की रीति है-

पंचोपचार पूजन करें-धूप,दीप,फल,पुष्प,जल आदि चढ़ाएं

ॐ कबंध शिवाय नम: मम यंत्रोद्दारय-द्दारय

कहते हुये पानी के 21 बार छीटे दें व पुष्प धूप अर्पित करें

देवी को प्रसन्न करने के लिए सह्त्रनाम त्रिलोक्य कवच आदि का पाठ शुभ माना गया है

यदि आप बिधिवत पूजा पात नहीं कर सकते तो मूल मंत्र के साथ साथ नामावली का गायन करें

छिन्नमस्ता शतनाम का गायन करने से भी देवी की कृपा आप प्राप्त कर सकते हैं

छिन्नमस्ता शतनाम को इस रीति से गाना चाहिए-

प्रचंडचंडिका चड़ा चंडदैत्यविनाशिनी,

चामुंडा च सुचंडा च चपला चारुदेहिनी,

ल्लजिह्वा चलदरक्ता चारुचन्द्रनिभानना,

चकोराक्षी चंडनादा चंचला च मनोन्मदा,

देदेवी को अति शीघ्र प्रसन्न करने के लिए अंग न्यास व आवरण हवन तर्पण व मार्जन सहित पूजा करें

अब देवी के कुछ इच्छा पूरक मंत्र

1) देवी छिन्नमस्ता का शत्रु नाशक मंत्र

ॐ श्रीं ह्रीं ह्रीं वज्र वैरोचिनिये फट

लाल रंग के वस्त्र और पुष्प देवी को अर्पित करें

नवैद्य प्रसाद,पुष्प,धूप दीप आरती आदि से पूजन करें

रुद्राक्ष की माला से 6 माला का मंत्र जप करें

देवी मंदिर में बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है

काले रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें

दक्षिण दिशा की ओर मुख रखें

अखरो व अन्य फलों का फल प्रसाद रूप में चढ़ाएं

2) देवी छिन्नमस्ता का धन प्रदाता मंत्र

ऐं श्रीं क्लीं ह्रीं वज्रवैरोचिनिये फट

गुड, नारियल, केसर, कपूर व पान देवी को अर्पित करें

शहद से हवन करें

रुद्राक्ष की माला से 7 माला का मंत्र जप करें

3) देवी छिन्नमस्ता का प्रेम प्रदाता मंत्र

ॐ आं ह्रीं श्रीं वज्रवैरोचिनिये हुम

देवी पूजा का कलश स्थापित करें

देवी को सिन्दूर व लोंग इलायची समर्पित करें

रुद्राक्ष की माला से 6 माला का मंत्र जप करें

किसी नदी के किनारे बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है

भगवे रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें

उत्तर दिशा की ओर मुख रखें

खीर प्रसाद रूप में चढ़ाएं

4) देवी छिन्नमस्ता का सौभाग्य बर्धक मंत्र

ॐ श्रीं श्रीं ऐं वज्रवैरोचिनिये स्वाहा

देवी को मीठा पान व फलों का प्रसाद अर्पित करना चाहिए

रुद्राक्ष की माला से 5 माला का मंत्र जप करें

किसी ब्रिक्ष के नीचे बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है

संतरी रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें

पूर्व दिशा की ओर मुख रखें

पेठा प्रसाद रूप में चढ़ाएं

5) देवी छिन्नमस्ता का ग्रहदोष नाशक मंत्र

ॐ श्रीं ह्रीं ऐं क्लीं वं वज्रवैरोचिनिये हुम

देवी को पंचामृत व पुष्प अर्पित करें

रुद्राक्ष की माला से 4 माला का मंत्र जप करें

मंदिर के गुम्बद के नीचे या प्राण प्रतिष्ठित मूर्ती के निकट बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है

पीले रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें

उत्तर दिशा की ओर मुख रखें

नारियल व तरबूज प्रसाद रूप में चढ़ाएं

देवी की पूजा में सावधानियां व निषेध-

बिना "कबंध शिव" की पूजा के महाविद्या छिन्नमस्ता की साधना न करें

सन्यासियों व साधू संतों की निंदा बिलकुल न करें

साधना के दौरान अपने भोजन आदि में हींग व काली मिर्च का प्रयोग न करें

देवी भक्त ध्यान व योग के समय भूमि पर बिना आसन कदापि न बैठें

सरसों के तेल का दीया न जलाएं

विशेष गुरु दीक्षा-

महाविद्या छिन्नमस्ता की अनुकम्पा पाने के लिए अपने गुरु से आप दीक्षा जरूर लें आप कोई एक दीक्षा ले सकते हैं

