प्राणायामोँ मेँ सर्वश्रेष्ठ प्राणायाम है उद्गीथ प्राणायाम । उद्गीथ का तात्पर्य होता है जो प्राणोँ से उठनेवाला हो । प्राणोँ से उठनेवाले संगीत को ही उद्गीथ कहा गया है । हमारे भीतर हर क्षण हर पल एक एक ध्वनि गुंज रही है एक नाद गुंज रहा है जिसे अनहद नाद भी कहा गया है । ये अनहद नाद यही जीवन का सार है और इसी अनहद नाद को शब्द कहा गया है और शब्द को ही ब्रह्म अर्थात् भगवान कहा गया है । अनहद नाद ही वास्तव मेँ उद्गीथ नामक ध्वनि है और ये उद्गीथ क्या है ? उद्गीथ की जो ध्वनि है वही ॐकार है । ॐ को ही उद्गीथ कहा जाता है । तो उद्गीथ प्राणायाम का तात्पर्य हुआ वह प्राणायाम जिसमेँ ॐ की ध्वनि की जाती है । मानव जीवन मेँ हमेँ बहुत सी समस्याओँ से लगातार झुझना पडता है । तरह तरह की परेशानियाँ, तरह तरह के रोग सदा हमेँ सताते रहते है । 70 % रोग मात्र चिन्ता, अवसाद के कारण ही हमेँ ग्रसित करते है । यदि हमारा आहार-विहार उचित हो और हम उद्गीथ प्राणायाम के नित्य साधक होँ तो हम अनेकोँ रोगोँ से अपना बचाव कर सकते है । हिस्टीरिया जैसे समस्त रोग मात्र उद्गीथ प्राणायाम करने से नष्ट हो जाते है । हमारी छठी इन्द्रिय उद्गीथ प्राणायाम से विकसित होती है । हम भविष्य मेँ घटनेवाली कुछेक घटनाओँ को देखने मेँ सामर्थ्यवान हो जाते है । इस प्राणायाम को करने से मन हलका हो जाता है । चित्त सात्विक और पवित्र हो जाता है । हमारे शरीर की तरंगधैर्य मेँ वृद्धि होती है, रोगोँ से लडने की क्षमता मेँ भी अभूतपूर्व विकास होता है । बुद्धि तीव्रतर होती जाती है । लेकिन प्राणायाम के साधकोँ को अपने स्वास्थ्य का हमेशा ध्यान रखना चाहिए । कई बार आरंभ मेँ जब साधक प्राणायाम का अभ्यास करता है तो वह हल्का बुखार अनुभव कर सकता है ऐसी परिस्थिति मेँ आप तुलसीपत्र और काली मिर्च समान मात्रा मेँ ले लेँ, उन्हेँ पीसकर शहद के साथ एक चम्मच भर उनका सेवन करेँ, जिससे प्राणायाम जनित किसी भी प्रकार का विकार तुरंत दूर हो जाता है । आरंभ मेँ जब भी कोई साधक प्राणायाम का अभ्यास करता है विशेषतः शीत ऋतु मेँ.. तो वह अपने शरीर को टूटा हुआ भी अनुभव कर सकता है । ऐसी परिस्थिति मेँ भी साधक को आँवले और मिश्री का सेवन करना चाहिए । उद्गीथ प्राणायाम को करने से आधासीसी नामक रोग भी दूर होता है । यदि आपके आधे सिर मेँ लगातार दर्द रहता हो तो आप उद्गीथ प्राणायाम को लगातार करते रहे और साथ ही साथ शहद को गुनगुने पानी के साथ अपने आहार मेँ सुबह और शाम नित्य प्रयुक्त करेँ । जिससे आधासीसी नामक रोग शीघ्र दूर होता है । उद्गीथ प्राणायाम व्यक्ति को ध्यान की गहराईयोँ मेँ ले जाता है । यह प्राणायाम अपने आप मेँ एक पूर्ण प्राणायाम है । जो की मंत्र के बीज का संपुट लिये है और साथ ही ध्वनियोग भी अपने आप मेँ है । अतः व्यक्ति धीरे धीरे निर्विचार अवस्था तक पहुँचता है और साथ ही साथ वह ध्यान की गहराईयोँ तक पहुँचने मेँ सक्षम हो जाता है । उद्गीथ प्राणायाम प्राणोँ से उठता है, क्योँकि जो अनहद नाद भीतर चल रहा है उसके भीतर जो मूल ध्वनि है वह ॐकार है । हमारे भीतर सप्त चक्र है मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा और सहस्त्रार कमलदल । इन सप्तचक्रोँ मेँ से आज्ञा नामक चक्र पर ॐकार नाम का बीजमन्त्र विद्यमान है और स्वभाव से ही हमारे शरीर मेँ जिसे हम छठी इन्द्रिय कहते है आज्ञाचक्र वह कुछ ज्यादा ही जागृत रहता है अन्य चक्र निष्क्रीय अवस्था मेँ है लेकिन आज्ञाचक्र जिसे हम छठी इन्द्रिय कहते है उसमेँ अन्य चक्रोँ की अपेक्षा अधिक स्पंदन रहता है । अतः जब साधक आज्ञाचक्र पर ध्यान लगाते हुए ॐकार का जप करता है और उद्गीथ प्राणायाम करता है तो वह दिव्य शक्तियोँ का स्वामी होता है । अनेक रोग पल मेँ ही नष्ट होते है और रोगोँ से लडने की क्षमता मेँ अभूतपूर्व वृद्धि चली जाती है । हमारे मस्तिष्क के दो भाग है दायाँ और बायाँ मस्तिष्क । यदि दोनोँ तीव्रता से कार्य करे तो हम अपने जीवन मेँ एक सफल व्यक्तित्व के रुप मेँ उभर सकते है यदि हमारी यादास्त मंद पड रही हो, यदि हम सभी विषयोँ का स्मरण नहीँ रख पाते हो तो ऐसी स्थिति मेँ हमेँ उद्गीथ प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए क्योँकि जैसे जैसे आप ध्यान मेँ उतरते जाते है मस्तिष्क के चारोँ ओर आपको एक दिव्य आभामंडल एक दिव्य चक्र प्रतीत होगा और जैसे जैसे आप उस दिव्य चक्र पर भी ध्यान लगाना शुरु करते हो वैसे वैसे दाँया और बाँया मस्तिष्क जागृत होता चला जाता है जिस से आप अद्भुत प्रज्ञा के स्वामी बनते हो ।
उद्गीथ प्राणायाम...जैसे की नाम से ही विदित है कि जो भीतर प्राणोँ से उठनेवाला संगीत है वो उद्गीथ कहलाता है । लेकिन ये प्राणोँ के भीतर से केवल मेरे प्राणोँ के भीतर से नहीँ उठता, केवल आपके प्राणोँ के भीतर से नहीँ उठता.. ये तो हिरण्यगर्भ के प्राण है.. ये तो उस ब्रह्म के प्राण है...ये कहने मेँ विचित्र अवश्य लगता है लेकिन एक विशुद्ध चित्त योगी इसे समझता है । जब इस ब्रह्माण्ड की मौलिक ध्वनि पहली बार उत्पन्न हुई तो वो उद्गीथ थी, ॐकार थी.. उसी से संपूर्ण सृष्टि व्याप्त है और निरंतर ये अनहद नाद निरंतर बजता चला जाता है । तो इसी ॐकार को हम "शिव" भी कहते है । इसलिए "महादेव" को ॐकार स्वरुप मानकर समस्त शास्त्रोँ नेँ उनकी वंदना की है । और योगियोँ के लिए वो आदर्श है और इसलिए योगी अपने भीतर भी उसी ॐकार नाद को पाते है । शैव परंपरा मेँ ये उद्गीथ प्राणायाम सर्वप्रथम महादेव के द्वारा ध्वनिपुंज के रुप मेँ प्रदान किया गया...