मैने सुना है, एक गाँव मेँ कुछ लोगोँ के पास स्फटिक के उजले पाषाण टूकडे थे । वे जो पाषाणखण्ड थे...बिलकुल काँच की भाँति निर्मल और स्वच्छ थे लेकिन थे तो स्फटिक ही; लेकिन किसी मूढमति व्यक्ति ने ये कह दिया कि, "ये स्फटिक नहीँ, ये तो हीरे है; अमूल्य रत्न है ।" और अब उन लोगोँ नेँ उन्हीँ साधारण से टूकडोँ को बहुत संभाल-संभालकर रखना शुरु कर दिया ! ज्युँ ही मनुष्य को ये पता चलेँ कि, फलाँ वस्तु अमूल्य है तो बस...ताले लग जाएँगे, उसकी रखवाली शुरु हो जाएगी; भले ही उसका मूल्य कुछ न हो । ठीक वैसे ही हमारी भी तो दुर्दशा है ! हमने हीरे के स्थान पर स्फटिक के पाषाण को पकडे रखा है और हम कहते है कि, "हम पूजा-पाठ कर रहे है, हम साधना कर रहे है, हम प्राणायाम कर रहे है ।" मात्र श्वास पर श्वास से परमात्मा न पाया जा सकेगा; लेकिन हाँ, इस तथ्य को नकारा भी नहीँ जा सकता कि इसका परमात्मा से कोई संबंध नहीँ; हालाँकि जगत मेँ जितनी भी वस्तुएँ है उसका परमात्मा से कोई संबंध नहीँ और परमात्मा से अलग भी नहीँ । ये ठीक वैसे ही है कि, इस पृथ्वी पर जितना जल है वो कहीँ न कहीँ बर्फ है, लेकिन हम ये नहीँ कह सकते कि, बर्फ ही जल है; लेकिन हम नकार भी नहीँ सकते कि बर्फ जल नहीँ ! बस रुप का अन्तर है । हम साधनाओँ को, हम परमात्मा को क्योँ नहीँ समज पा रहे ? बहुत साधारण सी बात है...ये मस्तिष्क !
चेतना की बात अथवा भीतर के अध्यात्म की बात ये तो बहुत बाद मेँ आनी चाहिए ना ! ये तो थोडी सूक्ष्म घटना है ! पहले स्थूलरुप से तो हम ठीक हो जाए ! भारतीय ऋषि परंपरा नेँ एक बहुत उत्तम बात कही जो मुझे प्रिय लगी...तुम भी करके देखो; उन्होनेँ कहा कि, "मन्त्र के माध्यम से मस्तिष्क अर्थात् सहस्त्रार कमलदल को जागृत किया जा सकता है ।" योग के अनुसार हमारे मस्तिष्क मेँ एक हजार कमल के पत्ते है अर्थात् बिन्दु हमारे मस्तिष्क मेँ एक हजार है और संपूर्ण जीवन मानव चार अथवा पाँच बिन्दुओँ के कारण अपना जीवन जी पाता है ! अर्थात् मात्र पाँच बिन्दू से ही संपूर्ण जीवन और इसकी क्रियाएँ हम करते है । यदि हम में से कोई व्यक्ति विलक्षण हुआ तो 6 अथवा 7 बिन्दू ही जागृत होंगे; लेकिन योग ने कहा कि, "तुम सहस्त्रार का जागरण कर सकते हो, तुम अलौकिक हो सकते हो, तुम दिव्य हो सकते हो, कुण्डलिनी जागरण करना होगा ।" अर्थात् मस्तिष्क में कहीं ये सब रहस्य छीपे पडे है और यही सार है ! हमें अपने ब्रह्माण्ड को समझना पडेगा । फिलहाल तो हम विक्षिप्त है ! फिलहाल तो हम पागलपन में डूबे हुए है ! और कोई पागल अपने आप को पागल नहीं कहता ! हरेक व्यक्ति अपने आप को बुद्धिमान समझता है ! अपने आप को चतुर समजता है ! लेकिन वास्तविकता ये है कि जितना हम अपने आप को चतुर समजते है, हम है नहीं । भौतिक चातुर्य की मैं बात नहीं कर रहा । मैं जीवन की उन समग्र चातुर्य की चर्चा लेकर बैठा हूँ जो वास्तव में