छिन्नमस्ता दीक्षा

वज्र वैरोचिनी दीक्षा

रेणुका शबरी दीक्षा

बज्र दीक्षा

पञ्च नाडी दीक्षा

सिद्ध खेचरी दीक्षा

छिन्न्शिर: दीक्षा

त्रिकाल दीक्षा

कालज्ञान दीक्षा

कुण्डलिनी दीक्षा.................आदि में से कोई एक



ज्ञान से ज्ञानी और ज्ञानी से अहंकारी हो जाना कोई नई बात नहीं है। ये अहंकार ही है जो असमय काल के मुख में धकेल देता है। बड़े-बड़ों का पतन करने वाला है। इसलिए शिव नें महाशक्ति संपन्न साधकों को सबसे अनूठा उपहार दिया। यही उपहार है 'छिन्नमस्ता', यानि अहंकार रहित शक्ति। जिसकी साधना से साधक का अहंकार भी तिरोहित होने लगता है। सर होने का प्रतीक है कुछ हो जाने का, यानि अहंकार की उत्तपत्ति का। एक बार अहंकार पैदा हो जाए तो फिर अहंकार के क्या कहने? भगवान् भी सामने हों तो चूहा ही लगे। मनुष्य ऐसा ही है जब रोग रहित हो, स्वस्थ और धनवान हो तो संसार उसके लिए मिटटी ही है सबको रौंदता हुआ आगे बढ़ता जाता है। लेकिन ज्यों ही मुसीबत आयी, रोगों नें जकड़ा, शत्रुओं नें परेशान किआ, गरीबी आयी तो मनुष्य टूट जाता है। अजब माया है संसार की भी, महामाया नित्य नई लीला रचती हैं। मनुष्य उसमें ऐसा जकड़ा हुआ है कि बाहर आने की कोई सम्भावना दिखती ही नहीं। तो साधक भी एक तल पर मनुष्य है और यदि वो भी अहंकार के वशीभूत हो गया तो क्या होगा? इसी कारण शिव नें, स्वयं देवाधिदेव नें उतपन्न किआ एक ऐसी शक्ति को जो विद्याओं में अग्रणी हैं और अहंकार को अपने हाथों में रखती हैं। यही छिन्नमस्ता हैं। तंत्र इसका एक और सांकेतिक अर्थ भी समझाता है, वो है कि छिन्नमस्ता ऐसी महाविद्या है जिसके सम्मुख किसीका भी अहंकार ठहरता नहीं। चाहे योगी हो, महायोगी हो, ईशपुत्र हो या कौलान्तक पीठाधीश्वर। देवी सभी का नाश करना और सभी पर नियंत्रण रखना जानती हैं। अहंकारियों के सर काट कर हाथों में दे देती हैं। देवी तो अपना अहंकार भी नहीं सहती। यहीं तंत्र योग के सूत्र को गोपनीयता से बताता है कि ईडा,पिंगला और सुषुम्ना में खो चुका योगी आत्म अमृत पान में रत रहते हुए ही महाविद्या प्राप्त कर जाता है। योग मार्ग भी सरल नहीं है आत्मअमृतपान के लिए आत्म बलि देने का साहस चाहिए यदि है तो सफलता द्वार पर नतमस्तक मिलेगी। यदि साहस नहीं तो खाली हाथ ही लौटना होगा। छिन्नमस्ता सर यानि मस्तिष्क का खेल है। हम संसार को समझते हैं इंद्रियों से, पञ्चइंद्रियों से और उसका नियंता है मस्तिष्क और महाविद्याएं व शिव मस्तिष्क से भी पार के विषय हैं। इसी कारण महाविद्या छिन्नमस्ता अपना सर हाथ में ले लेती हैं कि तुम दिमाग लगाने की कोशिश