सोमवार, 22 फ़रवरी 2021

साधना मार्ग : हिमालय में तप भाग - 2

हम लगातार साधना करते जाए और उससे प्राप्त होने वाले अनुभवों को भीतर संजोते चले जाएं। तप में एक और प्रणाली भी है, कि हम जिस स्थान पर खड़े हो जाए वही नेत्र मूंदकर अपने आसपास के वातावरण को अनुभव करने का प्रयास करें, शरीर पर आने वाली ठंडी हवा को हम अनुभव करें, वातावरण में होने वाले शोर को हम मौन होकर सुनते चले जाएं, हम अपने मन को विश्राम दे दे, एक निर्जीव प्राणी की भांति अथवा एक पाषाण की भांति हम बस मौन होकर खड़े रहे और जो भी आसपास घटित हो रहा है उसे सुनते चले जाए।
जब हम इस प्रक्रिया के माध्यम से वातावरण को भीतर उतरने का अवसर देते हैं तो प्रकृति का संदेश धीरे-धीरे भीतर उतरता चला जाता है, साधक मानों इस संपूर्ण परिवेश से इस प्रकृति से संवाद स्थापित कर पाता है और उसी के माध्यम से वह अलौकिक तत्व की प्राप्ति कर पाता है। प्रकृति भिन्न है, कभी उष्णता तो कभी अति शीतलता होती है, साधक अपने आप को इतना दृढ़ बनाए कि उसे ना तो शीतलता नाही उष्णता व्यग्र कर सके, वह धीरज बांधकर अपने मन पर नियंत्रण करने का प्रयास करें।

मंत्र मन को बांधने का सर्वोत्तम माध्यम है। यदि हम सर्वप्रथम साधना में सीधे खरे न उतर पाए तो किसी एक मंत्र को गुरु से प्राप्त कर उसका मानसिक जप करना चाहिए, किसी एक स्थान पर खड़े होकर लगातार मंत्र का जप करना अथवा गुरु मंत्र का जप करना अपने आप में तप का एक श्रेष्ठ प्रकार है। मंत्र लगातार आपके मन की वृत्तियों को स्तंभित करता चला जाता है, आप धीरे-धीरे मंत्र के तेजपुंज में समाहित होते चले जाते हैं फिर आप मात्र मंत्र और उसकी दिव्य संरचना के भीतर अपने आप को समाहित पाते हैं! धीरे-धीरे स्वयं को विलीन हुआ पाते हैं और शेष रह जाता है बस मंत्र! लगातार मंत्र की लय दिव्य ऊर्जा पुंज का निर्माण करती है, वही ऊर्जा महासमाधि की ओर साधक को प्रेरित करती है! अतः गुरु प्रदत मंत्रों के माध्यम से निरंतर साधना में डूबते चले जाना यह तप की ही एक विधा कहलाती है। साधक को चाहिए कि वह मंत्र के माध्यम से भी अपने मन को स्तंभित करने का प्रयत्न करें और साधना मार्ग पर आगे बढ़े।

साधक बहुत जल्दी साधना मार्ग से पलायन करने की सोचता है क्योंकि जब तक हम गुरु के पास बैठकर मात्र प्रवचन सुन रहे हो तब तक यह मार्ग अत्यंत रम्य और सुंदर प्रतीत होता है लेकिन ज्यों ही हम अभ्यास पर उतरते हैं तो यह जटिल मार्ग कठोर अवश्य लगता है लेकिन बात कुछ दिनों की होती है, जब साधक प्रकृति के मध्य रहकर उसके साथ संबंध स्थापित करता है तो उसे अत्यंत प्रसन्नता होती है फिर मानों प्रकृति उसका साथ देने के लिए आतुर लगती हो, मानों प्रकृति का रोम-रोम सार्थक को उर्जा देना चाहता है साधक उसे अनुभव करता है। गुफाओं के भीतर किसी विशेष आश्रय स्थल में बैठकर श्वास लेने के पश्चात कुंभक कर श्वास पर नियंत्रण करते जाना...उसे रोककर रखना साधक को समाधि मार्ग में ले जाता है! यह भी प्राणायाम का ही एक प्रकार है गुफाओं, पर्वतों, कंदराओं ऐसे स्थानों पर साधना करना साधक को उच्चता प्रदान करता है, सनातन परंपरा ने अनुभव से यह जाना की दिव्य कुंडलिनी शक्ति ऐसे स्थानों पर शीघ्र जागृत होती है, व्यक्ति सत्व गुण को शीघ्र प्राप्त कर पाता है! तब उसके भीतर दिव्यता स्वयं हिंडोले लेने लगती है! साधना काल में बाहर से तो साधक बिल्कुल शांत और स्थिर नजर आता है... भीतर हो रहे अनेकों अनेक परिवर्तनों का वह स्वयं साक्षी होता है। अपने अनुभव को साधक यथासंभव गौण रखें, यदि कोई विचलित करने वाला अनुभव हो तो उसे श्री गुरु के चरणों में निवेदित कर देना चाहिए। हम साधना के नाम पर मात्र विश्राम की मुद्रा ही धारण करते हैं लेकिन विश्राम की मुद्रा के भीतर होने वाली क्रिया बहुत उत्तेजित करने वाली होती है! साधनाएं भीतर द्वंद्व पैदा करती है, तीतर ऊर्जा का विस्फोट करती है; तब साधक का मन कहता है कि वह पलायन कर जाए! वह इस वातावरण में स्वयं को जोड़ नहीं पाता लेकिन धीरे-धीरे सतत अभ्यास करने के परिणाम स्वरुप वह ब्राह्मी प्रज्ञा को जागृत करने में सफल हो सकता है!

प्रतीक्षा करते रहना, फल की चिंता ना करना साधना पथ के सूत्र है और साधक को चाहिए कि जब वह इस क्लिष्ट मार्ग में थक जाए तो वह पुनः श्री गुरु के चरणों में जाएं; गुरु की दिव्य वाणी... दिव्य प्रेरणा उसे पुनः साधना करने के लिए प्रेरित करती है! साधना का ऐसा सोपान जीवन की श्रेष्ठता है जहां हमें प्रकृति का अनूठा साथ मिलता है! जहां हम अपने वास्तविक स्वरूप में लौट आते हैं! वहां दिव्या ब्रह्मांडीय रश्मियां स्वयं हमारे कानों में गूंजने लगती है! साधना पथ पर धीरे-धीरे आगे बढ़ते रहने से अनुभूतियों के पश्चात व्यक्ति दिव्य शक्तियों की ओर अग्रसर होता है, उसके भीतर कवित्व की शक्ति जागती है, उसके भीतर दिव्यतेज का प्रादुर्भाव होता है! वह गीत, संगीत, नृत्य जैसी विधाओं को भीतर ही भीतर जन्म देने लगता है! साधक की सोच में क्रांतिकारी परिवर्तन आता है! कुछ समय के लिए वह इस जग से कट जाना चाहता है!
- महासिद्ध ईशपुत्र