हमारे भीतर होनी ही चाहिए, क्योंकि यदि वो है तो जीवन है और यदि वो नहीं है, तो जीवन नहीं है क्योंकि इस जीवन में "जीव जीवस्य भोजनम् ।" के आधार पर ही तो ये जगत चल रहा है; एक जीव दुसरे जीव का भोजन, अर्थात् जितनी जिसमेँ क्षमता हो वो जीतेगा; और क्षमता दैहिक कम आँकी जाती है क्योंकि इस दैहिक क्षमता से अधिक तो इस मस्तिष्क की क्षमता है और यही वो संयंत्र है जिसके माध्यम से अध्यात्म का बीज प्रस्फुरित होता है । एक आदमी दु:खी क्यों है जीवन में ? क्योंकि उसका मस्तिष्क इतना विकसित नहीं कि वो प्रत्येक पहलू को, प्रत्येक आयाम को समज सकें और उसे अपने जीवन में उतार सके । यदि मैं वैज्ञानिक हूँ तो फिर सामाजिकता का ज्ञान थोडा सा कम रह जाएगा और यदि मैं धार्मिक हूँ तो सामाजिक तत्त्वों का ज्ञान कम रह जाएगा और यही कारण है कि हम कभी पूर्ण न हो सकें । समजना तो दोनों को होगा । हालांकि लोग तो ये भी कहते है कि, "दो नावों पर सवारी करनेवाला डूबता है ।" लेकिन ये उदाहरण इस स्थिति के लिए नहीं बना क्योंकि ज्ञान ज्ञान ही है, दो कश्तियाँ नहीं, भले ही वो ज्ञान भौतिक हो अथवा आध्यात्मिक उसका संबंध प्रारंभिक रुप से इस मस्तिष्क के साथ जुडा है । जब तक ये मस्तिष्क प्रखर न हो, जब तक ये दिमाग अपने तीव्रतम सोपान तक ना पहुँचे तब तक क्या होनेवाला ? कुछ भी समज ना आए । और हाँ...ठीक संत कालिदास जैसे, कि जिस पेड की टहनी पर बैठे है उसे ही काटते रहते है । हालाँकि प्रत्येक प्राणी यही कर रहा है, हर व्यक्ति ये जानता है कि मैं सदा-सदा के लिए पृथ्वी पर नहीं आया, तो भी मन तो नहीं मानता ना ! ये सामाजिक आवश्यकताएँ, परिवार, समाज...फसाए ही तो रखता है । माँ पूछेगी तुमने क्या कर लिया जीवनभर, पिता भी पूछेंगे आपने क्या कर लिया ? समाज कहेगा, तुम्हारा मेरे लिए क्या योगदान ? सबकी अपनी-अपनी इच्छाएँ है तुम्हारे से लेकिन तुम अपने लिए ही खरे नहीं उतर पा रहे तो समाज और के लिए क्या उतरोगे ? और इन सबका संबंध तुम्हारे मन और मस्तिष्क से है । तो अध्यात्म की सीडी पर जब कदम रखने की बारी आ गयी हो तो समज लेना कि पहले यात्रा कैसे शुरु की जाए । इस मस्तिष्क को जागृत करने का प्रयास हो...इसके छोटे-छोटे प्रयोग है और वो तुम करो, जैसे त्राटक । योग्य गुरु के सानिध्य में कुछ-कुछ समय तक यदि हम नित्य त्राटक करे तो इससे कुछ अलौकिकता अनुभव अवश्य होगी । दुसरा संगीत, कि हम आलाप सुनें और आलाप में खो जाए. संगीत भोंडा ना हो, उसका विकास से कोई संबंध हो अश्लीलता से नहीं । सबसे श्रेष्ठ प्रकृति, कि तुम प्रकृति में विचरो, हिमालयों को निहारो, वृक्षों को निहारो, वनों को निहारो तृप्ति मिल जाएगी । और इन सबसे भी श्रेष्ठ प्राणायाम, प्राणायाम से भी श्रेष्ठ मन्त्र ।
जैसे लोग माँ सरस्वती के मन्त्रों का जप करते थे : ॐ ऐं ह्रीं ऐं सरस्वत्यै नमः ॥