ना करो। इस ब्रह्माण्ड का सत्य ऐसा अभूझ है कि सर से नहीं अपितु किसी और मार्ग से इसे समझना होगा। कर्मकांड से जुड़े आचार्य जिस प्रकार यज्ञ पुरुष का शिरोसंधान कर यज्ञ को पूर्ण करते हैं ठीक वैसे ही जब साधक कपट बुद्धि और कथित दार्शनिकता का छेदन करता है तभी आत्मरस रुपी आत्मानंद का सेवन कर सकता है। तभी महाविद्या छिन्नमस्ता को जान सकता है। छिन्नमस्ता भी वामा देवी है किन्तु दक्षिण पंथ से भी मान जाती हैं। जो कि साधक के लिए बड़ा ही सुख है। 'कौलान्तक संप्रदाय' मिश्रमार्गीय पद्धति से जो कि रजस पंथी होती है इस साधना को प्रदान करता है किन्तु इसके लिए साधक को प्रवेश मंत्र की 18 माला और कबंध शिव मंत्र की तीन माला का जाप करना होता है । बिना कबंध शिव के आप छिन्नमस्ता महाविद्या की कल्पना भी नहीं कर सकते। बिना कबंध हुए आप कैसे महाविद्या पर अंकुश रख सकेंगे? कबंध शिव भी निराले शिव हैं जो केवल सुनने में विश्वास रखते हैं। लोग कहते रहते हैं। संसार भी हमेशा विषवमन में लगा रहता है। लेकिन कबंध शिव हैं कि मानो कुछ कहना ही नहीं चाहते। सर्वसमर्थ होते हुए भी न जाने क्यों बस मौन ही रहते हैं और संसार इस मौन को कमजोरी समझने की भूल कर बैठता है। कबंध शिव सब जानते हैं, क्या अंदर की बात और क्या बाहर की बात? क्या सच और क्या झूठ? लेकिन फिर भी मौन। ये सब देख कर साधक के मन में बड़ी खीज उपजती है पर क्या करे नियंत्रण रखना पड़ता है नहीं तो गर्दन काटने वाली तो साक्षात उपस्थित हैं ही। कबंध शिव से मैंने बहुत कुछ सीखा और पाया है। मेरे शिव कबंध शिव होने के कारण मैं भी उन्ही जैसा हो गया हूँ। ऐसा नहीं है कि मुझे कुछ पता नहीं है या मैं मूर्ख हूँ। कबंध शिव नें मुझे सम्पूर्ण मनुष्य के रूप में पैदा किआ है इसलिए सब जानता हूँ पर मौन ही रहने में सुख मिल रहा है। लगता है कि कबंध शिव कहीं गहरे में भीतर उतर गए हैं। मैं साधक को समझाना चाहता हूँ कि मैं कोई गुरु नहीं हूँ। कि तुम मुझे मेरे प्रवचनों या ढोंग से समझ लोगे अपितु मैं कबंध शिव ही हूँ, तुम्हें मुझमें उतर कर ही मुझे जानना होगा इसके अतिरिक्त और कोई चारा नहीं है। मैं अघोर हूँ एक 'अघोर सत्य' 'कबंध शिव' सा, उलझन हूँ 'तंत्र सा', समझने के लिए साधना ही सहारा है और शायद तुम साधना को अभी तक समझे ही नहीं। तुम मालाओं में, तुम योग में, तुम कर्मकांड में, तुम यंत्रों में, तुम उपासना में उसे ढूंढ रहे हो, जो कि तुम्हारे कर्मों में ही है। साधना मेरी जीवन शैली है और तुमारे लिए साधना एक छोटा सा सात्विक कर्म। साफ है कि मेरे और तुम्हारे बीच अब जन्मों की