हालाँकि जब ये सृष्टि उत्पन्न हुई तब से अगोचर और कर्णोँ से उस पारवाली इस उद्गीथ ध्वनि को मनुष्य सुनने मेँ और जानने मेँ सामर्थ्यवान इन्द्रियोँ के माध्यम से नहीँ था । इसलिए महादेव नेँ अ, उ और म् इन तीन बीजोँ को संयुक्त करके सर्वप्रथम इसे पृथ्वी पर देवी शक्ति के द्वारा प्रस्फुरित किया है...और तब उत्पन्न हुआ भौतिक रुप से, शाब्दिक रुप से एक पुंज, एक ध्वनि जिसे उद्गीथ कहा गया । लेकिन शिव नेँ योग आगम का ज्ञान देते हुए ये कहा देवी को कि, "ये जो उद्गीथ है वो बाहरी शब्द है लेकिन इसका असली नाम सुनने के लिए तुम्हेँ भीतर उतरना होगा ।"...तो देवी नेँ पूछा, "कैसे ?"...कहा "उद्गीथ प्राणायाम के द्वारा...।" तब पहली बार ये उद्गीथ प्राणायाम सामने आया । इसी कारण हम पहले उद्गीथ प्राणायाम मेँ ॐकार की ध्वनि करते है लेकिन ये ॐकार की ध्वनि आपको भीतर के अनहद नाद तक ले जाती है । यही एक छोटा सा रहस्य है उद्गीथ प्राणायाम का..लेकिन बहुत कम लोग ये जानते है कि उद्गीथ प्राणायाम का एक रंग भी होता और उद्गीथ प्राणायाम करनेवाले अभ्यासी को एक स्वाद भी अनुभव होता है ! इसी तरह सभी प्राणायामोँ मेँ उसके रंग, उसके स्वाद, उसके तत्त्व और उसके इष्ट होते है ! तो आपको योग्य गुरु के सानिध्य मेँ बैठकर ऐसे प्राणायामोँ का अभ्यास करके इन्हेँ साधना चाहिए ।
उद्गीथ का तात्पर्य होता है : जो आपके प्राणोँ से निकले वह उद्गीथ हुआ, अर्थात् प्राणोँ को झंकृत करनेवाला । इसमेँ सहज श्वास खींचकर मुख से ॐकार का जप करना है और हाथोँ से ज्ञानमुद्रा बनाये रखनी है और ध्यान आज्ञाचक्र पर रखना है । उद्गीथ प्राणायाम से शरीर मेँ "अलौकिक आभामण्डल" का विकास होता है और उस आभामण्डल के विकास से व्यक्ति के भीतर अनन्य शक्तियोँ का विकास होता है । मानव के भीतर मानवीय गुण पनपते है, मानव पशुवृत्तियोँ से उँचा उठकर "मनुष्यत्व" को उपलब्ध होता है और मनुष्यत्व को त्यागकर पुनः "देवत्व" को उपलब्ध होता है । उद्गीथ प्राणायाम वास्तव मेँ "अनहद नाद" का बाह्य प्रारुप है अर्थात् "हद नाद" है । भीतर हमारे अन्तःकरण मेँ हमेशा ॐकार की ध्वनि चलती रहती है ।"
ॐ" यानि ओंकार ही महानाद है। ओंकार की साधना, नाद की साधना सबसे सरल योग है। "ॐ" ही स्वयं "महादेव शिव" हैं। ओंकार जीवन को अध्यात्म से जोड़ देता है और जीवन में प्रसन्नता और प्रेम को पल्लवित करता है। "महाहिमालय" के सभी सिद्धों का ध्यान केवल ओंकार यानि ॐ में ही निहित है। ॐ ही "महासमाधि" है। " - ईशपुत्र