इस प्रकार से अनेकों मन्त्र है, ये तो एक उदाहरण है । लेकिन जब हम इन मन्त्रों का प्रयोग करते है, जब हम प्राणायाम का अभ्यास करते है, त्राटक का अभ्यास करते है, ध्यान करते है...तो वास्तव में ये सब क्रियाएँ हमें तराशने के लिए है; शायद इस से हमारा मस्तिष्क तीव्र हो सके, शायद हमारा विकास हो सके और विकास तो विकास है; वो दोहरा होता है, एकतरफा नहीं, हमेशा जिसका एकतरफा विकास हुआ है तो वो चातुर्य है, विकास नहीं अर्थात् जब तुम अध्यात्म में विकसित हो, साथ ही साथ भौतिकता में भी विकसित होते जाते हो । जिस ऋषि के पास जितना-जितना तप आता जाता है उसके पास कामधेनु जैसी अनेकों अलौकिक सिद्धियाँ भी तो होती है ! उतना स्वर्ण, धन अथवा रत्न भी तो उसके पास रहता है, उतनी शक्तियाँ भी तो उसके पास रहती है ! तो मूल विषय है कि मस्तिष्क के तन्तुओँ को जरा हिलाना है, झकझोरना है ताकि मस्तिष्क का रोम-रोम, इसके छिद्र-छिद्र चैतन्य हो ताकि हमें गणित भी आए, भाषा का ज्ञान भी हो, हम व्याकरण को भी समज सके, हम धर्म को भी समज सके और भौतिकता को भी ! हर क्षेत्र में हमारा हाथ होना ही चाहिए । ऐसा न हो कि तुम यदि धार्मिक हो तो मात्र मन्त्र, योग अथवा कर्मकाण्ड तक ही सीमित रहो । मैं तो ये कहता हूँ कि यदि एक हाथ में तुम्हारे धर्म है तो उसे मजबूती से थामे रखो और दुसरे हाथ में जगत को भी थामे रखो पर स्वयं दोनों से दूर रहना क्योंकि जो धर्म व्याख्या में आनेवाला है वो फिर दिखावे का होगा, उसका संबंध जगत से है और दोनों बनावटी है और वास्तविक साधना नहीं हो सकेगी । आम तौर पर हम जो प्रवचन देते है अथवा सुनते है वो मात्र या तो देने के लिए होता है अथवा सुनने के लिए ! प्रवचनकर्ता स्वयं ये नहीं जान पाता कि मैने आज क्या-क्या उदाहरण दिये, मैने आज क्या-क्या कहा ! वो तो बस कहता जाएगा और भूलता चला जाएगा क्योंकि उसे तो शब्दों की बनावट से अपना मतलब है और तुम्हें प्रभावित करने से और तुम नयी सामग्री के भूखे हो कि आज क्या नया बताया जाएगा, आज मैँ क्या नया सीख लूँ ! जबकि वास्तविकता से उसका कोई लेनादेना नहीं; इसलिए जब मस्तिष्क प्रखर होगा, इसमें जरा चेतना आएगी तो हम इन छद्म आवरणों से मुक्त हो जाते है और यही तो मैं चाहता हूँ । अब बहूत हो चूके है प्रपंच, तुमने दस साल, पाँच साल, बीस साल, तीस साल तक अपनी साधनाएँ करके देख ली, अपने मन्त्रजप करके देख लिए, अपना योगाभ्यास करके देख लिया; क्या मिला ? सपनें तो तुम्हे बहुत दिखाए थे कि, प्राणायाम कर लो तुम युवा ही रहोगे । तीन साल हो गये, तुम प्राणायाम कर रहे हो लेकिन आज फिर उसी ढर्रे पर लौट आये हो जहाँ पहले थे ! रुपांतरण नहीं हो पा रहा ! देह लगातार क्षय होती जा रही है अब क्या करे ? और जब तक हम इन समस्त बिन्दुओँ पर चर्चा न कर ले...