खाइयां हो चुकी हैं। मैं तुमको पुकारता हूँ, लेकिन तुम्हारे अंदर दुनिआ भर का शोर भरा है मेरी आवाज तुम तक पहुँचती ही नहीं है। फिर भी मैं तुम्हारा इन्तजार करता हूँ हर दिन, हर पल, क्योंकि मैं कबंध शिव हूँ। तुमको भी होना होगा और कोई उपाय नहीं है महाविद्या छिन्नमस्ता को पाने का। यदी तुम नूतनता को स्थान नहीं दे सकते। यदि तुम समझ को परिष्कृत नहीं कर सकते। तो महाविद्या छिन्नमस्ता तुम्हारे लिए नहीं। अभी तो तुमको तुम्हारा मस्तिष्क नियंत्रित कर रहा है, जब तुम मस्तिष्क को नियंत्रित करना शुरू करोगे तो महाविद्या छिन्नमस्ता तुम्हारे भीतर उतरने लगेगी। मैं शायद शब्दों में समझा नहीं पाता लेकिन कर्मकांड और यन्त्र, मंत्र का शिव विलास मेरे पास है तुम समझ सको तो हम एक जैसे हो जायेंगे और महाविद्या छिन्नमस्ता कृपा करेने लगेंगी। याद रखना तंत्र में महाविद्या छिन्नमस्ता जैसी उपदेशक और दूसरी कोई नहीं है। देवी की दो सखियाँ हैं। मध्य में देवी और दोनों और सखियाँ। ये गुरु शिष्य परम्परा है। गुरु जो पाता है बराबर सबको बांटता चलता है। जो समझ जाता है हमेशा आस-पास मंडरा कर गुरु से ग्रहण कर ही लेता है। बाकी तो दूर छिटक जाते हैं भयावह सांसारिक दलदल में। जहाँ बैठ कर मुक्ति पर गप्पें तो हांकी जा सकती हैं, महाविद्याओं पर चर्चाएं व शेखियां तो बघारी जा सकती हैं पर निकलने का कोई उपाय नहीं। महाविद्या छिन्नमस्ता बेहद अहम् इस कारण भी है क्योंकि संसार बड़ा स्वार्थी है। माँ-बाप, भाई-बहन, रिश्ते-नाते, मित्र-सखियाँ तुमको मुक्त होते नहीं देख सकते। देखें भी क्यों क्योंकि उनके साथ तो बंधन हैं ना? रिश्तों का? तो बंधन मजबूत करना उनका धर्म है। यदि मैं आपको कहूं कि माँ-बाप से दूर रह कर गुरु सानिध्य में जाओ। तो तुम्हारे माँ-बाप मुझ पर ही कोई आरोप लगा कर जेल भिजवा देंगे। क्यों? क्योंकि मैंने बंधन खोलने की कोशिश की। इसलिए छिन्नमस्ता भड़काती है तुमको संसार से भीतर की ओर ले जाती है। बेफालतू के सम्बन्धों और सूक्ष्म कारागार को छिन्न-भिन्न कर डालती है और तुम पाश मुक्त होने लगते हो। हाँ! बेहद महत्वपूर्ण बात! कि जब तक तुम! निर्धारित करते हो कि अध्यात्म में तुमको क्या पसंद है और क्या क्या नापसंद? तब तक सब उलझा रहता है। इसलिए छीन्न-भिन्न करना जरूरी है। मैं यहाँ महाविद्या छिन्नमस्ता के बारे में तो कुछ भी नहीं बता सकता। बस इतना कह सकता हूँ कि वो अपना सर काट कर अपने हाथों में रख सकती है और अपना खून पी सकती है। बाबजूद रति का आनंद अनुभव कर सखियों से बाँट सकती है। यही तो है महाविद्या छिन्नमस्ता।