परमात्मा की चर्चा कैसे कर सकते है ! वो परमेश्वर तो परम पुनित है, परम पावन है ! थोडा सा उलटा जरुर सोच लेना क्योंकि तभी तुम सीधे रास्ते पर आओगे । अभी मैं तुम्हे जो बातें बता रहा हूँ इससे तुम्हे थोडा सा विमुख होना है परमात्मा से लेकिन जब तुम थोडा सा विमुख होते हो तभी तुम वास्तविक परमात्मा को जान पाते हो । याद रहे, अभी असली और नकली दो परमात्मा है और अभी तुमने नकली परमात्मा पकड रखा है और उसकी खोज कर रहे हो और खोज का तरीका भी नकली है, तुम्हारा अपना बनाया हुआ है जिसकी कोई वैज्ञानिकता नहीं, जिसकी कोई प्रामाणिकता नहीं । जो बस है...विद्यमान होने के लिए है । लेकिन मैं चाहता हूँ कि तुम्हारा मस्तिष्क इतना विकसित हो जाए जितना योग ने कहा कि, "सहस्त्रों पर्ण जागृत हो जाए !" और ज्युँ ही तुम्हारे सहस्त्रों पर्ण जागृत होंगे...परम प्रज्ञा...परम चेतना तुम्हारे भीतर उतरेगी और अब तुम नकली परमात्मा को पकडे न रखो ! अब शाश्वत यात्रा शुरु होती है । मेरी दृष्टि में तीर्थयात्रा क्या है ? तीर्थ यात्रा है वो यात्रा जिससे सत्य का ज्ञान हो जाए; फिर वो यात्रा चाहे गुरु के घर की हो, गुरु-आश्रम की हो, किस हिमालय के प्रांत की हो, गंगाजी के तट की हो, हरिद्वार, काशी, वृंदावन, मथुरा की हो इससे फर्क नहीं पडता । अगर तुम्हें कसाई के घर जाकर भी ज्ञान मिलता है, तुम सत्य को पा जाते हो तो समजना वो कसाई का घर ही तुम्हारे लिए तीर्थ है और जिस तीर्थ में रहकर भी तुम्हारी चेतना ना जगे तो वो तीर्थ भी तुम्हारे लिए साधारण गाँव है, साधारण स्थलमात्र है और इन सबका संबंध तुम्हारी चेतना, मन और मस्तिष्क से है । इसलिए पागलपन के इस हद को नष्ट करना है; एक पागलपन को खत्म करना है जो जगत का है और दुसरा पागलपन पैदा करना है जो अध्यात्म का है, है तो पागलपन ही...अब परिभाषाएँ अपनी-अपनी हो सकती है । तो छद्म धर्म और वास्तविक धर्म : अंतर तो दोनों में बहुत है लेकिन हम समजने को राजी नहीं, हम सुनने को राजी नहीं । जब कोई सच्चाई कहता है तो हम दोनों उँगलियाँ अपने कानों में रख लेते है, हम सुनना नहीं चाहते । यही वो नकारात्मकताएँ है जिससे हमारा साधनात्मक विकास नहीं हो पा रहा, हम साधना नहीं कर पा रहे और हम अपूर्ण रह जाते है । अतः हमें नये सिरे से खोज करनी होगी । अतः हमें अपने मस्तिष्क को प्रखर करना होगा; इसके लिए जो छोट-छोटे प्रयोग है वे करके देखने होंगे; तभी हम विकसित हो पाएँगे और इन सबका सूत्र ये भौतिक मस्तिष्क है, इसलिए पहले इसकी तरफ ध्यान दो, इस देह को सुदृढ करो, इस देह को मजबूत रखो और इस मस्तिष्क को तीव्र बनाओ, ह्रदय को कुंठाओ से मुक्त बना दो; जैसे ही ये होगा तुम्हारी साधनाएँ तब सफल होंगी, तुम्हारा मार्ग तब प्रशस्त होगा । इसलिए अपनी मूढताओं को समझना, उनका विश्लेषण करना, उनका आँकलन करना अति अनिवार्य है । एकदम तो नहीं हो पाएगा लेकिन प्रयास करोगे तो हो जाएगा, इसलिए नीचली सीडी से ही सही लेकिन तुम प्रयास करने की कोशिश तो करो ! - ईशपुत्र