'छिन्नमस्ता महाविद्या' एक आचार्य महाविद्या है। जिसकी सीख बेहद अनूठी और सत्यपरक होती है। छिन्नमस्ता अपने तरीकों से साधक को तराशती है। कोई रहम नहीं-स्वर्ण बनना है तो तपती भट्ठी में से हो कर तो गुजरना ही पडेगा। मस्तिष्क ऐसा हो कि ज्यामिति को समझ सके। बिना ज्यामिति के महाविद्याएं समझी नहीं जा सकती। छिन्नमस्ता तो आपके जीवन का आयाम है। जो गुरु बिना भला कौन समझ सका है? गुरु केवल एक ही है वो है स्वयं शिव। तो छिन्नमस्ता को उसी के तरीके से जानने के लिए यदि साधक तैयार हो जाए तो छिन्नमस्ता की कृपा होने लगाती है। लेकिन इस कृपा को किसी दूकान में बेचा या चौराहे पर तमाशा लगा कर दिखाया नहीं जा सकता। ये बात ही कुछ ऐसी है कि बताएं कैसे? खुद को टुकड़ों में तुड़वाने का साहस चाहिए। सती के इतने टुकड़े हुए कि सभी शक्तिपीठ हैं। इसे ही कहते हैं छिन्नमस्ता। शिव के लिए, सत्य के लिए, साधना के लिए नष्ट हो जाने का जज्वा। इतने टुकड़ों में टूट जाने का जज्वा कि हर टुकड़ा शक्तिमान हो, हर टुकड़ा शिव हो। यहाँ ये बताना भी आवश्यक है कि यदि आपका हृदय अभी टूटा नहीं, तो भी छिन्नमस्ता को समझना आसान नहीं है। संसार में ह्रदय का छिन्न होना बड़ी आम बात है। यदि हृदय छिन्न हो चुका है तो संसार भायेगा नहीं और वैराग्य का रट्टा लगाने की जरूरत नहीं होगी। अपने को बली बेदी पर अर्पित कर देना मूर्खता लग सकता है पर मैं इसे दीवानगी का नाम देता हूँ और यही है छिन्नमस्ता। टूटा हुआ हृदय…यानि सत्य को अनुभूत कर चुका हृदय। जीवन में तो कुछ मिलता है नहीं। अध्यात्म में मिलता दिखता नहीं है। तो भी क्या तुम मेरी और आओगे…………यदि हाँ तो तुम पागल हो…………पूरी तरह सनकी। तुम इतने टुकड़ों में टूट जाओगे कि खुद गिन नहीं पाओगे। संसार तुमको तोड़ देगा। मेरा मन ये सब कहते हुए बहुत खुश हो रहा है। अपनी बर्वादी की पूरी कहानी को नेत्रों के सामने घूमता देख रहा हूँ वो भी 3 डी में। अब बारी तुम्हारी है-कौलान्तक पीठाधीश्वर महायोगी सत्येन्द्र नाथ (ईशपुत्र)




शुक्रवार, 15 जून 2018

उद्गीथ प्राणायाम


प्राणायामोँ मेँ सर्वश्रेष्ठ प्राणायाम है उद्गीथ प्राणायाम । उद्गीथ का तात्पर्य होता है जो प्राणोँ से उठनेवाला हो । प्राणोँ से उठनेवाले संगीत को ही उद्गीथ कहा गया है । हमारे भीतर हर क्षण हर पल एक एक ध्वनि गुंज रही है एक नाद गुंज रहा है जिसे अनहद नाद भी कहा गया है । ये अनहद नाद यही जीवन का सार है और इसी अनहद नाद को शब्द कहा गया है और शब्द को ही ब्रह्म अर्थात् भगवान कहा गया है । अनहद नाद ही वास्तव मेँ उद्गीथ नामक ध्वनि है और ये उद्गीथ क्या है ? उद्गीथ की जो ध्वनि है वही ॐकार है । ॐ को ही उद्गीथ कहा जाता है । तो उद्गीथ प्राणायाम का तात्पर्य हुआ वह प्राणायाम जिसमेँ ॐ की ध्वनि की जाती है । मानव जीवन मेँ हमेँ बहुत सी समस्याओँ से लगातार झुझना पडता है । तरह तरह की परेशानियाँ, तरह तरह के रोग सदा हमेँ सताते रहते है । 70 % रोग मात्र चिन्ता, अवसाद के कारण ही हमेँ ग्रसित करते है । यदि हमारा आहार-विहार उचित हो और हम उद्गीथ प्राणायाम के नित्य साधक होँ तो हम अनेकोँ रोगोँ से अपना बचाव कर सकते है । हिस्टीरिया जैसे समस्त रोग मात्र उद्गीथ प्राणायाम करने से नष्ट हो जाते है । हमारी छठी इन्द्रिय उद्गीथ प्राणायाम से विकसित होती है । हम भविष्य मेँ घटनेवाली कुछेक घटनाओँ को देखने मेँ सामर्थ्यवान हो जाते है । इस प्राणायाम को करने से मन हलका हो जाता है । चित्त सात्विक और पवित्र हो जाता है । हमारे शरीर की तरंगधैर्य मेँ वृद्धि होती है, रोगोँ से लडने की क्षमता मेँ भी अभूतपूर्व विकास होता है । बुद्धि तीव्रतर होती जाती है । लेकिन प्राणायाम के साधकोँ को अपने स्वास्थ्य का हमेशा ध्यान रखना चाहिए । कई बार आरंभ मेँ जब साधक प्राणायाम का अभ्यास करता है तो वह हल्का बुखार अनुभव कर सकता है ऐसी परिस्थिति मेँ आप तुलसीपत्र और काली मिर्च समान मात्रा मेँ ले लेँ, उन्हेँ पीसकर शहद के साथ एक चम्मच भर उनका सेवन करेँ, जिससे प्राणायाम जनित किसी भी प्रकार का विकार तुरंत दूर हो जाता है । आरंभ मेँ जब भी कोई साधक प्राणायाम का अभ्यास करता है विशेषतः शीत ऋतु मेँ.. तो वह अपने शरीर को टूटा हुआ भी अनुभव कर सकता है । ऐसी परिस्थिति मेँ भी साधक को आँवले और मिश्री का सेवन करना चाहिए । उद्गीथ प्राणायाम को करने से आधासीसी नामक रोग भी दूर होता है । यदि आपके आधे सिर मेँ लगातार दर्द रहता हो तो आप उद्गीथ प्राणायाम को लगातार करते रहे और साथ ही साथ शहद को गुनगुने पानी के साथ अपने आहार मेँ सुबह और शाम नित्य प्रयुक्त करेँ । जिससे आधासीसी नामक रोग शीघ्र दूर होता है । उद्गीथ प्राणायाम व्यक्ति को ध्यान की गहराईयोँ मेँ ले जाता है । यह प्राणायाम अपने आप मेँ एक पूर्ण प्राणायाम है । जो की मंत्र के बीज का संपुट लिये है और साथ ही ध्वनियोग भी अपने आप मेँ है । अतः व्यक्ति धीरे धीरे निर्विचार अवस्था तक पहुँचता है और साथ ही साथ वह ध्यान की गहराईयोँ तक पहुँचने मेँ सक्षम हो जाता है । उद्गीथ प्राणायाम प्राणोँ से उठता है, क्योँकि जो अनहद नाद भीतर चल रहा है उसके भीतर जो मूल ध्वनि है वह ॐकार है । हमारे भीतर सप्त चक्र है मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा और सहस्त्रार कमलदल । इन सप्तचक्रोँ मेँ से आज्ञा नामक चक्र पर ॐकार नाम का बीजमन्त्र विद्यमान है और स्वभाव से ही हमारे शरीर मेँ जिसे हम छठी इन्द्रिय कहते है आज्ञाचक्र वह कुछ ज्यादा ही जागृत रहता है अन्य चक्र निष्क्रीय अवस्था मेँ है लेकिन आज्ञाचक्र जिसे हम छठी इन्द्रिय कहते है उसमेँ अन्य चक्रोँ की अपेक्षा अधिक स्पंदन रहता है । अतः जब साधक आज्ञाचक्र पर ध्यान लगाते हुए ॐकार का जप करता है और उद्गीथ प्राणायाम करता है तो वह दिव्य शक्तियोँ का स्वामी होता है । अनेक रोग पल मेँ ही नष्ट होते है और रोगोँ से लडने की क्षमता मेँ अभूतपूर्व वृद्धि चली जाती है । हमारे मस्तिष्क के दो भाग है दायाँ और बायाँ मस्तिष्क । यदि दोनोँ तीव्रता से कार्य करे तो हम अपने जीवन मेँ एक सफल व्यक्तित्व के रुप मेँ उभर सकते है यदि हमारी यादास्त मंद पड रही हो, यदि हम सभी विषयोँ का स्मरण नहीँ रख पाते हो तो ऐसी स्थिति मेँ हमेँ उद्गीथ प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए क्योँकि जैसे जैसे आप ध्यान मेँ उतरते जाते है मस्तिष्क के चारोँ ओर आपको एक दिव्य आभामंडल एक दिव्य चक्र प्रतीत होगा और जैसे जैसे आप उस दिव्य चक्र पर भी ध्यान लगाना शुरु करते हो वैसे वैसे दाँया और बाँया मस्तिष्क जागृत होता चला जाता है जिस से आप अद्भुत प्रज्ञा के स्वामी बनते हो ।

उद्गीथ प्राणायाम...जैसे की नाम से ही विदित है कि जो भीतर प्राणोँ से उठनेवाला संगीत है वो उद्गीथ कहलाता है । लेकिन ये प्राणोँ के भीतर से केवल मेरे प्राणोँ के भीतर से नहीँ उठता, केवल आपके प्राणोँ के भीतर से नहीँ उठता.. ये तो हिरण्यगर्भ के प्राण है.. ये तो उस ब्रह्म के प्राण है...ये कहने मेँ विचित्र अवश्य लगता है लेकिन एक विशुद्ध चित्त योगी इसे समझता है । जब इस ब्रह्माण्ड की मौलिक ध्वनि पहली बार उत्पन्न हुई तो वो उद्गीथ थी, ॐकार थी.. उसी से संपूर्ण सृष्टि व्याप्त है और निरंतर ये अनहद नाद निरंतर बजता चला जाता है । तो इसी ॐकार को हम "शिव" भी कहते है । इसलिए "महादेव" को ॐकार स्वरुप मानकर समस्त शास्त्रोँ नेँ उनकी वंदना की है । और योगियोँ के लिए वो आदर्श है और इसलिए योगी अपने भीतर भी उसी ॐकार नाद को पाते है । शैव परंपरा मेँ ये उद्गीथ प्राणायाम सर्वप्रथम महादेव के द्वारा ध्वनिपुंज के रुप मेँ प्रदान किया गया...हालाँकि जब ये सृष्टि उत्पन्न हुई तब से अगोचर और कर्णोँ से उस पारवाली इस उद्गीथ ध्वनि को मनुष्य सुनने मेँ और जानने मेँ सामर्थ्यवान इन्द्रियोँ के माध्यम से नहीँ था । इसलिए महादेव नेँ अ, उ और म् इन तीन बीजोँ को संयुक्त करके सर्वप्रथम इसे पृथ्वी पर देवी शक्ति के द्वारा प्रस्फुरित किया है...और तब उत्पन्न हुआ भौतिक रुप से, शाब्दिक रुप से एक पुंज, एक ध्वनि जिसे उद्गीथ कहा गया । लेकिन शिव नेँ योग आगम का ज्ञान देते हुए ये कहा देवी को कि, "ये जो उद्गीथ है वो बाहरी शब्द है लेकिन इसका असली नाम सुनने के लिए तुम्हेँ भीतर उतरना होगा ।"...तो देवी नेँ पूछा, "कैसे ?"...कहा "उद्गीथ प्राणायाम के द्वारा...।" तब पहली बार ये उद्गीथ प्राणायाम सामने आया । इसी कारण हम पहले उद्गीथ प्राणायाम मेँ ॐकार की ध्वनि करते है लेकिन ये ॐकार की ध्वनि आपको भीतर के अनहद नाद तक ले जाती है । यही एक छोटा सा रहस्य है उद्गीथ प्राणायाम का..लेकिन बहुत कम लोग ये जानते है कि उद्गीथ प्राणायाम का एक रंग भी होता और उद्गीथ प्राणायाम करनेवाले अभ्यासी को एक स्वाद भी अनुभव होता है ! इसी तरह सभी प्राणायामोँ मेँ उसके रंग, उसके स्वाद, उसके तत्त्व और उसके इष्ट होते है ! तो आपको योग्य गुरु के सानिध्य मेँ बैठकर ऐसे प्राणायामोँ का अभ्यास करके इन्हेँ साधना चाहिए ।
उद्गीथ का तात्पर्य होता है : जो आपके प्राणोँ से निकले वह उद्गीथ हुआ, अर्थात् प्राणोँ को झंकृत करनेवाला । इसमेँ सहज श्वास खींचकर मुख से ॐकार का जप करना है और हाथोँ से ज्ञानमुद्रा बनाये रखनी है और ध्यान आज्ञाचक्र पर रखना है । उद्गीथ प्राणायाम से शरीर मेँ "अलौकिक आभामण्डल" का विकास होता है और उस आभामण्डल के विकास से व्यक्ति के भीतर अनन्य शक्तियोँ का विकास होता है । मानव के भीतर मानवीय गुण पनपते है, मानव पशुवृत्तियोँ से उँचा उठकर "मनुष्यत्व" को उपलब्ध होता है और मनुष्यत्व को त्यागकर पुनः "देवत्व" को उपलब्ध होता है । उद्गीथ प्राणायाम वास्तव मेँ "अनहद नाद" का बाह्य प्रारुप है अर्थात् "हद नाद" है । भीतर हमारे अन्तःकरण मेँ हमेशा ॐकार की ध्वनि चलती रहती है ।"

ॐ" यानि ओंकार ही महानाद है। ओंकार की साधना, नाद की साधना सबसे सरल योग है। "ॐ" ही स्वयं "महादेव शिव" हैं। ओंकार जीवन को अध्यात्म से जोड़ देता है और जीवन में प्रसन्नता और प्रेम को पल्लवित करता है। "महाहिमालय" के सभी सिद्धों का ध्यान केवल ओंकार यानि ॐ में ही निहित है। ॐ ही "महासमाधि" है। " - ईशपुत्र